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Aug 1, 2025

उदंती.com, अगस्त - 2025

वर्ष -18, अंक - 1


कोई रंग नहीं होता बारिश के पानी का, 

लेकिन जब बरसता है,

 सारे ब्रम्हांड को रंगीन बना देता है।  


इस अंक में

अनकहीः सिर्फ एक स्कूल भवन नहीं गिरा, पूरी व्यवस्था ढह गई - डॉ. रत्ना वर्मा

शौर्य गाथाः कैप्टन केशव पाधा के जज्बे को सलाम  - शशि पाधा

आलेखः देश विभाजन की त्रासदी - प्रमोद भार्गव

लघु संस्मरणः वास्तविक शिक्षण - जैस्मिन जोविअल

रेखाचित्रः भेरूदादा - ज्योति जैन

कविताः सच्चा दुभाषिया - निर्देश निधि

हाइबनः नदी का दर्द - डॉ. सुरंगमा यादव

साक्षात्कारः प्रेरणा देती हैं विज्ञान कथाएँ - डॉ. जयंत नार्लीकर - चक्रेश जैन

लघुकथाः कुछ नहीं खरीदा  - सुदर्शन रत्नाकर

हाइकुः मेघ चंचल  - रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

जीव-जगतः कुदरत को सँवारती तितलियाँ - डॉ. पीयूष गोयल

क्षणिकाएँ-  1. बताना ज़रा...  - हरकीरत हीर

चार लघुकथाएँ-  1. पगड़ी की आख़िरी गाँठ....  - जयप्रकाश मानस

प्रेरकः आपन तेज सम्हारो आपे  - प्रियंका गुप्ता

तीन बाल कविताएँ-  1.बोझ करो कम... - प्रभुदयाल श्रीवास्तव

व्यंग्यः श्रद्धांजलि की बढ़ती सभाएँ  - अख़्तर अली

कविताः रूठ गईं हैं फुर्सतें - निर्देश निधि

कहानीः सौगात  - सुमन कुमावत

कविताः आँखों की बातें - अंजू निगम

किताबेंः अक्षरलीला- लघु छंद में विराट अनुभूति - रश्मि विभा त्रिपाठी

जीवन दर्शनः डॉ. अब्दुल कलाम: मानवता की मिसाल - विजय जोशी

अनकहीः सिर्फ एक स्कूल भवन नहीं गिरा, पूरी व्यवस्था ढह गई

डॉ. रत्ना वर्मा 

झालावाड़ जिले में एक सरकारी स्कूल की छत ढहने से सात मासूम बच्चों की जान चली गई। यह खबर सिर्फ एक हादसा नहीं है - यह पूरे देश की व्यवस्था पर एक गहरी चोट है। दिल दहल जाता है- यह सोचकर कि एक स्कूल, जो बच्चों के भविष्य की नींव होना चाहिए, वह उनकी कब्रगाह बन गया।

राजस्थान के झालावाड़ के सरकारी स्कूल के भवन ढहने से हुई बच्चों की मौत ने बहुत गहरे तक व्यथित तो किया ही, यह सोचने पर विवश भी किया कि इसके लिए जिम्मेदार किसे माना जाए- शासन- प्रशासन को, व्यवस्था को या भवन- निर्माण करने वाले ठेकेदारों को? गंभीर सवाल यह है कि अगर भवन पुराना जर्जर  या कमजोर था, तो वहाँ स्कूल क्यों चल रहा था । यह केवल एक स्थानीय समाचार नहीं था, यह पूरे राष्ट्र के लिए एक चेतावनी थी। इस घटना ने केवल कुछ परिवारों की दुनिया नहीं उजाड़ी; बल्कि पूरी व्यवस्था को आईना दिखाया है, एक ऐसा आईना जिसमें प्रशासनिक लापरवाही, राजनैतिक उपेक्षा और संवेदनहीन तंत्र का कुरूप चेहरा साफ दिखाई देता है। 

हर बार की तरह, हादसे के तुरंत बाद प्रशासन सक्रिय हुआ। पाँच शिक्षकों और कार्यवाहक प्रधानाध्यापक को निलंबित किया गया। सभी सरकारी भवनों का तत्काल ऑडिट कराने के निर्देश दिए गए। तकनीकी रिपोर्ट देने के लिए विशेषज्ञ समिति गठित की गई और जर्जर भवनों को खाली कराने तथा छात्रों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाकर पढ़ाई की बात कही गई। और अंत में मृतकों के परिजनों को मुआवजा, नए भवन मृतक बच्चों के नाम पर करने जैसी बातें करके अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर ली । यानी वही सब कुछ जो हर त्रासदी के बाद की जाती है। 

