हर कोई इस संसार को बदल डालने के विषय में सोचता है; किन्तु स्वयं को बदल डालने के विषय में कोई भी नहीं सोचता।
- लियो टॉल्स्टाय
- लियो टॉल्स्टाय

पुरुषों के दो वर्ग हैं शासक और शोषित लेकिन स्त्रियों का सिर्फ एक वर्ग है शोषित। दुनिया की तमाम स्त्रियाँ आज भी अपने अधिकार से वंचित है, भले ही कई देशों ने बराबरी का अधिकार दिया हो। कोई भी स्त्री हो उत्पादन का कार्य करती ही है। चाहे खेत में अनाज उपजाए या पेट में बच्चा। शिक्षित हो या अशिक्षित; घरेलू कार्य की जवाबदेही स्त्री की ही होती है। फिर भी स्त्री को कामगार या श्रमिक नहीं माना जाता है। खेत, दिहाड़ी, चौका-बर्तन, या अन्य जगह काम करने वाली स्त्रियों को पारिश्रमिक मिलता है; भले पुरुषों से कम। लेकिन एक आम घरेलू स्त्री जो सारा दिन घर का काम करती है, संतति के साथ ही आर्थिक उपार्जन में मदद करती है; परन्तु उसके काम को न सिर्फ नज़रंदाज़ किया जाता है बल्कि एक सिरे से यह कह कर खारिज कर दिया जाता है कि 'घर पर सारा दिन आराम करती है, खाना पका दिया तो कौन-सा बड़ा काम किया, बच्चे पालना तो उसकी प्रकृति है, यह भी कोई काम है।‘ एक आम स्त्री के श्रम को कार्य की श्रेणी में रखा ही नहीं जाता है; जबकि सत्य है कि दुनिया की सारी स्त्री श्रमिक है, जिसे उसके श्रम के लिए कभी कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है।
जैसा कि सभी जानते हैं, प्लास्टिक की चीज़ों को नष्ट करना आसान नहीं है। मगर इन सिरिंजों का भी पुन: चक्रण किया जाता है। कबाडिय़ों के भंडार से प्लास्टिक, लोहा, काँच, कागज़ आदि वस्तुएं विभिन्न कारखानों में पहुँच जाती हैं, जहाँ उनका पुन: चक्रण किया जाता है। लोहा आदि धातुओं को तो फिर से उच्च ताप पर पिघलाकर पुन: उपयोग किया जाता है, जिससे इनमें विषाणु के रहने की आशंका नगण्य ही होती है। लेकिन प्लास्टिक कूड़े को अल्प ताप पर पिघलाकर पुन: उपयोगी बनाया जाता है, जिसमें जीवाणुओं के मौजूद रहने का खतरा भरपूर रहता है। इससे अधिक ताप पर प्लास्टिक जल जाता है। जलकर प्लास्टिक भयंकर विषैली गैस में बदलता है जो वातावरण के लिए अत्यंत हानिकारक है। दूरदर्शन पर इन सिरिंजों तथा सुइयों के व्यापार पर एक कार्यक्रम में दिखाया गया था कि इन्हें खरीदकर फिर से पैक करके बेच दिया जाता है। यहीं से शुरुआत होती है इन डिस्पोज़ेबल वस्तुओं द्वारा आपको डिस्पोज़-ऑफ (नष्ट) करने की।
सामान्यत: तो डिस्पोज़ेबल सिरिंज एवं सुई दोबारा उपयोग नहीं की जानी चाहिए। यदि किसी कारणवश की भी जाती है, तो उन्हें गामा किरणों के द्वारा पूर्णत: जीवाणुमुक्त करना चाहिए। इन प्लास्टिक सिरिंजों को उबालने पर प्लास्टिक पिघलता है तथा इन पर कई प्रकार के पदार्थ चिपक जाते हैं। यदि ये किसी संक्रामक रोगी के लिए इस्तेमाल की गई हों तो उसका संक्रमण दोबारा उपयोग के वक्त दूसरे मरीज़ में प्रवेश कर सकता है, जिसकी वजह से एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ जाता है। यह खतरा उन नशेडिय़ों में और भी अधिक हो गया है, जो इंजेक्शन द्वारा नशा लेते हैं तथा एक ही इंजेक्शन एवं सुई को कई व्यक्ति उपयोग में लाते हैं।
