लोग चाहे मुट्ठी
भर हों,
लेकिन संकल्पवान हों, अपने लक्ष्य में दृढ़
आस्था हो,
वे इतिहास को भी बदल सकते हैं।
-महात्मा गाँधी
वे इतिहास को भी बदल सकते हैं।
-महात्मा गाँधी
पूरे देश की किसी भी नई पद्धति को लागू
करने करना, शिक्षा व्यवस्था को एक ही सत्र
में ऑनलाइन कर पाना आसान काम नहीं है। पूरी आधारिक
संरचना तैयार करनी होगी। साथ ही हमारे देश में जहाँ दूर- दराज गाँव में बहुत मुश्किल
से स्कूलों का संचालन होता है , जहाँ शिक्षकों की कमी है , बच्चे नियमित स्कूल
नहीं आते, वहाँ के बच्चों को ऑनलाइन पाँच- छह घंटे घर पर ही
एक जगह मोबाइल या लेपटॉप देकर किस प्रकार से पढ़ाया जा सकेगा, यह सब सोचना होगा? कितने शिक्षक इस नई पद्धति
से शिक्षण-कार्य करने में सक्षम हैं? खबरें तो यही कहती हैं कि
स्कूल के शिक्षकों को इसके लिए ट्रेनिंग देने की प्रक्रिया भी आरंभ हो चुकी है,
निजी स्कूलों ने ऑनलाइन पढ़ाना आरंभ भी कर दिया है , परंतु बच्चे इस नए माध्यम से
कितना पढ़ और समझ पा रहे हैं इसकी समीक्षा अभी बाकी है, इन सब प्रश्नों के साथ आज जबकि आधा सत्र खत्म
ही होने को है; किस प्रकार सारी व्यवस्था हो सकेगी, यह चिंतनीय है।
झाँसी
में मास्टर रुद्रनारायण का घर क्रांतिकारियों की शरणस्थली था,
वहाँ क्रांतिकारियों की गुप्त बैठकें भी हुआ करती थीं। काकोरी-काण्ड
के पश्चात् फरारी के दिनों में चंद्रशेखर आजाद लंबे समय तक
झाँसी में मास्टर रुद्रनारायण के घर पर रहे। माहौर जी की
आजाद जी से यहीं भेंट हुई थी, फिर धीरे-धीरे वे आजाद जी के
विश्वस्त साथी बन गए। आजाद जी झाँसी-ओरछा मार्ग पर सातार के जंगलों में एक संन्यासी के रूप में
अज्ञातवास में भी रहे। उस अज्ञातवास हेतु मास्टर रुद्रनारायण ने उन्हें हरिशंकर
नाम दिया था। लगभग डेढ़ वर्ष आजाद जी वहाँ साधु बनकर एक कुटिया बनाकर रहे, उन्होंने वहाँ के गाँव के बच्चों को शिक्षा भी दी, इन
जंगलों में चंद्रशेखर आजाद ,भगवान दास माहौर, सदाशिवराव मलकापुरकर आदि के साथ निशानेबाजी एवं गुरिल्ला युद्ध का अभ्यास भी करते रहे; किंतु किसी को ये ज्ञात नहीं हो सका कि साधु हरिशंकर वही आजाद जी हैं ,जिन्हें पूरी ब्रिटिश पुलिस पागलों की तरह तलाश कर रही है।
बस वही आजाद जी की एकमात्र अकेली तस्वीर
थी, जो उनके जीवन काल मे खींची गई थी। मास्टर रुद्रनारायण जी ने आजाद जी के
इस चित्र को उनके जीवन काल मे किसी को नहीं दिखलाया, उनके
बलिदान के बाद ही इसे सार्वजनिक किया। ...यह तस्वीर इतिहास
की महत्त्वपूर्ण धरोहर बनी। उसके बाद उनकी जितनी तस्वीरें या मूर्तियाँ बनाई गईं ,
सब इसी के आधार पर बनाई गईं। आजाद जी की एक और दुर्लभ तस्वीर भी
प्राप्त होती है ,जिसमें वह मास्टर रुद्रनारायण की पत्नी और
उनकी दो बेटियों के साथ बैठे हैं, यह एक पारिवारिक चित्र है।
वह मास्टर रुद्रनारायण ने कब और किन स्थितियों में खींचा, इसका विवरण नहीं मिलता, किंतु
आजाद जी की पहचान के रूप में वही इकलौता चित्र अमर हो गया,
जिसकी चर्चा माहौर जी ने की।
अचानक मैंने महसूस किया कि मेरे पिता की आँखों से अविरल अश्रुधारा बह रही थी और वो
गीता के किसी मन्त्र का जाप कर रहे थे। यह
मेरे लिए अभूतपूर्व अनुभव था। मैंने अपने धीर, मितभाषी पिता को कभी रोते हुए नहीं
देखा था। ऐसा क्या हुआ होगा कि वो इस समाधि स्थल पर खड़े होकर इतने विचलित हो गए।
जब थोड़े संयत हुए, तो स्वयं ही हमसे बोले, ‘लगभग मेरी ही
उम्र के थे शहीद भगत सिंह। मुझे एक बार इनसे
मिलने का अवसर भी मिला था। वो बहुत ही सौम्य नौजवान था। देश -प्रेम की भावना उसके रोम- रोम से प्रकट हो रही थी।
आज इन वीरों की समाधि देख कर मैं गर्वित भी हो रहा हूँ और ग्लानि भी हो रही है कि
हम देशवासी इन्हें बचा नहीं सके। क्या 23 वर्ष भी उम्र होती है किसी नौजवान के जाने की? थोड़ी देर बाद फिर हाथ जोड़कर
वे इस त्रिमूर्ति के सामने सिर झुकाकर खड़े रहे। जाते समय
बोले-कृतज्ञ हूँ, अभिभूत हूँ। उन्होंने वहाँ चढ़ाए फूलों में
से कुछ फूल उठाए और अपने रूमाल में बाँध कर रख लिये।
चौथा संकट
पहले के तीन संकटों की तरह स्पष्ट तो नहीं है फिर भी यह काफी गंभीर हो सकता है। यह
