प्रकृति
अपनी उन्नति और विकास में रुकना नहीं जानती और अपना अभिशाप प्रत्येक अकर्मण्यता पर
लगाती है। - गेटे
पर्यावरण विशेष
अब यह 45 कैम्प गंगा के किनारे 183510 वर्ग मीटर के क्षेत्र पर फैले हैं। सबसे अधिक कैम्प सिंग्ताली और उसके बाद शिवपुरी में हैं। इस लेखक को याद है कि 1979 में सर्वे के दौरान शिवपुरी में ऋषिकेश में अधिकारियों से गंगा के किनारे एक टेंट लगाने की इजाजत नहीं मिली थी- क्योंकि अधिकारियों को भय था कि गंगा गंदी हो जायेगी। अब तो इन कैम्पों में प्रति कैम्प 15 से 35 पर्यटक रहते हैं। इसके अतिरिक्त वहाँ काम करने वाले लोग अलग से इन स्थानों पर प्रति कैम्प औसत शौचालय 4 से 10 तक हैं, तथा हर कैम्प की अपनी रसोई एवं भोजनालय अलग से है।
रण का नुकसान होता है। फारुखी के अनुसार 1970 से 2000 के बीच जैव- विविधता में 40 प्रतिशत की गिरावट आई है, जबकि आदमी का पृथ्वी पर दबाव 20 प्रतिशत बढ़ गया। विकास कुछ इस प्रकार हुआ है कि अमीर अधिक अमीर हो गए और गरीब अधिक गरीब। ऐसी अवस्था में फारुखी व उनके साथी कहते हैं कि जब झुण्ड के झुण्ड अमीर टूरिस्ट आते हैं तो सभी स्थानीय वस्तुओं की मांग कई गुना अधिक बढ़ जाती है। इनमें सबसे अधिक मांग बढ़ती है लकड़ी की। गरीब गाँव वाले टूरिस्ट कैम्पों को लकड़ी बेचने में कुताही नहीं करते- उनको भी लालच रहता है। लकड़ी की मांग इतनी बढ़ चुकी है कि स्थानीय लोगों को सीजन में मुर्दा फूकने तक को लकड़ी नहीं मिल पाती। दूसरी ओर स्थानीय लड़कियों एवं स्त्रियों को नहाने के लिए नित्य नए स्थान ढूँढने पड़ते हैं क्योंकि उनके क्षेत्रों पर कैम्प वालों का कब्जा हो चुका होता है।
विज्ञान की रक्षक भूमिका
भवनों में हरित तकनीकों का इस्तेमाल करने से न केवल ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा, बल्कि बिजली व पानी पर लागत भी घटेगी। इसके लिए डिजाइन के स्तर पर सटीक योजना बनाने और सही सामग्री व उपकरणों का इस्तेमाल करने की जरूरत होगी।हरित भवनों के निर्माण से बिजली और पानी के बिलों में कितनी ज्यादा बचत संभव है। इस बारे में आम तौर पर लोगों को जानकारी नहीं है।

दिल्ली की शहरी आबादी का दम घुट रहा है। यहां हवा में निलंबित कणदार पदार्थों की मात्रा बढक़र विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा अनुशंसित सीमा 60 माइक्रोग्राम से सात गुना अधिक है। इसके कारण दिल्ली की 30 प्रतिशत आबादी सांस की बीमारियों से पीडि़त है। दमा की बीमारी एक मुख्य समस्या है। वायु प्रदूषण के कारण स्कूल जाने वाला प्रत्येक दसवां बच्चा दमा का शिकार है।
जंगल के उपकार
खान-पान की आदत बदल कर बचाएँ पर्यावरणमांसाहार और पशु पालन के व्यवसाय से कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का 18 प्रतिशत उत्पन्न होता है, जो दुनिया भर के यातायात साधनों द्वारा उत्पन्न कुल ग्रीन हाउस गैसों से अधिक है। इसमें यदि मांस उत्पादन में उपयोग होने वाले पानी को भी जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि यदि हमें दुनिया को इस बड़ी समस्या से बचाना है तो हमें खाने की आदत बदलने पर विचार करना होगा।
