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May 2, 2025

उदंती.com, मई - 2025

वर्ष - 15, अंक - 9

 हमें हार नहीं माननी चाहिए

और समस्या को हमें हराने की

अनुमति नहीं देनी चाहिए।

         – ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

इस अंक में

अनकहीः भारत की आत्मा पर हमला  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः कठघरे में इंसाफ - डॉ. महेश परिमल

चिंतनः नैतिक मूल्यों का ह्रास और वर्तमान समाज - शिवजी श्रीवास्तव

यात्रा संस्मरणः फ़िनलैंड: जादुई पल और अनकही बातें - जैस्मिन जोविअल

आलेखः दुनिया की आधी आबादी को स्वच्छ पेयजल मयस्सर नहीं

प्रेरकः रेगिस्तान में दो मित्र - निशांत

प्रकृतिः म्यांमार भूकंप- शहरी विकास के लिए चेतावनी - प्रमोद भार्गव

स्वास्थ्यः कटहल के  लाभ  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कविताः पिता, तुम सच में चले गए? - डॉ. पूनम चौधरी

निबंधः मेरी पहली रचना - प्रेमचंद

प्रसंगः एक भावुक दृश्य - लिली मित्रा

लघुकथाः 1. संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण, 2. ज़िंदा  का  बोझ  - डॉ. सुषमा गुप्ता 

हाइबनः प्रवासी पक्षियों का आश्रय चिल्का झील - अंजू निगम

कहानीः ग़ैर-ज़रूरी सामान - नमिता सिंह 'आराधना'

व्यंग्यः दास्तान-ए-सांड - डॉ. मुकेश असीमित

कविताः गुमशुदा - सुरजीत 

लघुकथाः बड़कऊ - रचना श्रीवास्तव   

कविताः अम्मा का गुटका - भावना सक्सैना

ग़ज़लः तुम्हें राधा बुलाती है - अशोक शर्मा

किताबेंः विचित्रता से घिरे मन और बुद्धि - रश्मि विभा त्रिपाठी

कविताः नमस्कार - रवींद्रनाथ टैगोर, अनुवाद: मुरली चौधरी

जीवन दर्शनः उसैन बोल्ट: परहित सरिस धरम नहीं भाई - विजय जोशी 

अनकहीः भारत की आत्मा पर हमला...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

