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Apr 1, 2025

उदंती.com, अप्रैल 2025

 वर्ष - 17, अंक - 9

हताशा   - विनोद कुमार शुक्ल

हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था

व्यक्ति को मैं नहीं जानता था

हताशा को जानता था

इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया

मैंने हाथ बढ़ाया

मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ

मुझे वह नहीं जानता था

मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था

हम दोनों साथ चले

दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे

साथ चलने को जानते थे।                      

इस अंक में 

अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति - डॉ. रत्ना वर्मा

अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल  को ज्ञानपीठ- सायास अनगढ़पन का सौंदर्य - विनोद साव

यात्रा-संस्मरणः भृगु लेक के द्वार तक - भीकम सिंह

सॉनेटः निर्दिष्ट दिशा में - अनिमा दास

प्रेरकः खाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो! - निशांत

आलेखः वीर योद्धा- मन के जीते जीत - मेजर मनीष सिंह - शशि पाधा

संस्मरणः स्मार्ट फ्लायर - निर्देश निधि

कविताः बुद्ध बन जाना तुम - सांत्वना श्रीकान्त 

विज्ञानः बंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’

लघुकथाः बीमार - कमल चोपड़ा

हाइबनः तुम बहुत याद आओगे - प्रियंका गुप्ता

कविताः बोलने से सब होता है - रमेश कुमार सोनी

व्यंग्य कथाः आराम में भी राम... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह

लघुकथाः आदतें - सारिका भूषण

कहानीः बालमन - डॉ. कनक लता मिश्रा

लघुकथाः मुर्दे - युगल

कविताः शब्द - रश्मि विभा त्रिपाठी

किताबेंः समय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति - अनुज मिश्रा

कविताः इति आई ! - डॉ. सुरंगमा यादव

जीवन दर्शनः व्यर्थ को करें विदा - विजय जोशी


अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति

डॉ. रत्ना वर्मा 

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में चल रहे भोरमदेव महोत्सव में वीआईपी कल्चर के विरोध में लोगों ने कुर्सियाँ तोड़ डालीं। इस महोत्सव में इतने अधिक वीआईपी पास बाँटे गए कि आम लोगों को बहुत पीछे कर दिया गया। फलस्वरूप बड़ी संख्या में कार्यक्रम देखने आई आम जनता ने कुर्सियाँ तोड़कर अपना विरोध प्रकट किया। यह कोई पहली बार या नई बात नहीं है कि वीआईपी को प्राथमिकता देने के चक्कर में आम जनता को दरकिनार किया गया हो । 

आजाद भारत के आम नागरिकों का यह दुर्भाग्य है कि चाहे अस्पताल में डॉक्टर से मिलना हो, मंदिर में भगवान के दर्शन करना हो, उसे घंटों लाइन में खड़े रहकर अपनी बारी का इंतजार करना पड़ता है । यहाँ तक कि किसी विद्यार्थी को परीक्षा केन्द्र में समय पर पहुँचना हो,  बस, रेल या हवाई जहाज पकड़ना हो; परंतु किसी चौराहे पर अचानक ट्रेफिक रोक दिया जाता है, कारण किसी अतिविशिष्ठ व्यक्ति को उस मार्ग से गुजरना होता है। भले ही इस कारण से किसी मरीज की जान चली जाए, कोई परीक्षा देने से वंचित रह जाए या किसी की गाड़ी ही छूट जाए। इन सबसे  न राजनेताओं, न बड़े अधिकारी, और उन कुछ अतिविशिष्ट की श्रेणी में आने वाले को कोई फर्क पड़ता।  

वीआईपी संस्कृति का एक दर्दनाक उदाहरण है- कुंभ प्रयाग के संगम में भगदड़ और लोगों की मौत। वीआईपी संस्कृति सिर्फ सत्ता और राजनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह व्यवसाय, खेल और मनोरंजन जगत में भी बहुतायत से देखने को मिलती है, जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता है। भीड़भाड़ वाले सामाजिक सांस्कृतिक और धार्मिक आयोजनों में वीआईपी कल्चर अक्सर आम जनता की सुरक्षा के लिए खतरा बन जाता है।  

ऐसा नहीं है कि वीआईपी कल्चर को समाप्त करने के लिए चर्चा नहीं होती, इस पर अंकुश लगाने के प्रयास भी होते हैं; परंतु हम इसे खत्म नहीं कर पा रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2017 में ‘देश का प्रत्येक व्यक्ति महत्त्वपूर्ण है’ कहते हुए मंत्रियों और अधिकारियों की गाड़ियों से लाल बत्ती हटाकर बदलाव लाने की कोशिश की थी। पर यह हम सब जानते हैं कि लालबत्ती हटाना मात्र दिखावा ही साबित हुआ है। इसी तरह वे गणतंत्र दिवस के समारोह में श्रमिकों और कामगरों को विशेष अतिथि का दर्जा देकर भी वीआईपी संस्कृति को बदल नहीं पाए। 

अब तो देखा यह जा रहा है कि राजनेता और अधिकारी पहले से भी अधिक वीवीआईपी बन गए हैं और अपने अधिकारों का दुरुपयोग करते हुए शान से चलते हैं । दरअसल राजनीति आजकल जनसेवा कम, अपनी सेवा ज्यादा हो गई है। यही वजह है कि कानून भी उनके लिए अलग तरीके से लागू किया जाता है, जिससे कानून पर भी उँगली उठने लगी है।  पिछले दिनों न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में मिले नोटों की बोरियों के ढेर ने कई प्रश्नचिह्न खड़े कर दिए हैं। 

 जाहिर है वीआईपी संस्कृति देश की तरक्की को कमजोर करती है। यह असमानता लोकतंत्र के लिए एक बड़ी बाधा है।  विशेषाधिकार प्राप्त करने के लिए कई लोग भ्रष्टाचार का सहारा लेते हैं। नेता और अफसर अपने पद का दुरुपयोग कर गैरकानूनी रूप से विशेष सुविधाएँ लेते हैं। इससे भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा मिलता है।

अगर देश को विकासशील देश की श्रेणी में रखना है, तो लोकतंत्र में सबके लिए समानता होनी चाहिए। हमारे सामने दुनिया के कई ऐसे देशों के उदाहरण हैं, जहाँ वीआईपी संस्कृति का चलन नहीं है जैसे - नॉर्वे में प्रधानमंत्री और अन्य उच्च पदस्थ अधिकारी आम नागरिकों की तरह जीवन व्यतीत करते हैं। वे बिना सुरक्षा काफिले के सार्वजनिक परिवहन का उपयोग करते हैं और सामान्य नागरिकों की तरह ही लाइन में लगकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इसी प्रकार स्वीडन, डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड, नीदरलैंड्स, जापान जैसे कई और भी देश हैं जो वीआईपी संस्कृति से कोसों दूर हैं। जब इन देशों में वीआईपी संस्कृति का प्रचलन नहीं है, तो फिर भारत जैसे सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में इस संस्कृति को भी खत्म किया जा सकता है।

लेकिन बड़े दुख के साथ कहना  पड़ता है कि हमारे देश में  जनता की बजाय वीआईपी की सेवा को प्राथमिकता दी जाती है। ऐसे में जब आम लोग देखते हैं कि कुछ लोगों को विशेष सुविधाएँ मिल रही हैं, तो उनके मन में असंतोष पनपता है। यह असमानता समाज में गुस्से, नफरत और विद्रोह को जन्म देती है। यह भी देखा गया है कि वीआईपी संस्कृति के कारण प्रशासन निष्पक्ष रूप से काम नहीं कर पाता। पुलिस और सरकारी अधिकारी वीआईपी की सुरक्षा और सेवा में लगे रहते हैं, जबकि आम लोगों की समस्याओं की अनदेखी की जाती है।

 अतः यह सुनिश्चित करना होगा कि कोई भी व्यक्ति कानून से ऊपर न हो। नेताओं को यह समझना होगा कि वे जनता के सेवक हैं, न कि शासक। यदि हमें सच्चे लोकतंत्र की ओर बढ़ना है, तो इस संस्कृति को जड़ से खत्म करना होगा। इसके लिए सरकार, प्रशासन और जनता तीनों को अपनी भूमिका निभानी होगी। जब तक जनता जागरूक नहीं होगी और अपने अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगी, तब तक यह समस्या बनी रहेगी। हमें ऐसे समाज की ओर बढ़ना होगा, जहाँ हर नागरिक को समान अधिकार मिले, और कोई भी व्यक्ति अपने रसूख के बल पर विशेषाधिकार प्राप्त न कर सके। तभी हमारा देश सही मायने में लोकतांत्रिक देश कहलाएगा।

अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ

 सायास अनगढ़पन का सौंदर्य

 - विनोद साव 

विनोद कुमार शुक्ल की एक प्रसिद्ध कविता मैंने भी पढ़ी थी- ‘जंगल के दिन भर के सन्नाटे में’ और उसे डायरी में नोट कर लिया था। उस कविता को बार- बार पढ़ने का मन होता था। कुछ याद-सी हो गई थी। इस कविता में विनोद जी जंगल के ‘इको फ्रेंडली’ यानी मित्रवत माहौल का जिक्र करते हैं:

एक आदिवासी लड़की

महुवा बीनते बीनते

एक बाघ देखती है

आदिवासी लड़की को बाघ

उसी तरह देखता है

जैसे जंगल में एक आदिवासी लड़की दिख जाती है

जंगल के पक्षी दिख जाते हैं

तितली दिख जाती हैं

और बाघ पहले की तरह

सूखी पत्तियों पर

जम्हाई लेकर पसर जाता है

 

एक अकेली आदिवासी लड़की को

घने जंगल जाते हुए डर नहीं लगता

बाघ, शेर से डर नहीं लगता;

पर महुवा लेकर गीदम के

बाजार जाने से डर लगता है

 

