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Sep 1, 2025

उदंती.com, सितम्बर - 2025

वर्ष - 18, अंक - 2

“आइये याद रखें: एक किताब, एक कलम, एक बच्चा और एक शिक्षक दुनिया बदल सकते हैं।”            - मलाला यूसुफजई


अनकहीः आकांक्षाओं के बोझ तले दबा बचपन - डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व- संस्कृतिः देवों के देव गणपति - रविन्द्र गिन्नौरे

प्रकृतिः उत्तराखंड में जल-प्रलय - प्रमोद भार्गव

खान-पानः एक सेहतमंद सब्जी टमाटर - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यात्रा वृत्तांतः ओह पहलगाम ! - विनोद साव

प्रसंगः गुरु साध्य नहीं  उत्प्रेरक तत्त्व मात्र है - सीताराम गुप्ता

लोक कलाः हमारी सांस्कृतिक धरोहर है ऐपण- ज्योतिर्मयी पन्त  

स्वास्थ्यः अचानक चौथे स्टेज का कैंसर कैसे हो जाता है? - निशांत

कविताः दस छोटी कविताएँ - छवि निगम 

हाइकुः स्वर्णिम यादें - कृष्णा वर्मा

चार लघुकथाएँः 1. शिक्षाकाल, 2. पिंजरे, 3. बोंजाई, 4. प्रक्षेपण - सुकेश साहनी

व्यंग्यः हर व्यक्ति अब महाज्ञानी !.. - गिरीश पंकज

कहानीः कैक्टस के फूल - डॉ. दीक्षा चौबे

प्रेरकः अच्छे पॉइंट्स 

लघुकथाः धमाका - प्रगति गुप्ता

किताबेंः अधूरी मूर्तियों का क्रंदन : एक संवेदनात्मक पड़ताल - डॉ. पूनम चौधरी

 चुनिंदा शेरः सुख जल्दी उड़ जाते - हस्तीमल हस्ती

अनकहीः आकांक्षाओं के बोझ तले दबा बचपन

 - डॉ. रत्ना वर्मा

परीक्षा में पेपर बिगड़ा, तो फाँसी लगा ली, माँ ने किसी बात पर डाट लगाई, तो बेटी ने आत्महत्या कर ली। ये केवल खबरों की सुर्खियाँ नहीं; बल्कि हमारे समाज की व्यवस्था से उपजी ऐसी त्रासदी हैं, जिसके कारण  हमारे देश की भावी पीढ़ी की ऊर्जा और ज्ञान कहीं अँधेरे में गुम होते चले जा रहे हैं।  इस तरह की घटनाएँ न केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी है; बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है, जो हम सबको यह सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को कौन से रास्ते पर ले जाना चाहते हैं? समस्या इतनी भयानक है कि परिवार को, समाज को  और शिक्षण- संस्थानों को इस विषय पर गहराई से चिंतन- मनन करना होगा और इस समस्या से मुक्ति पाने का कोई हल निकालना होगा ।

 दरअसल आज के बच्चों पर अपेक्षाओं का बोझ इतना भारी है कि वे बचपन का आनंद लेना ही भूल चुके हैं। माता-पिता, स्कूल, कोचिंग, समाज- सभी अपनी आकांक्षाएँ उनके कंधों पर लाद देते हैं । वे अपनी अधूरी इच्छाओं को बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। प्रत्येक माता पिता की यही चाहत होती है कि उनका बच्चा श्रेष्ठ बने है, अच्छे अंक लाए, प्रतियोगिता में जीते है, इंजीनियर, डॉक्टर या साइंटिस्ट बने; पर हर बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता और न ही उसे बनना चाहिए। हम हैं कि उनसे हर क्षेत्र में प्रथम आने की उम्मीद लगाए रहते हैं। यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक बच्चा एक अलग व्यक्तित्व लिये जन्म लेता है,  जिसकी अपनी रुचि, इच्छा और पहचान है; लेकिन उनकी इच्छा पर परिवार समाज और व्यवस्था का मानसिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बच्चे उसे झेल नहीं पाते। जब ऐसे बच्चे नाकामी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, तब अवसाद से घिर जाते हैं और आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैं। 