धरती का स्वर्ग के नाम से प्रसिद्ध कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को आतंकवादियों ने निर्दोष पर्यटकों पर कायराना  हमला करके भारत की आत्मा को एक बार पुनः झकझोर दिया है।  हरी- भरी वादियों, बर्फ से ढके पहाड़ों और खूबसूरत झीलों वाले इस प्रदेश में  2019 के बाद पुनः पर्यटन को बढ़ावा मिला और लोग बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचने लगे; परंतु दरिंदों को हमारी खुशियाँ रास नहीं आई। जैसे ही ये हरी भरी वादियाँ फिर से पहले की तरह गुलजार होने लगी थीं, लोग यहाँ खुशियाँ मनाने, खुशियाँ बाँटने फिर से इकट्ठा होंगे लगे थे कि यह भयावह घटना घट गई। छुट्टियाँ मनाने आए पर्यटकों का खून बहाकर आतंकवादियों ने फिर एक बार दहशत पैदा करने की कोशिश की है। उनका मकसद भी तो यही था कि कश्मीर फिर से थर्राने लगे और लोग डर से यहाँ आना बंद कर दें। 
इसमें कोई दो मत नहीं कि पहलगाम में हुआ यह हमला एक सुनियोजित हमला था और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, कश्मीरियों का अमन-चैन और आम नागरिकों के मनोबल को तोड़कर कश्मीर की धरती पर अस्थिरता पैदा करने की एक नाकाम कोशिश थी। इस  भयावह घटना ने प्रत्येक भारतीय के दिलों को आक्रोश और पीड़ा से भर दिया है,  सबसे गंभीर बात धर्म पूछकर सिर्फ हिन्दुओं को अपनी बंदूक का निशाना बनाने वाली इस कायराना घटना ने सभी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आतंकवाद किस हद तक हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आज भी चुनौती बना हुआ है।  मारे गए 28 निर्दोष पर्यटकों में से कोई किसी का पिता, किसी का भाई, किसी का बेटा तो किसी का पति था। इन परिवारों का दुःख क्या हम सिर्फ अपनी संवेदनाएँ व्यक्त करके दूर कर सकते हैं, नहीं बिल्कुल नहीं, जवाबी कार्रवाई ही सही मायनों में उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 
पूरा देश इस समय गुस्से से उबल रहा है। जायज है, जब बार-बार निर्दोष की जान जाती है, तो स्वाभाविक रूप से जनता के मन में रोष और क्षोभ उत्पन्न होता है; लेकिन इस गुस्से को संयमित रूप में व्यक्त करना भी जरूरी है, ताकि हम अपनी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में लगा सकें। हमें यह ध्यान रखना होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म या क्षेत्र नहीं होता। धर्म पूछकर मारना वर्ग विशेष को निशाना बनाना आपसी सौहार्द को नष्ट करने का घृणित उद्देश्य है। हमारी लड़ाई आतंक के इस जाल और उसको पनाह देने वालों के खिलाफ है, जिसका डटकर मुकाबला करना है और जीतना है। 
फिर भी सबके मन में सवाल यही उठता है कि अब क्या? सबकी निगाहें सरकार और रक्षा एजेंसियों की ओर उठती हैं कि  देखें वे क्या कदम उठाती हैं और कैसे इन सबका खात्मा करती हैं-  तो सबसे पहले तो दोषियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि रूह काँप उठे। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान जैसे देशों पर दबाव बनाकर आतंक के पनाहगाहों को उजागर करना भी एक आवश्यक कदम होगा। स्थानीय आतंक समर्थक तंत्र को ध्वस्त करना और युवाओं को बहकावे से बचाकर मुख्यधारा में जोड़ना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। हर कदम सोच-समझकर और दीर्घकालिक परिणामों को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए। 
जनरल विपिन रावत जैसे रणनीति कार भी यही मानते हैं कि आतंकवाद का मुकाबला ‘हार्ड पावर’ से करना चाहिए, ताकि अगली बार कोई इस तरह का दुस्साहस करने से पहले दस बार सोचे। वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल कहते हैं आतंक का मुकाबला केवल रक्षात्मक तरीके से नहीं, बल्कि आक्रामक रणनीति से करना चाहिए। उनका दृष्टिकोण है कि जहाँ से खतरा उत्पन्न होता है, वहीं जाकर उसे खत्म करना चाहिए। वे इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आतंकवाद को केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं मानना चाहिए; बल्कि इसे एक युद्ध जैसी चुनौती मानकर ही उसका जवाब देना चाहिए। रक्षा विश्लेषक मारूफ़ रज़ा भी मानते हैं कि भारत को ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनाते हुए न केवल आतंकियों के खिलाफ; बल्कि उनके संरक्षकों के खिलाफ भी कठोर जवाबी कार्रवाई करनी चाहिए। वे जोर देकर कहते हैं कि भारत को अपनी प्रतिक्रिया में सख्ती और स्पष्टता दिखानी चाहिए। दूसरी ओर रणनीतिक विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी कहते हैं कि भारत को इतना कठोर और प्रभावी जवाब देना होगा कि अगली बार कोई हमला करने से पहले दस बार सोचे। वे मानते हैं कि भारत को केवल रक्षात्मक नहीं रहना चाहिए; बल्कि राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक दबाव के त्रिस्तरीय उपाय अपनाने चाहिए।
देश की सुरक्षा केवल सरकार और सेना की जिम्मेदारी नहीं है। हर नागरिक की भी यह जिम्मेदारी है कि वह नफरत और अफवाहों से दूर रहे और आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय एकता को मजबूत करें। यहाँ राजनीतिक खींच- तान और एक दूसरे पर दोषारोपण जैसी ओछी हरकतों से भी ऊपर उठकर एकजुटता का परिचय देते हुए देश हित को सर्वोपरि रखना होगा; क्योंकि आतंकी ताकतें इसी बात का फायदा उठाते हुए हमें आपस में बाँटना चाहती हैं। हमें उनकी इस साजिश को नाकाम करना होगा। अतः यह समय है जब संवेदना और गुस्सा, दोनों को संतुलित करते हुए हम एक ठोस रणनीति बनाएँ। हमारा संदेश साफ होना चाहिए: भारत आतंकवाद के सामने झुकेगा नहीं, न ही आतंकियों के संरक्षकों को बख्शेगा। हमारी नीतियाँ न्याय, दृढ़ता और मानवता पर आधारित होंगी, और हम हर हाल में अपने देशवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।
फिलहाल तो सुरक्षा की दृष्टि से कश्मीर के अधिकतर पर्यटन स्थलों को अस्थायी रूप से  बंद कर दिया गया है; परंतु जैसे ही स्थिति सामान्य होगी हम जल्द ही कश्मीर की वादियों की खूबसूरती का आनंद लेने बड़ी संख्या में पहुँचेंगे । यह गुनगुनाते हुए- 
कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है... ये कश्मीर है... 
मौसम बेमिसाल बेनजीर है... ये कश्मीर है... ये कश्मीर है...

