उदंती.com, नवम्बर- दिसम्बर 2018क्या घड़ी थी, एक भी चिंता नहीं थी पास आई...
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई।
- हरिवंश राय बच्चन
जीवन दर्शनः प्रेरणा लें हर एक से -विजय जोशी
उदंती.com, नवम्बर- दिसम्बर 2018
सच तो यह है कि इस तरह की जागरूकता पैदा करने के लिए भावी पीढ़ी के दिल में बचपन से ही यह बात बिठानी होगी कि हम सबके लिए कैसा वातावरण चाहिए अन्यथा इसके क्या दुरगामी दुष्परिणाम भुगतने पड़ेंगे। इसका अच्छा उदाहरण मैं अपने घर का ही देती हूँ- प्रत्येक दीपावली पर मिट्टी के दियों से तो घर रोशन होता ही है- और दादा- परदादा के ज़माने से चली आ रही यह परम्परा आज तक जारी है। घर के सब बच्चों के लिए पटाखे खरीदकर लाने और फोड़ने की परम्परा भी पिछले दो-तीन वर्ष पहले तक तो जारी ही थी। यद्यपि उसकी संख्या में क्रमश: कमी आती गई थी। लेकिन इस वर्ष बच्चों ने पटाखे नहीं फोड़ने का निश्चय करके बढ़ते प्रदूषण के प्रति अपनी जागरूकता का परिचय दिया है। यही नहीं अड़ोस- पड़ोस में अपने घरों की दरो-दीवार को बिजली के लट्टुओं से रोशन करने और दीपावली के दो दिन पहले से ही देर रात तक पटाखें फोड़ने पर सबने अपनी नाराजगी व्यक्त कर दी।
फिलहाल वन्य जीव विशेषज्ञ 2226 के आंकड़े पर सहमत नहीं है। दरअसल बाघों की संख्या की गणना के लिए अलग-अलग तकनीकों का इस्तेमाल होता है। भारतीय वन्य जीव संस्थान देहरादून के विशेषज्ञों का कहना है कि मध्य भारत में बाघों के आवास के लिहाज से सबसे उचित स्थान कन्हा राष्ट्रीय उद्यान है। यहाँ नई तकनीक से गणना की जाए तो मौजूदा संख्या में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि हो सकती है। डब्ल्यूआईआई के जाने-माने बाघ शोधकर्ता यादवेंद्र देवझाला ने एक शोध पत्र में लिखा है कि डी.एन.ए. फिंगर प्रिंट की तकनीक का इस्तेमाल करने वाले विशेषज्ञों ने आकलन किया है कि कान्हा में बाघों की संख्या 89 है। वहीं कैमरा ट्रेप पर आधारित एक अन्य वैज्ञानिक तकनीक यह संख्या 60 के करीब बताती हैं। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि बाघ एकांत पसंद करने वाले दुर्लभ प्राणी हैं। लिहाजा इनकी गणना करना आसान नहीं है। लेकिन गणना में इतना अधिक अंतर दोनों ही तकनीकों के प्रति संदेह पैदा करता है।
इसके बाद ‘कैमरा ट्रैपिंग‘ का एक नया तरीका पेश आया। जिसे कारंत की टीम ने शुरूआत में दक्षिण भारत में लागू किया। इसमें जंगली बाघों की तस्वीरें लेकर उनकी गणना की जाती थी। ऐसा माना गया कि प्रत्येक बाघ के शरीर पर धारियों का प्रारूप उसी तरह अलग-अलग है, जैसे इंसान की अंगुलियों के निशान अलग-अलग होते है। यह एक महंगी आकलन प्रणाली थी। पर यह बाघों के पैरों के निशान लेने की तकनीक से कहीं ज्यादा सटीक थी। इसके तहत कैप्चर और री-कैप्चर की तकनीकों वाले परिष्कृत सांख्यिकी उपकरणों और प्रारूप की पहचान करने वाले सॉफ्टवेयर का प्रयोग करके बाघों की विश्वसनीय संख्या का पता लगाने की शुरूआत हुई। इस तकनीक द्वारा गिनती सामने आने पर बाघों की संख्या नाटकीय ढंग से घट गई। इसी गणना से यह आशंका सामने आई कि इस सदी के अंत तक बाघ लुप्त हो जाएँगे।
