फरवरी- मार्च- 2016
ईश्वर की कोई बौद्धिक
परिभाषा नहीं दी जा सकती।
हाँ, उसका आत्मा के सहारे
अनुभव किया जा सकता है |
– डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
अनुभव किया जा सकता है |
– डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन
माघ के काव्य में तीन विशिष्ठ गुण है। उसमें उपमाएँ हैं। अर्थ गांभीर्य है
और सौंदर्य सृष्टि भी। कहा जाए तो वे उपमाओं के राजा हैं। विशेष बात यह है कि
उन्होंने अधिकांश उपमाएँ प्रकृति के खजाने से ही ली है।
रघुवंश के सोलहवें सर्ग में प्राकृतिक छटा का जो श्लोक है उसका भावार्थ यह है
कि वनों में चमेली खिल गई है जिसकी सुगन्ध चारों ओर फैल रही है। भौंरे एक-एक फू ल
पर बैठकर मानों फू लों की गिनती कर रहे हैं। वसन्त का चित्रण करते हुए एक कवि ने
सजीव एवं बिम्बात्मक वर्णन किया है- लताएँ पुष्पों से युक्त हैं, जल में कमल खिले हैं, कामनियाँ आसक्ति से भरी है, पवन सुगन्धित है,
संध्याएँ मनोरम एवं दिवस रम्य है, वसन्त में
सब कुछ अच्छा लगता है।
सबसे खतरनाक है देश में बच्चों को दूध के नाम पर सफेद जहर परोसा जाना। फूड सेफ्टी स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया के
सर्वे में जो खुलासा हुआ है ,वह यह कि दिल्ली समेत देश के सभी 33 राज्यों
और केन्द्रशासित प्रदेशों में दूध के 68 सैंपल्स मिलावटी पाए गए हैं। केवल गोवा और
पांडीचेरी में दूध के सैंपल्स शुद्ध मिले हैं। संस्था के मुताबिक खुले और पैक्ड,
दोनों तरह के दूध में मिलावट मिली है। दूध में यूरिया, स्टार्च, खाने का सोडा और डिटर्जेंट मिलाए जाने की
बात सामने आई है।
पुनर्वास की तीसरी बड़ी कोशिश राष्ट्रीय स्तर पर गिर के सिंहों को श्योपुर
जिले के कूनो-पालपुर अभयारण्य में बसाने की चल रही है। आज़ादी के पहले इन्हीं
सिंहों को इसी वन प्रांतर में बसाने की पहल ग्वालियर स्टेट के महाराजा माधवराव
सिंधिया ने 1905 में की थी। तब गिर के जंगल जूनागढ़ के नवाबों के अधीन थे। उन्होंने
सिंह देने से साफ इन्कार कर दिया था। दरअसल 1904 के आसपास लॉर्ड कर्जन शिवपुरी, श्योपुर व मोहना के जंगलों में
सिंह व बाघ का शिकार करने आए थे। परंतु उस समय तक इन वनखंडों से सिंह पूरी तरह
लुप्त हो चुके थे। लिहाज़ा कर्जन की शिकार की मंशा पूरी नहीं हो पाई थी। तब कर्जन
ने ही इथोपिया के शासक को सिंह देने बाबत एक सिफारिशी पत्र लिखा, जिसे वन्य जीवन के पारखी जानकर डी.एम. जाल लेकर इथोपिया गए और वहाँ से जहाज़
के जरिए 10 सिंह शावक मुम्बई लेकर आए। हालांकि इनमें से तीन रास्ते में ही मर
गए थे। बचे सात में तीन सिंह और चार सिंहनियां थीं। इनकी अगवानी के लिए स्वयं
ग्वालियर महाराज मुम्बई पहुँचे थे।
अब गौर के पुनर्वास से जुड़े सफल प्रयास और इस गतिविधि पर बनी फिल्म की बात
करते हैं। एक समय मध्यप्रदेश के ही बांधवगढ़ राष्ट्रीय उद्यान में भारी-भरकम वन्य
जीव गौरों की खूब आबादी थी। आठ से नौ क्विंटल वज़नी गौर गौवंशीय प्रजाति है। जंगली
भैंसा, याक, वान्टेंग, मिथुन और गायल
भी इसी श्रेणी में आते हैं। भारत के अलावा गौर अमेरिका और जंगली भैंसा अफ्रीका में