आलेखः कठघरे में इंसाफ

  - डॉ. महेश परिमल

इन दिनों देश में एक अजीब ही तरह का माहौल है। इंसाफ दिलाने वाले सुर्खियों में हैं। कहीं उनकी रिश्वतखोरी की बातें सामने आ रही हैं, तो कहीं उनके आचरण पर ऊँगलियाँ उठाई जा रही हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश में पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। पुलिस को अब संरक्षण की आवश्यकता है। लोकतंत्र में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दोनों ही देश की कानून व्यवस्था को संभालने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज दोनों ही सुर्खियों में हैं। कानून को सँभालने वाली उपरोक्त दो संस्थाओं की भूमिकाएँ ही संदेह के दायरे में आ रही है, तब अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम आदमी की हालत कैसी होगी? ऐसे में वही आम आदमी अपने नाखून तेज करने लगे, तो सोच जा सकता है कि देश की स्थिति क्या होगी?

सबसे पहले चर्चा करें, पुलिस की। देश में पुलिस सदैव ही आम नागरिकों पर हावी रही है। उसके खौफ का शिकार सदैव आम आदमी ही रहा है। कहा जाता है कि कानून के हाथ लम्बे होते हैं, पर इतने भी लम्बे नहीं होते कि रसूखदारों तक पहुँच सके। कानून के हाथ आम आदमी के गरेबां तक ही पहुँच पाते हैं। पुलिस की समाज में जो छबि है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी के घर के सामने यदि पुलिस की गाड़ी खड़ी हो, या कोई पुलिस वाला पहुँच जाए, तो समाज में यही संदेश जाता है कि निश्चित ही उसने कोई अपराध किया होगा, तभी पुलिस उसके घर आई है। अब भले ही कारण कोई दूसरा हो, पर पहला संदेश यही होगा। इससे समाज में ही रहने वाले उस भले व्यक्ति की छवि धूमिल हो जाती है। लोग उसे शक की निगाहों से देखते हैं। उसके द्वारा किए गए समाज हित में किए जाने वाले कार्य शक के घेरे में आ जाते हैं। घर के मुखिया और सदस्यों का घर से निकलना ही मुहाल हो जाता है। वे चाहकर भी स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर सकते। हालांकि उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है, पर अनजाने में एक छाप पुलिस उनके घर पर छोड़ जाती है। जिसे एक कलंक के रूप में भी लिया जा सकता है।

