क्षमा करना सबके बस की बात नहीं, क्योंकि यह मनुष्य को बहुत बड़ा बना देती है। -स्वामी दयानंद सरस्वती
अनकहीः गुलाबी रंग बनाम
महिला सशक्तीकरण -डॉ. रत्ना वर्मा
अनकहीः गुलाबी रंग बनाम
महिला सशक्तीकरण -डॉ. रत्ना वर्मा
घर से बाहर हमारे खेलने को- इप्पल -दुपपल, कीलम काटी झर्रबिल्इया, चूहा भाग बिल्ली आई, घोड़ा है जमालशाही पीछे देखो मार खाई न जाने कितने खेल थे पर गिल्ली -डंडे में खूब मन लगता था। मेरा एक थैला गिल्लियों से भरा रहता । बढ़ई काका खूब बना-बना कर देते। एक खो जाय तो दूसरी हाजिर। अक्सर छोटे डंडे से गिल्लियाँ उड़ जाती जो मिलती नहीं थीं। कभी -कभी अपने साथियों को भी गिल्ली दे देती, फिर वे मेरी बात बहुत मानते ।
भौगोलिक रूप से कोलकाता के दक्षिण में लगभग 1200 किलोमीटर की दूरी पर बंगाल की खाड़ी में प्रकृति के खूबसूरत आगोश में 8249 वर्ग कि.मी. में विस्तृत 572 द्वीपों (अंडमान-550, निकोबार-22) के अंडमान-निकोबार द्वीप समूह में भले ही मात्र 38 द्वीपों (अंडमान-28, निकोबार-10) पर जन-जीवन है, पर इसका यही अनछुआपन ही आज इसे ‘प्रकृति के स्वर्ग रूप में परिभाषित करता है। अण्डमान और निकोबार द्वीप समूह की राजधानी पोर्टब्लेयर, जो कि यहाँ का प्रमुख बन्दरगाह भी है, पर सेल्युलर जेल अवस्थित है। 1789 में यहाँ कब्जा करने वाले ईस्ट इण्डिया कम्पनी के लेफ्टिनेंट लॉर्ड आर्किबल्ड पोर्ट ब्लेयर के नाम पर इसका नामकरण पोर्टब्लेयर किया गया। वनाच्छादित इन जंगलों में दुनिया की सबसे प्राचीन जनजाति शोम्पेन और जारवा बसी हुई हैं। इसी द्वीप पर 1857 के संग्राम पश्चात जनवरी 1858 में अंग्रेजों ने पुन: कब्जा कर स्वाधीनता सेनानियों के निष्कासन के लिए चुना, जिसे ‘दण्डी बस्ती’ कहा गया। इसी दण्ड को जनभाषा में ‘काला पानी’ की सजा कहा गया। 10 मार्च 1858 को पहली बार 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाले 200 लोगों के जत्थे को लेकर जेम्स पेरिकन वाकर जहाज से अण्डमान पहुँचा, तो अप्रैल 1868 में 737 स्वतंत्रता सेनानियों का दूसरा जत्था कराची से यहाँ लाया गया। इन सभी को आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। अंग्रेजी सरकार को लगा कि सुदूर निर्वासन व यातनाओं के बाद ये स्वाधीनता सेनानी स्वत: निष्क्रिय व खत्म हो जायेंगे पर दण्डी बस्ती में यह निर्वासन भी इन सेनानियों की गतिविधियों को नहीं रोक पाया। वे तो पहले से ही जान हथेली पर लेकर निकले थे, फिर भय किस बात का। अपने विद्रोही तेवरों के लिए मशहूर प्रथम जत्थे के 200 पंजाबी सेनानियों ने 1 अप्रैल 1859 को सुपरिन्टेण्डेण्ट वाकर को मारने का प्रयास किया, पर किसी तरह वाकर ने वहाँ से भागकर अपनी जान बचायी। इस विद्रोह में इन बन्दी सेनानियों ने बन्दूकों, चाकुओं व कुल्हाड़ियों की मदद से नौसैनिक प्रहरियों की हत्या कर बस्ती के गोदाम और प्रहरी नौकाओं पर कब्जा कर लिया था। बन्दी सेनानियों का यह प्रथम संगठित प्रयास था पर इससे पूर्व भी कई बन्दी सेनानियों ने विद्रोह कर भागने का प्रयास किया था।
8 फरवरी 1872 को वहाबी आन्दोलन से जुड़े भोरअली ने भारत के वायसराय लार्ड मेयो की हत्या कर दी। अंग्रेजी सरकार ने घबराकर भोरअली को मृत्युदण्ड की सजा देते हुए वाइपर नामक द्वीप पर फाँसी पर लटका दिया। इस घटना ने अंग्रेजी सरकार को हिला कर रख दिया और अंतत: अंग्रेजी सरकार ने दण्डी बस्ती को कारागार में बदलने का कठोर निर्णय लिया। बन्दी सेनानी से द्वीपों में जंगलों की सफाई, पेड़ काटने व पत्थर तोड़ने जैसे कार्य करवाए गए, ताकि कारागार का निर्माण हो सके। 