शिक्षा प्रणाली को  व्यावहारिक बनाने की बात तो हर कोई करता है; परंतु सच्चाई इसके विपरीत ही है। हमारी शिक्षा प्रणाली आज भी अंकों और परीक्षाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। रटने, अंक लाने और प्रथम आने की दौड़ में विद्यार्थी अपनी असल पहचान खो बैठते हैं। स्कूलों और कोचिंग संस्थानों में हर बच्चा एक नंबर बन गया है- रोल नंबर, रैंक या प्रतिशत। स्कूलों में काउंसलिंग की समुचित व्यवस्था नहीं है। शिक्षक भी अक्सर केवल पाठ्यक्रम पूरा कराने तक सीमित रह जाते हैं। छात्रों के मानसिक उतार-चढ़ाव, डर, चिंता, और तनाव पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। परीक्षा के दिनों में यह दबाव कई गुना बढ़ जाता है और विफलता की स्थिति में वे अकेला और पराजित महसूस करते हैं। माता-पिता का प्यार भी कई बार सशर्त हो जाता है- अगर अच्छे नंबर लाओगे, तो तुम्हें ये दिलवा देंगे, या फिर नहीं ला पाए तो फिर देख लेना.... दूसरे बच्चे से की गई तुलना भी उन्हें कमजोर करती है -कि देखो पड़ोसी के बच्चे को, तुम्हें उससे ज्यादा नम्बर लाकर दिखाना है... आदि- आदि...  जैसे धमकी भरे वाक्य बच्चों के मन में डर और असुरक्षा की भावना पैदा कर देते हैं। वे यह सोचने लगते हैं कि यदि वे असफल हुए, तो उन्हें वह सम्मान और प्यार नहीं मिलेगा। यही भावना उन्हें आत्महत्या की ओर अग्रसर करती है।

समय बहुत तेजी से बदल रहा है - आज का हर बच्चा इंटरनेट और सोशल मीडिया की दुनिया में जी रहा है। वहाँ हर कोई अपनी सबसे अच्छी तस्वीरें, सफलताएँ और उपलब्धियाँ साझा करता है। इस दिखावे की दुनिया में बच्चे जब अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे पीछे हैं, असफल हैं। यह तुलना और प्रतिस्पर्धा उन्हें निराशा की खाई में धकेल देती है। यह निराशा कब मानसिक रोग बन जाता है, यह न वह बच्चा जान पाता, न माता पिता और न ही उन्हें शिक्षा देने वाले शिक्षक। 

कुल मिलाकर देखा जाए, तो बच्चों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या एक गंभीर समस्या  का रूप ले चुकी है।  इस स्थिति से निपटने के लिए वृहत् स्तर पर प्रयास की आवश्यकता है। सबसे पहला कदम परिवार को उठाना होगा- माता पिता बच्चों से खुलकर बात करें, उनकी बात सुनें और उनकी रुचि, इच्छा और उनकी काबिलीयत को जानें और उसी के अनुसार उनकी परवरिश करते हुए उन्हें शिक्षित करें। 

दूसरा कदम शैक्षिक स्तर पर उठाया जाना चाहिए- प्रत्येक शिक्षण- संस्थान में मानसिक स्वास्थ्य  काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिसमें शिक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य की प्राथमिक ट्रेनिंग भी दी जाए। परीक्षाओं का बोझ कम किया जाए, वैकल्पिक मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जाए। जागरूकता अभियानों के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नजरिया बदला जाए। सोशल मीडिया पर सकारात्मक और यथार्थवाद को प्रोत्साहित किया जाए। स्कूलों और कॉलेजों में हेल्प लाइन और इमरजेंसी सपोर्ट सिस्टम तैयार किए जाए। तीसरा कदम सामाजिक स्तर पर उठाना होगा- बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं; जीवन के संघर्षों से जूझने की कला भी सिखानी होगी। योग, ध्यान, खेलकूद और कला जैसी गतिविधियाँ मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। किताबी कीड़ा बनाकर हम उनका भविष्य नहीं सुधार सकते। 

सोचने वाली गंभीर बात है कि  हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। अवसाद या तनाव को अक्सर आलस्य, नाटक, या कमजोरी मान लिया जाता है। अगर कोई बच्चा उदास दिखे, रोए, या अलग-थलग रहे, तो उसे डाँट दिया जाता है या उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की पहुँच अब भी सीमित है, खासकर ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में। जब कोई बच्चा आत्महत्या करता है, तब पूरा समाज क्यों, कैसे जैसे अनेक सवाल तो उठाता है; पर जब बच्चा मानसिक रूप से अपने आप से जूझ रहा होता है, तब कोई उसका हाथ थामने आगे नहीं आता। 