अब पुलिस लाख चाहे कि उस व्यक्ति के घर जाना बहुत ही साधारण-सी बात है ; लेकिन इसी कोई भी सहजता से स्वीकार नहीं कर सकता। अब यदि पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। उनकी जान ली जा रही है, उन्हें सरेआम पीटा जा रहा है, तो ऐसे में पुलिस स्वयं कहे कि हमें संरक्षण की आवश्यकता है, तो यह पूरे समाज के लिए एक यक्ष प्रश्न है कि आखिर पुलिस को सुरक्षा एवं संरक्षण की आवश्यकता पड़ी ही क्यों? इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। एक सामान्य-सी धारणा है कि जहाँ कानून-व्यवस्था में राजनेताओं का हस्तक्षेप जितना अधिक होगा, पुलिस प्रशासन उतना ही बेबस होगा। जब तक पुलिस विभाग में नेताओं का हस्तक्षेप होता रहेगा, प्रदेश की कानून-व्यवस्था लचर बनी ही रहेगी। इसके पीछे सामान्य-सी मान्यता है कि नेताओं के आदेशों का पालन करते-करते पुलिस अधिकारी कब पंगु बन जाते हैं, यह उन्हें उस वक्त पता ही नहीं चलता। जब तक पता चलता है, तब तक काफी देर हो जाती है। क्योंकि पुलिस अधिकारी नेताओं को ही अपना सब कुछ मानते हैं। यही सब कुछ मानना तब भारी पड़ जाता है, जब सरकार बदलती है या नेता ही बदल जाता है। तब उन्हें लगता है कि नेताओं का वरदहस्त प्राप्त कर उन्होंने बेवजह ही आम आदमी से दूरी बना ली। ऐसे में दूर खड़ा आम आदमी पुलिस वाले के करीब आता है, तब वास्तव में उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होती है। ऐसे में नेताओं का कोई वरदहस्त काम भी नहीं आता। पुलिस विभाग जितना अधिक आम आदमी से दूर होगा, आम आदमी भीतर ही भीतर उतना ही अधिक ताकतवर होगा, यह तय है।

अब बात करते हैं न्याय के देवता की। इंसान की चाहत होती है कि अदालत से उसे इंसाफ ही मिलेगा। इस इंसाफ को पाने के लिए लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अदालत के दरवाजे पर माथा नवाते हैं। सदियाँ बीत जाती हैं, आरोपी अभियुक्त नहीं बन पाता और आरोपी रहते हुए ही जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है। ऐसा केवल इंसाफ पाने की एक चाहत के कारण होता है। यही चाहत उसे हौसला देती रहती है। उसे पता होता है कि उसे इंसाफ देने वाला एक देवता है। वह देवता कभी गलत फैसले नहीं देगा। आज वही देवता अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के मिथक को तोड़ते हुए मानवता की हदें पार कर रहा है। अब यह धारणा बदलने लगी है कि जज भी गलत फैसले दे सकते हैं। उनके द्वारा किए गए इंसाफ पर भी उँगलियाँ उठाई जा सकती हैं। न्यायाधीश के न्याय को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। एक जज के फैसले को दूसरा जज गलत साबित कर सकता है। एक न्याय पर सभी जजों का एकमत होना तब भी आवश्यक नहीं था, अब भी आवश्यक नहीं है। फैसले आज भी सच्चाई के धरातल पर सिसकते दिखाई दे रहे हैं।

अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 13 जुलाई 2016 को अपना पद छोड़ना पड़ा था। 9 अगस्त 2016 को उन्होंने कथित तौर पर सीएम हाउस में ही  पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली।  बताया जाता है कि सत्ता जाने के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे थे। एक फ़रवरी 2017 में उनकी पत्नी ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर पुल के द्वारा लिखे गए सुसाइड नोट को प्रमाण मानते हुए उनकी मौत की सी.बी.आई जाँच कराने की माँग की। कलिखो ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि मेरे पास सुप्रीमकोर्ट के जज को रिश्वत देने के लिए 80 करोड़ रुपये नहीं थे; इसलिए वे खुदकशी कर रहे हैं। देश में भ्रष्ट न्यायाधीशों के कई उदाहरण मिल जाएँगे, जिन्होंने अपने फैसले बदलने के लिए रिश्वत ली।

सवाल यह उठता है कि आखिर इंसाफ कहाँ मिले? अदालत की ड्योढ़ी अनसुनी चीखों से अटी पड़ी है। जहाँ तक पहुँचना आम आदमी के बस के बाहर की बात है। यदि यह मान लिया जाए कि ऊपरवाला ही सच्चा न्याय करता है, तो सब कुछ ऊपरवाले पर ही छोड़ दिया जाए। वही ऐसे न्यायाधीशों को न्याय दिलाएगा; क्योंकि आम आदमी अब आक्रामक भी होने लगा है। न्याय के देवता अपनी प्रवृत्ति बदल रहे हैं और आम आदमी अपने नाखून तेज कर रहा है। ■