1890 में सर चाल्र्स जे. लायल एवं ए. एस. लेथ पोर्टब्लेयर आए तथा कारागार निर्माण की अनुमति दी। पर यह निर्माण कार्य 6 साल बाद 1896 में आरम्भ हुआ तथा 10 साल बाद 10 मार्च 1906 को पूरा हुआ। सेलुलर जेल के नाम से प्रसिद्ध इस कारागार में 698 बैरक (सेल) तथा 7 खण्ड थे, जो सात दिशाओं में फैल कर पंखुडीदार फूल की आकृति का एहसास कराते थे। इसके मध्य में बुर्जयुक्त मीनार थी, और हर खण्ड में तीन मंजिलें थीं। सेलुलर जेल के निर्माण के बाद यहाँ दिए जाने वाले दण्डों की भयावहता और भी बढ़ गयी। इस दौरान न सिर्फ वहाबी आन्दोलन (1830-1869), बल्कि मोपला आन्दोलन (1792-1947), प्रथम रम्पा आन्दोलन (1878-1879), द्वितीय रम्पा आन्दोलन (1922-1924), तरा़वड़ी किसान आन्दोलन, बर्मा आन्दोलन (1930) इत्यादि में भाग लेने वाले स्वाधीनता सेनानियों को काले पानी का आजीवन कारावास भोगने के लिए इस सेलुलर जेल में भेजा गया। सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पश्चात क्रान्तिकारियों को स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रियता से भाग लेने के कारण चार वर्ष की अवधि में ही 488 क्रान्तिकारी कालापानी की सजा हेतु सेलुलर जेल भेज दिए गए। इन क्रान्तिकारियों का मनोबल तोडऩे और उनके उत्पीडऩ हेतु यहाँ पर तमाम रास्ते अख्तियार किए गए। स्वाधीनता सेनानियों और क्रातिकारियों को राजनैतिक बंदी मानने की बजाय उन्हें एक सामान्य कैदी माना गया। यही कारण था कि उन्हें लोहे के कोल्हू चलाने हेतु बैल की जगह जोता गया और प्रतिदिन 15 सेर तेल निकालने की सजा दी गयी। यह अलग बात है कि सौ में एकाध ही ऐसा होता जो दिन-भर कोल्हू में जुतकर 15 सेर तेल निकाल पाता। तेल पूरा न होने पर थप्पड़ पड़ते, और बेतें बरसतीं। इतिहास गवाह है कि अलीपुर ‘षडयंत्र से जुड़े क्रान्तिकारी उल्लासकर इसी प्रकार की सजा के चलते अपना मानसिक संतुलन खो बैठे और 14 साल तक मद्रास के मानसिक चिकित्सालय में भर्ती रहे। बन्दी सेनानियों को खाने के लिए दी जाने वाली रोटी में कचरे के साथ कीड़ों-मकोड़ों का मिश्रण होता, सब्जी में उन्हें जंगली घास उबाल कर दी जाती, पहनने हेतु मोटे खुरदुरे टाट के कपड़े दिए जाते, जो कोड़ों से छिले बदन पर सुई की भाँति चुभते और ये कपड़ा न पहनने पर नंगे छिले बदन को समुद्री पानी की नमकीन वायु की तीक्ष्ण जलन सहनी पड़ती थी। बेंत की मार, एकांतवास की सजा, कोल्हू में जुतना इत्यादि के साथ मल-मूत्र करने पर भी रोक-टोक थी। सुबह-शाम व दोपहर को छोडक़र अन्य समय शौच जाना अपराध माना जाता था। कोठरी में रात को एक ही कैदी रहता था तथा पेशाब करने के लिए एक मटका कोठरी में रहता। रात के बारह घंटों में कोई शौच न कर पाता था। यदि किसी को शौच लगता तो उसे डॉक्टर से कहकर बारी से आज्ञा लेनी पड़ती। उस पर भी यदि कोई बन्दी कमरे में ही शौच कर देता तो उसे तीन-चार दिन तक दिन-भर खड़े रहने की सज़ा दी जाती। उस हालत में सबेरे छ: से दस और दोपहर को बारह से पाँच बजे तक हथकड़ी में खड़ा होना पड़ता और उस समय शौच तो क्या पेशाब पर प्रतिबन्ध होता।
काला पानी की अमानवीय यातनाओं के बीच भी ये बन्दी सेनानी अपना उल्लास नहीं खोते थे। 16 वर्षीय किशोर बेनी गोपाल मुखर्जी तो अण्डमान आते ही जेल में चल रही भूख हड़ताल में शामिल हो गया। क्रान्तिकारी पत्र ‘स्वराज’ के सम्पादक नन्द गोपाल चोपड़ा ने तो अपनी हाज़िरजवाबी से वहाँ के स्टाफ को खूब परेशान किया। उन्होंने कोल्हू में चलने से इनकार कर दिया और जब जोर-जबरदस्ती की गई तो खूब धीमे-धीमे चलते रहे। नतीजन खाने के समय तक अपने हिस्से का एक तिहाई तेल ही निकाल पाए। जब खाने की बारी आई तो जमादार ने उनसे जल्दी खाकर काम में जुटने को कहा तो मुस्कराते हुए उन्होंने जमादार को जल्दी-जल्दी खाने से होने वाले पेट के विकारों पर लम्बा भाषण दे डाला। खीझकर जमादार जेलर को बुला लाया और जब जेलर ने उन्हें कोड़े लगाने की धमकी दी ,तो सम्पादक जी ने बड़ी मासूमियत से जेलर साहब को याद दिलाया कि खाने का समय 10 से 12 बजे तक नियत है और उन्हें इस सम्बन्ध में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। खाना खाकर नन्द गोपाल चोपड़ा ने एक लम्बी नींद ली। अनुशासन भंग के कारण जेलर ने उन्हें एकान्तवास की सजा दी, पर इसी बहाने वे कोल्हू में जुतने से बच गए। देशभक्ति के जज्बे से भरे इन देशभक्तों ने सेल्युलर जेल की दीवारों पर भी अपने शब्द चित्र अंकित किए हैं।
साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।