बाजार का दिन है

महुवा की टोकरी सिर पर बोहे

या काँवर पर

इधर उधर जंगल से

पहाड़ी के ऊपर से उतरकर 

सीधे-सादे वनवासी लोग

पेड़ के नीचे इकट्ठे होते हैं

और इकट्ठे बाजार जाते हैं।

उनकी इस तरह की बोलती कविताएँ हैं कि इन पर बोलने की ज्यादा जरूरत न पड़े। ऐसी कविताओं के कारण कई बार उन पर उंगली भी उठ जाती है कि उनकी ये बोलती बतियाती शब्द-रचनाएँ कविता नहीं हैं और विनोद जी नकली कवि हैं। उनकी रचनाओं का चिरपरिचित- अटपटापन उनके शीर्षक से ही आरंभ हो जाता है जो उनकी रचना में विस्तारित होते हुए सायास अनगढ़पन के सौन्दर्य को जनमता है। यह अनगढ़पन उनकी कविताओं और गद्य रचनाओं के बीच झूलता रहता है इससे उनकी कविताएँ उन पाठकों के लिए भी पठनीय हो जाती है जिन्हें कविता की समझ कम हो। संभव है कुछ ऐसा ही पाठकीय समीकरण वहाँ भी बन जाता हो जहाँ उनकी कहानियाँ ऐसे हलके में पहुँच जाती हों जहाँ गद्य रचनाओं की कम समझ वाले पाठक हों फिर भी उन्हें समझ में आ जाती हो।

ऐसी ही उनकी एक कविता है- ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ जिसमें एक ट्रेन बिलासपुर से रायपुर की ओर आ रही है और बैठे हैं- ग्रामवासी, जो पहली बार खाने कमाने के नाम से परिवार सहित रायपुर आ रहे हैं। वे रायपुर स्टेशन की भीड़ और चकाचौंध को विस्मय से देख रहे हैं। उस लम्बी कविता में एक बड़ी छू लेने वाली पंक्ति है उस गरीब जनमानस के संशय, भय और कौतूहल को उद्घाटित करती हुई कि ‘कितने ही लोगों ने देखा होगा पहली बार, रायपुर इतना बड़ा शहर।’ इस शब्द रचना में जनमानस में भविष्य की उम्मीदों के बीच महानगरीय आतंक का भय भी समाया होता है। उस जन के मन में यह संशय तो है कि महानगरीय जीवन का यह चेहरा उन्हें आक्रांत न कर दे, उन्हें क्षतिग्रस्त न कर दे।

अमूमन हर बड़े रचनाकार के विरोधी होते हैं पर विनोद जी का हर मोर्चे पर विरोध होता रहा। यह विरोध चाहे उनकी रचनाओं की भाषा, शैली, शिल्प में तोड़फोड़ पर हो या उनके आत्म-केंद्रीयकृत जीवन जीने के ढंग पर हो... विरोध और असहमतियाँ उनके साथ चलती रहीं, जबकि विनोद जी को किसी का भी विरोध करते हुए नहीं देखा गया। रचना में भले हो पर विनोद जी के व्यवहार में विरोध या प्रतिकार जैसी कोई चीज कभी दिखती नहीं। असहमतियाँ भी शायद उनकी कुछ ऐसे भोलेपन से हों कि उनका यकबायक अहसास नहीं हो पाता, उनके आसपास रहने वालों को। विनोद जी जैसे ही एक और शांतचित्त व्यक्तिव हैं छत्तीसगढ़ में, वे हैं बिलासपुर के गंभीर चिन्तक आलोचक राजेश्वर सक्सेना।

धीर-गंभीर और शांतचित्त होने के बाद भी विनोद जी के लेखन -कर्म के विरोधी इतने रहे कि उनका घर साहित्यकारों का अड्डा नहीं बन सका, न वहाँ कोई मजमा जमा। जो कई बड़े साहित्यकारों का प्रिय शगल रहा। रायपुर के उनके सहनामी लेखक व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बूढ़ापारा में आने- जाने वाले लोग बहुत रहे; पर विनोद कुमार शुक्ल के शैलेन्द्र नगर वाले घर में वैसा ही सन्नाटा पसरा रहा, जैसा कि ऊपर की कविता- ‘जंगल के दिन भर के संन्नाटे में’ है। रचना के हिसाब से इन दोनों विनोद में कोई तुलना नहीं सिवाय इसके कि इन दोनों विनोद को... बहुत बार विनोद शंकर शुक्ल को लोग विनोद कुमार शुक्ल ही कहते रहे। कभी- कभी विनोद कुमार शुक्ल को विनोद शंकर शुक्ल कह दिया जाता था, तब यह देखकर विनोद शंकर शुक्ल बड़े हर्षित हो जाते थे मानों उन्होंने अपना बदला निकाल लिया हो।

बाहर से आने वाले साहित्यकार कमलेश्वर, राजेंद्र यादव, नामवर सिंह रायपुर के स्थानीय आयोजकों से पूछते थे कि “विनोद जी कहाँ हैं?” पर वहाँ विनोद जी दिखाई नहीं देते थे और न अतिथि साहित्यकार उनसे मिलने जाने की जहमत उठाते थे। पर हाँ अशोक वाजपेयी, नरेश सक्सेना, डॉ. राजेंद्र मिश्र जैसे कई महत्त्वपूर्ण लेखक रहे जो विनोद जी की न केवल खोज खबर लेते रहते थे बल्कि उनके साथ वक्त भी भरपूर गुजारते थे। पर उनकी आत्म-केन्द्रीयता के कारण अपनी खुन्नस उतारते हुए कुछ लेखक विनोद जी की चर्चा कर चुहलबाजी किया करते थे। रायपुर में ही एक बार अपनी चतुर सुजानी के लिए कुख्यात राजेन्द्र यादव ने काशीनाथ सिंह को खेलते हुए पूछ लिया था कि ‘काशीनाथ जी.. पटना में विनोद कुमार शुक्ल जैसे लेखक हो सकते हैं क्या?’ काशीनाथ जी सोचते रहे फिर अपनी बड़ी- बड़ी आँखों में कुछ संशय का भाव लाते हुए, दाएँ बाएँ मुंडी हिलाते हुए बस इतना ही कहा- ‘‘पटना में ! वहाँ कैसे होंगे...ना !’’ 

विनोद जी को चाहने वालों का वर्ग भी छोटा नहीं है। विशेषकर रायपुरवासी डॉ. राजेन्द्र मिश्र तो विनोद कुमार शुक्ल के बड़े प्रेमी लगते थे। उनका संग साथ भी अक्सर दिखा करता था। एक बार दुर्ग में कनक तिवारी के घर पर आहूत संगोष्ठी में उन्होंने धीरे से ही सही; पर यह कह तो दिया था - ‘हिंदी में गद्य और पद्य का विपुल लेखन करने वालों में अज्ञेय के बाद विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया जा सकता है।”

केदारनाथ सिंह की तरह विनोद जी की कविताएँ भी पाठको को अपनी कविताओं का पाठ करने के लिए आमंत्रित करती हैं और ये दोनों कवि अपनी कविताओं का अच्छा पाठ भी करते रहे हैं। जैसे कविता ही इनके वक्तव्य हों और ये ऐसे प्रवक्ता जो कविता के माध्यम से मुखरित हो रहे हों। साहित्यिक गोष्ठियों में अक्सर सभी बोलते हैं पर विनोद जी नहीं बोलते हैं और जब संचालक उनका नाम जोर देकर पुकार देते हैं, तब वे दोनों हाथ जोड़कर बोल उठते हैं - “नहीं बोलने वाले आदमी को आप लोग क्यों बुलवाना चाहते हैं।” पर कहीं विनोद जी ने बोल दिया, तब श्रोताओं को यह भी अनुभव हो जाता है कि विनोद जी बोलते भी अच्छा हैं... सरसता है उनके बोलने में; पर ज्यादातर बार लोग उनके अच्छे व सरस वक्तव्य से वंचित ही होते आ रहे हैं।

1993 के बाद जब मेरी उनसे पहली बार मुलाकात हुई, तब मैंने अपना पहला व्यंग्य संग्रह ‘मेरा मध्यप्रदेशीय हृदय’ उन्हें भेंट किया था। वे किसी साहित्य समागम में आए और भिलाई होटल के कमरे में अपनी खाट पर बैठे हुए थे। मैं कुर्सी लेकर उनके करीब हो गया था। वे देखने और बातचीत करने में बिलकुल सीधे सरल लगे थे। बाद में उन्होंने शैलेन्द्र नगर रायपुर के अपने मॉर्निंग वाक के एक साथी व्यंग्यकार अश्विनीं कुमार दुबे से कहा था - “विनोद साव का लिखा मुझे अच्छा लगता है।” कई बार यह जुड़ाव ‘सहिनाव’ (सहनामी) होने के कारण भी हो जाता है। 

विनोद जी के लेखन में विनोद प्रियता की झलक मिलती रहती है। चाहे कविता हो या कहानी स्थितियों एवं चरित्रों में विशेषकर उनके उपन्यासों के कई प्रसंगों में बरबस ही हास्य खिल उठता - ‘खिलेगा तो देखेंगे’ के जीवराखन और डेरहिन के प्रेम प्रसंगों की तरह। या दीवार की खिड़की से पार होकर प्रेम करते बिम्बों में। कभी विनोद जी भी किसी विनोदपूर्ण क्षण में मुँह उठाकर इसे हल्की मुस्कान से दबाने की चेष्टा कर रहे होते हैं, तब भीतर का विनोद उनकी रंगत में उतर आता है। उनके उपन्यास ‘नौकर की कमीज’ का अंग्रेजी व फ्रेंच में भी अनुवाद हुआ है- ‘द सर्वेन्ट्स शर्ट’ नाम से। कहते हैं कि उनकी यह कृति जितनी भारत में बिकी उससे कई गुना अधिक फ़्रांस में बिकी।

जब मैं रायपुर आकाशवाणी में व्यंग्य-पाठ के लिए आमंत्रित होता था, तब अक्सर लौटते समय व्यंग्यकार विनोद शंकर शुक्ल के घर बैठ जाता था। एक बार कथाकार विनोद कुमार शुक्ल जी की याद आई; क्योंकि लम्बे समय के अन्तराल के बाद भी उनसे दूसरी बार मिलना न हो सका था और केवल फोन पर बातें होती रही थीं। कभी- कभी उनकी कोई कविता कहीं छपी हुई दिख जाने पर उन्हें फोन करता और कविता पढ़कर फोन में ही उन्हें सुना दिया करता था और वे उसे चुप तन्मयता से सुन रहे होते थे। मैंने उनसे पूछा - “आपके घर कैसे पहुँचा जा सकता है सर?” तब उनसे यह सुनकर आश्चर्य हुआ- “आप शैलेन्द्र नगर के आसपास जहाँ कहीं भी उतर जाएँगे, मैं आपको स्कूटर से लेने आ जाऊँगा।”

