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Nov 2, 2025

उदंती.com, नवम्बर - 2025

वर्ष- 18, अंक- 4

बुद्ध से पूछा आपको क्या मिला ध्यान साधना से? बुद्ध ने कहा - मिला कुछ भी नहीं, खोया बहुत है- क्रोध, मोह, द्वेष, घृणा, बुढ़ापे और मौत का डर...

इस अंक में

अनकहीः बच्चों को खुला आसमान देना होगा  - डॉ. रत्ना वर्मा

प्रदूषणः दिवाली बाद गहराया देशव्यापी प्रदूषण - प्रमोद भार्गव

नवगीतः 1. लहर यहाँ भी आएगी 2. समय करता है जाप  - सतीश उपाध्याय 

धरोहरः चंदखुरी- माता कौशल्या और राम की भूमि होने का प्रमाण - राहुल कुमार सिंह

यादेंः यादगार एक्सप्रेस - विजय विक्रान्त

चिंतन- मननः जीवन की सुंदरता - अंजू खरबंदा  

कविताः झील के ऊपर अगहन माह के मेघ - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया 'प्राण'

परम्पराः बेटी विदा करने की प्रथा- खोईंछा - मांडवी सिंह

कविताः छोटी लड़की - आरती स्मित

कहानीः साफ -सुथरी आँखों वाले - सुकेश साहनी

कविताः सच सच बताना युयुत्सु - निर्देश निधि

कुण्डलिया छंदः कहाँ अब आँगन तुलसी - परमजीत कौर 'रीत'

किताबेंः गद्य की विभिन्न विधाएँ: एक अनिवार्य पुस्तक - प्रो. स्मृति शुक्ला

व्यंग्यः अफ़सरनामा - डॉ मुकेश असीमित

कथाः फैसला - पूजा अग्निहोत्री

लघुकथाः सहानुभूति - सतीशराज पुष्करणा

कविताः अपने आप से - विजय जोशी 

प्रेरकः क्रोध का उपचार कैसे करें? - निशांत

लघुकथाः गुब्बारा - श्यामसुन्दर 'दीप्ति'

पिछले दिनोंः दाऊ रामचंद्र देशमुख जयंती- लोक कलाकारों का भावनात्मक संगम

अनकहीःबच्चों को खुला आसमान देना होगा

- डॉ.  रत्ना वर्मा

 पिछले दिनों बच्चों के एक हास्पिटल के सर्वेक्षण में इस बात का खुलासा हुआ कि दस में से एक बच्चा सप्ताह में एक बार या उससे भी कम बार बाहर खेलने जाता है। यह सर्वेक्षण एक से पाँच साल के बच्चों के बीच किया गया था। यह इस बात की ओर इशारा करता है कि हम आज के इस अत्याधुनिक तकनीक के दौर में अपने बच्चों की परवरिश किस प्रकार के माहौल में कर रहे हैं,  जहाँ बचपन धीरे-धीरे अपना प्राकृतिक विस्तार, खुलेपन और कल्पनाशीलता को खोता जा रहा है। आधुनिक भारतीय परिवेश में यह स्थिति और भी जटिल है। जब बच्चे कुछ समझदार होते हैं तो वे मोबाइल, टैबलेट और टीवी की चमक में  इतने खो जाते हैं कि बाहर का मैदान, धूल भरी गलियाँ, और पेड़ों की छाँव जैसे प्राकृतिक वातावरण को वे जान ही नहीं पाते। 

आज का बच्चा जन्म से ही स्क्रीन के वातावरण में पलता- बढ़ता है। माता-पिता सुविधा और सुरक्षा के नाम पर उसे मोबाइल थमा देते हैं; ताकि वह शांत रहे। शुरू में यह सब मासूम-सा लगता है; लेकिन यही आदत धीरे-धीरे उसका एकांत, उसका मनोरंजन और उसके लिए सीखने का माध्यम बन जाती है। पाँच साल से कम उम्र का बच्चा भी अब वीडियो देखकर खाना खाता है और डिजिटल गेम्स में खेलना सीखता है। 