एक माँ की डाँट  या एक पेपर का बिगड़ जाना, अगर जीवन को समाप्त करने का कारण बन जाए, तो यह हमारी, हमारे समाज की, सम्पूर्ण व्यवस्था की सामूहिक विफलता मानी जाएगी।  यही समय है कि हम आत्मचिंतन करें, चेतें, और बच्चों के लिए एक ऐसा वातावरण तैयार करें, जहाँ वे असफल होकर भी मुसकुरा सकें, लड़खड़ाकर भी उठ सकें, और सबसे बड़ी बात- सच्चाई को स्वीकार कर जीना सीख सकें। बच्चे हमारे भविष्य हैं और उन्हें केवल सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ाने के लिए नहीं, एक  संतुलित, और खुशहाल जीवन जीने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। हमें समझना होगा कि हर बच्चा एक फूल की तरह है, जिसे प्यार, समझदारी और धैर्य से सींचने की आवश्यकता है। केवल अंक, रैंक और प्रतिस्पर्धा की तराजू पर बच्चों को तौलना बंद करना होगा।

पर्व - संस्कृतिः देवों के देव गणपति

  - रविन्द्र गिन्नौरे 

     गणपति की उपासना भारत में प्राचीन काल से चली आ रही है। समस्त कार्य प्रारम्भ ही श्रीगणेश कहा जाता है। देवों के देव गणपति हैं। विघ्न को हरने वाले ‘विघ्नेश्वर’ को वेदों गणपति कहा गया है। ऋग्वेद में गणपति की स्तुति करते हुए कहा गया है-

        “हे गणपति तुम सब प्राणियों के स्वामी हो, तुम श्रोताओं के मध्य सुशोभित होओ। कार्यकुशल व्यक्तियों में तुम सबसे अधिक बुद्धिमान हो। हमारी ऋचाओं को बढ़ाकर विभिन्न फल वाली करो।”

       भगवान विष्णु ने गणेश की स्तुति करते हुए इन्हें एकदन्त नाम दिया। सामवेद में भगवान विष्णु ने माता को गणपति के ‘नामाष्टक स्रोत’ का स्मरण कराया जो सम्पूर्ण विघ्नों के नाशक हैं। नामाष्टक में गणेश, एकदन्त, हेरम्ब, विघ्ननाशक, लम्बोदर, शूपकर्ण, गजवकत्र, गुहाग्रज नाम दिए हैं।

‘गणेशमेकदन्तं च हेरम्बं विघ्ननायकम्।

 लम्बोदरं शूपकर्ण गजवकत्रं गुहाग्रजम् ॥

आत्मस्वरूप गणपति-

      उपनिषद काल में भी गणपति की पूजा की परम्परा रही। गणपत्युपनिषद् इसका प्रमाण है, जिसमें गणेश जी को कर्ता-धर्ता और प्रत्यक्ष तत्त्व कहा गया है। जिनके रूपों में साक्षात ब्रह्म व आत्म स्वरूप बताया गया है। स्मृति काल में भी गणेश पूजा का विधान रहा। नवग्रहों के पूजन के पूर्व गणेश की पूजा करने का निर्देश है। इनसे ही लक्ष्मी की प्राप्ति सम्भव होती है। पुराण युग में इस पूजा का उज्ज्वल रूप में उदय हुआ। एक अलग गणेश पुराण की रचना भी इसी काल में की गई। यह तंत्र के पाँचों सम्प्रदायों, वैष्णव, शैव, शाक्त, गाणपत्य और सौर के लौकिक और वैदिक शुभ और अशुभ सभी तरह के कार्यों में प्रथम पूज्य हैं।

‘शैवेस्तत्रदीयैरुत वैष्णवैश्य, शाकतैश्व सौरेरपि सर्वकार्ये। 

शुभाशुभे लैकिक वैदिक च, द्वमर्चनीयः प्रथमं प्रयत्नाम् ॥’

     श्री गणेश जी महेशतनय हैं, स्कन्द अथवा षडानन इनके अग्रज हैं, सभी मंगल कार्यों में इनकी पूजा होती है। गणपति अग्रपूजार्ह माने गए हैं। यह पद इन्होंने अपने ज्ञान बल से प्राप्त किया है। पौराणिक कथा के अनुसार पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने का श्रम उठाने का प्रयत्न न कर गणेशजी ने प्रणवाक्षर की प्रदक्षिणा देवताओं से पहले की। श्री गणेश चतुर्दश विद्या के प्रभु हैं; इसलिए ही इनके भक्तों में बुद्धि की प्रचुरता होती है। गजानन की आकृति सर्वश्रुत है। इनके छोटे चरण तथा विशाल उदर, वक्षस्थल पर पड़ी हुई शुराडा गोलार्ध और एकदन्तरूपी अनुस्वार देखने से प्रणवाक्षर (ॐ) का स्मरण हो आता है। ओंकार स्वरूपी गणेश जी अग्रपूजक माने गए। ॐकार स्वरूप ही परम पवित्र उच्चतम, विचार परिपूर्ण, सर्वथा निर्मल और परिशुद्धता का प्रतीक है। आचरण और मन से शुद्ध, परोपकारी और मितभाषी ये सारे तत्त्व गणेश की आकृति में समाहित हैं। ये सब गुण ॐ में एकीकृत भाव से हैं। देवाधि देव, गणनायक इन्हें इसलिए ही कहा गया है। 

