- डॉ. महेश परिमल
इन दिनों देश में एक अजीब ही तरह का माहौल है। इंसाफ दिलाने वाले सुर्खियों में हैं। कहीं उनकी रिश्वतखोरी की बातें सामने आ रही हैं, तो कहीं उनके आचरण पर ऊँगलियाँ उठाई जा रही हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश में पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। पुलिस को अब संरक्षण की आवश्यकता है। लोकतंत्र में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दोनों ही देश की कानून व्यवस्था को संभालने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज दोनों ही सुर्खियों में हैं। कानून को सँभालने वाली उपरोक्त दो संस्थाओं की भूमिकाएँ ही संदेह के दायरे में आ रही है, तब अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम आदमी की हालत कैसी होगी? ऐसे में वही आम आदमी अपने नाखून तेज करने लगे, तो सोच जा सकता है कि देश की स्थिति क्या होगी?
सबसे पहले चर्चा करें, पुलिस की। देश में पुलिस सदैव ही आम नागरिकों पर हावी रही है। उसके खौफ का शिकार सदैव आम आदमी ही रहा है। कहा जाता है कि कानून के हाथ लम्बे होते हैं, पर इतने भी लम्बे नहीं होते कि रसूखदारों तक पहुँच सके। कानून के हाथ आम आदमी के गरेबां तक ही पहुँच पाते हैं। पुलिस की समाज में जो छबि है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी के घर के सामने यदि पुलिस की गाड़ी खड़ी हो, या कोई पुलिस वाला पहुँच जाए, तो समाज में यही संदेश जाता है कि निश्चित ही उसने कोई अपराध किया होगा, तभी पुलिस उसके घर आई है। अब भले ही कारण कोई दूसरा हो, पर पहला संदेश यही होगा। इससे समाज में ही रहने वाले उस भले व्यक्ति की छवि धूमिल हो जाती है। लोग उसे शक की निगाहों से देखते हैं। उसके द्वारा किए गए समाज हित में किए जाने वाले कार्य शक के घेरे में आ जाते हैं। घर के मुखिया और सदस्यों का घर से निकलना ही मुहाल हो जाता है। वे चाहकर भी स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर सकते। हालांकि उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है, पर अनजाने में एक छाप पुलिस उनके घर पर छोड़ जाती है। जिसे एक कलंक के रूप में भी लिया जा सकता है।
अब पुलिस लाख चाहे कि उस व्यक्ति के घर जाना बहुत ही साधारण-सी बात है ; लेकिन इसी कोई भी सहजता से स्वीकार नहीं कर सकता। अब यदि पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। उनकी जान ली जा रही है, उन्हें सरेआम पीटा जा रहा है, तो ऐसे में पुलिस स्वयं कहे कि हमें संरक्षण की आवश्यकता है, तो यह पूरे समाज के लिए एक यक्ष प्रश्न है कि आखिर पुलिस को सुरक्षा एवं संरक्षण की आवश्यकता पड़ी ही क्यों? इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। एक सामान्य-सी धारणा है कि जहाँ कानून-व्यवस्था में राजनेताओं का हस्तक्षेप जितना अधिक होगा, पुलिस प्रशासन उतना ही बेबस होगा। जब तक पुलिस विभाग में नेताओं का हस्तक्षेप होता रहेगा, प्रदेश की कानून-व्यवस्था लचर बनी ही रहेगी। इसके पीछे सामान्य-सी मान्यता है कि नेताओं के आदेशों का पालन करते-करते पुलिस अधिकारी कब पंगु बन जाते हैं, यह उन्हें उस वक्त पता ही नहीं चलता। जब तक पता चलता है, तब तक काफी देर हो जाती है। क्योंकि पुलिस अधिकारी नेताओं को ही अपना सब कुछ मानते हैं। यही सब कुछ मानना तब भारी पड़ जाता है, जब सरकार बदलती है या नेता ही बदल जाता है। तब उन्हें लगता है कि नेताओं का वरदहस्त प्राप्त कर उन्होंने बेवजह ही आम आदमी से दूरी बना ली। ऐसे में दूर खड़ा आम आदमी पुलिस वाले के करीब आता है, तब वास्तव में उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होती है। ऐसे में नेताओं का कोई वरदहस्त काम भी नहीं आता। पुलिस विभाग जितना अधिक आम आदमी से दूर होगा, आम आदमी भीतर ही भीतर उतना ही अधिक ताकतवर होगा, यह तय है।

अब बात करते हैं न्याय के देवता की। इंसान की चाहत होती है कि अदालत से उसे इंसाफ ही मिलेगा। इस इंसाफ को पाने के लिए लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अदालत के दरवाजे पर माथा नवाते हैं। सदियाँ बीत जाती हैं, आरोपी अभियुक्त नहीं बन पाता और आरोपी रहते हुए ही जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है। ऐसा केवल इंसाफ पाने की एक चाहत के कारण होता है। यही चाहत उसे हौसला देती रहती है। उसे पता होता है कि उसे इंसाफ देने वाला एक देवता है। वह देवता कभी गलत फैसले नहीं देगा। आज वही देवता अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के मिथक को तोड़ते हुए मानवता की हदें पार कर रहा है। अब यह धारणा बदलने लगी है कि जज भी गलत फैसले दे सकते हैं। उनके द्वारा किए गए इंसाफ पर भी उँगलियाँ उठाई जा सकती हैं। न्यायाधीश के न्याय को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। एक जज के फैसले को दूसरा जज गलत साबित कर सकता है। एक न्याय पर सभी जजों का एकमत होना तब भी आवश्यक नहीं था, अब भी आवश्यक नहीं है। फैसले आज भी सच्चाई के धरातल पर सिसकते दिखाई दे रहे हैं।
अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 13 जुलाई 2016 को अपना पद छोड़ना पड़ा था। 9 अगस्त 2016 को उन्होंने कथित तौर पर सीएम हाउस में ही पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली। बताया जाता है कि सत्ता जाने के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे थे। एक फ़रवरी 2017 में उनकी पत्नी ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर पुल के द्वारा लिखे गए सुसाइड नोट को प्रमाण मानते हुए उनकी मौत की सी.बी.आई जाँच कराने की माँग की। कलिखो ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि मेरे पास सुप्रीमकोर्ट के जज को रिश्वत देने के लिए 80 करोड़ रुपये नहीं थे; इसलिए वे खुदकशी कर रहे हैं। देश में भ्रष्ट न्यायाधीशों के कई उदाहरण मिल जाएँगे, जिन्होंने अपने फैसले बदलने के लिए रिश्वत ली।
सवाल यह उठता है कि आखिर इंसाफ कहाँ मिले? अदालत की ड्योढ़ी अनसुनी चीखों से अटी पड़ी है। जहाँ तक पहुँचना आम आदमी के बस के बाहर की बात है। यदि यह मान लिया जाए कि ऊपरवाला ही सच्चा न्याय करता है, तो सब कुछ ऊपरवाले पर ही छोड़ दिया जाए। वही ऐसे न्यायाधीशों को न्याय दिलाएगा; क्योंकि आम आदमी अब आक्रामक भी होने लगा है। न्याय के देवता अपनी प्रवृत्ति बदल रहे हैं और आम आदमी अपने नाखून तेज कर रहा है। ■