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वर्ष-12, अंक- 7, फरवरी 2020
विश्वास वह पक्षी है जो
प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है। - रवींद्रनाथ ठाकुर
पक्षी विशेष
बिना लाभ- हानि के जनहित में, सेवा के इस प्रकार के कई कार्य देश के अनेक
व्यक्ति और अनेक संस्थाएँ करती हैं। जिनके बारे में कभी- कभी मीडिया खबरें दे देती हैं , कई लोगों को सरकार भी सम्मानित कर देती है। जैसे
इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार पाने वालों में एक नाम है ओडिसा के डी प्रकाश राव का।
झुग्गी बस्ती में चाय बेचकर गुजारा करने वाले प्रकाश राव को यह सम्मान शिक्षा के
क्षेत्र सेवा करने के कारण मिला है। राव पिछले कई सालों से कटक शहर में झुग्गी
बस्ती में रहने वाले बच्चों के लिए एक स्कूल चला रहे हैं। राव का बचपन काफी गरीबी
में गुजरा है। पढ़ाई में अच्छे होने के बावजूद गरीबी की वजह से उन्हें 5 साल की उम्र में स्कूल छोड़ना पड़ा था। बड़े होने के बाद उन्हें लगा कि
जिस तरह गरीबी की वजह से उन्हें पढ़ाई छोड़ना पड़ी ,ऐसा किसी
और बच्चे के साथ ना हो, यही कारण है कि राव को
चाय बेचकर जो भी कमाई होती है, उसका एक बहुत बड़ा
हिस्सा वे गरीब बच्चों की पढ़ाई में लगा देते हैं। सन् 2000
में उन्होंने गरीब बच्चो के लिए स्कूल
बनवाया। शुरू में स्कूल का सारा खर्च वे स्वयं ही उठाते थे फिर बाद में जैसे जैसे
लोगों को उनके नेक काम के बारे में पता चलता गया लोग उनके साथ जुड़ते चले गए।
एक दिन मैं वहीं था,
जबकि किसी अखबार में पढ़ा कि चीन में एक नया पुरुषार्थ जागा है।
वहाँ की उत्साही सरकार ने गौरैयों को खेती का शत्रु मानकर उनके खिलाफ सामूहिक
अभियान शुरू किया है। खैर चीन में अभियान हो और वह सामूहिक ना हो; तो यह अनहोनी बात होगी, पर जब यह पढ़ा कि कुछ लाखों
की तादाद में वहाँ के तरुण सैनिक बंदूक लेकर गौरैयों के शिकार के लिए निकल पड़े
हैं, तो हँसी भी आई और रोना भी पड़ा। हँसी इसलिए कि गौरैयों
पर वीरता का अपव्यय हो रहा है और रोना इसलिए कि जिस तरीके से और जिस पैमाने पर
गौरैयों के वध की योजना बनाई गई है, वह कितना अमानवीय है।
उसी अखबार में पढ़ा कि बंदूक दाग-दाग कर झुंड के-झुंड इन
गौरैयों को खदेड़ते हैं और खदेड़ते ही रहते हैं ,ताकि यह
कहीं बैठने को ठौर ना पा सके और अंत में बेदम होकर जमीन पर आ गिरें। ऐसे मासूम और
मनुष्य के प्रति सहज विश्वास रखने वाले पक्षी को इस प्रकार निर्मूल करने की योजना
सचमुच उन्माद में प्रेरित नहीं है तो क्या है? मैंने भी
बुद्धिवादी कविताएँ पढ़ी हैं, जिनमें ताजमहल के निर्माण पर
शोक प्रकट किया गया है। जबकि मनुष्य का शव कफ़न के लिए भी तरस
रहा है; जहाँ चींटियों के लिए आटा छीटने और मछलियों के लिए आटे की गोली फेंकने पर व्यंग्य
कसा गया है, जबकि मनुष्य भूखों मर रहे हैं; जहाँ कि गुलाब की क्यारियों पर तरस खाया गया है, क्योंकि
गेहूँ की देश में कमी है और जहाँ कि कला की उपासना को ऐश समझा गया है, जबकि मनुष्य अभाव से ग्रस्त है। मैंने इन अभियान की सफाई के लिए उन
कविताओं को एक-एक करके याद किया, पर मुझे लगा कि यह तो अभाव
की पूर्ति की योजना नहीं है, यह तो पूँजीवाद
को समाप्त करने का भी आयोजन नहीं है, और यह मनुष्य कि सत्ता