      दीन हीनों का पालन करने वाले, सम्पदा के दाता, ज्ञानरूप गणपति ने सम्पूर्ण महाभारत लिखा जिसे महर्षि वेदव्यास ने कहा।

यह कौतुक कथा पौराणिक ग्रंथों में है। महर्षि वेदव्यास ने यह शर्त रखी कि वे श्लोक कहेंगे, गणेश जी उसे लिखकर उसका अर्थ भी लिखेंगे। यह धाराप्रवाह क्रम टूटे नहीं। वेदव्यास जी विचारने के साथ कठिन श्लोक कह देते थे, जिसके अर्थ में गणेश जी को देर होती थी, उतनी देर में महर्षि कई श्लोक रच डालते थे। महर्षि वेदव्यास और श्री गणेश दोनों अद्वितीय थे, जिसका फल महाभारत है।

‘प्रणम्य शिरसा देवं गौरीपुत्रं विनायकम्।

भक्तया व्यासः स्मरेन्नित्यमायुः कामार्थ सिद्धये।।

भारत में पूजा अर्चना-

हिन्दू धर्म के साथ अनेक मत, संप्रदाय और पंथ हैं, जिनमें अधिकांशतः अपनी अभिव्यक्ति प्रदर्शित करते हैं। इन्हें अनेक नाम, रूपों में पूजा जाता है। किसी कार्य को प्रारंभ करने का पर्यायवाची शब्द श्रीगणेश ही प्रचलित है। धार्मिक अनुष्ठान, समारोह, वैवाहिक अवसरों में गणेश पूजा का महत्त्व आज भी विद्यमान है। मंगल कार्यों में इन्हें प्रथम स्मरण किया जाता है। ऋद्धि के स्वामी होने के कारण साधन तथा सामाग्री में, सिद्धि स्वामी होने से श्रीगणेश अपने भक्तों को कभी असिद्धि का दर्शन नहीं होने देते। गोस्वामी तुलसीदास ने गणेश जी की सर्वप्रथम वंदना रामचरित मानस में की है। आगे उन्होंने लिखा है कि “जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध हो जाते हैं, जो गुणों के स्वामी और सुंदर हाथी के मुख वाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के स्वामी श्रीगणेश मुझ पर कृपा करें।

‘जो सुमिरत सिधि होई गणनायक करिवर बदन।

करहुँ अनुग्रह सोई बुद्धि रासि सुभ गुन सदना।

विदेशों में तांत्रिक पूजा-

विश्व के अनेक देशों में गणेश जी को आज भी पूजा जाता है। इंडोनेशिया की मुद्रा में गणेशजी का चित्रण है जबकि वह मुस्लिम देश है। हिन्दू के दूसरे ऐसे कोई देव नहीं जिन्हें दूसरे देशों के निवासी भी पूजते हों। वृहत्तर भारत के साथ जो देश थे उनमें हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियाँ मिलती हैं, लेकिन अब उन्हें पूजा नहीं जाता। चीन में गणेश पूजा ‘मियाकियों’ के नाम से होती है, जिसका शाब्दिक अर्थ रहस्य है। रहस्यमय पूजा विधान को चीन तक पहुँचाने का श्रेय भारतीय श्रमण वज्रबोधी को है जो अपने शिष्य अमोध वज्र के साथ 720 ईस्वी में पहुँचे थे। जापान में गणेश की पूजा ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए ‘कांगीतेन’ नाम से की जाती है। शिंगोन संप्रदाय ने व्यक्ति और विश्वात्मा में एकात्मता का सिद्धांत मानते हुए कांगीतेन की रहस्यमयी मूर्ति की पूजा का विधान बनाया, जिसमें गणेश की युग्ममूर्ति पूजा होती है। यहाँ इनकी पूजा रहस्यमय तांत्रिक ढंगों से पूर्ण होती है जिसमें अनार की बलि दी जाती है। तांत्रिक विधि के अनुरूप इन मूर्तियों को ढककर रखा जाता है। इन विधियों से गुप्त तंत्र विद्या सीखी जाती है।

     हर वर्ष भादों मास में श्रीगणेश की स्थापना घर के साथ सार्वजनिक जगहों पर की जाती है। हर ओर गणेशोत्सव की धूम रहती है जहाँ गणपति बप्पा मोरया का उद् घोष करते हुए भक्त उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।■

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