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Jan 28, 2017

पाती

एक पत्र पोते के नाम 
- गोवर्धन यादव
प्रिय,
दुष्यंत
मेरा आशीर्वाद।
इस समय तुम अपने लक्ष्य निर्धारण को लेकर योजनाएँ बना रहे होंगे। मेरी एक बात याद रखें कि जीवन में आर्थिक, भौतिक रूपी उच्च पदों को लक्ष्य बनाना बुरी बात नहीं है। यदि किसी के कहने से या फिर किसी को दिखाने के लिए बनाया गया लक्ष्य कुएँ में या खाई में गिरने जैसा होगा। इसका चुनाव अपनी क्षमता, योग्यता एवं मूल्यों के आधार पर सोच-विचारकर ही चुनना चाहिए। चुनाव के बाद इसे बार-बार बदलना ठीक नहीं है। इस बात को हमेशा ध्यान में रखें कि लक्ष्य की कीमत जीवन के बराबर हो, इससे हल्की न हो। लक्ष्य क्षमता के लिए चुनौती पैदा करने योग्य होना चाहिए। अपनी क्षमता के अनुरूप ऐसे लक्ष्य का निर्धारण करना चाहिए, जिसे प्राप्त किया जा सके। भले ही इसे प्राप्त करने में चुनौती का सामना करना करते हुए संघर्ष क्यों न करना पड़े।
मनुष्य होने पर जीवन की चुनौती बनी रहेगी। इसे किसी तरह से नकारा नहीं जा सकता. जीवन की चुनौती को स्वीकार करके उसके रहस्य को उपलब्ध कर लेना भले ही कठिन हो, परन्तु असंभव नही है। लक्ष्य हमारी आन्तरिक शक्तियों को जाग्रत करता है। हमारी सुप्त शक्तियाँ लक्ष्य पाकर पुष्पित-पल्लवित होने लगती है और हमारा जीवन हर तरह की चुनौतियों और अवरोधों को पार कर अपनी इच्छित मंजिल को प्राप्त कर लेता है. जब हम श्रेष्ठ लक्ष्य की ओर बढ़ने लगते हैं,  तो हमारी आंतरिक चेतना विकसित और परिष्कृत होती है। हमे ऐसा लक्ष्य चुनना चाहिए, जिसके प्रति मन रम जाए।
जिन्दगी है तो समस्याएँ बनी ही रहेंगी। समस्याएँ हमेशा के लिए समाप्त हो जाएँ, इसमें पूरी ताकत झोंक देने से अच्छा है कि समाधान की कला सीखने में ऊर्जा लगायी जाए। समाधान का एक नाम उपाय ही है। अत: उपाय के बारे में गंभीरता से सोचना चाहिए। हमेशा यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि बुद्धिमान व्यक्ति अपनी बनाई राह पर चलते हैं। प्रतिभा जहाँ चलती है, वहीं पथ बन जाता है और वे अपने लिए एक नया परिणाम गढ़ते हैं।
यह काम करने का समय है लेकिन कर्मयोग को उत्सव की तरह मनाएँ. जीवन का आनन्द उत्सव में है, काम में नहीं। जो लोग कर्म को काम की तरह करते हैं, वे जीवन को तनाव से भर लेते हैं। यदि कर्म को उत्सव की तरह किया जाए तो उत्साह और आनन्द दोनों बने रहेंगे। जो बातें मन को विपन्न और कुंठित बनाती हैं, उन्हें अपने पास $फटकने मत देना। कुंठित मन का मतलब है, कुंठित व्यक्तित्व। आत्म-नियंत्रण की शुरुआत इसी विचार से होती है। यही विचार जब हमारा स्वभाव बन जाए तो धीरे-धीरे सारा शरीर उसे आत्मसात् कर लेता है। संयत विचार से मानसिक क्रिया को नियंत्रित कर सकें तो जीवन की समस्त परिस्थितियों का सामना करने में हम सक्षम हो सकते हैं।
याद रखें-जीवन में निष्ठा एक परिपक्व और एकत्रित मन की अभिव्यक्ति है। निष्ठा चेतना की अखंड पूर्णता को इंगित करती है। मन की सम्पन्नता को दर्शाती है। एक विभाजित मन इंसान को दिमागी बीमारी की ओर ले जाता है और शारीरिक तथा मानसिक विकार लाता है। याद रखें-निष्ठा ही सच्चा बल है, और सृष्टि भी इसी का साथ देती है।
शक्ति और विवेक हर एक काम के लिए जरुरी है। शक्ति और विवेक को जाग्रत करने का सही तरीका है कि आप अपने वर्तमान पलों का इस्तेमाल भरपूर मन से, अपनी सम्पूर्ण बुद्धिमत्ता के साथ करें कभी मन में इस तरह के भ्रम को न पालें कि हममें शक्ति और विवेक नहीं है। अपने पूरे तन-मन से अपना कोई भी काम करके देखें, आपका हरेक पल लीभूत होगा।
इंसान की बुद्धि की विशेषता है- तर्क करना। तर्क यदि तथ्यपरक न भी हो तो व्यक्ति का दिमाग अपने ही मकडज़ाल में उलझ जाता है। यह स्थिति बड़ी विषम और ऊहापोह भरी होती है। ऐसे में ही वैचारिक द्वंद्व पनपता है। द्वंद्वमय मन शंकाशील एवं संदेहमन हो जाता है एवं जीवन तनावपूर्ण बन जाता है। मन को सकारात्मक सोच पर चलाना और बुद्धि को सही चीजों का चुनाव करना आना चाहिए। जीवन में परिस्थितियाँ और प्रारब्ध सदैव द्वंद्व पैदा करते हैं द्वंद्व जीवन में न आए, ऐसा संभव नहीं है, परन्तु हमें उबरना आना चाहिए। इसमें फँसकर औरो को कोसने की अपेक्षा कुशलतापूर्वक इससे निकल जाना ही श्रेयस्कर है। यह मजबूत मानसिकता का परिचायक है, जिसका बौद्धिक संपदा के रूप में बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता है।
