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Jan 15, 2019

नोबेल शांति पुरस्कार

यौन हिंसा के खिलाफ
 आवाज़ों को मिला सम्मान
- जाहिद खान
नोबेल समिति ने इस साल के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए इराक की यजीदी मूल की नौजवान लड़की नादिया मुराद और कांगो के डॉ. डेनिस मुकवेगे को चुना है। इन दोनों बेमिसाल शख्सियतों को यौन हिंसा के खिलाफ प्रभावी मुहिम चलाने और महिला अधिकारों के लिए उत्कृष्ट कार्य करने के लिए यह प्रतिष्ठित पुरस्कार दिया जा रहा है। दोनों ने अपने-अपने कामों से दुनिया में अमन और लैंगिक समानता बढ़ाने की बेजोड़ कोशिश की और यौन उत्पीड़न के खिलाफ आवाज़ बुलंद की है।
नोबेल समिति की अध्यक्ष बेरिट रेइस एंडरसन ने पत्रकार वार्ता में इन नामों का ऐलान करते हुए कहा कि दोनों ही विजेताओं ने युद्ध क्षेत्र में यौन हिंसा को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की मानसिकता के खिलाफ सराहनीय काम किया है। दोनों इस वैश्विक अभिशाप के खिलाफ संघर्ष की एक मिसाल हैं। एक शांतिपूर्ण दुनिया केवल तभी हासिल की जा सकती है, जब महिलाओं और उनके मौलिक अधिकारों एवं सुरक्षा को युद्ध में पहचाना और संरक्षित किया जाए। मुकवेगे और मुराद दोनों एक वैश्विक संकट के खिलाफ संघर्ष की नुमाइंदगी करते आए हैं, जो कि किसी भी संघर्ष से परे है, जिसे बढ़ते हुए ‘मी टू’ आंदोलन ने भी दिखाया है। उन्होंने कहा कि यौन हिंसा के खिलाफ इनके महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इन्हें नोबेल शांति सम्मान दिया जा रहा है।
पाकिस्तान की मलाला युसुफजई के बाद नादिया मुराद दूसरी ऐसी महिला हैं, जिन्हें इतनी कम उम्र में शांति का नोबेल पुरस्कार मिला है। एक ऐसे वक्त में जब दुनिया में महिलाओं के साथ कई तरह की यौन हिंसा की घटनाएँ सामने आ रही हों, तमाम काशिशों के बाद भी उनका यौन उत्पीड़न रुका नहीं हो, पुरुष आज भी उन्हें अपनी यौन दासी के अलावा कुछ न समझते हों, नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे का सम्मानित होना यह आश्वस्ति प्रदान करता है कि यौन हिंसा पीड़िताओं की सिसकियाँ अनसुनी नहीं है। कोई न सिर्फ उनकी आवाज़ सुन रहा है, बल्कि उसे सारी दुनिया के सामने भी ला रहा है। उनके ज़ख्मों पर अपने कामों से मरहम लगा रहा है। आई एस के आतंक से ग्रस्त इराक में नादिया मुराद और गृहयुद्ध में घिरे कांगो में डेनिस मुकवेगे ने यौन हिंसा की पीड़िताओं के मानवाधिकार की रक्षा के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा दी है। नोबेल शांति पुरस्कार इन दोनों के साहस को मान्यता प्रदान करना है।  
नादिया मुराद बसी ताहा का जन्म इराक के कोजो शहर में साल 1993 में हुआ था। वे इराक की यजीदी मानवाधिकार कार्यकर्ता हैं। मुराद ‘नादिया अभियान’ की संस्थापक हैं। यह संस्था नरसंहार, सामूहिक अत्याचार और मानव तस्करी के पीड़ित महिलाओं और बच्चों की मदद करती है। संस्था उन्हें अपनी ज़िंदगी दोबारा जीने और उन बुरी यादों से उबरने में मदद करती है।