भारतीय पारिवारिक ढाँचे में पहले बच्चों का खेलना, दौड़ना, मोहल्ले में साथियों के संग समय बिताना, उनके सामाजिक और भावनात्मक विकास का मूल हिस्सा था; लेकिन अब महानगरों में छोटे फ्लैट, बढ़ता ट्रैफ़िक, असुरक्षा का भय और स्कूल के बाद कोचिंग-क्लास का दबाव आदि ने बचपन की स्वाभाविक गतिविधियों को सीमित कर दिया है। माता-पिता यह सोचकर राहत महसूस करते हैं कि बच्चा घर में है, सुरक्षित है; पर यह सुरक्षा उसके मानसिक स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर आज भारी पड़ रही है।

बाहर खेलने का अभाव बच्चों में आत्मविश्वास की कमी, सामाजिक झिझक और अवसाद जैसी स्थितियाँ पैदा कर रहा है। जब बच्चा स्क्रीन पर आभासी दुनिया में रहता है, तो वह वास्तविक संवाद और सहयोग की कला से दूर हो जाता है। उसकी कल्पनाशक्ति तैयार चित्रों, वीडियो और गेम्स के साँचे में ढल जाती है। वह खुद कुछ गढ़ने, खोजने या जोखिम लेने से बचता है, जबकि खेलना केवल शारीरिक व्यायाम नहीं; बल्कि जीवन के नियमों और असफलताओं से निपटने का अभ्यास भी होता है। जिसे आज की रोबोटिक होती जा रही दुनिया को जानना और समझना होगा। 

भारतीय समाज में पारिवारिक संबंध अब तकनीकी माध्यमों से बँधे दिखते हैं। परिवार एक साथ बैठा होता है, पर हर सदस्य अपनी स्क्रीन में डूबा है। बच्चे का अकेलापन उसे आभासी मित्रों की ओर खींचता है, जहाँ वास्तविक स्नेह या मार्गदर्शन का अभाव होता है। परिणामस्वरूप वह या तो आत्मकेंद्रित हो जाता है या फिर दूसरों के प्रभाव में आकर अपनी पहचान खो देता है।

यह प्रवृत्ति केवल मानसिक ही नहीं, शारीरिक रूप से भी खतरनाक है। लगातार स्क्रीन देखने से दृष्टि कमजोर होती है, शरीर की सक्रियता घटती है, मोटापा बढ़ता है और नींद पर भी असर पड़ता है। कई बच्चों में चिड़चिड़ापन, एकाग्रता की कमी और आत्मसंयम का अभाव बढ़ता जा रहा है। वे जल्दी ऊब जाते हैं; क्योंकि स्क्रीन का तेज़ी से बदलता दृश्य-क्रम उनकी संवेदनशीलता को कम कर देता है।

बच्चों को खेलने के लिए खुले स्थानों की कमी भी इस संकट को बढ़ाती है। महानगरों में पार्क सीमित हैं, गाँवों में खेत और खाली मैदान अब निजी निर्माण में बदल रहे हैं। ऐसे में बच्चों के पास खेलने की जगह ही नहीं बचती। जहाँ जगह है भी, वहाँ माता-पिता का डर उन्हें रोक देता है- कहीं चोट न लग जाए, कहीं कोई दुर्घटना न हो जाए। यह भय अनजाने में बच्चों की साहसिकता और आत्मनिर्भरता को कुंद कर देता है।

समस्या यह नहीं कि तकनीक बुरी है; बल्कि यह है कि उसका उपयोग संतुलित नहीं है। मोबाइल बच्चों के लिए शिक्षा का माध्यम भी बन सकता है; लेकिन जब वही शिक्षा खेलने, अनुभव करने और सामाजिक जुड़ाव का विकल्प बन जाए, तब वह विनाशकारी सिद्ध होती है। 

भारतीय संस्कृति में खेल को शिक्षा का अंग माना गया था- कबड्डी, गिल्ली-डंडा, पिट्ठू, रस्सी कूदना जैसे खेल बच्चों को सहयोग की भावना, रणनीति बनाना और धैर्य  रखना सिखाते थे। आज वे सब गाँव के खेल या पुराने जमाने के खेल कहकर खारिज कर दिए जाते हैं । 