सृष्टि में सर्वोपरि मानने का कोई नया तरीका भी नहीं हो सकता है। गौरैया दाना
चुगती है; पर शायद जिस मात्रा में दाना चुगती है, उससे कहीं अधिक लाभ व खेत का इस प्रकार करती है कि अनाज में लगने वाले
कीड़ों को साफ करती रहती है। थोड़ी देर के लिए माना कि वह दाना देती नहीं; केवल लेती भर है, तो भी क्या इस प्रकार समूची सृष्टि की समरसता के साथ खिलवाड़ करना उचित
है? मनुष्य को इस प्रकार लाभ की आशा से नहीं मात्र अपनी
प्रति हिंसा की भावना से निरीह और अपने ही साथ अपने बच्चों की तरह निर्भय विचरने
वालों को इस प्रकार थका-थका के सता-सता के मारना कहीं न्याय है? यह कौन-सा पंचशील का उदाहरण है। शायद जितना अनाज गौरैयों ने खाया ना होगा ,
उससे कहीं अधिक दाम की गोलियाँ उन्हें सताने में बर्बाद हो गई होंगी। माना कि मनुष्य को अपने ही समान बुद्धि बल वाले दूसरे देशवासी मनुष्य
के साथ प्रति हिंसा करने का सहज अधिकार थोड़ी देर के लिए हो भी और वह अपने निर्माण
से अधिक अपने तुल्यबल भाई के विध्वंस पर खर्च करने के लिए पागल हो जाएँ, तो अनुचित नहीं; परंतु मनुष्य जिस उत्फुल्लता के
लिए, जिस मुक्ति के लिए जिस राहत के लिए इस गला-काट व्यापार
में लगा हुआ है, उसी उत्फुल्लता, मुक्ति
और राहत के इन जीते-जागते प्रतिबिम्बों को इस प्रकार नष्ट
करने पर उतारू हो जाए, यह किस प्रकार समझ में आए?
हमारे देश में भी ऐसे सयाने लोग हैं,
जो अपने नाच की अयोग्यता आँगन के टेढ़ेपन के ऊपर थोपने के लिए
ऐसे-ऐसे सुझाव देते हैं कि अन्न इसलिए कम पैदा हो रहा है कि चिड़िया उन्हें खा
जाती हैं। बंदर उन्हें तहस-नहस कर जाते हैं। चूहे उन्हें कुतर जाते हैं और धूप
उन्हें सुखा जाती है। इसलिए पहले इनके ऊपर नियंत्रण होना चाहिए; ताकि खेती अपने-आप बिना मनुष्य के परिश्रम के अधिक उपजाऊ हो जाए। पर चीन
के सयाने तो इस मात्र नियंत्रण तक संतुष्ट नहीं हैं। वे निर्मूलन में विश्वास करते
हैं। सृष्टि के संतुलन बनें-बिगड़े, यहाँ तक कि मनुष्य
जिसलिए यह कर रहा है, वह भी उसे मिले ना मिले, पहले वह अपने दिल का गुबार तो उतार ले, और चीन
प्रज्ञा पारमिता का देश है। बुद्ध की मैत्री का देश है, नए
युग में मनुष्य के उद्धार का दावा करने वाला देश है और है सह-अस्तित्व, परस्पर सहयोग और प्रेम की कसम खाने वाला देश! लगता यह है कि चीन में जैसे
कोई घर में रह गया हो, कोई आँगन न रह गया हो, किसी घर और किसी आँगन के लिए कोई मोहब्बत न रह गई हो, किसी घर और किसी आँगन में मुक्त हँसी न रह गई हो, उसमें
बच्चे न रह गए हों और अगर रह भी गए हों, तो किसी बच्चे के
चेहरे पर विश्वास की चमक न रह गई हो। तभी तो इन गौरैयों के साथ नादिरशाह बदला लिया
जा रहा है। उनका अपराध केवल यही है कि वे निशंक हैं और निःशंक होकर वे हर घर में
आनंद के दाने बिखेर जाती हैं, जितने दाने लेती हैं, उन्हें चौगुना करके आँगन में परिवर्तित कर हर आँगन में मुक्त-हस्त हो कर
लुटा जाती हैं। उनका अपराध है कि गमगीन नहीं है; उनका अपराध
है कि वे कबूतर की तरह दूर तक गले में पाती बाँधकर पहुँचा नहीं सकती; उनका अपराध है कि तोते की तरह हर एक स्तुति और हर एक
गाली दुहरा नहीं सकती; उनका अपराध है कि वे अपने पंखों में