नादिया यौन पीड़िताओं की मददगार और दुनिया भर में उनकी आवाज़ क्यों बनी? इसकी कहानी भी बड़ी हैरतअंगेज़ है। नादिया उन 3,000 यजीदी लड़कियों और महिलाओं में से एक है, जिन्हें साल 2014 में इस्लामिक स्टेट (आईएस) के आतंकवादियों ने अपहरण कर लिया था और उनके साथ लगातार बलात्कार और दुर्व्यवहार किया था। वे करीब तीन महीने तक आईएस के आतंकियों के कब्जे में रहीं, जहां उनके साथ दिन-रात बलात्कार किया गया। वह कई बार खरीदी और बेची गई। किसी तरह से वहां से वह अपनी जान बचाकर निकली। उनके चंगुल से छूटने के बाद, उन्होंने यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए काम करना शुरू कर दिया। इस वक्त वे पूरी दुनिया में महिलाओं को यौन हिंसा के खिलाफ जागरूक करने का काम कर रही हैं। नादिया मानव तस्करी के पीड़ितों के लिए संयुक्त राष्ट्र की गुडविल एंबेसडर भी हैं। नादिया मुराद ने अपने अनुभवों पर एक किताब भी लिखी है, जिसका नाम ‘दी लॉस्ट गर्ल : माई स्टोरी ऑफ कैप्टिविटी एंड माई फाइट अगेंस्ट द इस्लामिक स्टेट’ है। इस किताब में  आईएस आतंकियों की हैवानियत के किस्से भरे पड़े हैं।
नादिया मुराद की तरह डॉ. डेनिस मुकवेगे भी यौन हिंसा के खिलाफ अभियान चला रहे हैं। वे पेशे से स्त्री रोग विशेषज्ञ हैं और यौन हिंसा की शिकार महिलाओं के लिए लंबे समय से काम कर रहे हैं। ‘दी ग्लोब एंड मॉल’ के मुताबिक डॉ. मुकवेगे, बलात्कार की चोटों को ठीक करने के मामले में दुनिया के अग्रणी विशेषज्ञ हैं। डॉ. मुकवेगे को उनके द्वारा युद्धग्रस्त पूर्वी डेमोक्रेटिक रिपब्लिक ऑफ कांगो में महिलाओं को हिंसा, बलात्कार और यौन हिंसा के सदमे से बाहर निकालने में दो दशकों तक किए गए काम के लिए मान्यता मिली है। मुकवेगे कांगो में डॉक्टर चमत्कार के रूप में जाने जाते हैं। कांगो ही नहीं, अन्य अफ्रीकी देशों की महिलाएँ भी उन्हें एक रहनुमा की तरह देखती हैं। मुकवेगे ने अपने द्वारा 1999 में स्थापित पांजी अस्पताल में बलात्कार के हज़ारों पीड़ितों का इलाज किया है। साल 2015 में उनके जीवन पर आधारित फिल्म ‘दी मैन हू मेंड्स विमन’ आई थी। मुकवेगे ने फ्रांसीसी में अपनी आत्मकथा ‘प्ली फॉर लाइफ’ भी लिखी है जिसमें उन्होंने ऐसे तमाम हादसों का ज़िक्र किया है, जिन्होंने उन्हें कांगो में पांजी अस्पताल खोलने को मजबूर किया। अस्पताल में वे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों की हिफाज़त का काम करते हैं। डॉ. मुकवेगे युद्ध के दौरान महिलाओं के दुरुपयोग के एक मुखर आलोचक हैं। उन्होंने अपने भाषणों में कई बार बलात्कार को सामूहिक विनाश का हथियार बताया है। मुकवेगे ने अपना नोबेल शांति पुरस्कार दुष्कर्म और यौन हिंसा से प्रभावित सभी महिलाओं को समर्पित किया है।

