उदंतीः अप्रैल 2013शांति से बढ़कर कोई तप नहीं, संतोष से बढकर कोई सुख नहीं,
तृष्णा से बढ़कर कोई व्याधि नहीं और दया के समान कोई धर्म नहीं
- चाणक्य
अनकही: जल संकट की आहट.. -डॉ. रत्ना वर्मा
उदंतीः अप्रैल 2013
अपने बचपन को याद करती हूँ, तो याद नहीं आता कि कभी पानी की इतनी गंभीर समस्या नजर आई हो जैसी इन दिनों हम देख रहे हैं। वह शायद इसलिए कि आज से पाँच दशक पहले तक हमारे आस-पास तालाब, कुएँ, पोखर, नहर, नदी आदि जल के विभिन्न स्रोत उपलब्ध रहा करते थे। इतना ही नहीं तब न पर्यावरण इतना प्रदूषित हुआ था, न जल -संकट की ऐसी भीषण समस्या नजर आती थी। धरती हरी-भरी थी, चारो ओर जँगल ही जँगल थे, कुएँ और तालाब इतने कि गिनती नहीं कर सकते थे। तब न आज की तरह वैज्ञानिक थे, जो बताते कि जल को कैसे संरक्षित किया जाए, मानसून के पानी को तालाब, पोखर कुएँ में संरक्षित करने की कला पीढ़ी दर पीढ़ी समाज में सदियों से चली आ रही थी। बचपन में हमें प्रकृति के प्रति जागरूक करने वाली बातें किस्से कहानियों के माध्यम से बताए-सिखाए जाते थे- कि जल बिना जीवन संभव नहीं है। हमें बचपन से ही प्रकृति के प्रति इतना संवेदनशील बना दिया जाता था कि रात में गलती से पेड़ पौधों को छू भी देते थे या कोई पत्ती तोड़ लेता था तो यह कहकर उनकी रक्षा के प्रति सचेत किया जाता था कि पेड़-पौधे भी रात में सोते हैं, उनको छुओ मत। इसी तरह तब गाँव में बड़, पीपल, नीम और आँवला जैसे कई पेड़ों की पूजा क्यों की जाती थी, आज उसका महत्त्व समझ में आता है। तब उन्हें बचाने का सबसे सुलभ रास्ता, उन्हें पूजनीय बना देना ही था। जाहिर है जो स्थान या वस्तु देव तुल्य बना दी जाए, उसे कोई भी कैसे नुकसान पँहुचा सकता है। यही स्थिति जल के स्रोतों पर भी लागू होती थी; इसलिए गाँव-गाँव में कुआँ, तालाब खुदवाने की सांस्कृतिक परम्परा सदियों से चली आ रही है। नया तालाब या कुआँ खोदने के बाद उनकी पूजा, विवाह आदि की परंपरा थी। (उदंती के इसी अंक में राहुल सिंह जी अपने आलेख के माध्यम से छत्तीसगढ़ के तालाबों के बारे में शोधपरक जानकारी दे रहे हैं, जिससे आपको पता चलेगा कि तालाबों का हमारे जीवन और हमारी संस्कृति से कितना गहरा संबंध है।)
बीसवीं सदी के सातवें दशक के शुरूआती दिन थे। ये दिन हमारे बचपन की भरी जवानी के दिन थे। तब के पंजाब के इस छोटे से फौजी शहर अम्बाला छावनी का वह मुहल्ला हम हम-उम्र बच्चों के लिए मानो संपूर्ण संसार था। वह आधा मुहल्ला था, जो पीछे गली से जुड़ा था। गली पीछे से बंद थी। इसमें कुल पंद्रह-सोलह घर थे। तब किसी के रहन-सहन में लगा ही नहीं कि दूसरों से कोई फर्क है। एकाध को छोड़ सबके सब करीब एक ही माली हालत में जी रहे थे। उनमें सब्जी वाला, चाय वाला, ठेले वाला, ताँगे वाला, डाकखाने का मुँशी, रेलवे का मुँशी, बूचडख़ाने का मुँशी, रंगसाज, बैंक का क्लर्क, पहरेदार, कबाड़ी वगैरा थे। जमींदार और मिल स्टोर के मालिक भी थे। लेकिन हमें उन सबसे कोई मतलब न