इस स्थिति में सबसे बड़ी जिम्मेदारी परिवार की है। माता-पिता यदि बच्चों को खेलने के लिए प्रोत्साहित करें, उनके साथ मैदान में जाएँ या सप्ताहांत पार्क ले जाएँ, तो धीरे-धीरे बच्चे स्क्रीन से बाहर आने लगते हैं। शिक्षा संस्थानों को भी खेल और रचनात्मक गतिविधियों को पढ़ाई जितना महत्त्व देना चाहिए, अन्यथा आने वाली पीढ़ी मानसिक रूप से थकी, असहिष्णु और आभासी दुनिया में खोई हुई होगी।

भारत जैसे देश में जहाँ जनसंख्या का बड़ा हिस्सा युवा है, वहाँ बचपन का यह संकट भविष्य का सामाजिक संकट बन सकता है। मोबाइल ने बच्चों की उँगलियों को तेज़ कर दिया है; लेकिन उनकी संवेदना को सुन्न भी कर दिया है। यदि हम चाहते हैं कि अगली पीढ़ी आत्मविश्वासी, सृजनशील और सामाजिक रूप से संवेदनशील बने, तो हमें उनके बचपन को मुक्त करना होगा-खुला आसमान, मिट्टी की खुशबू और खेल की सहजता में उन्हें आगे बढ़ने देना होगा, तभी बचपन फिर से खिलखिलाएगा और घर की चारदीवारी से निकल कर खुले आसमान में पंख फैलाकर उड़ान भरेगा।

प्रदूषणः दिवाली बाद गहराया देशव्यापी प्रदूषण

 - प्रमोद भार्गव

देशव्यापी प्रदूषण गहराने की रिपोर्ट भले ही केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दी है; लेकिन यह आशंका पूर्व से ही थी कि दिल्ली एनसीआर समेत पूरे देश में वायु प्रदूषण में वृद्धि दर्ज की जाएगी?  साँस, दमा और अस्थमा के रोगियों को परेशानी होगी; क्योंकि वायु गुणवत्ता बद से बदतर होने की श्रेणी में पहुँच जाएगी। यह स्थिति तब है, जब दिल्ली में प्रदूषण की समस्या से चिंतित शासन-प्रशासन तो रहता ही है, सर्वोच्च न्यायालय की चिंता भी पटाखों पर प्रतिबंध को लेकर देखी जाती रही है। इसलिए न्यायालय ने हरित पटाखों को चलाने की अनुमति दी थी; लेकिन निगरानी की ऐसी कोई विधि सरकार के पास नहीं है कि हरित पटाखों की ओट में सामान्य पटाखे चलाए ही न जाएँ ? ग्रीन पटाखों को लेकर यह धारणा है कि तुलनात्मक रूप में वे सामान्य पटाखों से प्रदूषण मुक्त हैं; लेकिन इनकी पहचान आसान नहीं है। दरअसल पटाखे इतनी बड़ी मात्रा में पूरे देश में बनते हैं कि इनकी गुणवत्ता एवं मानक की परख करना असंभव है। इस दायित्व के निर्वहन की जवाबदेही ‘राष्ट्रीय पर्यावरण इंजीनियरिंग अनुसंधान संस्थान’ (नीरी) की है अवश्य; किंतु मानक निर्धारण की नैतिक जिम्मेदारी पटाखे निर्माताओं और फिर उन पर निगरानी सरकारी तंत्र की है, जो अकसर दायित्व निभाने में लापरवाह रहता है; इसीलिए वायु गुणवत्ता प्रदूषण का सूचकांक दिल्ली में कई स्थानों पर एक्यूआई 351 के पार दर्ज किया गया। हरियाणा के जींद में यह प्रदूषण सबसे अधिक 421 पर दर्ज हुआ है। यही हकीकत हर साल बनी रहती है।    