शांति का नोबेल पुरस्कार किसी ऐसे शख्स या संस्था को दिया जाता है, जो दो देशों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देते हैं या फिर समाज के लिए अच्छा काम करते हैं, जिससे लोगों को नई जिंदगी-नई राह मिलती है। नादिया मुराद और डॉ. डेनिस मुकवेगे के नाम सुनकर पहली बार ज़रूर सबको हैरानी हुई, लेकिन बाद में जब इनके काम सामने आए, तो सभी ने इनकी जी भरकर तारीफ की। पूरी दुनिया में घरों से लेकर कार्यस्थलों तक और जंग के मैदान एवं गृहयुद्ध की मार झेल रहे देशों में यौन उत्पीड़न को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। इससे न सिर्फ महिलाएँ प्रभावित हैं, बल्कि मासूम बच्चियों को भी यौन हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। यहां तक कि कई युद्धग्रस्त देशों में काम कर रहे संयुक्त राष्ट्र शांति सैनिकों पर भी महिलाओं के यौन उत्पीड़न के गंभीर आरोप लगे हैं।
एक तरफ हम महिलाओं के लिए लैंगिक समानता और बराबरी की बात करते हैं, तो दूसरी ओर लगातर उनका यौन उत्पीड़न और उनके साथ यौन हिंसा हो रही है। तमाम बड़े-बड़े दावों और कानूनों के बाद भी उनके खिलाफ यौन उत्पीड़न, यौन हिंसा में कोई कमी नहीं आई है। विकसित देश हों या विकासशील देश, दुनिया के सभी देशों में महिलाओं की स्थिति कमोबेश एक जैसी है। उन्हें अपनी ज़िंदगी में कभी न कभी यौन उत्पीड़न या यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है। यह वाकई चिंता का विषय है कि दुनिया की आधी आबादी के प्रति हमारा नज़रिया आज भी नहीं बदला है। हम आज भी उन्हें यौन गुड़िया से ज़्यादा नहीं समझते। यह सोचे बिना उनके साथ शारीरिक या मानसिक यौन हिंसा करते हैं कि इससे उनकी भावी ज़िंदगी पर क्या असर पड़ेगा। कहीं इससे उनकी कार्यक्षमता पर तो गलत प्रभाव नहीं पड़ेगा? महिलाओं को यौन उत्पीडन से मुक्ति दिलाकर ही एक समृद्ध एवं सुन्दर दुनिया बनाई जा सकती है। दोनों पुरस्कार विजेता इसी दिशा में काम कर रहे हैं और हमें उनका खुलकर और सक्रिय समर्थन करना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