उन्होंने डाक से अपने बेटे की शादी का निमंत्रण भेजा था, तब थोड़ा आश्चर्य हुआ कि अपने नितांत निजी उत्सव पर भी एक बड़े लेखक ने मुझे याद किया है। भिलाई के मित्रों के साथ रायपुर के विवाह स्थल में पहुँचा, तब वे बेटे की बारात लेकर चल रहे थे और मुझे बारात में शामिल होते हुए उन्होंने देख लिया था और देखते ही लपककर पास आ गए और ‘विनोद भाई’ कहते हुए गले लगा लिया था। बेटे की शादी में भी विनोद जी का इतना सादगी पूर्ण पहनावा था, जैसे वे अपने रोज के जीवन में कहीं भी दिख जाते हैं। वे लिखने- पढ़ने, बोलने- बताने और व्यवहार में इतने आम आदमी लगते हैं, जैसे उनके उपन्यास में ‘नौकर की कमीज’ का मुख्य पात्र संतू बाबू या फिर ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का रघुवर प्रसाद हो। उपन्यास के इन दोनों प्रमुख पात्रों में जान नहीं आई होती; अगर इनमें विनोद कुमार शुक्ल जैसा अनगढ़पन नहीं घुसा होता। उनके एक कथा संग्रह ‘महाविद्यालय’ की भी याद आ रही हैं।

उनकी कृतियों को पढ़ते समय रचना में विनोद कुमार शुक्ल के अनगढ़पन का सौन्दर्य बोलता है। यह विशेषता उनके भाषायी चित्रण में होती है। विनोद जी से जब भी जिस उम्र में मुलाकात हो आज भी जब वे नब्बे के करीब होने जा रहे हैं, वे शिशुता बोध से भरे मिलते हैं... और इसलिए चाहे उनकी कविता ‘रायपुर-बिलासपुर संभाग’ हो या उपन्यास की कोई कथा हो, इन रचनाओं में उनके अनगढ़पन का सौन्दर्य वैसे ही पसरा होता है, जैसे किसी बच्चे द्वारा बनाए गए मिटटी के आढ़े -तिरछे खिलौनों में भरा होता है। अपनी ऐसी कुछ विशेषताओं के कारण वे बालसाहित्य के भी सुलभ लेखक हो गए हैं।

एक आत्मीय क्षण में कथाकार कमलेश्वर
और विष्णु खरे के साथ हैं विनोद जी

मैं पूछता हूँ- “जैसा जीवन आप जीते हैं, उसमें उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ की कहानी ‘मैरिड लव’ की कहानी ही बन सकती थी।” वे भोलेपन से बोल उठते हैं - “हाँ... कुछ पाठकों ने मुझे कहा भी था कि इस उपन्यास को पढ़कर यह जाना कि अपनी पत्नी से प्यार कैसे किया जाता है।” वैसे भी विनोद जी की कहानियों में पत्नी होती है, प्रेयसी नहीं।

उन्हें घेरकर खड़े हुए अभिजात्य विनोद जी के अनगढ़पन को ध्वस्त नहीं कर सकते। जबकि विनोद कुमार शुक्ल के लेखन का अनगढ़पन उनकी कविता- कहानियों में अनायास आ गए अभिजात को निरंतर ध्वस्त करते चलता हैं। विनोद जी के विशिष्ट लेखन- कौशल से उनका अपना एक स्कूल भी बन गया है। निर्मल वर्मा के बाद ये विनोद कुमार शुक्ल ही हैं, जिनकी लेखन शैली का अनुकरण करते हुए परवर्ती पीढ़ी के लेखक देखे जाते हैं।

रायपुर वासी प्रसिद्द समालोचक रमेश अनुपम ने फेसबुक में ‘विनोद कुमार शुक्ल होने के मायने’ स्तम्भ से सौ किस्तें पोस्ट कर दी हैं... और अब वे समग्र रूप से एक ग्रंथ में प्रकाशित होंगी। यह कोशिश प्रबुद्धजनों द्वारा सोशल मीडिया से परहेज किए जाने के बदले में उसकी मान्यता को सिद्ध करती है।   

संभवत: विनोद जी के साथ मेरा कोई चित्र नहीं है; पर उनका एक चित्र मैंने कैमरे से लिया था, जिसमें एक आयोजन में वे कथाकार कमलेश्वर और कवि विष्णु खरे के साथ खड़े हैं। यहाँ विनोद जी की कृतियों की मीमांसा की मेरी कोई योजना नहीं है। बस यूँ ही सी कुछ अंतरंग स्मृतियाँ हैं, उनसे मिलने- जुलने और उन्हें कुछ पढ़ने के बाद। यह लिखा गया है एक शोधार्थी छात्र की माँग पर, जो विनोद जी पर शोध कर रहे हैं। विनोद जी को ज्ञानपीठ सम्मान मिलने पर बधाइयाँ एवं शुभकामनाओं के साथ...

सम्पर्कः मुक्त नगर,  दुर्ग (छत्तीसगढ़) 491001, मो. 9009884014

यात्रा-संस्मरणः भृगु लेक के द्वार तक

  - भीकम सिंह

  पाँच जून दो हजार चौबीस की सुबह आठ बजे मनाली से लगभग पंद्रह किलोमीटर पहले छोटे से बस स्टेशन फोरटीन माइल पर ना मालूम कितने ट्रैकर उतरे हैं। उनमें हम छह (संजीव वर्मा, डॉ॰ ईश्वर सिंह, अशोक भाटी भाटी, भूपेन्द्र सिंह, इरशाद और मैं) भी एच.आर.टी.सी. की बस से उतरे, उतरते ही देखा कुछेक ट्रैकर मस्ती में गीत गाते हुए आधार शिविर की ओर चले जा रहे हैं। सामने ही दिख पड़ा वैलकम टू फोरटीन माइल आधार शिविर का बैनर। व्यास नदी के किनारे पर यूथ हॉस्टल एसोसिएशन ऑफ इण्डिया ने स्थापित किया है। प्रवेश द्वार पर ही ग्रुप लीडर राकेश तिवारी ने आगे बढ़कर प्रसन्न हृदय से हाथ मिलाया। ‘आप लोगों का स्वागत है।’ उसने कहा। तुम्हारी सूचना मिल गई  थी। अभी टैंट नम्बर बीस में सामान रखकर फ्रेश-व्रैश हो लो। तिवारी जी हमें सुसंस्कृत लगे। टैंट नम्बर बीस गद्दों, कम्बलों और स्लिपिंग बैग से सजा है, जिसमें हम सोंएँगे। बड़े उत्साह से हमने अपने-अपने रुकसैक टैंट नम्बर बीस में जमा दिए हैं। टैंट में लाइट भी जल रही है, चार्जिंग मल्टी प्लग भी लगा है। संजीव वर्मा स्विच खोलने लगे, तो देखा टैंट की छत पर मक्खियाँ जमीं बैठी हैं, फिर हमने तहाई हुई स्लीपिंग सीट से उन्हें बाहर निकाला और टैंट का दरवाजा बन्द कर दिया। थोड़ी देर बाद हम हाथ-मुँह धोकर ब्रेकफास्ट के लिए डाइनिंग एरिया में चले गए । पूड़ी, सब्जी, अंडा, कॉर्नफ्लेक्स लेकर हम खाने बैठे। खा-पीकर हमने डौक्यूमैंटेशन कराया और दूसरे ट्रैकर्स से परिचय करने लगे। हमारा ग्रुप बी.एल.टी. जीरो फोर है, जिसमें छह महिला और बाईस पुरुष मिलाकर कुल अट्ठाईस ट्रैकर्स हैं। कल हमें भृगु लेक जाना है; इसलिए रतन सिंह भाटी का ओरिएंटेशन कार्यक्रम भी होना है, जिसकी व्यवस्था ग्रुप लीडर राकेश तिवारी ने की है। हम सभी वहीं बैठ गए हैं। रतन सिंह भाटी ने भृगु लेक ट्रैक के बारे में बताना शुरू किया, वे अपने चेहरे पर सुहानी मुस्कान लिये बौर होने की सीमा तक कार्यक्रम में समाँ बाँधते रहे। बीच-बीच में ट्रैकर्स कभी यहाँ तो कभी वहाँ आते जाते रहे ; परन्तु मग्न भाव से रतन सिंह भाटी अपनी आँखों को मिचमिचाते रहे, जैसे वह कोई बड़े महत्त्व की जानकारी हमें दे रहे हैं।

ओरिएंटेशन कार्यक्रम खत्म होते-होते लंच का समय हो गया और लंच करते-करते व्यास  में नहाने का कार्यक्रम बन गया। अपना-अपना नहाने का सामान लेकर हम छहों व्यास रीवर फ्रंट की ओर बढ़ रहे हैं। हमें देखा देखी दूसरे ट्रैकर भी नहाने आ गए। व्यास  के बड़े-बड़े शिला खंडों पर काई जमी है जो फिसलन भरी है। ऐसे में कहाँ नहाएँगे? मैं पूछ बैठा।

यहीं एक-एक डुबकी लगा लेते हैं भाई साहब! अशोक भाटी भाटी ने कहा।

मैंने इस आशंका के बारे में तो सोचा ही नहीं था। मैंने तो सिर्फ नहाने भर का सोचा था। बीच धार में नहाने की हिम्मत जवाब दे गई, तभी माइक पर घोषणा हुई कि स्नान के लिए नदी के अन्दर न जाएँ, दुर्घटना हो सकती है। इसी बीच एक व्यक्ति ने वहाँ पर नहाने के लिए हमें मना भी किया। फिर हम व्यास किनारे बनी एक दुकान पर पानी पूरी खाने बैठ गए। संजीव वर्मा ने कहा, ‘आए थे राम भजन को ओटन लगे कपास’।

सब ठट्ठाकर हँस पड़े।

अशोक भाटी ने कहा, ‘‘अच्छा होगा कि हम कैम्प में जाकर ताश खेलें- क्यों भाई साहब!’’ मैंने भी हामी भर दी। भूपेन्द्र सिंह ने कुछ ऐसा ही जवाब दिया, जैसा कि ऐसी परिस्थितियों में दिया जा सकता है, और हम जल्दी ही आधार शिविर में आ गए, जहाँ हमारी मुलाकात एक लड़की से हुई,  जिसका चेहरा बहुत ही भला था और कला में पगा भाव उस पर छाया हुआ था। भूपेन्द्र सिंह ने उसे भी ताश खेलने का न्योता दे दिया, जिसे उसने मुस्कराते हुए स्वीकार भी कर लिया। उसने पूछा, ‘‘कौन-सा खेल खेलते हो?’’