रिपोर्ट के अनुसार राजधानी दिल्ली में सबसे अधिक प्रदूषित हवा बह रही है। दस शहरों में दिल्ली 10वें नंबर पर है। शेष 9 शहरों में 8 हरियाणा और एक राजस्थान का है। यानी दिल्ली के पड़ोसी राज्य हरियाणा की हवा अब देश के राज्यों में सबसे ज्यादा प्रदूषित हो चुकी है। सीपीसीबी देश के 271 नगरों की हवा की गुणवत्ता की निगरानी रखता है। इनमें से 20 नगरों की वायु इस बार दिवाली के बाद अच्छी रही है, जबकि 54 नगरों में संतोषजनक और 103 नगरों में मध्यम स्तर की रही है। दीपावली के बाद दिल्ली में पीएम 2.5 का चौबीस घंटे में औसत 488 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर दर्ज हुआ, जो पिछले पाँच साल में सबसे अधिक है। यह स्थिति तब है, जब हरियाणा एवं पंजाब में 2024 के अनुपात में पराली जलाने की घटनाएं 77.5 प्रतिशत घटी हैं। यहाँ यह जानने की जरूरत है कि पीएम 2.5 की मात्रा एक्यूआई का ही एक भाग है। एक्यूआई वायु में मौजूद 2.5 पीएम-10 ओजोन व अन्य प्रदूषणकारी गैसों की मात्रा को गणना करके तय किया जाता है। दिल्ली में वैसे भी ठंड की शुरूआत होने के साथ ही हवा गहराने लगती है, और प्रदूषण का संकट बढ़ने लगता है। यह स्थिति लगभग प्रतिवर्ष निर्मित होती है; लेकिन विडंबना है कि इन तथ्यों को जानते-बूझते सरकार नजरअंदाज कर देती है। इसलिए प्रदूषण सुधार के जो चंद उपाय किए जाते हैं, वे बेअसर साबित होते हैं। अतएव प्रदूषण उत्सर्जन के कारण यथावत् बने रहते हैं।

हम जानते है कि बच्चे और किशोर आतिशबाजी के प्रति अधिक उत्साही होते हैं और उसे चलाकर आनंदित भी होते हैं। जबकि यही बच्चे वायु एवं ध्वनि प्रदूषण से अपना स्वास्थ्य भी खराब कर लेते हैं। खतरनाक पटाखों की चपेट में आकर अनेक बच्चे आँखों की रोशनी और हाथों की अंगुलियाँ तक खो देते हैं। बावजूद समाज के एक बड़े हिस्से को पटाखा- मुक्त दिवाली रास नहीं आती है। इसीलिए अदालती आदेश के बाद यह बहस चल पड़ती है कि दिल्ली-एनसीआर में खतरनाक स्तर 2.5 पीएम पर प्रदूषण पहुँचने का आधार क्या केवल पटाखे हैं ? सच तो यह है कि इस मौसम में हवा को प्रदूषित करने वाले कारणों में बारूद से निकलने वाला धुआँ एक कारण जरूर है; लेकिन दूसरे कारणों में दिल्ली की सड़कों पर वे कारें भी हैं, जिनकी बिक्री निरंतर उछाल पर है। नए भवनों की बढ़ती संख्या भी दिल्ली में प्रदूषण को बढ़ा रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में पराली जलाया जाना भी दिल्ली की हवा को खराब करने का एक कारण है। इस कारण दिल्ली के वायुमंडल में पीएम 2.5 का स्तर बढ़ जाता है। जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक स्वास्थ्य के लिए बेहतर वायु का स्तर 10 पीएम से कम होना चाहिए। पीएम वायु में घुले-मिले ऐसे सूक्ष्म कण है, जो सांस के जरिए फेफड़ों में पहुँचकर अनेक बीमारियों का कारण बनते हैं।