Feb 23, 2018

गिरीश पंकज को मिला 'व्यंग्यश्री’

गिरीश पंकज को मिला 'व्यंग्यश्री
व्यंग्य- विनोद के शीर्षस्थ रचनाकार, वाचिक परम्परा के उन्नायक और हिन्दी भवन के संस्थापक पंडित गोपालप्रसाद व्यास के जन्मदिवस पर कल 13 फरवरी को हिन्दी भवन के सभागार में सुपरिचित व्यंग्यकार गिरीश पंकज (रायपुर) को बाईसवाँ  'व्यंग्यश्रीसम्मान से विभूषित किया गया।  सम्मान स्वरूप उन्हें एक लाख ग्यारह हजार एक सौ ग्यारह रूपये की राशि, वाग्देवी की प्रतिमा, प्रशस्ति पत्र, रजतश्रीफल तथा शॉल आदि भेंट किए गए। इस अवसर पर मुख्य अतिथि के रुप में सुप्रसिद्ध व्यंग्यकार गोपाल चतुर्वेदी और  विशेष अतिथि के रुप में शेरजंग गर्ग, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल मंचासीन थे। हिदी भवन के अध्यक्ष त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने कार्यक्रम की अध्यक्षता की। हिन्दी भवन के सचिव प्रख्यात कवि डॉ. गोविंद व्यास भी उपस्थित थे। इस अवसर पर गिरीश पंकज ने व्यंग्यश्री के चयन के लिए हिन्दी भवन का आभार माना।
उन्होंने  महान व्यंग्यकार गोपाल प्रसाद व्यास जी के व्यंग्य विनोद सम्बन्धी अवदान याद करने के बाद व्यंग्य के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा व्यंग्यकार को पहले बेहतर मनुष्य होने की कोशिश करनी चाहिए। श्री पंकज ने आपनी कुछ व्यंग्य रचनाएँ भी सुनाई जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया। समस्त उपस्थित वक्ताओं ने गिरीश पंकज के योगदान को रेखांकित किया और अपनी एक-एक प्रतिनिधि रचना का पाठ भी किया। कार्यक्रम का सफल संचालन व्यंग्यकार आलोक पुराणिक ने किया। समारोह में दिल्ली एनसीआर के अनेक लेखक और साहित्यप्रेमी उपस्थित थे।
गिरीश पंकज विगत चालीस वर्षो से व्यंग्य लिख रहे है।  उनके सोलह व्यंग्य संग्रह, सात व्यंग्य समेत बासठ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। पंद्रह छात्रों ने इनके व्यंग्य साहित्य पर शोध कार्य भी किया है।  आपके व्यंग्य देश की महत्त्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशित होते रहे है।  यह सिलसिला आज भी जारी है। 
 व्यंग्य  साहित्य में योगदान के लिए  गिरीश पंकज को अनेक सम्मान  प्राप्त हो चुके है, जिनमें  मिठलबरा की आत्मकथा (उपन्यास) के लिए रत्न भारती सम्मान, भोपाल, लॉफ्टर  क्लब इंटरनेशन, मुंबई द्वारा स्वर्ण पदक सम्मान, अट्टहास न्यूज लेटर, रायपुर के सम्पादन के लिए, माफिया (उपन्यास) के लिए लीलारानी स्मृति सम्मान (पंजाब), अट्टहास युवा सम्मान, लखनऊश्रीलाल शुक्ल (परिकल्पना) व्यंग्य सम्मान, लखनऊ, विदूषक सम्मान, जमशेदपुर, समग्र व्यंग्य लेखन के लिए रामदास तिवारी सृजन सम्मान- राँची, व्यंग्य उपन्यास लेखन के लिए गहमर में प्रदत्त सम्मान प्रमुख हैं।
  गिरीश पंकज साहित्य और पत्रकारिता में निरंतर सक्रिय है।  अनेक देशों का  प्रवास कर चुके गिरीश पंकज कुछ महत्त्वपूर्ण दैनिको में चीफ रिपोर्टर और सम्पादक रहने के बाद इन दिनों  'सद्भावना दर्पणनामक त्रैमासिक अनुवाद पत्रिका का सम्पादन-प्रकाशन कर रहे है।  रायपुर के दैनिक में  प्रतिदिन व्यंग्य लिख रहे हैं।