लेकिन सवाल यह है  कि केवल निलंबन, जाँच और मुआवजा ही समाधान है? क्या जिन बच्चों की जान गई, उनके माता-पिता कभी इस दर्द से उबर पाएँगे? क्या कुछ लाख रुपये उनकी कोख उजड़ने की पीड़ा को भर सकते हैं? सच बहुत कड़वा होता है - दरअसल, असली दोषी वे अधिकारी हैं, जो शिकायतों पर कान नहीं देते, वे राजनेता हैं, जो फीता काटने और फोटो खिंचवाकर प्रचार- प्रसार के लिए स्कूलों का उद्घाटन तो करते हैं; लेकिन मरम्मत के नाम पर फंड देने से करतराते हैं, और वे ठेकेदार हैं, जो खराब गुणवत्ता वाली निर्माण- सामग्री का उपयोग करके बच्चों की ज़िंदगी से खेलते हैं। जिस देश में करोड़ों रुपये से वीआईपी गेस्ट हाउस, एयरपोर्ट लाउंज, और मंत्रियों के बंगले रोज़ चमकाए जाते हैं, वहाँ बच्चों के लिए एक मजबूत स्कूल- भवन बनाना क्या इतनी बड़ी चुनौती है?

इस तरह की घटनाओं से निपटने के लिए अब वक्त आ गया है कि हम खोखली राजनीतिक बयानबाजी और कागजी कार्यवाही से ऊपर उठ कर बात करें- यह नियम बनें कि हर सरकारी स्कूल भवन का वार्षिक ऑडिट अनिवार्य हो।। स्कूल भवनों की मरम्मत और रखरखाव के लिए अलग बजट हो, और उसमें पारदर्शिता हो। शिकायतों को नजरअंदाज करने वाले अधिकारियों के सिर्फ निलंबन से काम नहीं चलेगा; बल्कि उनपर सख्त कानूनी कार्रवाई हो। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी घटनाओं को अपराध मानते हुए एफआईआर दर्ज की जाए। सबसे महत्त्वपूर्ण ग्राम पंचायत और स्थानीय समुदाय को विद्यालय भवन निरीक्षण में सहभागी बनाया जाए और उनकी शिकायतों की सुनवाई हो। 

अगर समय पर भवन का निरीक्षण होता, मरम्मत की जाती, शिकायतों पर कार्रवाई होती-  तो हादसा होता ही नहीं। जाहिर है बच्चों की मौत किसी प्राकृतिक आपदा से नहीं हुई, यह एक मानव-निर्मित त्रासदी है, और इसके लिए जवाबदेही तय होनी चाहिए। 

एक बात जो सबसे ज़्यादा चुभती है, वह यह कि हमारे देश में दो तरह की शिक्षा व्यवस्था चलती है। एक तरफ हैं निजी स्कूल, जिनकी ऊँची-ऊँची इमारतें हैं, एसी क्लासरूम हैं, खेल मैदान, लाइब्रेरी, डिजिटल स्मार्ट बोर्ड और मोटी फीस। । वहाँ वे बच्चे पढ़ते हैं, जिनके माता-पिता आर्थिक रूप से सक्षम हैं। दूसरी तरफ़ हैं- ऐसे सरकारी स्कूल, जहाँ गरीबों के बच्चे पढ़ते हैं। जहाँ न टेबल-कुर्सियाँ होती हैं, न पर्याप्त शिक्षक, न खेल का मैदान, न शौचालय और कई जगह तो पक्की छत भी नहीं होती। 

सबसे बड़ा सवाल यही है कि इन दोनों व्यवस्थाओं की अनुमति कौन देता है? हमारा शासन – प्रशासन ही न ? जो एक तरफ़ निजी शिक्षा को बढ़ावा देता है और दूसरी तरफ़ सरकारी स्कूलों की हालत सुधारने के लिए कोई प्रयास ही नहीं कता।  ऐसा लगता है हम यह मान चुके हैं कि गरीब के बच्चों को बस नाम के लिए शिक्षा चाहिए,  वह भी जान की कीमत पर?