सुर्खी नहीं लगा सकती, उनका अपराध है कि उनके पास वह लाल कलगी नहीं है, जिसको सिर में लगाकर कूड़े की ढेरी पर
खड़े होकर रात के धुँधलके में बाँग दे सकें कि अरुणोदय होने वाला है; उनका अपराध है कि वह सुबह के साथी नहीं है; दोपहर की
साथी हैं, वे गगन की पक्षी नहीं, आँगन
की पंछी हैं।
गौरैया मेरे लिए छोटी नहीं है,
बहुत बड़ी है, वैसे ही जैसे मेरी दो साल की
मिनी छोटी होती हुई भी मेरे लिए बहुत बड़ी है। ‘बालसखा’ के संपादक मित्रवर सोहनलाल
द्विवेदी ने एक बार मुझसे बालोपयोगी रचना माँगी। मैंने उन्हें मिनी का फोटोग्राफ
भेज दिया और लिखा कि इससे बड़ी रचना मैं आज तक नहीं कर पाया हूँ। मिनी बड़ी है,
मेरे अर्जित परिष्कार से, मेरे अर्जित विद्या
से और मेरे अर्जित कीर्ति से, क्योंकि उसकी मुक्त हँसी में
जो मोगरे बिखर जाते हैं, उनकी सूरभि से बड़ी कोई परिस्कृति,
सिद्ध या कीर्ति क्या होगी? वही मिनी जब
गौरैयों को देख कर नाचती है, उन्हें बुलाती है, उनके पास आते ही खुशी से ताली बजाती है, उन्हें
धमकाती है, फिर मनाती है, तब मुझे लगता
है कि सृष्टि के दो चरम आनंदमयी अभिव्यक्तियाँ ओत-प्रोत हो गई हैं। गीता की
ब्राह्मी स्थितियाँ एकाकार हो गई हैं और
मुक्ति की दो धाराएँ मिल गई हैं। इसीलिए
गौरैयों के विरुद्ध अभियान मुझे लगता है- मेरी और न जाने कितनों की मिनियों के
विरुद्ध अभियान है। गौरैये और मिनियाँ राजनीति से कोई सरोकार नहीं रखतीं, सो मैं राजनीति की सतह पर इनके बारे में नहीं सोचता। परन्तु मनुष्य की
राजनीति का जो चरम ध्येय है उसको जरूर सामने रखना पड़ता है और तब मुझे बहुत आक्रोश
होता है कि भले आदमी मनुष्य बनने चले हो तो पहले मनुष्य के विश्वास की रक्षा तो
करो। बंधुता बाँधने चले हो पर ममताओं के बाँध तो बने रहने दो। मुक्ति पर्व मनाओ
बड़ा अच्छा है, पर मुक्ति कि जीती-जागती तस्वीरें क्यों
फाड़ते हो। इनका आर्थिक और नैतिक अभ्युदय चाहते हो, ठीक है,
पर उसके सहज आनंद का क्षण क्यों छीनते हो?
अपनी चित्रकला में बांस के झुरमुट बनाकर उस पर चिड़ियों को बिठलाने
वाले चितेरे, उन चिड़ियों को उनके बसेरों से क्यों उजाड़ते
हो? चिड़ियों से चहचहाती लोक-कथाओं के रंग-बिरंगे अनुवाद छपवाते हो, छपवाओ, पर उन चिड़ियों की चहचहाट हमेशा के लिए क्यों खत्म
किए दे रहे हो? तुम अपने घर आने वाली खुशी के लिए फरमान
निकाल कर गमी मनाओ, पर तुम मेरे घर की खुशी, मेरी मिनी और उसकी सहेली गौरैयों की खुशी पर गमी की गैस क्यों छिड़क रहे
हो?
तब
पिताजी को और भी ज़्यादा गुस्सा आ गया और वह पहले से भी ज़्यादा ऊँचा कूदने लगे।
गौरैया घोंसले में से निकलकर दूसरे पंखे के डैने पर जा बैठीं। उन्हें पिताजी का
नाचना जैसे बहुत पसंद आ रहा था। माँ फिर हँसने लगीं, 'ये निकलेंगी
नहीं, जी। अब इन्होंने अंडे दे दिए होंगे।’
अब
पिताजी लाठी का सिरा घास के तिनकों के ऊपर रखकर वहीं रखे-रखे घुमाने लगे। इससे
घोंसले के लंबे-लंबे तिनके लाठी के सिरे के साथ लिपटने लगे। वे लिपटते गए, लिपटते गए और घोंसला लाठी के इर्द-गिर्द खिंचता चला आने लगा। फिर वह
खींच-खींचकर लाठी के सिरे के इर्द-गिर्द लपेटा जाने लगा। सूखी घास और रूई के फाहे
और धागे और थिगलियाँ लाठी के सिरे पर लिपटने लगीं। तभी सहसा जोर की आवाज आई,
'चीं-चीं, चीं-चीं!’