Oct 20, 2014

शान्ति की साझा विरासत

 बचपन और बालिका शिक्षा के लिए नोबेल
कैलाश सत्यार्थी और मलाला को नोबेल के बहाने भारत-पाकिस्तान की शान्ति की साझा विरासत
                        - आकांक्षा यादव
बचपन एक ऐसी अवस्था है, जो हर किसी का भविष्य निर्धारित करती है।  आज जरूरत इस बचपन को बचाने की है। बचपन का न तो कोई जाति होती है, न धर्म और न ही इसे देशों की परिधि से बाँधा जा सकता है।  तभी तो नोबेल समिति ने जब इस साल के लिए नोबेल शांति पुरस्कार की घोषणा की तो बच्चों के अधिकारों के लिए काम करने वाले भारत के कैलाश सत्यार्थी और बालिकाओं की शिक्षा के लिए कार्य करने वाली पाकिस्तान की सामाजिक कार्यकर्ता मलाला यूसुफजई को संयुक्त रूप से चुना। बचपन बचाओ आन्दोलन से जुड़े सत्यार्थी ने कयों का बचपन बचाने के लिए कार्य किया वहीं मलाला ने बचपन के कटु अनुभवों और हादसे का शिकार होने के बावजूद लकियों की शिक्षा के लिए अलख जगाई रखी। सत्यार्थी नोबेल शान्ति पुरस्कार पाने वाले दूसरे और नोबेल पाने वाले सातवें भारतीय हैं। इससे पहले मदर टेरेसा को यह अवॉर्ड मिला था। वहीं 17 साल की मलाला सबसे कम उम्र में यह अवॉर्ड पाने वाली शख्सियत बनी हैं। यह अजब संयोग है कि भारतीय और पाकिस्तानी को संयुक्त रूप से शान्ति के नोबेल की घोषणा ऐसे वक्त में हुई है ,जब दोनों देशों की सीमा पर भारी तनाव है। पुरस्कार समिति के जूरी ने कहा, 'नार्वे की नोबेल समिति ने निर्णय किया है कि 2014 के लिए शान्ति का नोबेल पुरस्कार कैलाश सत्यार्थी और मलाला यूसुफजई को बच्चों और युवाओं के दमन के खिलाफ उनके संघर्ष तथा सभी बच्चों की शिक्षा के अधिकार के लिए उनके प्रयासों के लिए दिया जाए। नोबेल समिति ने कहा कि एनजीओ 'बचपन बचाओ आंदोलनचलाने वाले सत्यार्थी ने महात्मा गांधी की परंपरा को बरकरार रखा और 'वित्तीय लाभ के लिए होने वाले बच्चों के गंभीर शोषण के खिलाफ विभिन्न प्रकार के शान्तिपूर्ण प्रदर्शनों का नेतृत्व किया है।समिति ने कहा कि वह 'एक हिंदू और एक मुस्लिम, एक भारतीय और एक पाकिस्तानी के शिक्षा और आतंकवाद के खिलाफ साझा संघर्ष में शामिल होने को महत्त्वपूर्ण बिंदु  मानते हैं।
      कैलाश सत्यार्थी का नोबेल के लिए नाम भारत में भले ही कयों को चौंका गया हो पर विदेशों में उनके कार्यों की अक्सर चर्चा और सराहना होती रहती है। वस्तुत: यह पुरस्कार बच्चों के अधिकारों के लिए उनके संघर्ष की जीत है। सत्यार्थी ने  नोबेल कमेटी  का आभार व्यक्त करते हुए कहा भीहैकि उसने आज के आधुनिक युग में भी दुर्दशा के शिकार लाखों बच्चों की दर्द को पहचाना है। मूलत: मध्य प्रदेश के विदिशा जनपद के  निवासी कैलाश सत्यार्थी ने वर्ष 1983 में बालश्रम के खिलाफ बचपन बचाओआंदोलन की स्थापना की थी। उनका यह संगठन अब तक 80,000 से ज्यादा बच्चों को बंधुआ मजदूरी, मानव तस्करी और बालश्रम के चंगुल से छुड़ा चुका है। गैर-सरकारी संगठनों तथा कार्यकर्ताओं की सहायता से कैलाश सत्यार्थी ने हजारों ऐसी फैक्टरियों तथा गोदामों पर छापे पड़वाए, जिनमें बच्चों से काम करवाया जा रहा था। मूलत: कैलाश सत्यार्थी एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर थे, जो 26 वर्ष की आयु में बाल अधिकारों के लिए काम करने लगे। कैलाश सत्यार्थी ने श्रगमार्कश् (त्नहउंता) की भी शुरुआत की, जो इस बात को प्रमाणित करता है कि तैयार कारपेट (कालीनों) तथा अन्य कपड़ों के निर्माण में बच्चों से काम नहीं करवाया गया है। उनकी इस पहल से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा करने में काफी सफलता मिली। कैलाश सत्यार्थी ने विभिन्न रूपों में प्रदर्शनों तथा विरोध-प्रदर्शनों की परिकल्पना और नेतृत्व को अंजाम दिया, जो सभी शान्तिपूर्ण ढंग से पूरे किए गए। इन सभी का मुख्य उद्देश्य आर्थिक लाभ के लिए बच्चों के शोषण के खिलाफ काम करना था।