यह सोचना भी एक बड़ी भूल होगी कि यह हादसा सिर्फ़ झालावाड़ का है। सच तो यह है कि देश भर के हजारों सरकारी स्कूल जर्जर भवनों में चल रहे हैं, जहाँ छतें टपकती हैं, दीवारें दरकती हैं और जहाँ शौचालय, पीने का पानी जैसी मूलभूत सुविधाएँ तक नहीं हैं। देश के दूरदराज के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षक अनुपस्थित रहते हैं, और जो होते हैं वे भी शिक्षा छोड़कर प्रशासनिक कामों में उलझे रहते हैं। नतीजा एक खोखली होती शिक्षा व्यवस्था, और उसमें दम तोड़ते बच्चों के सपने।

पर अब भी समय है कि हम जागरूक बनें अपने अधिकारों के लिए, लड़ें अपने बच्चों के उज्ज्वल भविष्य के लिए । हमें आगे आना होगा और सवाल उठाना होगा और इस तरह की लापरवाहियों के जिम्मेदार लोगों  से जवाब माँगना  होगा; क्योंकि बच्चों की मौत पर चुप रह जाना, सिर्फ़ संवेदनहीनता नहीं, एक सामूहिक अपराध है।

शौर्य गाथा- कैप्टन केशव पाधा के जज्बे को सलाम

असम्भव शब्द किसी सैनिक के शब्द कोश में नहीं होता

  -  शशि पाधा

ये  किस मिट्टी से बने हैं ? क्या इनके संकल्प, जुनून और देश भक्ति के जज़्बे का कोई मापदंड हो सकता है ? क्या कोई पर्वत, सागर, जंगल या गोलियों की बौछार इनकी राह रोक सकते हैं ? क्या कोई ऐसा अभियान है जिसे कोई  सैनिक ‘असम्भव’ कह सकता है? - शायद नहीं।

‘असम्भव’ शब्द  किसी भी सैनिक के कर्म-धर्म  के शब्द कोश में लिखा ही नहीं गया है। जब भी  मातृभूमि की रक्षा की घड़ी आती है तो वह पूरी निष्ठा और संकल्प  के साथ अपना सैनिक धर्म निभाता है। उस समय  कोई भी विपरीत परिस्थिति उसका मार्ग नहीं रोक सकती।  

भारतीय सेना के पराक्रम और शौर्य की अनगिनत कहानियाँ इतिहास के पन्नों में लिखी जा चुकी हैं। इन्हें  जब भी पढ़ें,  तो गर्व से सर ऊँचा भी हो जाता है और कृतज्ञता के उद्दात भाव से नत मस्तक भी। इन्हीं रणबाँकुरों में से एक  सैनिक के दृढ़ निश्चय की गौरव गाथा को  पाठकों के साथ साझा करते हुए मुझे असीम गर्व  की अनुभूति हो रही है। 

भारतीय सेना की महत्त्वपूर्ण  पलटन 9 पैरा कमांडोज़  (जो अब  स्पेशल फोर्सेस के नाम से जानी जाती है)  उन दिनों जम्मू के पास जिन्द्राह गाँव के पहाड़ी इलाके में तैनात थी। वर्ष 1971 में भारत-पाक सीमाओं पर युद्ध के बादल मंडरा रहे थे। शत्रु कभी भी आक्रमण का दुस्साहस कर सकता था। इसी लिए सैनिक नीतियों  के अनुसार इस विशेष  कमांडो पलटन को अक्तूबर माह में ही सीमा क्षेत्र में अपने मोर्चे स्थापित करने की आज्ञा मिल चुकी थी।

पलटन की एक टुकड़ी, ‘अल्फा ग्रुप’ जम्मू के पास के सीमा क्षेत्र छम्ब सेक्टर में  तैनात थी। युद्ध कब आरम्भ होगा, इसकी पहल कौन करेगा, इसका तो किसी को भी पता नहीं था। लेकिन एक बात तो निश्चित थी कि युद्ध अब टलेगा नहीं। सीमा पर बसे आस-पास के गाँव खाली हो चुके थे और भारतीय सैनिकों ने सीमा रेखा के पास के सुरक्षित स्थानों पर  बंकर/ मोर्चे  खोदकर अपने रहने का स्थान बना लिया था। पास के गाँव के एक स्कूल के कमरे में रसोई  भी बन गई थी | युद्ध की तैयारियाँ, योजनाएँ और विकल्प आदि के लिए सैनिक अधिकारी लगभग हर रोज़ ही किसी न किसी सुरक्षित स्थान पर मुलाकात करते थे।