जब व्यक्ति द्वंद्व से परे और पार होना सीख लेता है, तो वह अपनी अभिरुचि को, अपने लक्ष्य के अनुरूप, सही बिंदु तक ले जाने में सक्षम हो जाता है, ऐसे में बौद्धिक बिखराव से बचा जा सकता है तथा विषय केंद्रित होने में सहायता मिलती है। अपनी बौद्धिक क्षमता को सबसे पहले किसी विषय की गहराई में लगाना चाहिए और फिर उसके विस्तार में जाना चाहिए। इससे विषय की बारीकी के साथ उसके अनेक पहलुओं के बीच सम्बन्ध स्थापित किया जा सकता है। इस प्रकार कई नए आयाम विकसित होते हैं। जिन्दगी में भटकाव और बिखराव न हो, इसके लिए अपने निर्दिष्ट लक्ष्य के अनुरूप मन की गति बनाए रखने में बुद्धि की अहम भूमिका है।
इस संघर्षपूर्ण जीवन में आपकी सफ़लता का यही एकमात्र मापदंड है कि आप कितने विरोध, कितनी भ्रांतियों और कितनी विपदाओं का सामना कर सकते हैं। आपने जीवन में अडिग रहकर कितना सहन किया है, यही आपकी जीवटता की परख है। अगर आप शिकस्त पर शिकस्त सहकर भी अपना अपना संघर्ष जारी रखते हैं, अगर आप जीवन के अंधकारमय दिनों में भी अपने साहस की पताका ऊँची रख सकते हैं, तो फ़िर कोई दुश्मन भी आपको हरा नहीं सकता।
साहस क्या है? यह अनुभूति की शक्ति से उत्पन्न होने वाला विश्वास है। यह किसी संकट से जूझने का अदम्य निश्चय है। आत्मसम्मान, आत्माभिमान और आत्मविश्वास से हम साहस की भावना विकसित कर सकते हैं। कोई भी बात, जो हमारी योग्यता में हमारे विश्वास को दृढ़ बनाती है, वह हमारा साहस बढ़ाती है। जिस आदमी में आत्मविश्वास नहीं, वह साहसी नहीं हो सकता। किसी काम को करने का सामथ्र्य साहस नहीं है।  साहस उस काम के प्रति अपना रवैया है और वह सफ़लता-असफ़लता की विभाजन रेखा है। कोई व्यक्ति किसी काम को भली- भांति कर सकता है, लेकिन अगर वह उसे अनिश्चयपूर्ण मन से डरते- झिझकते शुरू करता है, तो आधी बाजी उसी समय हार देता है। अत: जीवन में यह ध्यान बना रहे कि तैयारी से भी साहस बढ़ता है।
इंसान में सही समझ तभी आती है, जब उसका मन बिलकुल शांत होता है, चाहे वह पल भर के लिए ही क्यों न हो। जब मन में विचारों का कोलाहल न हो। तब सही समझ की कौंध होती है। आप भी यह प्रयोग करके देखें तो पाएँगे कि जब मन एकदम निश्चल हो, जब उसमें विचारों की विद्यमानता न हों, उसके कोलाहल से मन बोझिल न हो, तब समझ की दमक, अंतर्दृष्टि की एक असाधारण चमक की अनुभूति होती है। इस प्रकार किसी के बारे में समझ, चाहे वह चित्रकला के बारे में हो, किसी सजीव या निर्जीव वस्तु के बारे में हो, तभी आ सकती है, जब हमारा मन सभी तरह के विचारों से दूर, बिलकुल शांत ढंग से उसी पर टिका हो। परन्तु मन की इस मौन निश्चलता का संवर्धन नहीं किया जा सकता क्योंकि यदि आपका निश्चल मन को संवर्धित करेंगे तो निश्चल नहीं,, चल मन होगा।
दरअसल जिस चीज में आप जितनी अधिक रुचि लेते हैं, उतनी ही अधिक उसे समझ लेने की आपकी दत्तचित्तता बढ़ जाती है। मन उतना ही सरल, स्पष्ट और मुक्त हो जाता है। तब शब्दों का कोलाहल थम सा जाता है। आखिर विचार शब्द ही तो होते हैं और यह शब्द ही हैं जो हस्तक्षेप करते हैं। स्मृति रूप में यह शब्द पट ही है जो किसी चुनौती और उसके प्रत्युत्तर  में ही की जा रही क्रिया के बीच आ कूदता है। यह शब्द ही है जो चुनौती का प्रत्युत्तर देता है, जिसे बौद्धिक प्रक्रिया कहते हैं। आखिरकार जो मन शब्दों के जंजाल में उलझा हुआ हो, वह सत्य को भी नहीं समझ पाता।
आशा ही नहीं अपितु मेरा अपना विश्वास है कि अब आपके सामने सारे चित्र/ मंत्व्य स्पष्ट हो चुके होंगे। मुझे तो यह भी विश्वास है कि अब आप अपने जीवन में संतुलन कायम करते हुए और कर्म करते हुए तनाव को तिलांजलि दे सकेंगे।
मेरा स्नेह और आशीर्वाद तुम्हारे साथ है।
आपका
- दादा
सम्पर्क: 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा (म.प्र.) 480-001, 94243-56400          

1 comment:

goverdhanyadav said...

जी...नमस्कार.
पत्र प्रकाशन के लिए हार्दिक धन्यवाद.
आशा है, सानन्द-स्वस्थ हैं.
भवदीय-यादव