मैंने कहा, ‘‘जजमेंट।’’

और हम जजमेंट खेलने बैठ गए।

राकेश तिवारी की व्हिसल बजी, डिनर तैयार है, हमने कप प्लेटें निकालीं। निश्चय ही कुछ बढ़िया बना होगा वरना वाई.एच.ए.आई. का ट्रैक कोई क्यों  करेगा। ऊपर से पेट भी बज रहा था भूख के मारे। मैंने जल्दी-जल्दी कुछेक उबले अंडे, दाल-चावल, सब्जी, चार रोटी, अचार और काफी सारा कस्टर्ड प्लेट में भर लिया और साथ में एक मग गरम पानी भरकर सामने पड़ी प्लास्टिक की टेबुल पर रख लिया। निश्चय ही इतना डिनर स्वास्थ्यकर नहीं होगा; परन्तु मैंने कर लिया। रात भर भूपेन्द्र सिंह जोरों के साथ खर्राटे भरता रहा। संजीव वर्मा पूरी रात ऑनलाइन रहे। मुझे भी झपकी-सी आती रही। आँख तब खुली, जब चाय की टोह में इरशाद किचन के चक्कर लगा रहा था।

दो हजार चौबीस का छह जून है। आधार शिविर की चहारदीवारी में सेवों के वृक्ष अपने कच्चे सेव लिये पूरी गरिमा के साथ खड़े हैं। बन्ने और शकूरे की बेरहम कुल्हाड़ी से वे बच निकले हैं, अभी भी छोटे-छोटे पत्तों से युक्त उनकी डालियाँ आधार शिविर को छाया प्रदान कर रही हैं। वाई.एच.ए.आई. की ट्रैवलर बस आ चुकी है। आज हमें पहले कैम्प ‘गुलाबा मीडो’ के लिए निकलना है। फोरटीन माइल से लगभग साठ किलोमीटर ट्रैवलर बस से चलना है फिर दो किलोमीटर की चढ़ाई करके गुलाबा मीडो पहुँचना है जिसे जोंखर और चौदह मोड़ के नाम से भी जाना जाता है।

‘हाँ तो चलिए, गुलाबा मीडो में चलें’ राकेश तिवारी ने हार्दिकता से कहा और ट्रैवलर बस दो गाइड  सहित अट्ठाईस ट्रेकर्स को लेकर चल पड़ी। राह में पुरानी परम्परा की इमारतें, छोटे-छोटे बाजार व्यास  नदी को पार करने के लिए धातु का पुल, खेत, एप्पल के बाग, मेपल ट्री, ओक-पूरा परिदृश्य स्वाभाविक है, फिर धीरे-धीरे हमने रोहतांग दर्रा पार किया, तो हमारी ट्रैवलर बस कुल्लू में प्रवेश कर गई  और हमें ओक के जंगल और घास के मैदान नजर आने लगे। हमने ट्रैवलर बस से उतरकर ग्यारह बजे के आस-पास पैदल चलना शुरू कर दिया है। गुलाबा मीडो कैम्प समुद्रतल से लगभग आठ हजार पाँच सौ फुट की ऊँचाई पर है। हम कैम्प से एक किलोमीटर पहले एक कैंटीन पर रुक गए हैं। कैंटीन वाला सिर झुकाकर सभी का अभिवादन कर रहा है। यहाँ से गाँवों के चिह्न कम हुए हैं और घास के मैदान, ओक के जंगल, बर्फ की चोटियाँ, जंगली फूल और जल स्रोत दिखाई देने लगे हैं। भूपेन्द्र सिंह लड़कियों के बीच गाने की बानगी दिखा रहे हैं। कोई फिल्मी गीत छेड़ते हैं और मुखड़ा गाकर छोड़ देते हैं, फिर दूसरा गीत पकड़ लेते हैं। अंकिता उनका साथ दे रही है, अंकिता ने उन्हें डैडी कहना शुरू कर दिया है। इरशाद और 

अशोक भाटी भाटी के चेहरे के भाव को डॉक्टर ईश्वर सिंह ने ताड़ लिया है कि भूपेन्द्र सिंह के गाने में उन्हें कोई खास रस नहीं मिल रहा है। ट्रैकर अलग-अलग ग्रुप बनाकर कानाफूसी करने लगे हैं तभी गाइड  की आवाज सुनाई दी- “चलो!”, सभी खड़े हो गए, सभी की भावभंगिमा में आत्मानुशासन का भाव है। घास के मैदानों से ताजगी की सुगंध आ रही है। आधा घंटे में ही हम गुलाबा मीडो कैम्प आ गए। आज रात यहीं विश्राम करना है। कल रोला खोली कैम्प के लिए निकलेंगे। कैम्प लीडर आर.के. गुप्ता कैम्प की व्यवस्था के बारे में बात कर रहे हैं। हमें वरुण  खटाना की आवाज सुनाई दी, “चाय तैयार है।” हम मग लेने टैंट के अन्दर गए और वापस आकर टी कन्टेनर से मगों में चाय लेकर आर.के. गुप्ता के साथ बातचीत में रम गए। कुछ ट्रैकर इधर-उधर मँडराने-डोलने लगे हैं, अशोक भाटी भाटी भी उन्हीं में है। कुछ इस बात की चर्चा कर रहे हैं कि लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार बहुमत हासिल करने के बाद राजग ने नरेन्द्र मोदी को अपना नेता चुन लिया है। फुन्दनों की कैप को सिर पर लगाए भूपेन्द्र सिंह सिकन्दर के अंदाज में खड़ा है। गले में बैंगनी रंग का मल्टी परपज पहने डॉ. ईश्वर सिंह वनस्पतियों की खैर-खबर ले रहा है। चारों ओर पर्वत शिखर नजर आ रहे हैं। किचन से भागचंद गर्म पानी का कंटेनर लिये आ पहुँचा है और सिर को घुमाते हुए आर.के. गुप्ता से कहता है, “डिनर तैयार है।” तभी, मैंने देखा कि आर.के. गुप्ता डिनर के लिए बोलते उससे पहले ही हम डिनर करने के लिए तैयार हो गए और इत्मीनान के साथ प्लेटों के बाद प्लेटें, मग के बाद मग खाली होते रहे। तत्पश्चात् स्लीपिंग बैगों में गुड़मुड़ी बनकर सो गए।

आज दिल्ली में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन एक बार फिर सरकार बनाने के लिए दावा पेश करेगा, स्लीपिंग बैग में पड़े-पड़े वरुण  खटाना ने कहा , तो आँख खुली। आज यानी सात जून को हमें अगले कैम्प के लिए प्रस्थान करना है। डॉ. ईश्वर सिंह आँखें मूँदे पड़े हैं। ‘‘डाक्टर साहब! उठो, लो चाय पी लो’’, इरशाद ने कहा, तो उनकी काया में कुछ हलचल हुई। हम सब उठ गए और स्लीपिंग बैगों में ही बैठे रहे। मुझे हिमालयन बुलबुल की आवाज़ आई, मैंने कहा वकील साहब! यह तो वही है जिसका आपने आधार शिविर में फोटो शूट किया था, काले मुँह और सफेद गालों वाली। इतने में भूपेन्द्र सिंह बोल पड़ा, नहीं भाई साहब! मखमल गालों वाली। ठहाका लगा, तो दूसरे टैंट से भी ट्रैकर बाहर निकले और पूछने लगे, ‘‘क्या हुआ! क्या हुआ! ’’ मैंने भूपेन्द्र सिंह से कहा, ‘‘अब राजू बन गया जैंटलमैन का गाना मत सुना देना’’ और इस खुशनुमा वातावरण से आज का दिन शुरू हुआ। घास के मैदानों ने अपना चेहरा दिखाया, इससे खूबसूरत दिन की कल्पना नहीं की जा सकती, आज हम रोला-खोली जाएँगे।

अब हम अट्ठाईस ट्रैकर रोला-खोली की ओर चले। सुबह के आठ बजे हैं। धूप खिली है। पर्वत शिखरों से बादल उठ रहे हैं। सूखे पत्ते और तिनके हमारे रास्ते में कालीन बनने को तैयार हैं। ओक का जंगल बिदाई को खड़ा हो गया है। किसी लड़की का पैर फिसलकर मुड़ गया है, वह वहीं बैठ गई  है। बाकी ट्रैकर आगे निकल गए हैं। एक गाइड उस लड़की के पास रुक गया है। वैसे भी वह रूखे स्वभाव की है, हालाँकि उसके कठोर होने की शिकायत किसी को नहीं है। बस अंकिता उसे उचक-उचककर देखती रहती है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ रहे हैं, घास के मैदानों की हरियाली बढ़ने लगी है। पहाड़ों पर हल्के-हल्के जंगली फूल दिखने लगे हैं। सोलंग घाटी से होती हुई ठंडी हवा शरीर में झुरझुरी पैदा करने लगी है, ऊपर चढ़ती हुई घुमावदार पगडंडी पर एका-एक मोड़ आया और हम बड़े जल स्रोत पर पहुँच गए हैं। यही हमारा लंच प्वाइंट है। गाइड ने रुकने के निर्देश दे दिये हैं। मैंने देखा, पीछे बहुत दूर गाइड के साथ वह लड़की घिसट रही है। पगडंडी के किनारे-किनारे पड़े पत्थरों पर हम बैठ गए हैं। पीर पंजाल और धौलाधार रेंज के अद्भुत दृश्य दिखायी दे रहे हैं। फोन के सिग्नल आ-जा रहे हैं। एक भेड़ बकरियों का बड़ा- सा झुण्ड हमारे पास से गुजरा है, उनके ताजे-ताजे निशान वहीं पड़े दिख रहे हैं, और हम लंच कर रहे हैं। लंच करते ही शरीर में एनर्जी जगमगा उठी है। सभी के रुकसैक पीठ पर आ गए हैं। आसमान में बादलों की कतरनें उड़ने लगी हैं। पहाड़ गुनगुनाने लगे हैं। हम भी उन्हीं में रमते-रमाते रोला-खोली की ओर बढ़ने लगे हैं। संजीव वर्मा का मोबाइल कैमरा हर वक्त ऑन रहा है। वह अपने पसंदीदा दृश्य शूट कर रहे हैं। उनके मुँह से निकला, ‘‘अद्भुत!’’ दूर, काफी दूर रोला-खोली के टैंट नज़र आ रहे हैं। हम उत्साह से अधीर हुए जा रहे हैं, और हम पाँच बजे तक उतर ही आए। कैम्प लीडर आनन्द भावे ने गरमागरम आलू- बंडे और चाय से हमारा स्वागत किया। हम थककर चूर हैं हमारे चारों ओर ऊँचे-ऊँच पहाड़ हैं, मैदान में बड़े-बड़े शिलाखण्ड भी हमारे साथ जैसे टैंट लगाकर जमे हैं। पेड़-पौधों को गुलाबा मीडो में जंजीर से बँध दिया है। कुछ ट्रैकर बर्फ में भीगे हुए भृगु लेक से आ रहे हैं, जैसे बर्फ में तैर कर आए हों, उन्हें देखकर मुझे झुरझुरी-सी आ गई। कल (आठ जून) हमें भी भृगु लेक जाना है, तभी हमने देखा दूसरा गाइड पगडंडी छोड़कर हमारी ओर उतर रहा है, साथ में विजय तिवारी और वह लड़की है। ‘‘चले आओ! चले आओ!’’ हमारा समवेत स्वर गूँजा। फिर मैंने कहा, ‘‘अशोक भाटी जी! चलें? कुछ खेलें-खालें, घूमे-फिरें? कल भृगु लेक चढ़ना ही है, क्यों? ... वैसे तो थकान उतरी नहीं है।’’