इन डिस्पोज़ेबल वस्तुओं से बीमारियों के फैलने का खतरा इसलिए भी बढ़ता जा रहा है क्योंकि इन डिस्पोज़ेबल्स को डिस्पोज़ (नष्ट) करने का आसान तरीका उपलब्ध नहीं है और न ही इन्हें नष्ट करने के लिए चिकित्सक, नर्सिंग होम एवं स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा कोई ठोस कदम उठाए जा रहे हैं। आज अधिकतर शासकीय एवं अशासकीय अस्पतालों में इन डिस्पोज़ेबल उपकरणों एवं अन्य संक्रामक पदार्थों जैसे टी.बी. मरीज़ का बलगम, उनके फेफड़ों से निकाला गया संक्रमित पानी, हैज़े के मरीज़ का मल एवं संक्रमित ड्रेसिंग नष्ट करने की कोई स्थाई व्यवस्था, जैसे इन्सीनरेटर (जिसमें यह सब उच्च तापमान पर नष्ट हो जाएँ) नहीं है। व्यवस्था है तो बस इतनी कि इन्हें या तो दूर फेंक दिया जाता है या फिर नाली में बहा दिया जाता है, जहाँ से ये नए संक्रमणों को जन्म देते हैं। कोई अति उत्साही हुआ, तो इन्हें जला देता है।
महानदी सिहावा पर्वत से निकलती है। सिहावा ही वह स्थान है, जहाँ ऋषि श्रृंगी जी का आश्रम था। उनके आशीर्वाद से दशरथ जी तथा माता कौशल्या के आंगन में चार पुत्र खेले। छत्तीसगढ़ की बेटी भगवान श्री राम की माता कौशिल्या जी छत्तीसगढ़ की बेटी है। छत्तीसगढ़ के ऋषि श्रृंगी को यज्ञ सम्पन्न करने के लिए अयोध्या नरेश ने निवेदन किया। सिहावा से निकलने वाली महानदी, धमतरी राजिम चम्पारण्य से होकर माता कौशिल्या के जन्म स्थान आरंग को स्पर्श करती है। सिरपुर, शिवरीनारायण,चन्द्रपुरा, रायगढ़ होकर यह ओडि़शा में प्रवेश करती है।
कई रोगी विशेष तौर पर जिन्हें यकृत और अग्न्याशय का कैंसर होता है, शुरू में सम्पूर्ण बडविग आहार पचा नहीं पाते हैं। ऐसी स्थिति में डॉ. बडविग कुछ दिनों तक रोगियों को अंतरिम या ट्रांजीशन आहार लेने की सलाह देती थी। अंतरिम आहार में रोज 250 ग्राम अलसी दी जाती है। कुछ दिनों तक रोगी को ओटमील के सूप में ताजा पिसी हुई अलसी मिला कर दिन में कई बार दी जाती है। इस सूप को बनाने के लिए एक पतीली में 250 एम एल पानी लें और तीन बड़ी चम्मच ओटमीन डाल कर पकायें। ओट पक जाने पर उसमें बड़ी तीन चम्मच ताजा पिसी अलसी मिलायें और एक उबाल आने दें। फिर गैस बंद कर दे और दस मिनट तक ढक कर रख दें। अलसी मिले इस सूप को खूब चबा-चबा कर लार में अच्छी तरह मिला कर खाना चाहिये क्योंकि पाचन क्रिया मुँह में ही शुरू हो जाती है। इस सूप में दूध या संतरा, चेरी, अंगूर, ब्लूबेरी आदि फलों के रस भी मिलाये जा सकते हैं, जो पाचन- शक्ति बढ़ाते हैं। इसके डेढ़- दो घंटे बाद पपीते का रस, दिन में तीन बार हरी या हर्बल चाय और अन्य फलों के रस दिये जाते हैं। अंतरिम आहार में पपीता खूब खिलाना चाहिये। जैसे ही रोगी की पाचन शक्ति ठीक होने लगती है उसे अलसी के तेल और पनीर से बने ओम-खण्ड की कम मात्रा देना शुरू करते हैं। और धीरे-धीरे सम्पूर्ण बडविग आहार शुरू कर दिया जाता है।
नाश्ते से आधा घंटा पहले बिना चीनी की गर्म हर्बल या हरी चाय लें। मीठा करने के लिए एक चम्मच शहद या स्टेविया (जो डॉ. स्वीट के नाम से बाजार में उपलब्ध है) का प्रयोग कर सकते हैं। यह नाश्ते में दिये जाने वाले अलसी मिले ओम-खण्ड के फूलने हेतु गर्म और तरल माध्यम प्रदान करती है।
नाश्ते के एक घंटे बाद रोगी को गाजर, मूली, लौकी, मेथी, पालक, करेला, टमाटर, करेला, शलगम, चुकंदर आदि सब्जियों का रस ताजा निकाल कर पिलायें। सब्जियों को पहले साफ करें, अच्छी तरह धोयें, छीलें फिर घर पर ही अच्छे ज्यूसर से रस निकालें। गाजर और चुकंदर यकृत को ताकत देते हैं और अत्यंत कैंसर रोधी होते हैं। चुकंदर का रस हमेशा किसी दूसरे रस में मिला कर देना चाहिये। ज्यूसर खरीदते समय ध्यान रखें कि ज्यूसर चर्वण (masticating) विधि द्वारा रस निकाले न कि अपकेंद्री (Centrifugal) विधि द्वारा।