राष्ट्रीय बाघ सरंक्षण प्राधिकरण के प्रमुख राजेश गोपाल ने तब कैमरा ट्रैप पद्धति को ही सही मरीका मानते हुए बाघों की गिनती और निगरानी के बाबत यहाँ दो बातें और भी उल्लेखनीय हैं। गौरतलब है जब 2009-10 में पन्ना बाघ परियोजना से बाघों के गायब होने की खबरें आ रही थीं तब 2008 में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में 16 से लेकर 32 बाघ हैं। इस गणना में 50 प्रतिशत का लोच है। जबकि यह गणना आधुनिकतम तकनीकी तरकीब से की गई थी। मसलन जब हम एक उद्यान की सटीक गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पांएगे? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या 853 से लेकर 1706 तक भी हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था, जिसने 2008 में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी। कमोबेश इसी मनोवृत्ति का वन अमला पूरे देश में कार्यरत है, जिसकी कार्यप्रणाली निरापद नहीं मानी जा सकती।
बढ़ते क्रम में बाघों की गणना इसलिए भी नामुमकिन व अविश्वश्नीय है क्योंकि आर्थिक उदारवाद के चलते बहुराष्ट्रीय कंपनियों को प्राकृतिक संपदा के दोहन की छूट जिस तरह से दी जा रही है, उसी अनुपात में बाघ के प्राकृतिक आवास भी प्रभावित हो रहे हैं। खनन और राजमार्ग विकास परियोजनाओं ने बाघों की वंश वृद्धि पर अंकुश लगाया है। इन परियोजनाओं को प्रचलन में लाने के लिए चार गुना मानव बसाहटें बाघ आरक्षित क्षेत्रों में बढ़ी हैं। केंद्र व राज्य सरकारों की नीतियाँ भी खनन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रही हैं। पन्ना में हीरा खनन परियोजना, कान्हा में बॉक्साइट, राजाजी में राष्ट्रीय राजमार्ग तड़ोबा में कोयला खनन और उत्तर-प्रदेश के तराई वन क्षेत्रों में इमारती लकड़ी माफिया बाघों के लिए जबरदस्त खतरा बने हुए हैं। इसके बावजूद खनिज परियोजनाओं के विरुद्ध बुलंदी से आवाज न राजनीतिकों की ओर से उठ रही और न ही वन अमले की तरफ से? हाँ वन अमले की बर्बरता और गोपनीयता जरुर वैसी ही बनी चली आ रही है जो फिरंगी हुकूमत के जमाने में थी। अंग्रेजों से विरासत में मिली इस शैली में बदलाव अभी तक वन अमला लाया नहीं है। यही कारण है कि बाघों की संख्या में लगातार कमी आ रही है जबकि राष्ट्रीय उद्यानों, वनकर्मियों और वन आंवटन में निरंतर वृद्धि हो रही है। प्रत्येक आरक्षित उद्यान को 20 से 26 करोड़ रुपए दिए जाते हैं। आशंकाएँ तो यहाँ तक हैं कि बाघों की संख्या बढ़ा-चढ़ाकर इसलिए बताई जाती है ताकि इनके संरक्षण के बहाने बरस रही देशी-विदेशी धनराशि नौकरशाही का हिस्सा बनती रहे। बीते चार सालों में एक अरब 96 करोड़ का पैकिज बाघों के संरक्षण हेतु जारी किया जा चुका है। बाघ- गणना के जो वर्तमान परिणाम सामने आए हैं, केवल इसी गिनती पर 9 करोड़ रुपए खर्च किए गए हैं।
अप्रत्यक्ष व अप्रामाणिक तौर से यह सत्य सामने आ चुका है कि बाघों के शिकार में कई वनाधिकारी शामिल हैं, इसके बावजूद जंगल महकमा और कुलीन वन्य जीव प्रेमी वनखण्डों और उनके आसपास रहने वाली स्थानीय आबादी को वन्यप्राणी संरक्षण से जोड़ने की कोशिश करने की बजाय भोले-भाले आदिवासियों पर झूठे मुकदमे लादने और उन्हें वनों से बेदखल करने की कोशिशों में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि सदियों से वनों में आदिवासियों का बाहुल्य उनका प्रकृति और प्राणी से सह-अस्तित्व की जीवन शैली ही ईमानदारी से वन और वन्य जीवों का सुरक्षा व संरक्षण का मजबूत तंत्र साबित हो सकता है। बाघों की गणना के ताजा व पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं ? इस तथ्य की पुष्टि इस बात से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुँच से बाहर हैं। लिहाजा वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रुप में देखा जाए तो संभव है वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो।