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Jul 14, 2019

देहरी छूटी, घर छूटा

 देहरी छूटी, घर छूटा
-लोकेन्द्र सिंह
काम-धंधे की तलाश में
देहरी छूटी, घर छूटा
गलियाँ  छूटी, चौपाल छूटी
छूट गया अपना प्यारा गाँव
मिली नौकरी इक बनिए की
सुबह से लेकर शाम तक
रगड़म-पट्टी, रगड़म-पट्टी
बन गया गधा धोबी राम का।

आ गया शहर की चिल्ल-पों में
शांति छूटी, सुकून छूटा
साँझ छूटी, सकाल छूटा
छूट गया मुर्गे की बांग पर उठना
मिली चख-चख चिल्ला-चौंट
ऑफिस से लेकर घर के द्वार तक
बॉस की चें-चें, वाहनों की पों-पों
कान पक गए अपने राम के।

सीमेन्ट-कांक्रीट से खड़े होते शहर में
माटी छूटी, खेत छूटा
नदी छूटी, ताल छूटा
छूट गया नीम की  छाँव का अहसास
मिला फ्लैट ऊँची इमारत में
आँगन अपना न छत अपनी
पैकबंद, चकमुंद दिनभर
बन गया कैदी बाजार की चाल का।

लेखक के बारे मेंः माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में  सहायक प्राध्यापक। काव्य संग्रह- ‘मैं भारत हूँ’ सहित अन्य पुस्तकें प्रकाशित।

1 comment:

Sudershan Ratnakar said...

उदंती का जुलाई अंक पढ लिया है पहले तो इस अंक के लिए विशेष बधाई।ग्राम्य जीवन से सम्बंधित सभी आलेख अप्रतिम, ज्ञानवर्धक , रोमांचिक एवं सजीव वर्णन के कारण ऐसा लगा जैसे गाँवों में घूम रही हूँ। बहुत सुंदर चुनाव।
हाइकु, कविता, धरती और धान,अनकही हमेशा की तरह अत्युत्तम ,उग्र जी का रोचक संस्मरण,रामेश्वर काम्बोज जी की कविता अपना गाँव,अब न गाता कोई आल्हा ,बैठ कर चौपाल में,मुस्कान बंदी हो गई,बहेलिए के जाल में ।कतनी सच्चाई है इन पंक्तियों में ।
अब कहाँ रहे वो गाँव।सो गाँव की ओर लौटना ही होगा अगर भारतीय संस्कृति के बचाना है तो।पुन:बधाई एवं अशेष शुभकामनाएँ रत्ना जी।
सुदर्शन रत्नाकर