भय को दूर भगाओ
भय को दूर भगाओ
-विजय जोशी
अंतस् में भय एक जन्मजात एवं स्वाभाविक प्रवृत्ति है लेकिन जीवन में विकास हेतु इसका सीमा में रहना ही सर्वोत्तम प्रयोजन है। पर वास्तविक जीवन में कई बार ऐसा हो नहीं पाता। अच्छी घटना या प्रसंग से हमारा मनोबल उतनी मात्रा में नहीं बढ़ पाता, जितना कि विपरीत परिस्थिति या भय की दशा में गिर जाता है। हम आगत अनिष्ट के डर से कई बार शुतुरमुर्गी अवस्था अपना लेते हैं, जो आँधी आने पर सिर रेत में सिर घुसाकर सोचता है कि कोई संकट सामने नहीं है। यह प्रवृत्ति व्यक्तिगत रूप से बहुत घातक है और जीवन की गति को अवरूद्ध करती है।
एक बार बनारस में स्वामी विवेकानंद एक मंदिर से निकल रहे थे कि वहाँ मौजूद बहुत से बंदरों ने उन्हें घेर लिया और नजदीक आकर डराने लगे। स्वामीजी कुछ सोचकर पीछे हटने लगे, तो बंदर और नज़दीक आकर उनके पीछे ही पड़ गए।
वहाँ से गुजर रहे एक संन्यासी ने यह देखकर स्वामी विवेकानंद से कहा - डरो मत, रुको और उनका सामना करो।
स्वामी जी तुरंत बात का मर्म समझ गए, त्वरित पलटे और बिना एक भी क्षण नष्ट किए उन बंदरों की ओर बढऩे लगे। ऐसा करते ही बंदर भाग खड़े हुए। इसी बात से स्वामीजी को एक सीख मिली, जिसे बाद में उन्होंने अपने संबोधन में भी सदा कहा - पलटो और सामना करो।
बात का सारांश इतना मात्र है कि कई बार भय बहुत छोटा होता है, लेकिन अपने मानस में हम उसे कई गुना बड़ा आकार प्रदान कर देते हैं और यहीं से समस्या की शुरूआत होती है। भयग्रस्त मानस हमारे मनोबल को प्रभावित करते हुए अंतत: हमारी सुचारु रूप से कार्य कर पाने की प्रणाली को शिथिल कर देता है। हमारी उमंग, उत्साह को हत्सोसाहित करते हुए हमें धीरे धीरे अवसाद की गर्त में डुबोने लगता है। भय से भय की कोई आवश्यकता नहीं । उसे तो फ्रंट फूट पर खेलकर अपने आत्म विश्वास रूपी बल्ले से आसमान में छक्का लगाइए और तब देखिए वह कैसे काफूर हो जाता है। अज्ञात भय की कल्पना कर उसे सीने से लगाकर जीने की अपेक्षा उसे उपक्षित करने की मनोवृत्ति तथा मनोबल उसे धराशायी कर देता है। साहस रूपी संकल्प ही हमें सफलता के प्रशस्ति पथ की ओर ले जाता है.
भय के आगे आग जलाओ,
कद्दावर शब्दों को लाओ
फिर देखो अपनी जमीन का
कितना बड़ा जिगर लगता है
तुमको नाहक डर लगता है
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E-mail- v.joshi415@gmail.com
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Labels: जीवन- दर्शन, विजय जोशी
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