इतने में ही इरशाद बोला, ‘‘छोड़ो भाई साहब मैं भी कल यहीं रहूँगा।’’ अशोक भाटी बड़बड़ाया ‘‘इतना परिश्रम करके आए हैं; केवल भृगु लेक के लिए या कैम्प में आराम करने?’’

‘‘अब टैंट में चलो’’, डॉ. ईश्वर सिंह ने जल्दी मचाई और हम छहों टैंट में आकर जैसे ढह गए। आठ जून को हम जल्दी जाग गए, भृगु लेक जाना हैं। पहले हम खुले में शौच के लिए गए उसके बाद हाथों में दस्ताने, रैन सीट, स्नोबूट और सनग्लास पहनकर पैक लंच लिया- कुछ कार्बोहाइड्रेट और विटामिनयुक्त खाद्य भी रखे। संजीव वर्मा घर से लड्डू लाए हैं, उन्होंने वे भी रख लिये। इरशाद ने रोला-खोली कैम्प में ही आराम करने का मन बना लिया है। उनके साथ पाँच लोग रुकने वाले हैं। हम बाईस ट्रैकर आत्मविश्वास से भरे हुए धीरे-धीरे पैर बढ़ाते हुए भृगु लेक की तरफ बढ़ने लगे हैं। रोला-खोली कैम्प की बगल में स्थित नदी को पार करते हैं। चढ़ाई के ठीक बीस मिनट बाद जमीन एक विशाल हिम चादर में खुलती है। यहाँ से हमें देव टिब्बा, हनुमान टिब्बा और सोलंग घाटी का मनोरम दृश्य दिखाई दे रहा है। पैर धीरे-धीरे बढ़ाना एक तरह से अनिवार्य सा हो रहा है; क्योंकि बर्फ तोड़-तोड़कर चढ़ना दुष्कर सा हो रहा है, साँस फूल रही है, झर-झर स्नोफॉल हो रहा है, धूप नहीं है, भृगु लेक हमें पुकार रही है। रास्ता फिसलन वाला है। बीच-बीच में किसी ना किसी के फिसलने का दृश्य दीख जाता है तो हँसी छूट जाती है। भूपेन्द्र सिंह ने जूतों पे क्रैम्पन (कील लगी चैन) पहनी है, उन्हें फिसलने का डर नहीं है। सीधी खड़ी पर्वत श्रेणियाँ हैं सफेद बर्फ जमा हुआ है। स्नोफॉल रुक गया है। अंततः उसी स्थान पर हम पहुँच गए, जहाँ हमें पहुँचना था अर्थात् भृगु लेक के द्वार पर। आह! कैसा अद्भुत, आध्यात्मिक वातावरण है। हम गुग्ध भाव से देखते रहे। यह झील भारत के हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले में चौदह हजार एक सौ फुट की ऊँचाई पर है। यह एक पर्वतीय झील है जो रोहतांग दर्रे के पूर्व में है। इसका नाम महर्षि भृगु पर पड़ा है। बाईस के बाईस ट्रैकर पीली, काली, नीली रैन सीट में नाचते से घूम फिर रहे हैं। कभी-कभी पैर घुटने तक बर्फ में धँस जाते हैं, फिर पैर खींचकर बर्फ से बाहर निकालते हुए हम आनन्दित हो रहे हैं। डॉ. ईश्वर सिंह की नाक लाल हो गई  है। चारों तरफ सफेद बर्फ का साम्राज्य है। अंकिता के साथ छहों लड़कियाँ ठेलमठेल मचाए हुए हैं, वह बर्फ के गोले फेंकने से नज़र आ रहा है। उमर का ख्याल आते ही चेहरे पर विरक्ति के भाव आ गए हैं। तभी गाइड की आवाज़ आई- ‘‘चलो! जल्दी करो!’’ फिर हम ढलवा रास्ते पर चलने लगे, लगभग पाँच सौ मीटर ही चले थे कि गाइड  ने कहा-‘‘यहाँ लंच कर लें फिर स्लाईडिंग (फिसलकर) द्वारा रोला-खोली पहुँचेंगे।’’

आठ जून दो हजार चौबीस के दो बजे हैं, हम पैर फैलाकर टिफिन हाथों में लिए बैठे हैं। हमारी रैन सीट पर स्नोफॉल की कुछ बर्फ बिखरी हुई है। सामने अलोकिक भृगु लेक है। लंच करने के बाद हम बाईस के बाईस फिसलनकारी बर्फ पर पैर जमा-जमाकर रोला-खोली की ओर बढ़ने लगे। गाइड  ने एक ढलवाँ पगडंडी पर रोक दिया, यहाँ से स्लाइडिंग करते हुए जाना है। वाह!... बिना स्की, बिना स्केट, सर्र-सर्र हम ढलवाँ पगडंडी पर फिसलने लगे। फिसलकर लगभग एक किलोमीटर नीचे पहुँचे, तो जूतों में, पिछवाड़े में बर्फ घुस गई। एक लड़की को चोट लगी है शेष इक्कीस अगली स्लाइडिंग के लिए तैयार हैं। भीतर रोमांच होता रहा, बाहर स्नोफॉल। एक-एक करके हमने छह स्लाइडिंग की, थकान का पता ही नहीं चला और हम रोला-खोली आ गए। पाँच बज चुके हैं कैम्प में पहुँचते ही कपड़ों में घुसी बर्फ को निकालना शुरू किया। ठण्ड बहुत लग रही है, सामान रखकर, गर्म कपड़े बदलकर हम चाय पीने के लिए आ बैठे हैं। दूर-दूर तक बिछी बर्फ, उसके बीच से आती ठण्डी हवा, पास में ठंडे चिकने पत्थरों पर उछलती धारा शरीर में खुरखुरी पैदा कर रही है। ठंड की बेचैनी हमें स्लीपिंग बैग में ले गई। कल हमें आधार शिविर निकलना है, यही सोचकर हम देर तक सोते रहे। ठंड की मार के कारण हम स्लीपिंग बैग के भीतर हिल भी नहीं पाए।

नौ जून दो हजार चौबीस को सुबह नौ बजे आधार शिविर फोरटीन माइल के लिए प्रस्थान किया। अब हम पच्चीस हैं, तीन कल ही जा चुके। आज रविवार का दिन है और नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ लेंगे। लगभग घंटेभर चलने के बाद आराम करने की इच्छा हुई, मैंने गाइड  से कहा, तो उसने मना कर दिया और कहा, ‘‘गुलाबा मीडो के पास लंच होगा और वहीं ट्रैवलर बस का इंतजार करते हुए आराम भी होगा।’’ गाइड ने ये शब्द कुछ ऐसे ठेठ अंदाज में कहे कि मानों वह कह रहा हो कि जहाँ मन करे, आराम करो। मैं एक जल स्रोत के पास बैठ गया हूँ, धूप निकली है, दिन सूखता सा चल रहा है, मेरे सामने भेड़ बकरियों का झुण्ड है, जो लम्बी लाइन लगाकर पानी पी रहा है। सामने सोलन घाटी, सूखी हरी घास से ढकी ढलावदार पगडंडियाँ हमें बारह बजे तक गुलाबा मीडो के पास ले आई हैं। हम धूप में बैठे ताश खेल रहे हैं, गर्मी के मारे बेचैनी हो रही है, हवा के स्पर्श का अनुभव बीच-बीच में हो रहा है। हमारे ठीक सामने सड़क के दूसरी ओर कुछ ट्रैकर ट्रैवलर बस का इंतजार कर रहे हैं और कुछ ओक की छाँह में बैठे हैं। गाइड  शोर मचा रहा है। मैंने घूमकर देखा, तो वरुण  खटाना पर मेरी नज़र पड़ी, जो कंधों पर अपना रुकसैक चढ़ा रहा है। शेष ट्रैकर गर्मी से परेशान हुए निश्चल बैठे हैं। ‘‘चलो!’’ हमारी ओर ताकते हुए वरुण खटाना ने चिल्लाकर कहा। थोड़ी देर में ही हम ट्रैवलर बस में बैठ गए हैं, आधार शिविर के लिए। बस ड्राइवर ने गाना बजा दिया है, ओ, केटी को, केटी को।

सॉनेटः निर्दिष्ट दिशा में






 - अनिमा दास 

एक संकेत सा.. एक रहस्य सा.. काव्य प्रेयसी के घनत्व में 

रहते हो तुम, हे कवि! तुम अनंत रश्मियों का हो एक बिंदु 

नहीं होते जब तुम परिभाषित अनेक शब्दों में.. अपनत्व में 

नक्षत्रों में होते तुम उद्भासित बन संपूर्ण अंतरिक्षीय सिन्धु 

 

मेरे जैसे कई कहते हैं तुम लघु में हो वृहद.. वृहद में अनंत 

जब घन अरण्य में चंचल होती चंद्र-किरण, मैं कहती हूँ 

कविवर के शब्द पंच रूप से हो निस्सृत सप्त अक्षर पर्यंत 

पुनः पंच रूप में होते आबद्ध, मैं उस चित्रकल्प में रहती हूँ 

 

प्रत्येक छंद में संचरित प्राण.. तमस में भी होता आलोकित 

यह प्रकाश.. यह निर्झर..शैलशीर्ष की यह लालिमा समस्त 

करते प्रश्न.. कहो कवि कैसे तुम वर्णमाला को किए जीवित 

क्या ये वही अर्ण हैं, जो तुम्हें किया है पाठक हृदयाधीनस्थ? 