 इसी बीच नवम्बर के अंत में इस पलटन के अधिकारी  कैप्टन केशव पाधा गंभीर रूप से बीमार हो गए। उन्हें इलाज के लिए जम्मू के सैनिक हॉस्पिटल में भर्ती कर दिया गया। उनका बुखार बहुत तेज रहता था और इसके कारणों का पता नहीं चल रहा था। पलटन एक परिवार की तरह होती है और उसका कमान अधिकारी एक पिता/संरक्षक  की तरह हर सदस्य के कुशल क्षेम के प्रति चिंतित रहता  है। इसी भावना से प्रेरित होकर पलटन के कमान अधिकारी जनरल सभरवाल  3 दिसंबर, 1971 की सुबह जम्मू हॉस्पिटल में केशव से मिलने और वहाँ के डॉक्टरों से उनका हाल-चाल जानने के लिए आए। 

तेज़ बुखार से पीड़ित होते हुए भी केशव ने जनरल सभरवाल से कहा, “सर, मुझे अपनी बीमारी  की कोई चिंता नहीं है। इस समय  मेरी पलटन को मेरे जवानों को मेरी आवश्यकता है। कर्तव्य की इस घड़ी में मैं पलटन से दूर कैसे रह सकता हूँ। आप डॉक्टर से कहकर मुझे हॉस्पिटल से छुट्टी दिलवा दीजिए और अपने साथ ले चलिए। मैं वहाँ अपने साथियों के बीच रहूँगा तो जल्दी ठीक हो जाऊँगा।”

जनरल सभरवाल ने उनकी हालत देखी और बड़े स्नेह से कहा, “वहाँ चिकित्सा का कोई बंदोबस्त नहीं है। थोड़ा- सा भी आराम होते ही आप वापिस आ जाना। अभी युद्ध तो हो नहीं रहा।”

उनकी बात सुनकर केशव कुछ निराश तो हुए; लेकिन और कोई विकल्प ही नहीं था। डॉक्टर उन्हें जाने की अनुमति नहीं दे रहे थे ।

‘अभी युद्ध तो हो नहीं रहा’- यह सुबह की बात है और उसी शाम लगभग 6:30 बजे पाकिस्तान के लड़ाकू विमानों ने जम्मू के हवाई अड्डे और आस- पास के सीमा क्षेत्र के पास बम गिराने शुरू कर दिए। जम्मू का हवाई अड्डा हॉस्पिटल के इतने पास था कि लगता था जैसे जहाजों से गिराये गोले वहीं पर गिर रहे हों | लगभग पाँच मील दूर तवी नदी पर बना एक मात्र पुल था, जो पूरे भारत को जम्मू कश्मीर, लेह लद्दाख से जोड़े रखता था। शत्रु के लिए यही  मुख्य लक्ष्य थे और पाकिस्तान के लड़ाकू विमान बार-बार उन पर हमला कर रहे थे।

 चारों ओर से सायरन की आवाजें और गोला-बारूद के धमाकों का शोर जम्मू के आकाश को भेदने लगा। 

 केशव बहुत देर तक  सैनिक हॉस्पिटल के कमरे में बड़ी बेचैनी से चक्कर काट रहे थे। 

सैनिक अधिकारी की ट्रेनिंग का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह भी है  कि वह  युद्ध के समय अपने सैनिकों का नेतृत्व करे। केशव भी उस घड़ी अपने अल्फा ग्रुप के जवानों के साथ मिलकर भारत की सीमा से शत्रु को खदेड़ने के लिए तत्पर थे। लेकिन, उनकी गंभीर हालत में हॉस्पिटल के नियम उन्हें जाने की आज्ञा नहीं दे रहे थे। 

उस समय केशव अपने आप को बहुत असहाय महसूस कर रहे थे। उनका सहायक कमांडो जगत राम भी,  जिसे पलटन में ‘फाइटर’ के नाम से पुकारा जाता था, उनके साथ कमरे के अन्दर-बाहर चक्कर काट  रहा था। दोनों के मन में एक ही जज्बा था कि कैसे जाकर अपने साथियों के साथ मोर्चा  सँभालें। उनका कर्तव्य उन्हें बुला रहा था और वह इसे पूर्ण करने का मार्ग ढूँढ रहे थे।

युद्ध शुरू होने के बाद लगभग आधी रात हो चुकी थी। केशव ने फाइटर से कहा,  “अब मैं और नहीं रुक सकता। जाओ, बाहर देखो कि क्या कोई यहाँ से निकलने का रास्ता है। क्या बाहर कोई टैक्सी या गाड़ी मिल सकती है?”