वायु के ताप और आपेक्षिक आर्द्रता का संतुलन गड़बड़ा जाने से हवा प्रदूषण के दायरे में आने लगती है। यदि वायु में 18 डिग्री सेल्सियस ताप और 50 प्रतिशत आपेक्षिक आर्द्रता हो तो वायु का अनुभव सुखद लगता है। लेकिन इन दोनों में से किसी एक में वृद्धि, वायु को खतरनाक रूप में बदलने लगती है। ‘राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता मूल्यांकन कार्यक्रम‘ (एनएसीएमपी) के मातहत ‘केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल’ वायु में विद्यमान ताप और आद्रता के घटकों को नापकर यह जानकारी देता है कि देश के किस नगर में वायु की शुद्धता अथवा प्रदूषण की क्या स्थिति है। मापने की इस विधि को ‘पार्टिकुलेट मैटर’ मसलन ‘कणीय पदार्थ’ कहते हैं। प्रदूषित वायु में विलीन हो जाने वाले ये पदार्थ हैं, नाइट्रोजन डाइऑक्साइड और सल्फर डाइऑक्साइड। सीपीसीबी द्वारा तय मापदंडों के मुताबिक उस वायु को अधिकतम शुद्ध माना जाता है, जिसमें प्रदूषकों का स्तर मानक मान के स्तर से 50 प्रतिशत से कम हो। इस लिहाज से दिल्ली समेत भारत के जो अन्य नगर प्रदूषण की चपेट में हैं, उनके वायुमंडल में सल्फर डाइऑक्साइड का प्रदूषण कम हुआ है, जबकि नाइट्रोजन डाइऑक्साइड का स्तर कुछ बड़ा है।

सीपीसीबी ने उन नगरों को अधिक प्रदूषित माना है, जिनमें वायु प्रदूषण का स्तर निर्धारित मानक से डेढ़ गुना अधिक है। यदि प्रदूषण का स्तर मानक के तय मानदंड से डेढ़ गुना के बीच हो तो उसे उच्च प्रदूषण कहा जाता है। और यदि प्रदूषण मानक स्तर के 50 प्रतिशत से कम हो, तो उसे निम्न स्तर का प्रदूषण कहा जाता है। वायुमंडल को प्रदूषित करने वाले कणीय पदार्थ, कई पदार्थों के मिश्रण होते हैं। इनमें धातु, खनिज, धुएँ, राख और धूल के कण मिले होते हैं। इन कणों का आकार भिन्न-भिन्न होता है। इसीलिए इन्हें वर्गीकृत करके अलग-अलग श्रेणियों में बाँटा गया है। पहली श्रेणी के कणीय पदार्थों को पीएम-10 कहते हैं। इन कणों का आकार 10 माइक्रोन से कम होता है। दूसरी श्रेणी में 2.5 श्रेणी के कणीय पदार्थ आते हैं। इनका आकार 2.5 माइक्रोन से कम होता है। ये कण शुष्क व द्रव्य दोनों रूपों में होते हैं। वायुमंडल में तैर रहे दोनों ही आकारों के कण मुँह और नाक के जरिए श्वास नली में आसानी से प्रविष्ट हो जाते हैं। ये फेफड़ों तथा हृदय को प्रभावित करके कई तरह के रोगों के जनक बन जाते हैं। आजकल नाइट्रोजन डाइऑक्साइड देश के नगरों में वायु प्रदूषण का बड़ा कारक बन रही है।  

औद्योगिक विकास, बढ़ता शहरीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति, आधुनिक विकास के ऐसे नमूने हैं, जो हवा, पानी और मिट्टी को एक साथ प्रदूषित करते हुए समूचे जीव-जगत को संकटग्रस्त बना रहे हैं। लेकिन दिवाली पर रोशनी के साथ आतिशबाजी छोड़कर जो खुशियाँ मनाई जाती है, उनका व्यावहारिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक पक्ष भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। अकेली दिल्ली में पटाखों का कई हजार करोड़ का कारोबार होता है, जो कि देश में होने वाले कुल पटाखों के व्यापार का 25 फीसदी हिस्सा है। इससे छोटे-बड़े हजारों थोक व खुदरा व्यापारी और पटाखा उत्पादक मजदूरों की सालभर की रोजी-रोटी चलती है। इस लिहाज से इस व्यापार पर प्रतिबंध के व्यावहारिक पक्ष पर भी गौर करने की जरूरत है? यह अच्छी बात है कि शीर्ष न्यायालय सामान्य पटाखों पर रोक के साथ हरित पटाखे चलाने को प्रोत्साहित कर रही है। इससे स्वदेशी हरित पटाखा उद्योग विकसित होगा और भविष्य में दिल्ली को प्रदूषित महानगर होने की श्रेणी से भी मुक्ति मिल जाएगी।  

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 9981061100