एक उभरता हुआ मनोवैज्ञानिक संकट है। बेरोज़गार और अपने घरों के लिए पैदल निकलने के
लिए मजबूर लोगों में शायद ही छोड़े गए शहरों में वापस जाने का हौसला पैदा हो पाए।
एक बड़ी चिंता स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव
की है, जिनका सामना आने वाले महीनों में उनको स्वयं करना है। आर्थिक असुरक्षा के
कारण वयस्कों में भी अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है। इसके
परिणाम स्वयं उनके लिए और उनके परिवार के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं। पाँचवाँ संकट
भारत के संघीय ढांचे का कमज़ोर होना है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के आधार पर केंद्र को
स्वयं में अत्यधिक शक्तियों को केंद्रित करने की अनुमति मिल गई है। कम से कम
महामारी के शुरुआती महीनों में, राज्यों को इतनी
ज़रूरी स्वायत्तता भी नहीं दी गई कि अपने स्थानीय संदर्भों के अनुकूल सर्वोत्तम
तरीकों से चुनौतियों से निपट सकें। केंद्र ऊपर से एक के बाद एक मनमाने और परस्पर
विरोधी निर्देश जारी करता रहा। इस बीच, केंद्र द्वारा
राज्यों को वित्तीय संसाधनों से वंचित रखा गया; यहाँ तक कि
उनके हिस्से के जीएसटी संग्रहण के उनके हिस्से का भुगतान भी नहीं किया गया।
छठा संकट,
जो पाँचवे संकट से जुड़ा है, भारतीय लोकतंत्र
का कमज़ोर होना है। इस महामारी की आड़ में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को
गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे निष्ठुर कानूनों के तहत हिरासत
में लिया जा रहा है। कई अध्यादेश पारित किए जा रहे हैं और संसद में चर्चा किए बिना
ही महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए जा रहे हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के
मालिकों पर सरकार की आलोचना न करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी बीच, राज्य और सत्तारूढ़ दल प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को चमकाने में लगे हैं।
आपात्काकाल के दौरान, एक अकेले देवकांत
बरुआ ने कहा था कि ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’; लेकिन
अब तो चाटुकारिता की होड़ लगी है।
एक देश के रूप में हम कैसे अपनी
अर्थव्यवस्था, समाज और राजतंत्र के लिए इस कठिन समय
में से बगैर किसी बड़े नुकसान के उबर सकते हैं? सबसे पहले तो,
सरकार को उन समस्याओं के विभिन्न (और परस्पर सम्बंधित) आयामों को
पहचानना होगा, जिनका सामना वर्तमान में हमारा राष्ट्र कर रहा
है। दूसरा, सरकार को 1947 में जवाहरलाल नेहरू और वल्लभभाई पटेल द्वारा लिए गए फैसलों से कुछ सीख लेना चाहिए। उन्होंने उस
समय की चुनौतियों की गंभीरता को पहचानते हुए अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर बी.
आर. अंबेडकर जैसे भूतपूर्व विरोधियों को भी कैबिनेट में शामिल किया था। इस तरह की
एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तो अब संभव नहीं है; लेकिन
प्रधानमंत्री जानकार और समझदार विपक्षी नेताओं से सक्रिय परामर्श तो ले ही सकते
हैं। तीसरा, प्रधानमंत्री को बिना सोचे-विचारे लिये गए नाटकीय असर वाले आकस्मिक फैसले लेने की बजाय अर्थशास्त्र, विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का सम्मान करना चाहिए और उन
पर भरोसा करना सीखना चाहिए। चौथा, केंद्र और सत्तारूढ़ दल को
उन राज्यों को परेशान करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए जहाँ उनका
शासन नहीं है। पाँचवाँ, केंद्र को सिविल सेवाओं, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और जाँच एजेंसियों को
सत्ता का हथियार बनाने के बजाय पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।
‘ओह,’ उसने थोड़ी
हैरत से कहा, ‘माफ़ कीजिए। मुझे लगा कि आपको अंग्रेजी में
बात करने में असुविधा होगी; क्योंकि मैंने आपको कन्नड़ में
बातें करते सुना।’
‘प्लीज़ मुझे बताइए – आपको यह क्यों लगा कि मैं बिजनेस
क्लास का टिकट अफ़ोर्ड नहीं कर सकती? यदि वाकई ऐसा ही होता, तो भी आपका यह अधिकार नहीं बनता कि आप मुझे यह बताएँ कि मेरा स्थान कहाँ
होना चाहिए? क्या मैंने आपसे कुछ पूछा था?’