 सुरक्षा के कारण से वहाँ से निकलने के सारे रास्ते बंद थे। सड़क पर  कोई गाड़ी नहीं चल रही थी। कुछ देर के बाद फाइटर ने आकर कहा, “ साहब, बाहर एक एम्बुलेंस अभी-अभी सीमा क्षेत्र से घायल सैनिकों को लेकर आई है।  मुझे पता चला है कि कुछ ही देर में  यह गाड़ी पुन: अखनूर तक जा रही है।”

9 पैरा जिस युद्ध क्षेत्र में तैनात थी, अखनूर शहर की छावनी उसी मार्ग में स्थित थी| केशव ने बिना समय गँवाए जल्दी से हॉस्पिटल के कमान अधिकारी के  लिए  एक कागज़ पर छोटा सा नोट लिखा।  उन्होंने लिखा- ‘मेरी पलटन, मेरे जवान इस समय सीमा पर मोर्चे सँभाले हुए हैं । मेरा यही कर्तव्य है कि मैं युद्ध के समय अपनी टीम के  साथ रहूँ। इस लिए मैं आपकी आज्ञा के बिना, अपनी जिम्मेवारी पर हॉस्पिटल छोड़कर सीमा क्षेत्र की ओर जा रहा हूँ।’

कागज़ पर लिखा यह नोट उन्होंने अपने कमरे के टेबल पर रख दिया और रात के अँधियारे में अपने सहायक के साथ बाहर खड़ी एम्बुलेंस में जा बैठे।

 यह गाड़ी उन्हें जम्मू से अखनूर तक ले आई। केशव की टीम उस स्थान से लगभग एक घंटे की दूरी पर ‘छम्ब सैक्टर’ में  तैनात थी। उस  समय  कोई भी वाहन सीमा क्षेत्र की ओर नहीं जा रहा था। यह दोनों कुछ मील पैदल चलते रहे। थोड़ी देर बाद इन्हें एक ट्रक दिखाई दिया जो ‘छम्ब सेक्टर’ की ओर गोला बारूद लेकर जा रहा था। उस ट्रक ने इन्हें युद्ध क्षेत्र से लगभग एक मील दूर सड़क पर उतार दिया| 

उस समय दोनों ओर से अँधाधुँध गोलियों की बौछार चल रही थी। घोर अँधेरे में भी केशव को अपने ग्रुप के मोर्चों के सही स्थान का अनुमान था। इनकी पलटन के ‘अल्फा ग्रुप’ के सैनिक  छ्म्ब क्षेत्र में बहने वाली ‘मुनाव्वर तवी’ के किनारे बनाये गए  मोर्चों से प्रहार कर शत्रु को सीमा लाँघकर इस पार आने से रोकने का यथा सम्भव प्रयत्न कर रहे थे। दोनों ओर से गोलियों की बौछार को झेलते हुए केशव और फाइटर उस रात अपने ग्रुप के साथ आ मिले। केशव ने जैसे ही मोर्चे  में प्रवेश किया, वहाँ बैठे कैप्टन मकेरियस और बाकी जवान इन्हें देखकर खुशी से उछल  पड़े और सब आपस में  गले मिले। आखिर बरसों से साथ निभाने का संकल्प जो लिया था इन सब ने।

उस दिन और पूरी रात  घमासान युद्ध हुआ। छम्ब क्षेत्र का यह अभियान बहुत महत्त्वपूर्ण था। अगर शत्रु पक्ष इस क्षेत्र को जीत लेने में सफल हो जाता तो उनका अखनूर तक पहुँचने का मार्ग आसान हो जाता। अखनूर छावनी के रास्ते शत्रु जम्मू और पुंछ आदि सीमा क्षेत्रों तक आसानी से पहुँच सकता था। शत्रु बार-बार युद्ध रणनीति बदल-बदलकर चारों और से इस क्षेत्र को जीतने का प्रयास कर रहा था।  हर बार उनके इस हमले को हमारे शूरवीर सैनिकों ने बड़ी बहादुरी से रोका और उन्हें खदेड़ने में सफल भी हुए। इसी मुठभेड़ में पाकिस्तानी टेंकों के गोले इनके मोर्चे के इतने आस-पास गिरे कि मोर्चा टूटकर ढह  गया। मिट्टी के ढेर में दबे हुए  केशव, मकेरियस और अन्य  सैनिक देर तक उस घुप अँधेरे और मिट्टी की परतों में एक दूसरे को टटोलते रहे।  केवल  इस बात से आश्वस्त होने के लिए कि सब साथी सुरक्षित और जीवित हैं। 