भी पाए जाते हैं। अभी तक याक, वान्टेंग, मिथुन और गायल को तो मवेशियों की तरह पालतू बनाया जा चुका है, लेकिन गौर पूरी तरह जंगली जीव है। 1998 तक बांधवगढ़ में गौर पूरी तरह
विलुप्त हो गए थे। जबकि यहाँ इन्हें अनुकूल परिवेश मिल रहा था और जंगल में
चारा-पानी की कोई कमी नहीं थी।
इस बीच कान्हा से 50 गौरों के विस्थापन व बांधवगढ़ में पुनर्वास का सिलसिला
शुरू हो गया। दक्षिण अफ्रीका के विशेषज्ञों ने ट्रेंक्वीलाइज़र (निद्रादायक औषधि) के मार्फत गौर बेहोश किए। बेहोशी के लिए
19 जनवरी 2011 को अफ्रीकी दल ने जंगल के हालात को समझा और फिर अगले दिन एक मादा के
पुट्ठे में डार्ट दाग कर उसे नीम-बेहोश कर दिया गया। ट्रेंक्वीलाइज़र के बाद किसी
अप्रत्याशित स्थिति का सामना न करना पड़े, इसलिए सात हाथियों पर सवार विशेषज्ञों ने
गौरों के समूह पर नजऱ रखी। इस तरह एक-एक कर पाँच गौरों को बेहोश किया गया। इन्हें
प्रशिक्षित वनकर्मियों ने स्ट्रेचर पर डालकर ट्रक में लादा। इनके लिए तीन खानों
वाले ट्रक तैयार किए गए थे। वनकर्मियों ने बोरों में रेत भरकर लादने का अभ्यास
किया था।
कई शिक्षा प्रशासक यह दलील भी देते हैं कि परीक्षा होने पर ही शिक्षक अपने
शैक्षणिक कार्य के प्रति गंभीर होंगे। लेकिन ज़ाहिर है कि अगर शिक्षक खुद ही
परीक्षा लेते हैं और बच्चों के फेल होने पर उनसे जवाबतलब किया जाएगा, तो शिक्षक सारे बच्चों को पास
करवा देंगे। यह बाह्य बोर्ड परीक्षा का बहाना बन जाता है। आजकल कई राज्यों के
प्रशासक और राज नेता यह कहते हुए देखे जा सकते हैं कि आठवीं और पाँचवीं में बोर्ड
परीक्षा होनी चाहिए और बच्चों को फेल करने का प्रावधान होना चाहिए। इस नौकरशाही
मानसिकता की बुनियाद में गहरा अविश्वास है- शिक्षकों के प्रति और अपने द्वारा
संचालित पूरे तंत्र के प्रति। इसके लिए वही तंत्र काफी हद तक ज़िम्मेदार है ;क्योंकि
शिक्षकों को समय-समय पर कई प्रकार के गैर-शैक्षणिक काम में उलझा कर रखा जाता है।
इस कारण पूरे शिक्षा तंत्र में यह विचार व्याप्त है कि शिक्षक बच्चों को
सामान्यतया तो पढ़ाएंगे नहीं, केवल विशेष परिस्थितियों में
(जैसे बोर्ड परीक्षा) में पढ़ाएंगे। आम अनुभव है कि बाह्य परीक्षाओं को गंभीरता से
लिया जाता है, मगर उतनी ही गंभीरता के साथ उनके तोड़ भी
निकाले जाते हैं। ट्वन्टी क्वेश्चन, कुंजियाँ, पास बुक, कोचिंग क्लास, प्रश्न
पत्र आउट करना, नकल कराना, सामूहिक नकल,
बोर्ड पर उत्तर लिखवाकर बोर्ड परीक्षा करवाना, उत्तर पुस्तिकाओं की जंचाई में हस्तक्षेप आदि इसी के विभिन्न रूप हैं।
हमारे संवैधानिक ढांचे में सब को समान अवसर दिलाना एक बुनियादी वादा है।
समान अवसर का मतलब है कि किसी भी सामाजिक पृष्ठभूमि में जन्मे व्यक्ति, चाहे वह महिला हो या पुरुष या
ट्रांस जेन्डर या भिन्न-सक्षम हो, उसे समाज के किसी पद या
हैसियत पाने की अर्हता होगी; लेकिन ये पद आदि प्राप्त करने के लिए कुछ शैक्षणिक
उपाधियों व उपलब्धियों की ज़रूरत होती है। जब गरीब व वंचित तबके के बच्चों को फेल
किया जाता है, तो उनके लिए ये दरवाज़े बन्द हो जाते हैं। फेल-पास व्यवस्था की एक
खूबी यह है कि समाज इसकी जिम्मेदारी से अपने आपको बचा लेता है- जो बच्चे फेल घोषित
किए जाते हैं, यह दोष उन्हीं के सर पर मढ़ा जाता है।