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Apr 20, 2010

विज्ञान का यह वरदान मेरे शहर में क्यों नहीं?


- राहुल सिंह
27 मार्च को अर्थ-ऑवर की सुगबुगाहट इस वर्ष सन् 2010 में रायपुर छत्तीसगढ़ में भी हुई। रात साढ़े आठ से साढ़े नौ बजे तक निर्धारित इस अवधि में विद्युत मंडल के अनुसार बिजली की खपत लगभग दस फीसदी कम हुई। अगले दिन सुबह टहलते हुए, धूप निकलते तक स्ट्रीट लाइट जलते देखा। तब कोई चालीस साल पहले पढ़ा, विज्ञान का पाठ 'फोटो सेल' याद आया, जिसमें पढ़ाया जाता था कि किस तरह से यह रोशनी के असर से काम करता है और स्ट्रीट लाइट के जलाने- बुझाने को नियंत्रित कर सकता है। मैं सोचता था गुरूजी बता रहे हैं, किताब में लिखा है, सच ही होगा, ताजा-ताजा अविष्कार है, विदेशों में इस्तेमाल हो रहा होगा, हमारे यहां भी आ जाएगा, विज्ञान का यह वरदान।
28 मार्च 2010 के किसी अखबार में यह खबर भी थी कि अर्थ-ऑवर पर भारी पड़ा 20-20 क्रिकेट, यानि मैच और खेल प्रेमी दर्शकों पर इसका कोई असर नहीं हुआ तब याद आया दस साल पहले का एक दिवसीय क्रिकेट का डे-नाइट मैच, जिसमें बताया जा रहा था कि फोटो सेल नियंत्रित फ्लड लाइट ढलते दिन की कम होती रोशनी में इस तरह से एक-एक कर जलती हैं कि खिलाडिय़ों पर संधि बेला का फर्क नहीं होता और उजाला दिन- रात में एक सा बना रहता है।
अब सब बातें मिलाकर सोचता हूं कि फोटो सेल का पाठ यदि मैंने चालीस साल पहले पढ़ा, तो यह उससे पहले का अविष्कार तो है ही, फिर उसका प्रयोग हमारे देश में भी होने लगा है यह डे- नाइट क्रिकेट मैच में देख चुका हूं, तो फिर यह इस शहर की सड़कों तक, स्ट्रीट लाइट के जलने- बुझने के नियंत्रण के लिए क्यों नहीं पहुंचा? चालीस साल पहले के फोटो सेल का इस्तेमाल क्यों नहीं हो रहा है, नादान मन ने अपने को समझा लिया था, लेकिन 'चिप' के दौर में, आज इस सवाल का जवाब नहीं मिल रहा है।
अर्थ-ऑवर पर बिजली की बचत के लिए दो और बातें- पहली तो पुरानी यादों में से ही हैं, जब सुबह आठ बजे दुकानें खुल जाया करती थीं और शाम सात बजे से दुकान बढ़ाई जाने लगती थी, रात आठ बजते- बजते बाजार सूना हो जाता था। आज का बाजार सुबह ग्यारह बजे अंगड़ाई ले रहा होता है और शाम सात बजे के बाद शबाब पर आता है। रविवार को बाजार का खुलना- बंद होना चर्चा का विषय बन जाता है, लेकिन 27 मार्च के एक घंटे बत्ती गुल कर, क्या इस तरह की बातें सोची- याद की जा सकती हैं और एक दिन, एक घंटे में सोची गई इन बातों को पूरे साल के लिए विस्तार क्यों नहीं दिया जा सकता?
हम मन चंगा रखने के लिए कठौती में गंगा ले आते हैं। हर मामले के लिए हमने अलग- अलग आकार- प्रकार के कठौते बना लिए हैं। वैलेन्टाइन का, महिला, बच्चों, बूढ़ों का, हिन्दी का, भाषा का एक-एक दिन, कभी सप्ताह और पखवाड़ा, हर तरह के कठौते। हलषष्ठी पर तालाब तो अनंत चतुर्दशी पर पूरा समुद्र अपने आंगनों में रच लेते हैं। लेकिन चिंता और अवसाद- ग्रस्त मन के रचे कठौते, कूप-मण्डूक बना सकते हैं और आंख मूंद लेने की शुतुरमुर्गी सुरक्षा महसूस करा सकते हैं। ध्यान रखना होगा कि कठौते से कभी-कभार ही और सिर्फ तभी काम चलता है, जब मन चंगा हो।

संपर्क- राहुल सिंह, रायपुर, छत्तीसगढ़
मो.- 9425227484, rahulks58@yahoo.co.in
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1 comment:

Vivek Gupta said...

उम्दा लेख. साधारण सी यादों के बहाने आपने बहुत बडा सवाल उठाया है. विलासिता के आविष्कार तो बहुत जल्दी हमारी पहुंच में आ जाते हैं, लेकिन समाजोपयोगी तकनीक के आने में बडी देर और कभी कभी तो अंधेर भी हो जाती है. साइंस अगर वरदान भी है, तो उसका लाभ समाज को मिलना ही चाहिए. निजी सुविधाओं के लिए तो धडाधड आविष्कार हो रहे हैं, पर समाज की चिंता भी कोई करेगा?
- विवेक गुप्ता, भोपाल