 

तुम्हारे अवतरण से महार्णव की शुभ्र-उर्मियाँ हुईं काव्यमय 

हुई महीयसी, कथा हुई संपूर्णा..प्रस्फुटित हुआ किसलय। 


प्रेरकः खाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो!

  - निशांत

खाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो!

एक प्रसिद्ध ज़ेन कथा में वर्णित है कि:-

एक नए बौद्ध साधक ने अपने गुरु से पूछा – “मैं हाल में ही मठ में शामिल हुआ हूँ. कृपया मुझे कोई शिक्षा दें.”

जोशु ने उससे पूछा – “क्या तुमने अपनी खिचड़ी खा ली है?”

नए साधक ने कहा – “जी”.

जोशु बोले – “तो अपने बर्तन भी धो लो”.

कहते हैं कि इतना सुनते ही साधक को बोधि प्राप्त हो गयी.

मुझे क्षमा करें पर मैं इस कथा को नहीं समझा सकता क्योंकि मैं स्वयं इसे नहीं समझ पाया हूँ. यही तो जापानी ज़ेन कथाओं की विशेषता या कमजोरी है. खैर, मैं इस कथा से ही अपनी बात आगे बढाऊँगा.

अब आप बताएं. क्या आपने अपना खाना खा लिया है? यदि हाँ, तो आप भी अपने बर्तन धो लीजिये.

खाना खाते समय मैं अक्सर यह सोचता हूँ, और-तो-और, दूसरे काम करते समय भी मैं इस बात पर विचार करता हूँ – “खाना खा लिया? तो बर्तन भी धो लो!”

इस बात में असीम सरलता और गहराई है. इसका सार यह है कि ‘जीवन के उद्देश्य और इसके रहस्यों को समझने के प्रयास में अपना सर मत खपाओ… बस जिये जाओ’. अपने बर्तन धो लो. धोने की इस प्रक्रिया में ही तुम्हें वह सब मिलेगा जो तुम पाना चाहते हो.

मुझे इसमें सत्य के दर्शन होते हैं. वैसे तो मुझे वास्तव में अपने बर्तन धोने के अवसर कम ही मिलते हैं पर ऐसा करते समय मैं इसे पूरी तल्लीनता और सजगता से करता हूँ. इस काम में कुछ भी खर्च नहीं होता पर असीम संतोष मिलता है.

नहाने से पहले मैं हाथों से अपने कपड़े धोता हूँ. उन्हें निचोड़ने के बाद सुखाने के लिए तार पर टांग देता हूँ. कपड़े बदलते वक़्त मैं मैले कपड़ों को धोये जाने के लिए नियत स्थान पर रख देता हूँ. किचन में जब कभी कुछ बनाता हूँ तो डब्बों को यथास्थान रखने के बाद प्लेटफ़ॉर्म पर साफ़-सफाई कर देता हूँ. मैं इसमें परफेक्ट होने का दावा नहीं करता पर प्रयास तो कर ही सकता हूँ न.

अपना काम हो जाने के बाद इन चीज़ों को करने का सम्बन्ध केवल स्वच्छता और व्यवस्था बनाये रखने से ही नहीं है. इन्हें करने में सचेतनता और सजगता है, कर्म किये जाने की भावना का मनन है, और हड़बड़ी में अगले काम में रत हो जाने की बजाय वर्तमान के क्षणों में बने रहने का बोध है.

तो आप भी अपने बर्तन धो लीजिये. होशपूर्वक और उल्लास के साथ। (हिन्दी ज़ेन से)

आलेखः वीर योद्धा- मन के जीते जीत मेजर मनीष सिंह

  - शशि पाधा 

युद्ध एक ऐसा आक्रमणकारी दानव है जिसकी तरकश में केवल हिंसा, संहार और विनाश के तीर-भाले ही संग्रहीत रहते हैं।  युद्ध में चाहे हार हो चाहे जीत, बलि तो मानवता और शान्ति की ही चढ़ती है।  वायु, आकाश, गन्ध, संगीत, बादल, बिजली जैसी प्राकृतिक संपदा को बाँट सकने का न हमें अधिकार होता है और न ही क्षमता।  ये तो पूरे विश्व की निधि हैं।  इसी प्राकृतिक सम्पदा का एक अनमोल मोती है हमारी शस्य-श्यामला धरती।  स्वार्थी, अहंकारी और लालची मानव युगों-युगों से केवल इसी धरती को बाँटने, इसके टुकड़े-टुकड़े करने की ताक में रहता है, और इसी राक्षसी प्रवृत्ति की ज्वाला को अंगार दे रहा है विश्व में फैला आतंकवाद।  यही इस  युग की सबसे निंदनीय देन है।  आतंकवाद संहार का, विनाश का, अशांति का विध्वंसक हथियार है।  इस विनाशकारी तीर को निरस्त करने वाली लौह ढाल भी ईश्वर ने बनाई है और वह ढाल है भारतीय सेना के सैनिकों का शौर्य।  यह केवल भावना नहीं, जनून नहीं! यह प्राण वायु की तरह उन्हें गति देता है।

युद्ध में सफलता की कितनी भी परिभाषाएँ की जाएँ, कम ही हैं।  सीमाओं पर शत्रु के साथ युद्ध रत होना उसका एक पक्ष है और शत्रु के प्रहार से घायल हो कर मृत्यु से लड़ना उसका दूसरा पक्ष।  इसी दूसरे युद्ध में विजय हासिल करने वाले वीर योद्धा का नाम है मेजर मनीष सिंह। 

बचपन से ही मनीष को खिलौनों में पिस्तौल, राइफल आदि ही पसंद थे और उसका प्रिय खेल था ‘दुशम-दुशम’ यानी दुश्मन पर वार करना।  पिता रेलवे अधिकारी थे; किन्तु मनीष का केवल एक मात्र ध्येय था- भारतीय सेना की विशिष्ट पलटन 9 पैरा स्पेशल फ़ोर्सेस में सम्मिलित होना।  यह उनके लिए केवल महत्वाकांक्षा ही नहीं थी, एक निश्चित पथ था। 

 मुझसे फोन पर बातचीत करते हुए मनीष बताते हैं, “मैम, मेरी माँ मेरे बचपन की पहली जिद्द के विषय में बताती हैं कि अपने आठवें जन्मदिन पर मैंने उपहार में सैनिक की वर्दी ही माँगी थी।  जब वह नहीं मिली, तो मैं रूठ गया था।  मेरी माँ ने चुपके से वह वर्दी खरीद कर रख ली थी।  अंत में अपने जन्मदिन पर सैनिक वर्दी का तोहफ़ा देख, मैं खुशी से नाच उठा था।  माँ कहती हैं कि स्कूल से आकर मैं हर दिन वही पहनता था।  मैंने तो जन्म ही सैनिक बनने के लिए लिया था।” उनकी इस भोली- सी जिद्द की बात सुन कर हम दोनों हँस पड़े थे। 

“तो आपने फिर से कभी कोई जिद्द नहीं की अच्छे बच्चे की तरह।”- माँ हूँ न, इसलिए मैंने उत्सुकता वश पूछ लिया।

मेरा प्रश्न सुनकर वे खुल कर हँस दिए।  कहने लगे, “ की थी न एक बार फिर।  मैं B I T  मेसरा’ राँची में इंजीनियरिंग कर रहा था।  मम्मी-डैडी खुश थे ; लेकिन मेरे सर पर तो सेना में भर्ती होने का हठ सवार था।  फॉर्म भरा, सेलेक्शन हो गया, तो इंजिनीयरंग छोड़कर NDA में जाने की चुपचाप तैयारी कर ली, माँ–डैड को पूछे बिना।  जाने का समय आया, तो बता दिया।”

मनीष की यह सनक तब भी चरितार्थ हुई, जब इण्डियन मिलिटरी अकेडमी से पास आउट होने से पहले उन्हें अपनी पसंद की यूनिट का नाम अपने फॉर्म में भरना था।  फॉर्म में तीन कॉलम होते हैं।  उन्होंने केवल एक ही भरा और उसमें लिख दिया ‘9 Para Special Forces’।  इस पलटन में प्रवेश करने के लिए भी उन्हें फिर से तीन महीने की प्रोबेशन / सिलेक्शन की कठिन परीक्षा से गुज़रना पड़ा।  इस परीक्षा में वे सफल हुए और इस महत्त्वपूर्ण पलटन के सदस्य बन गए।   

वर्ष 2012 में मैं पहली बार मनीष से मिली थी।  बाद में पता चला कि कुछ दिनों के बाद ही उन्हें उनकी टीम के साथ कश्मीर की सीमाओं पर भेज दिया गया था। उन दिनों भारत का उत्तरी राज्य ‘जम्मू –कश्मीर’ कई वर्षों से आतंकवाद की लपटों से झुलस रहा था।  भारतीय सेना तन, मन और कर्म से इस स्थिति से जूझने के लिए निरंतर आतंक एवं अलगाव वादियों से लड़ रही थी।  यह युद्ध पुरानी पद्धति से नहीं लड़ा जा रहा था।  यहाँ शत्रु घने जंगलों, खेतों, घरों, गुफाओं में छिपकर हमारी सेना की गति विधियों को देख रहा था और सामने आते ही उन पर छिप-छिपकर वार कर रहा था।  यहाँ महाभारत का चक्रव्यूह नहीं रचा गया था, यहाँ जंगल में छिपे हिंसक दानवों के साथ युद्ध था।  वीर भारतीय सेना हर परिस्थिति में उसके लिए तैयार थी। 

25 सितम्बर, 2012 की भयंकर रात को कश्मीर के कुपवाड़ा क्षेत्र के घने जंगलों में छिपे आतंकवादियों को ढूँढकर उन्हें नष्ट करने का साहसिक दायित्व कैप्टन मनीष की सैन्य टुकड़ी को सौंपा गया।  रात भर अभियान चलता रहा।  दोनों ओर से गोलियाँ चल रही थी।  उस मुठभेड़ में दोनों ओर से अंधाधुंध गोलियाँ चलीं और कई आतंकवादी मारे गए थे।  इस युद्ध में मनीष को भी गोली लगी थी और वे बुरी तरह घायल हो गए थे।  कहते हैं कि जैसे लक्ष्य भेदन में अर्जुन की आँख केवल अपने लक्ष्य पर केन्द्रित थी, ठीक वैसे ही उस मुठभेड़ में मनीष का लक्ष्य भी सामने खड़े शत्रु को मार गिरना था।  उस घायल अवस्था में भी वे रेंगते हुए शत्रु पर गोली दागते रहे और अंततः सारे आतंकियों को नष्ट करने में सफल हुए।  इस प्रकार न केवल उन्होंने अपनी टीम के साथियों की जान बचाई अपितु कश्मीर के नागरिकों को भी भयंकर संहार से बचाया। 