       पूरी दुनिया में सबसे कम उम्र  में नोबेल पुरस्कार हेतु चयनित होने वाली मलाला यूसुफजई भी पाकिस्तान में बच्चों की शिक्षा से जुड़ी हैं। मलाला का जीवन संघर्ष और साहस की दास्तां है। 17 वर्षीय मलाला तब सुर्खियों में आईं जब  बालिकाओं की शिक्षा की हिमायत करने को लेकर अक्टूबर, 2012 में पाकिस्तान के पश्चिमोत्तर इलाके में स्कूल से घर जाते समय तालिबान के बंदूकधारियों ने मलाला को गोली मार दी थी। हमले के बाद उन्हें  विशेष इलाज के लिए ब्रिटेन भेजा गया था। मलाला  इस पुरस्कार को पाने वाली प्रथम पाकिस्तानी और सबसे कम उम्र की होंगी। उन्होंने यह पुरस्कार उन बच्चों को समर्पित किया जिनकी आवाज सुने जाने की जरूरत है।  मलाला की मासूमियत और शिक्षा के प्रति अनुराग को इसी से समझा जा सकता है कि उन्हें भले ही दुनिया के सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार के लिए चुना गया हो, लेकिन उनकी मुख्य चिंता आने वाले समय में उनकी स्कूली परीक्षाओं को लेकर बनी हुई है।  उन्हें इस बात की चिंता है कि पुरस्कार ग्रहण करने के वक्त की उनकी पढ़ाई छूट जाएगी। सबसे कम उम्र की नोबेल पुरस्कार विजेता के रूप में मलाला ने बर्मिंघम के मकान में अपनी पहली शाम अपने पिता के साथ पाकिस्तानी टीवी देखते हुए बिताया। उन्होंने कहा, ‘मुझे जुकाम हो गया है और अच्छा महसूस नहीं हो रहा है।इस पाकिस्तानी किशोरी के लिए दुनिया भर से संदेशों का अम्बार लग गया, जिन्हें तालिबान हमले के बाद मस्तिष्क की सर्जरी के लिए विमान से बर्मिंघम लाया गया था, ताकि उनकी जान बच सके। मलाला ने कहा, ‘मैं बहुत सम्मानित महसूस कर रही हूँऔर खुश हूँ। लोगों के प्रेम ने सचमुच में मुझे गोलीबारी से उबरने में और मजबूत होने में मदद की। इसलिए मैं वह सब कुछ करना चाहती हूँ जिससे समाज को योगदान मिल सके।
       मलाला इस बात से अवगत थीं कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिल सकता है। पुरस्कार की घोषणा होने के बाद उनके रसायन विज्ञान के क्लास में शुक्रवार को सुबह 10 बजे के बाद शिक्षक के आने की व्यवस्था की गई थी। उन्होंने बताया, ‘हम ताँबे की इलेक्ट्रोलाइसिस के बारे में पढ़ रहे हैं। मेरे पास मोबाइल फोन नहीं है, इसलिए मेरी शिक्षक ने कहा था कि अगर ऐसी कोई खबर होगी तो वह आएगी। लेकिन सवा दस बज गए और वह नहीं आई। इसलिए मैंने सोचा कि मुझे पुरस्कार नहीं मिला। मैं बहुत छोटी हूँ और मैं अपने काम के शुरुआती दौर में हूँ।पर कुछ ही मिनट बाद शिक्षक आ गईं और यह खबर दी। मलाला ने बताया, ‘मुझे लगता है कि मेरे शिक्षक मुझसे ज्यादा उत्साहित थे। उनके चेहरों की मुस्कान मुझसे ज्यादा थी। मैं फिर अपने भौतिक विज्ञान की क्लास के लिए गई।
       एक तरफ बचपन और बालिका शिक्षा को लेकर दुनिया  का सबसे बड़ा पुरस्कार, वहीं दोनों देशों के सम्बन्धों की बिसात पर कुछ लोग इसे कूटनीतिक नजरिये से भी देखते हैं। पर इसके बावजूद  सीमा पर बढ़ते तनाव के बीच नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी और पाकिस्तान की मलाला यूसुफजई दोनों देशों के बीच मजबूत सम्बन्ध बनाने के लिए संयुक्त रूप से काम करने को राजी हैं। मलाला ने कहा, ‘हम साथ काम करेंगे और भारत एवं पाकिस्तान के बीच मजबूत सम्बन्ध बनाने की कोशिश करेंगे। लड़ाई के बजाय प्रगति और विकास के लिए काम करना जरूरी हैफिलहाल लोगों की निगाहें एक बार फिर से बचपन पर हैं और साथ ही भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों पर।  सत्यार्थी और मलाला की संयुक्त मुहिम इसमें कितना रंग लाएगी, यह तो वक्त ही बताएगा पर इन दोनों को सम्मान मिलने से एक बार फिर लोगों का ध्यान बाल श्रम, बाल दासता, बच्चों के यौन शोषण, बालिका शिक्षा जैसे अहम मुद्दों पर गया है। वाकई आज जरूरत बचपन को सहेजने की है और यही इस पुरस्कार की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी।