तापमान बढऩे के तात्कालिक प्रभाव हमें ध्रुवों और ग्लेशियर की पिघलती बर्फ, बढ़ते समुद्री जल स्तर और वातावरण में हो रहे आकस्मिक एवं अनापेक्षित बदलाव के रूप में दिखने लगे हैं। लेकिन खतरा यह है कि लगातार पिघलते और कम होते जा रहे ग्लेशियरों के चलते चीन और भारत के बड़े-बड़े नदी तंत्रों के जल स्रोत तेजी से घट रहे हैं। आज इन स्रोतों पर आश्रित लोग कल इनके उपयोग से वंचित हो जाएंगे। इसके सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिणाम न सिर्फ इन देशों को बल्कि सम्पूर्ण विश्व को प्रभावित करेंगे। सर्वाधिक ग्लोबल वार्मिंग पेट्रोल इंजिनों (जैसे कारें, हवाई जहाज) और कोयले या पेट्रोलियम को जलाकर बिजली बनाने जैसी गतिविधियों के कारण होता है। इसके चलते दुनिया पर दबाव है कि यातायात साधनों का उपयोग कम-से- कम हो, अधिक कार्यकुशल कारों का निर्माण किया जाए, औद्योगिक प्रक्रियाओं को बेहतर बनाया जाए और बिजली बनाने के अन्य साधनों जैसे हवा, ज्वार- भाटा, सूर्य का प्रकाश अथवा परमाणु ऊर्जा का उपयोग किया जाए ताकि पर्यावरण की रक्षा की जा सके और लगातार संकुचित हो रहे पानी के स्रोतों को बचाया जा सके। यह सर्वविदित है कि दुनिया में अलग- अलग देशों में पानी की उपलब्धता और उपभोग में काफी गैर- बराबरी है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि एक अमेरिकी नागरिक बुरूंडी या युगांडा के एक व्यक्ति की तुलना में 100 गुना अधिक पानी इस्तेमाल करता है। एक आम व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए रोजाना कम से कम 50 लीटर पानी की जरूरत होती है, जिसमें पीने, भोजन बनाने, साफ-सफाई की जरूरतें शामिल हैं। लेकिन लगभग 55 ऐसे देश होंगे जहां इतना भी पानी उपलब्ध नहीं है। दुनिया भर में कम से कम 100 करोड़ लोग ऐसे हैं जिन्हें पीने के लिए भी पर्याप्त पानी नसीब नहीं है और दुनिया की आधी आबादी तो जरूरी शौच व्यवस्था से भी वंचित है। 1996 में यह अंदाजा लगाया गया था कि हम लोग कुल उपलब्ध स्वच्छ पानी में से आधे से अधिक का उपयोग कर रहे हैं जो 1950 में उपयोग किए जा रहे पानी की मात्रा से 3 गुना अधिक था। तब यह अनुमान भी लगाया गया था कि यदि ऐसे ही चलता रहा तो 2030 तक हमारी जरूरतें उपलब्धता से ज्यादा हो जाएंगी। यह तब की बात है जब पानी के स्रोत गुम होना शुरू नहीं हुए थे। यह सही है कि जैव ईंधन के दहन को ग्लोबल वार्मिंग के सबसे बड़े कारण के रूप में पहचाना गया है मगर एक दूसरा बड़ा कारण और है जिसके चलते ग्रीनहाउस गैसों में इजाफा और पानी की कमी हो रही है। वह है मांस का उपभोग। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट में दर्शाया गया है कि मांसाहार और पशु पालन के व्यवसाय से कुल वैश्विक ग्रीनहाउस गैस का 18 प्रतिशत उत्पन्न होता है, जो दुनिया भर के यातायात साधनों द्वारा उत्पन्न कुल ग्रीन हाउस गैसों से अधिक है। इसमें यदि मांस उत्पादन में उपयोग होने वाले पानी को भी जोड़ दिया जाए, तो पता चलता है कि यदि हमें दुनिया को इस बड़ी समस्या से बचाना है तो हमें खाने की आदत बदलने पर विचार करना होगा। पशु पालने में लगे फार्म हाउस विश्व स्तर पर होने वाले कुल मीथेन उत्सर्जन में से 37 प्रतिशत के लिए जिम्मेदार हैं। मीथेन एक ऐसी ग्रीनहाउस गैस है जो कार्बन-डाईऑक्साइड से 23 गुना ज्यादा असर रखती है। इसके अलावा 65 प्रतिशत नाइट्रस ऑक्साइड भी पशु पालन से पैदा होती है। नाइट्रस ऑक्साइड कार्बन डाईऑक्साइड के मुकाबले
विकसित देश भारत को जिस तरह अपना कूड़ाघर बनाने का प्रयास कर रहे हैं उससे इसकी छवि दुनिया में सबसे बड़े कबाड़ी के रूप में भी उभर रही है। इसे रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया गया है, तो इसकी वजह यह है कि इस समस्या के प्रति सरकारें उदासीन रही हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यह कोई बड़ी समस्या नहीं है।
समस्याएं पैदा कर सकता है। लेकिन इतनी दूर तक जांच- परख करने की सतर्कता भारत सरकार में नहीं है।