मनीष इस अभियान की सफलता को उठकर, बैठकर देख भी नहीं सकते थे क्यों कि वे गंभीर रूप से घायल थे।  घायल अवस्था में जब उन्हें कश्मीर के सैनिक अस्पताल में पहुँचाया गया तो चिकित्सकों को पता चला कि रीड़ की हड्डी पर तिरछी गोलियाँ लगने के कारण उनका कमर से नीचे का शरीर निष्क्रिय हो चुका था।  रक्त स्राव और अन्य घावों के कारण उनके शरीर के अंग निष्क्रिय होते जा रहे थे और धीरे- धीरे यह योद्धा कोमा में जा रहा था।  वह समय शायद सेना के चिकित्सकों के लिए एक कठिन परीक्षा का समय था।  दो दिन तक ‘कोमा’ में रहते हुए भी इस योद्धा के हृदय ने अभी हार नहीं मानी थी।  मशीनें बता रही थीं कि इनका दिल अभी भी काम कर रहा था।  सेना के कुशल चिकित्सक उनको बचाने में जुटे थे और उनका परिवार, उनकी यूनिट और उनके मित्र उनके लिए मौन प्रार्थना कर रहे थे।  अंत में मृत्यु पराजित हुई और मनीष जीवित होने के संकेत देने लगे।  

कोमा से बाहर निकलने के अपने उस चमत्कार को मनीष स्वयं इन शब्दों में बताते हैं, “दो दिन तो मैं था ही नहीं इस दुनिया में, शायद शून्य में था।”

मेरे पूछने पर कि कैसे पता चला कि आप जीवित हैं, उन्होंने जो उत्तर दिया वो इस संसार का सब से बड़ा सत्य है, सब से बड़ी दवा है और सब से बड़ी दुआ। 

मनीष कहते हैं, “मैं कहीं दूर निकल गया था मैम! बहुत दूर से कहीं मुझे अपनी माँ की आवाज़ सुनाई दी ---‘मनु’ ।  माँ ने बुलाया था अपनी पूरी ममता के साथ, पूरी आशाओं के साथ।  मैं मना नहीं कर सका और लौट आया मृत्यु के लौह पाश से।”

“माँ कहती हैं कि मैंने बिना आँख खोले अपने हाथ का अंगूठा हिलाया था, जिसे डॉक्टरों ने ‘Thumbs Up’ का संकेत मान लिया और यह घोषित कर दिया कि अब मुझे कोई भी ‘मुझसे’ नहीं छीन सकता।  नकारात्मक परिस्थितयों पर यह मेरी पहली विजय थी । और शायद फिर से जीने के लिए यह तीसरी ज़िद्द थी। 

फरवरी के महीने में जन्म लेने वाले मनु अब अपना जन्मदिन 25 सितम्बर को मनाते हैं।  उनका तर्क है उस दिन उन्हें दूसरा जन्म मिला।  “उस दिन जो गोलियाँ चली थीं, उनमें से एक मुझे लगी और दूसरी मेरे सामने खड़े उस आतंकी को।  गिरे तो हम दोनों ही थे; लेकिन मैंने गिरते हुए उन निर्णायक पलों में एक गोली और दाग दी।  शत्रु वहीं ढेर हो गया और मुझे मेरे साथी तुरंत ही उठाकर हैलिकोप्टर तक ले आए।  तब तक मुझे होश थी और मैं अपने उद्देश्य पूर्ति की सफलता के लिए बहुत खुश था।”

उस रात यह योद्धा नही जानता था कि शत्रु पर विजय तो प्राप्त हुई किन्तु जीवन से युद्ध तो अभी शुरू हुआ था।  यह तो इस नए युद्ध की किताब का पहला पन्ना था।  

अब उनका रणक्षेत्र बदल गया था।  मनीष दो महीने तक दिल्ली के सैनिक अस्पताल के आई सी यू वार्ड में इस शारीरिक आपदा से जूझते रहे।  इस बीच उनके इलाज के लिए तीन बार उनके शरीर में Bone Marrow डाला गया, कितनी बार शल्य चिकित्सा का भी सहारा लिया गया; किन्तु उनकी शारीरिक स्थिति में कोई विशेष अंतर नहीं आया।  उनकी चिकित्सा करने वाले डॉक्टरों ने यह मान लिया था कि मनीष अब अपने पैरों पर कभी भी खड़े नहीं हो सकेंगे, वे कभी चल नहीं पाएँगे।  मनीष को उस समय एक ही बात उनका मनोबल बढ़ा रही थी कि वे जिंदा हैं और उनके शरीर का ऊपरी भाग सक्रिय है।  शायद यही बात अँधेरे में दीपक के समान उनका आगे का रास्ता प्रशस्त कर रही थी।  

दो महीने के बाद उन्हें पुणे के पुनर्वास (Rehabilitation) वार्ड में भेज दिया गया जहाँ विशेष शारीरिक व्यायाम आदि की व्यवस्था थी।  कश्मीर से दिल्ली और फिर दिल्ली से पुणे हॉस्पिटल तक की लंबी यात्रा में मित्र, हमसफर ‘कमांडो देसराज’ सदैव उनके साथ रहा।  देसराज मनीष की टीम से ही था और उनका ‘बड्डी’ था।   यह बड्डी एक साये की तरह चौबीस घंटे मनीष के साथ ही रहता था।  पुणे में मनीष से विभिन्न प्रकार की शारीरिक व्यायाम कराए गए, कई प्रकार के यंत्रों द्वारा उनके शरीर के निचले भाग को सक्रिय करने की चेष्टा की गई ; किन्तु उनकी अवस्था में कोई विशेष अंतर नहीं आया। 

उस समय मैं भारत की यात्रा पर थी और पुणे में उनसे मिलने, उनका उत्साह बढ़ाने के लिए गई थी।  उन दिनों मनीष गहन मानसिक द्वंद्व से जूझ रहे थे।  शारीरिक रूप से शिथिल दिखने वाले मनीष से बात करते हुए मुझे उनकी आँखों में दृढ़ संकल्प की ज्योति दिखाई दे रही थी।  मैं केवल कुछ घंटे उनके साथ बिताकर चली आई थी, इस विश्वास के साथ कि यह बहादुर योद्धा इस परिस्थिति से भी निकल आएगा।  

मानसिक और शारीरिक संघर्ष के विषय में मनीष बताते हैं, “उन दिनों कभी-कभी मुझे गहन निराशा घेर लेती थी।  तब मैं अपने आप से बात करता था और कहता था, मुझे अपने शरीर से लड़ना है, मुझे हार नहीं माननी है।  मैम! मैं अपने आप से बहुत कठोर व्यवहार करता था।  दिन में 50 बार बिस्तर से उठने की कोशिश करता था, सहारा लेकर खड़ा होने की कोशिश करता था ; लेकिन कुछ नहीं हो पाता था।  बचपन से ही मुझे पढ़ने का बहुत शौक था। समय काटने के लिए मैं पढ़ना चाहता था ; किन्तु मैं लेटे-लेटे कितना पढ़ सकता था और थक जाता था। अपने आप से लड़ते-लड़ते मैं अपने भविष्य के लिए कोई और नया रास्ता ढूँढने लगता था।”

रास्ता मिला मनीष को और यह भी एक चमत्कार ही था।  उसी पुनर्वास वार्ड में किसी की बातचीत सुनते हुए मनीष के बड्डी देसराज को बम्बई के एक ऐसे हॉस्पिटल के बारे में पता चला जहाँ Stem  Cell  Therapy से शरीर से असहाय लोगों का इलाज हो सकता था।  मनीष को बिना बताए देसराज स्वयं उस हॉस्पिटल के डॉक्टर आलोक शर्मा से मिल आया और उनसे मनीष के लिए मिलने का दिन भी तय कर आया।  बस उसकी सलाह पर ही मनीष ने मिलिट्री हॉस्पिटल से दो दिन की छुट्टी माँगी और दोनों Sion Hospital, Neurogen Brain and Spine Institute, Nerul, Bombay के लिए चल पड़े।  मनीष कहते हैं कि यह उनके लिए अँधेरे में तीर चलाने के समान था।  इस चिकित्सा के लिए सेना की ओर से उन्हें अनुमति नहीं मिली थी, फिर भी वे इस अवसर को गँवाना नहीं चाहते थे और यहीं से आरम्भ हुआ उनके पुनर्वास का कठोर अभ्यास जिसने उनकी जीवन की दिशा और दशा बदल दी। 

इस हॉस्पिटल के डॉक्टर आलोक शर्मा के अनुसार- मनीष में अपने पैरों पर खड़े होने का अटूट संकल्प और जिद थी, तो परिस्थितियों ने भी उनकी सहायता की।   चार बार Stem Cell Therapy के सहारे उन्हें बिस्तर पर अपने शरीर को मोड़ना बिस्तर से सरककर, पास रखी व्हील चेयर पर जाना और वापिस बिस्तर पर आना था। उन्हें घुटनों को बाकी शरीर का भार वहन करने के लिए सक्षम करना था; ताकि वे कुर्सी से खिसक कर दूसरी जगह पर बैठ सकें।  कमर से नीचे के भाग को सक्रिय बनाने आदि का व्यायाम कराए गए।  इस पूरी स्थिति में मनीष को असहनीय शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी; किन्तु इससे अधिक मानसिक दुविधा की पीड़ा उनके लिए घातक हो सकती थी। डॉक्टर आलोक बताते हैं कि इसमें भी न हार मानने वाले मेजर मनीष को विजय ही मिली।  

लगभग चार महीने पहले एम्बुलेंस में लेटकर आने वाले मनीष जब अपनी व्हील चेयर पर बैठकर वापिस पुणे गए, तो नकारात्मक परिस्थतियों के साथ हो रहे अपने मानसिक और शारीरिक युद्ध के मैदान में उनकी यह दूसरी बड़ी विजय थी।  भविष्य उन्हें बुला रहा था और वो एक नए संकल्प के साथ उद्घोषणा कर रहे थे----