सम्पर्क: टाइप 5  निदेशक बंगला, जी.पी.ओ कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद (उ.प्र.) 211001,kk_akanksha@yahoo.com, http:// shabdshikhar.blogspot.in

Nov 27, 2010

एक ही परिवार के तीन सदस्य राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित

एक ही परिवार के तीन सदस्य 
राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित
किसी भी व्यक्ति के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार मिलना कई पीढिय़ों को सम्मानित करने वाला सम्मान होता है। और जब एक ही परिवार की दो पीढिय़ां लगातार देश के इस सर्वोच्च सम्मान से नवाजी जा चुकी हों तो फिर कहना ही क्या। छत्तीसगढ़ राज्य के लिए यह बहुत गौरव की बात है कि जांजगीर जिले के चंद्रपुर ग्राम के बुनकर परिवार के तीन- तीन सदस्यों को कोसा कपड़े में कलाकारी करने और उसकी रंगाई में वनस्पति का उपयोग करने के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार दिया गया है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस परिवार की दोनों पीढिय़ां आज भी अपनी इस परंपरागत कला की सेवा कर रही हैं।
पहली बार यह राष्ट्रीय पुरस्कार परिवार के मुखिया सुखराम देवांगन को इंद्रधनुषी साड़ी बनाने के लिए सन् 1988 में प्रदान किया गया था। इसके बाद उनके बड़े बेटे नीलांबर प्रसाद देवांगन को 1992 में कोसा सिल्क साड़ी में विशेष कलाकारी करने के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया। इसके अगले ही वर्ष 1993 में कोसा मयूरी साड़ी बनाने के लिए परिवार के ही छोटे बेटे पूरनलाल देवांगन को भी राष्ट्रपति पुरस्कार प्रदान किया गया। ऐसे सम्मान पाले वाले परिवार पर भला किसे गर्व नहीं होगा।
पिता घासीदास से विरासत में मिली कला को सुखराम ने आगे बढ़ाया तो उनके पुत्र नीलाम्बर और पूरन भी पीछे नहीं रहे उन्होंने भी अपने दादा व पिता से मिली इस परंपरागत कला में कुछ और नया करते हुए इस कला में अपने हुनर की छाप छोड़ी। दोनों मिलकर कोसा कपड़े पर आज भी नए- नए प्रयोग कर रहे हैं और प्रदेश का नाम रोशन कर सफलता की ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। वास्तव में छत्तीसगढ़ को इस परिवार पर गर्व है।
नीलाम्बर और पूरन ने मिलकर कोसा सिल्क साड़ी पर बस्तर के जीवन को जीवंत करने वाली कारीगरी की। नीलाम्बर का मानना है कि उनका झुकाव परंपरागत कलाओं की ओर पहले से ही था। इस दिशा में कार्य करते हुए ही उन्होंने एक नया प्रयोग करने की ठानी और कोंडागांव के लौह शिल्प की कला को साडिय़ों पर जीवंत कर दिखाया।
छत्तीसगढ़ में इस तरह का यह पहला और अनूठा प्रयास था। उनके इस प्रयास को पूरे देश में सराहा गया। हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारे प्रदेश के एक परिवार ने भारतीय शिल्पकला की प्राचीन परंपराओं को जागृत रखा। श्रेष्ठ शिल्पी के लिए नीलाम्बर देवांगन को यह राष्ट्रीय पुरस्कार 12 दिसंबर 2005 को दिल्ली में राष्ट्रपति डॉ ए. पी. जे. अब्दुल कलाम द्वारा दिया गया। वितरण समारोह में इस विधा में पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम उम्र के युवा थे। (उदंती फीचर्स)