था। अब लगता है कि सातवीं-आठवीं क्लास में आने तक हम सबका एक ही मकसद था- खेलना। इसमें न तो अमीर-गरीब का फ़र्क था, न लड़के-लड़की का, न ही छोटे-बड़े का। जो जब घर से बाहर निकल आए, खेल में शामिल हो जाए। स्कूल से आकर बस्ता पटका, कुछ खाया न खाया, और घर से बाहर। कोई खेल हो, कोई खिलाड़ी हो- सब सहज स्वीकार। भक्त वह है जो विभक्त न हो। इस नाते हम पंद्रह-बीस बच्चे खेलों के परम भक्त थे।
एक खेल था-चील-चील काटा। इसमें सारे बच्चे दो टोलियों में बँट जाते। यह दो बच्चों से लेकर कितने भी बच्चों के बीच खेला जा सकता था। इसमें दो टोलियाँ बनायी जाती थीं। दोनों एक-दूसरी टोली से छिपकर मिट्टी के ठीकरों, स्लेट, कॉपी, दीवार वगैरा पर बत्ती, चाक या कोयले वगैरा से लकीरें लगाती थी। लगाकर इन्हें छिपा दिया जाता था। काफी वक्त के बाद एक टोली का बच्चा एक जगह आँख पर हाथ रखकर या दीवार की तरफ मुँह कर तयशुदा गिनती (बीस या पचास) गिनता। इसके बाद एक टोली दूसरी टोली की लकीरों वाली चीजें ढूँढ-ढूँढकर उन्हें काटती जाती। जो चीजें ढूँढने से रह जातीं, उनकी लकीरों की गिनती की जाती। जिस टोली की बची हुई लकीरें ज्यादा निकलतीं, वह जीत जाती।
वीरता का पथ विश्वशांति और सौहार्द
की ओर जाता है और युद्ध में मानवीयता का एक महत्वपूर्ण पक्ष भी होता है। पाकिस्तान
की फौज ने बार-बार इन नियमों का उल्लंघन कर युद्ध की नैतिकता को खुली चुनौती दी
है।
इस संदर्भ में मैं आपसे एक ऐसा दृष्टांत बाँटना
चाहूँगी जो पाकिस्तानी सेना की बर्बरता के बिल्कुल विपरीत भारतीय सेना के नैतिक
मूल्यों, भारतीय संस्कृति के आदर्शों पर प्रकाश डालता है । वर्ष 1971 के भयंकर भारत-पाक युद्ध
के समय भारतीय सेना की पलटन (स्पेशल फोर्सिस की एक इकाई) जम्मू कश्मीर में छम्ब
क्षेत्र में तैनात थी। वहाँ 17 दिन के भयानक युद्ध के समय हमारी पलटन तथा पाक सेना की एक पलटन की
आपसी मुठभेड़ में शत्रु पक्ष के बहुत सारे सैनिक बुरी तरह घायल हो गए। परिस्थिति
ऐसी थी कि वे सभी उस समय घायल अवस्था में
भारतीय सीमा से लगे हुए क्षेत्र में थे; जिन्हें पाकिस्तानी सेना रात के अँधियारे में वहीं छोड़ कर चली गई
थी। हमारे सैनिकों ने उन सभी पाकिस्तानी घायलों को उठा कर पास के मेडिकल कैम्प तक
पहुँचाया; जहाँ डाक्टरों ने उनकी मरहम पट्टी करने के बाद में युद्धबंदियों के
कैम्प में भेजा। उन घायल शत्रु सैनिकों में एक पाकिस्तानी सेना के कर्नल भी थे, जिनकी अवस्था काफी गंभीर
थी। उनकी मरहम पट्टी करते समय भारतीय
डाक्टरों को पता चला कि उनके शरीर को भारी मात्रा में रक्त पूर्ति की आवश्यकता थी, इसके बिना उनकी मृत्यु भी
हो सकती थी। उस चिकित्सा शिविर में हमारे वीर सैनिकों ने मानव धर्म की उच्चतम
मिसाल देते हुए उनके लिए अपना रक्त दान किया।
ऐसे में न केवल हमारे चिकित्सा कर्मियों ने, अपितु केवल एक रात पहले इन्हीं के साथ युद्ध में संलग्न सैनिकों ने
रक्त दानकर के भारतीय सेना के उच्चतम आदर्शों का परिपालन किया।