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Jul 12, 2010

कानून के जंगल में न्याय का अकाल

कानून के जंगल में न्याय का अकाल
 - डॉ. रत्ना वर्मा
न्याय कानून रुपी वृक्ष का फल है। हमारे यहां कानून का जंगल खड़ा हो रहा है पर किसी भी वृक्ष में फल नहीं लगता क्योंकि असलियत यही है कि सरकार और प्रशासन कानून बनाकर अपने को सुरक्षित करते हैं। आजादी के पहले राजा राज्य करता था इसलिए राजा के मुंह से निकला हर शब्द कानून होता था। अब न राजा रहे न राज। अब जनतंत्र का युग है। तो जनतंत्र में कौन राज्य करेगा। कहा जाता है कि जनतंत्र में कानून का राज्य होता है। हम जनतांत्रिक देश हैं। आइए जायजा लें कि हमारे यहां कानून के राज्य का क्या हाल है। कुछ एकदम ताजे उदाहरण ये हैं-
- देश की राजधानी दिल्ली में असिसटेन्ट कमिश्नर सेल्सटैक्स ने अपनी वृद्ध विधवा मां को बेदर्दी से मारा- पीटा और ऊपरी मंजिल से धक्का दे दिया। वृद्ध महिला का सर फट गया और वह गंभीर रूप से घायल हो गई। उनके पुत्र असिसटेन्ट कमिश्नर साहब गंभीर रूप से घायल अपनी मां के पास खड़े होकर चीख रहे थे कि वह मां के मर जाने पर ही वहां से हटेंगे। असिसटेन्ट कमिश्नर साहब बहादुर को शिकायत है कि उनकी वृद्ध मां ने ग्यारह बच्चो को क्यों जन्म दिया। जब आहत मां की बेटियां पुलिस थाने में इस जानलेवा हमले की प्राथमिकी लिखाने गईं तो पुलिस ने प्राथमिकी लिखने से इंकार कर दिया। क्योंकि अपराधी उच्च सरकारी अधिकारी है। यह तो जानी हुई बात है कि कानून के मुताबिक अपराध तभी साबित होता है जब उसके बारे में थाने में प्राथमिकी पंजीकृत हो जाए।
- हरियाणा के डायरेक्टर जनरल पुलिस एक किशोरी के साथ यौन उत्पीडऩ करते हैं तो घटना के आठ वर्ष बाद उच्च नयायालय के आदेश पर थाने में प्रथमिकी दर्ज होती है। इस बीच में पीडि़त किशोरी डीजीपी द्वारा लगातार प्रताडि़त किए जाने के कारण आत्महत्या कर लेती है। इस मामले में जब उन्नीस वर्ष बाद निचली अदालत का फैसला आता है तो इस अपराधी वरिष्ठ पुलिस अधिकारी को सिर्फ 18 महीने की साधारण सजा देकर मामले की इति कर दी जाती है।
- भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी में विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक दुर्घटना होती है जिसमें हजारो गरीब स्त्री- पुरूष, बच्चे और अनगिनत जानवर मारे जाते हैं तथा फैक्टरी के क्षेत्र में भूमिगत जल खतरनाक रुप से संक्रमित होकर जहरीला बन जाता है। इस मामले में छब्बीस वर्ष बाद सबसे निचली अदालत का फैसला जो आता है उसमें इस दुर्घटना के जिम्मेदार भारतीय व्यक्तियों को सिर्फ दो वर्ष की मामूली सजा देकर न्याय की इति मान ली जाती है। ध्यान रहे कि मुख्य आरोपी जो एक अमरीकन नागरिक है उसे कानून के दायरे से पूर्णतया बाहर रखा जाता है।
इस प्रकार के असंख्य उदाहरण हमारे देश में नित्य पैदा होते हैं।