 इस अभियान में शत्रु पक्ष के बहुत से सैनिकों की जान गई। बहुत से सैनिकों को बंदी भी बनाया गया। इस  युद्ध में 9 पैरा कमांडोज़ के ‘अल्फा ग्रुप’ के दो जवान वीरगति को प्राप्त हुए और कुछ गंभीर रूप से घायल हुए; लेकिन हमारे शूरवीर योद्धाओं ने अपनी मातृभूमि पर शत्रु को पैर तक नहीं रखने दिया और हर क्षेत्र  में उन्हें परास्त किया।

दो दिन और दो रात से लगातार युद्ध चल रहा था। इसी बीच पलटन के कमान अधिकारी सैनिकों की खोज खबर लेते हुए  इनके मोर्चे तक पहुँचे। वहाँ  केशव को  देखते ही  हैरान रह  गए और पूछने लगे , “आप कैसे यहाँ पहुँचे?”

केशव का माथा छूकर कहा, “आपको तो अभी भी तेज़ बुखार है। हॉस्पिटल से छुट्टी कैसे मिली?”

 कैप्टन केशव ने बड़े संयत स्वर में संक्षिप्त- सा उत्तर दिया, “सर! मैं अपने को रोक नहीं सकता था।”

इनके कंधे पर हाथ रखकर कमान अधिकारी ने केवल यही कहा, “सही निर्णय लिया है आपने।”

गीता में  महाभारत के युद्ध के समय श्री कृष्ण ने अर्जुन से  कहा था -

“हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम्।

तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः।।”

भगवान् कृष्ण के उद्बोधन के ये  शब्द प्रत्येक सैनिक के जीवन का मूल मन्त्र है और हर परिस्थिति में उनमें ऊर्जा का संचार करते हैं। समय कोई भी हो, कोई भी युद्ध हो, भारत की सेना का प्रत्येक शूरवीर  सैनिक देश रक्षा के अपने दृढ़ निश्चय और संकल्प से कभी विमुख नहीं होता।

कैप्टन केशव के इस साहसिक और अनुकरणीय निर्णय का उल्लेख भारतीय सेना की वीरता से सम्बन्धित पुस्तक ‘Killer Instinct’ में भी उद्धृत है। सैनिक शिक्षा संस्थानों में भी इस घटना को प्रेरक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत  किया जाता है।

9 पैरा स्पेशल फोर्सेस में सेवाएँ  देने के बाद केशव ने 1 पैरा स्पेशल फोर्सेस की कमान सँभाली। मेजर जनरल का  पद पाकर, सेवानिवृत्त होने से पहले इन्होंने कमांडर स्पेशल फोर्सेस का पदभार भी सँभाला । जनरल केशव को  भारतीय सेना में उल्लेखनीय सेवाएँ  देने के लिए राष्ट्रपति की ओर से ‘अति विशिष्ट सेवा मैडल’ और ‘विशिष्ट सेवा मैडल’ से अलंकृत किया गया। भारत-पाक युद्ध के 50 वर्ष पूरे होने पर आज़ादी के अमृत महोत्सव से सम्बन्धित लेखों में भारत के प्रतिष्ठित समाचार पत्र ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’  (दिनांक 13  सितम्बर, 2021) के मुख पृष्ठ पर वर्ष 1971 के युद्ध की इस घटना का विशेष उल्लेख किया गया।

9 पैरा स्पेशल फोर्सेस ने वर्ष 2016 में सर्जिकल स्ट्राइक करके पाकिस्तान के क्षेत्र में घुसकर आतंकवादियों के ट्रेनिंग कैम्प बर्बाद किए  थे। यह भारतीय  सेना की एकमात्र  पलटन है , जो अदम्य साहस और शौर्य के प्रतीक  ‘अशोक चक्र’ से  चार बार अलंकृत है।