Jul 11, 2010

हृषिकेश सुलभ को अंतर्राष्ट्रीय 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान

हृषिकेश सुलभ को अंतर्राष्ट्रीय
 'इन्दु शर्मा कथा सम्मान'
हिंदी के जानेमाने लेखक हृषिकेश सुलभ को उनके कथा संकलन 'वसन्त के हत्यारे' के लिये 'सोलहवां अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान' प्रदान किया गया है।
इस अवसर पर ब्रिटेन में बसे हिंदी लेखक महेन्द्र दवेसर और कादम्बरी मेहरा को ग्यारहवां पद्मानंद साहित्य सम्मान भी प्रदान किया गया। ब्रिटेन में भारत के उच्चायुक्त नलिन सूरी ने ब्रिटिश संसद के हाउस ऑफ कॉमन्स में इन लेखकों को सम्मानित किया। ब्रिटेन में लेबर पार्टी के सांसद बैरी गार्डिनर और वीरेन्द्र शर्मा ने सम्मान समारोह की मेजबानी की। इस अवसर पर बैरी गार्डिनर का कहना था कि जिन सवालों का जवाब राजनीति नहीं दे पाती, उनका जवाब साहित्य में खोजा जा सकता है।
सोलहवें अंतर्राष्ट्रीय इन्दु शर्मा कथा सम्मान से अलंकृत कथाकार हृषिकेश सुलभ ने कहा कि उनके लिए लिखना जीने की शर्त है। बिहार की जिस जमीन से वे आते हैं वहां एक- एक सांस के लिये संघर्ष करना पड़ता है।
कथा यूके के महासचिव तेजेन्द्र शर्मा के अनुसार यह समारोह ब्रिटेन में बसे एशियाई लेखकों के बीच संवाद का माध्यम बन रहा है। हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू, बांग्ला, पंजाबी सहित कई भाषाओं के लेखक हमसे जुड़ रहे हैं। कथा यूके द्वारा प्रकाशित लेखकों की प्रतिनिधि रचनाओं से ब्रिटेन में साहित्य संस्कृति की नई एशियाई छवि उभरी है। उन्होंने पिछले वर्ष के दौरान दुनियां भर में हुई कथा यूके की गतिविधियों की जानकारी देते हुए बताया कि हम विभिन्न समुदायों के बीच संवाद की नई पहल कर रहे हैं। यह इस आयोजन के इतिहास में यह महत्वपूर्ण अवसर है जब ब्रिटेन के दो सांसद बैरी गार्डिनर, वीरेन्द्र शर्मा हाउस ऑफ कॉमन्स में इसकी मेजबानी कर रहे हैं।
समारोह में ब्रिटिश सांसद लॉर्ड तरसेम किंग, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय, बीबीसी हिंदी के पूर्व प्रमुख कैलाश बुधवार, कलाकार दीप्ति शर्मा, कथाकार सूरज प्रकाश, पत्रकार अजित राय, जय वर्मा, निखिल कौशिक, सहित साहित्य, राजनीति, मीडिया, व्यवसाय, समाज सेवा एवं अन्य क्षेत्रों से जुड़ी कई हस्तियां मौजूद थीं।
- अजित राय