रोज ही समाचार आते हैं कि पुलिस कर्मियों के पुत्र और रिश्तेदार तथा पुलिस कर्मी स्वयं धड़ल्ले से चोरी, डकैती, बलात्कार जैसे संगीन अपराध करते हैं। आईएएस एवं अन्य वरिष्ठ सरकारी अधिकारी के घर में सैकड़ो करोड़़ रूपए की रिश्वत की धन राशि पकड़े जाते हैं। हद तो ये है कि उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी अब बेदाग नहीं रहे। जहां तक राजनीति से जुड़े व्यक्तियों का प्रश्न है तो वे अपने को कानून से ऊपर मानते हैं और वैसा ही आचरण भी करते हैं। बिना डकार लिए जानवरों का चारा खा जाते हैं, हजारो करोड़ की लिश्वत लेते हैं, अपने पासपोर्ट पर स्त्रियों को विदेश में निर्यात करने का धंधा करते हैं, लोकसभा में प्रश्न करने के लिए पैसा लेते हैं आदि आदि। ये सब स्पष्ट संदेश देते हैं कि किसी तरह का कानून उनपर लागू नहीं होता।
याद होगा उत्तर प्रदेश में निठारी का वो भयानक कांड जिसमें बीसियों मासूम गरीब बच्चियों का यौन शोषण करने के बाद उनकी निर्मम हत्या कर, उनके शव नाले में बहा दिए गए। जब यह मामला उजागर हुआ तो उत्तर प्रदेश के कैबिनेट मंत्री घटना स्थल का दौरा करने गए और उन्होंने मुस्कुराते हुए पत्रकारों से कहा- ऐसी छोटी- मोटी घटनाएं होती ही रहती हैं!
यह उदाहरण हैं हमारे राजनेताओं की मानसिकता का, उस मानसिकता का कि उनकी निगाह में कानून का राज महज एक बेमानी स्लोगन है। स्पष्ट है कि हमारे समाज में कानून के प्रति वांछित इज्जत नहीं बची है। तभी तो सरकारी कर्मचारी, राजनेता सभी निर्भय होकर गैरकानूनी कार्यवाही में लिप्त रहते हैं। आय से अधिक धन अर्जित करना, सम्पति इकट्ठा करना, छोटे से छोटे सत्तासीन के लिए साधारण कार्यवाही माना जाता है। असलियत ये है कि हमारे प्रशासकों ने कानून बनाने को ही सुशासन मान लिया है। इसलिए आज स्थिति ये हो गई है कि कानूनों का पहाड़ दिन- दूनी रात चौगुनी गति से बढ़ता जा रहा है और न्याय लुप्त हो गया है। हकीकत तो ये है कि सरकारी कर्मचारी इन कानूनों का दुरुपयोग सिर्फ जनता को परेशान करने के लिए ही करते हैं। आम आदमी कोई साधारण से साधारण काम करवाना चाहे तो सरकारी कर्मचारी उसे कानूनों की अड़चन दिखाकर कुछ न कुछ धन उगाह ही लेता है।
सर्वविदित है कि हमारी अदालतों में बहुत बड़ी संख्या में मुकदमें वर्षों से लंबित हैं। जांच पड़ताल करने पर मालूम होता है कि इसके लिए भी सरकार ही मुख्य दोषी है। भारत में सबसे बड़ी मुकदमेबाज केन्द्र और राज्य सरकारें ही हैं। शायद ही कोई ऐसा मामला हो जिसमें सरकारें उच्च न्यायालय तक अपील न करती हों। एक अनुमान के अनुसार आदालतों में कुल लंबित मामलों में से चालीस प्रतिशत से अधिक सरकार द्वारा चलाएं जा रहे मुकदमें हैं। गत वर्ष
इस दुर्दशा से मुक्ति पाने का भी साधन वही है। दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति। लेकिन दृढ़ राजनीतिक इच्छा शक्ति पिछले कुछ दशकों से हमारे यहां न्याय की भांति ही लुप्त हो गई है। ऐसे में फिलहाल समाज को कानूनों की इस चक्की में पिसते ही रहना है।

1 comment:

सुरेश यादव said...

'कानून के जंगल में न्याय का अकाल' पढ़ा रत्ना वर्मा जी ने बहुत ही सार्थक सवालों को उठाया है .न्याय के अभाव में सार्थक विकास संभव नहीं हो पता और इमान के आभाव में कानून सार्थक नहीं हो पाते . विडंबनाओं के इस मकडजाल पर चिंता के लिए आप को साधुवाद.