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Mar 1, 2022

महिला दिवस- अरी ओ नारी!


 - डॉ. शिप्रा मिश्रा

  जहाँ जीवन की सारी संभावना, समाप्त हो जाती हैं, वहीं से अदम्य साहस और अपरिमित ऊर्जा के साथ नारी का जन्म होता है। प्रकृति ने तो उसे सर्वशक्तिमान बना कर ही भेजा है; परन्तु अफसोस! वह अपनी शक्ति को पहचानती ही नहीं। उसे तो जन्म लेने का भी अधिकार नहीं। फिर किस अधिकार की बात करें हम? पुस्तकों की बातें तो जाने ही दें, हमें व्यवहार में भी उसकी क्षमता पर हमें विश्वास नहीं। किसी तरह जन्म ले भी लिया, तो उसके अस्तित्व पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है। अनुभव की बातें हैं- वह अपने ही लोगों द्वारा छली जा रही है। आज की नारी दोराहे पर खड़ी है। गरिमा की रक्षा करती है, तो अधिकार विहीन हो जाती है, अपने अधिकारों को पाने के लिए संघर्ष करती है, तो उसकी गरिमा को छीनने की कोशिश होती है। हर पल संघर्ष उसके जीवन को निराशाओं से भर देता है। संघर्ष उसके जीवन का हिस्सा बन चुका है। वह एक बेटी भी है, बहन भी है, पत्नी भी है, माँ भी है। अपने सुखों का, अधिकारों का जीवनपर्यंत त्याग करती है। जिस शोषण और प्रताड़ना से उसके जीवन का आरंभ होता है, अंत भी बहुत सुखद नहीं होता। आज भी क‌ई ऐसे परिवार हैं, जहाँ बेटी के हिस्से की रोटी बेटों को दी जाती है। उसके खिलौने खरीदे जरूर जाते हैं; पर उससे खेलता उसका भाई ही है।

  घर में अगर कोई तीज-त्योहार, उत्सव होता है तो उस दिन उस घर की लड़कियों का स्कूल जाना बंद ही कर दिया जाता है। क‌ई ऐसी प्रतिभाशाली छात्राएँ अपने घरेलू कार्यों के कारण स्कूल-कॉलेज नहीं जा पातीं। अपने ही घर में वह बाल-श्रमिक बनने के लिए विवश हैं। तो फिर यह कहाँ का न्याय है इस आधी आबादी के साथ? आज भी लड़कियों के स्वास्थ्य पर बहुत ध्यान नहीं दिया जाता। जिस बालिका को आज समुचित पोषण नहीं मिलता, वह भविष्य में भला कैसा सृजन करेगी? एक नारी चाहती है एक सुंदर, स्वस्थ, स्वच्छ समाज का निर्माण करना; पर उसके इस कार्य के लिए पारिवारिक सदस्यों का सहयोग नहीं मिलता और वह आज भी आसानी से इमोशनल ब्लैकमेलिंग की शिकार होती है।

  एक समय ऐसा था कि गाँव की कोई भी लड़की स्कूल नहीं जाती थी। गाँव की महिलाओं की स्थिति बहुत बदतर थी। रोज उनके साथ जानवरों जैसा बर्ताव किया जाता था। मार-पीट, गाली-गलौज तो उनके जीवन का हिस्सा बन गया था। आज हमारे गाँवों की स्थिति बहुत बदल गई है। घर-घर की लड़कियाँ स्कूल जाने लगी हैं। मार-पीट की घटनाओं में भी बहुत कमी हुई है।

  महिलाओं के साथ एक और चुनौती उसकी सुरक्षा की भी है। वे आंतरिक साहस और ऊर्जा से भरपूर होने के बावजूद अभी भी घरेलू हिंसा की शिकार है। बिहार के मुख्यमंत्री जी का धन्यवाद है राज्य में पूर्ण शराबबंदी की घोषणा करके इस आधी आबादी को नया जीवन दिया है। महिलाओं के जीवन में यह एक बड़ी उपलब्धि है, एक क्रांति का कार्य कर रहा है, जिसका महिलाओं ने भरपूर स्वागत किया है।

  वृद्ध महिलाओं की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है। उनके जीवन का वसंत भी बिल्कुल रंगहीन है। जिनके जीवन को वसंत के रंगों से भरना भी हम सब की जिम्मेदारी है। ऐसी बहुत सारी महिलाएँ वृद्धावस्था में उपेक्षित जीवन जी रही हैं-सड़कों पर, तीर्थस्थलों पर, अपने ही घर में उपेक्षित। उन वृद्ध महिलाओं के पेंशन पर उनके बेटे-बहू, परिवार के अन्य सदस्य विलासिता में जी रहे हैं। पेंशन का पैसा उनके हाथ में आता जरूर है;  पर उनके पास रहता नहीं है। कानून का भरपूर सहयोग उन्हें मिले, इसके लिए भी सभी का प्रयास करना बाकी है। अपनी दुर्बलता से, सामाजिक लोक-लज्जा से वे इस कानून का सहारा नहीं ले पातीं। कहने को तो बेटियों को भी माँ-बाप की संपत्ति पर पूरा अधिकार है पर यह सब केवल कागजी बातें हैं। माँ-बाप की जिम्मेदारी अगर बेटियों को दे दी जाएँ;  तो शायद ही वे कभी अपनी ओर से चूकें।

  कहा जाए तो विश्व के अन्य देशों से भारत में महिलाएँ अधिक सुरक्षित एवं सम्माननीय हैं पर अभी भी आँकड़े संतोष जनक नहीं हैं। स्त्रियों के क‌ई दुखदायी पहलुओं से हम अभी भी अछूते हैं, जो बहुत ही त्रासद एवं क्रूरतापूर्ण है, प्रताड़ित हैं। इस क्षेत्र में अभी बहुत कुछ करना शेष है।

सम्पर्कः दहियांवां, छपरा, बिहार, मो. 9472509056

2 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

समाज मे महिलाओं की स्थिति और नियति को लेकर आज भी कई प्रश्न परेशान करते हैं।तमाम प्रयासों के बावजूद भी नारी को अभी भी वह स्थिति प्राप्त नहीं हुई जिसकी वह अधिकारिणी है-इन्हीं प्रश्नों को उठाता हुआ सुंदर आलेख।डॉ. शिप्रा मिश्रा जी को बधाई।

Sudershan Ratnakar said...


संविधान में दिए गए अधिकार नारी को नहीं मिलते जिसकी वह अधिकारिणी है । वह आज भी अंध कूप में हाथ-पाँव मार रही है। जो हाथ आ गया वह ठीक, उसीसे संतुष्ट हो जाती है। पर कब तक? बहुत सुंदर आलेख। बधाई शिप्रा मिंश्रा जी