“मैं एक सोल्जर हूँ और मैं जिंदादिली से जीता हूँ । एक टारगेट छूटा तो क्या, दूसरा मेरे सामने है। कमांडो कभी हार नहीं मानता। मेरा अगला टारगेट है पैराफ़लैजिक ओलिंपिक में हिस्सा लूँ और देश के लिए पदक जीतूँ।” 

जिंदादिल मनीष ने जल्दी ही अपना दूसरा टारगेट ढूँढ लिया था- पिस्टल शूटिंग की प्रतिस्पर्धा में भाग लेना। अभी वे असमंजस की अवस्था में अपने से लड़ रहे थे, तो फिर एक चमत्कार हुआ।  श्रीमती दीपा मल्लिक (जो स्वयं पक्षाघात पर विजय प्राप्त कर ओलम्पिक खेलों में भाग ले चुकी थीं) ने उनसे फोन पर बात की।  वे भुक्तभोगी थीं और मनीष का मनोबल बढ़ाना चाहतीं थी। यह जानकर कि मनीष को शूटिंग में दिलचस्पी है, उन्होंने उसे सब कुछ भुलाकर केवल इसी खेल को अपना भविष्य बनाने की सलाह दी।  मनीष को मानो अपना रास्ता मिल गया।  उनकी मंशा जानकर सेना ने उनकी नियुक्ति मध्य प्रदेश स्थित infantry School Mhow  में कर दी।  इस सैनिक प्रशिक्षण केंद्र में शूटिंग रेंज भी थी और अभ्यास कराने के लिए शिक्षक भी थे। 

मनीष एन डी ए में चार वर्ष तक बहुत कठिन परीक्षण और अभ्यास से गुज़र चुके थे।  लेकिन तब उन्हें अपने शरीर की बाधाओं से नहीं लड़ना पड़ता था।  पिस्टल शूटिंग का अभ्यास करना बहुत कड़ी परीक्षा थी।  हर बार गोली दागने से पहले उन्हें दायीं ओर मुड़ना पड़ता है, जिससे उनके सभी अंगों में असहनीय पीड़ा होती है।  रीढ़ की हड्डी पर गंभीर चोट लगने के कारण उनका नर्वस सिस्टम भी शिथिल हुआ था।  पता ही नहीं चलता कि कब किस भाग में पीड़ा जाग्रत हो जाए।  

मेरे यह पूछने पर कि इन बाधाओं से कैसे जूझते हैं, मनीष ने हँसते हुए कहा, “प्राणायाम करता हूँ, ध्यान लगाता हूँ और कभी कभी अपनी नकारात्मक सोच से लड़ाई भी कर लेता हूँ।  एक बात जो शूटिंग के अभ्यास के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है वह है – एकाग्रता।  सूई में धागा डालने जैसी आँख की एकाग्रता। जितनी बार गोली चलानी है, उतनी बार उसी एकाग्रता की स्थिति में रहना पड़ता है। ”

“कुछ ऐसा भी होता है जब आपका ध्यान टूट जाता है?”  मैंने उत्सुकता वश पूछ लिया था। 

उन्होंने जो बताया वो शायद केवल क्षीण नर्वस सिस्टम के परिणाम से जूझने वाला व्यक्ति ही बता सकता है।  कहते हैं, “कोई पता नहीं चलता कब और कौन- सी अवस्था में उन्हें पीड़ा होने लगे।  तेज़ हवा देता पंखा, कड़ी धूप, ठंडा पानी, तेज़ रोशनी, कुछ भी कब मेरे सिस्टम पर वार कर दे इसका पहले से अनुमान नहीं रहता।  इस असहनीय पीड़ा से दो-दो हाथ करने के लिए मुझे हर तीन माह के बाद बम्बई के एक हॉस्पिटल में Pain Specialist के पास जाना पड़ता है। वहाँ मेरे पूरे शरीर को बड़ी- बड़ी सूइयों से बेधा जाता है।  इस प्रक्रिया से मुझे कुछ महीनों के लिए बाकी शारीरिक पीड़ा से मुक्ति मिलती है।  इस पीड़ा का यही एक मात्र इलाज है और इसे करवाते हुए मैं सोचता हूँ- Something is better than nothing.”  

कश्मीर के हर्दुफा के जंगलों में शत्रु पर विजय प्राप्त करने वाले इस वीर योद्धा को वर्ष 2013 में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी द्वारा ‘शौर्य चक्र’ से सम्मानित किया गया।  जब मनीष राष्ट्रपति भवन के अशोक सभागृह में अपनी व्हील चेयर पर बैठे हुए पदक ग्रहण करने के लिए आगे बढ़े, तो राष्ट्रपति ने स्वयं मंच से नीचे उतरकर उन्हें इस पदक से विभूषित किया। यह दृश्य उनके परिवार, स्पेशल फोर्सेस और सम्पूर्ण भारतवासियों के लिए बहुत गौरवपूर्ण का पल था।  

मनीष कहते हैं - शौर्य चक्र को ग्रहण करते हुए मुझे गर्व के साथ कृतज्ञता की उदात्त भावना ने घेर लिया था। यह शौर्य चक्र जैसे मुझे जीवन में कुछ विशेष करने के लिए चुनौती दे रहा था, प्रेरणा दे रहा था।  मैंने निर्णय ले लिया था कि मैं भारत के लिए ओलम्पिक्स में पदक अवश्य जीतूँगा। इसे चाहे आप मेरी चौथी ज़िद मान लेना। 

सीमाओं पर शत्रु से लड़ते हुए विजय प्राप्त करने वाले इस अद्भुत वीर योद्धा मेजर मनीष के लिए जीवन की दूसरी पारी में दौड़ने और विजयी होने के लिए पूरे भारत वासियों की अनंत शुभकामनाएँ। 

संस्मरणः स्मार्ट फ्लायर

 - निर्देश निधि

कुछ बातें कितनी भी पुरानी क्यों न पड़ जाएँ, उनकी यादें इंसान की अनुभूतियों में जीवंत और युवा बनी रहने में पूरी तरह सक्षम होती हैं। ऐसी बातें कहीं खोजी या तलाशी नहीं जा सकतीं। वे तो बस घट जाती हैं अचानक। कई बरस पूर्व की ऐसी ही एक घटना है मेरे दिल्ली प्रवास की। मेरा पुत्र वरुण उन दिनों आई आई टी की प्रवेश परीक्षा की तैयारी कर रहा था। हमारे अपने शहर में कोचिंग की सुविधा नहीं थी; इसलिए पारिवारिक सहमति बनी कि उसे राजधानी में रखा जाए, जहाँ कोचिंग सेंटर्स का जमावड़ा है, ताकि वह अपनी परीक्षा की तैयारी ठीक से कर सके और सफल हो सके। वह समय और था, जब इंटरमीडिएट पास करने के बाद किन्हीं प्रतियोगी परीक्षाओं के विषय में सोचा जाता था। अब तो इस गलाकाट प्रतियोगिता के युग में थमने – रुकने, किसी देरी या सुस्ताने के लिए कोई स्थान रहा ही नहीं। दसवीं कक्षा पास करते ही वरुण भी दूसरे बच्चों की तरह प्रतियोगिता की दौड़ में शामिल हो गया। हमारी इकलौती संतान होने की वजह से वह लाड़ला तो है ही, साथ ही बड़ा सीधा - सरल भी है। हालाँकि अब वह भी थोड़ा तो बदला ही है; परंतु उस समय तो वह बिलकुल ही भोला बच्चा सा ही था, जिसे दिल्ली जैसे महानगर में अकेला नहीं छोड़ा जा सकता था। उसके पिता के डॉक्टर, प्राइवेट प्रैक्टीशनर होने की वजह से वे तो जा ही नहीं सकते थे। अतः वरुण के साथ मेरा दिल्ली जाना तय हुआ। हम दोनों माँ - बेटा छोटी- सी गृहस्थी के साजो - समान से लैस होकर अपने विजय- रथ, मस्टर्ड कलर की कोरियन डैवू कंपनी की मैटिज़ कार पर सवार दिल्ली की ओर प्रस्थान कर गए। दक्षिण दिल्ली के मालवीय नगर के एफ ब्लॉक में हमने एक सरदार जी का फ्लैट किराए पर ले लिया। तीन कमरे और एक बालकनी वाला मकान हम दोनों माँ– बेटे के हिसाब से बहुत बड़ा भी था और थोड़ा महँगा भी। मकान मालिक सरदार जी उनके बच्चे और पत्नी सब बहुत भले लोग थे। सरदार जी ने हमें मकान काफी कम किराए पर दे दिया। मकान बिलकुल नया था, मकान मालिक की माली हालत कुछ ठीक नहीं लगती थी। मकान के बहुत सारे काम उन्होंने अधूरे ही छोड़ रखे थे। जैसे लकड़ी का काम या रसोईघर का काफी कुछ काम। इसी तरह छत में कुछ छेद बिना बिजली की फिटिंग के, यानी बल्ब या लैंप लगाए बिना ही छोड़ दिये गए थे। ऐसा ही एक छेद बाहर बालकनी में भी था। जिसमें बल्ब की जगह बिजली की टेप लगे तार बाहर निकले हुए थे।

दिन भर स्कूल और कोचिंग की पढ़ाई से थक- हारकर शाम को जब वरुण थोड़ा अवकाश लेता, तो हम दोनों माँ- बेटा उस बालकनी में शांति से बैठकर आते- जाते आधुनिक दिल्लीवासियों को निहारते। जिसमें शामिल होता कोई चुटिया वाला लड़का, कोई निक्कर वाली लड़की, अत्याधुनिक बुजुर्ग या कोई प्रेमी जोड़े वग़ैरह भी। अँधेरा होते– होते हमारा ध्यान बरबस ही उस बिना बल्ब वाले छेद पर चला जाता। लगता कि काश इस गोधूलि में हम यहाँ बल्ब जलाकर बैठ सकते; पर बल्ब न लगा होने के कारण हम यूँ ही अँधेरे में बैठे रहते। कई माह तक तो वह छेद खाली ही रहा यह तो सर्वविदित है कि राजधानी जैसी भीड़– भाड़ वाली जगह पर आवास की सुविधा कितनी दुर्लभ है, सो वह छेद भी अधिक दिनों तक खाली नहीं रह सका। साथ ही नहीं रह सकी बालकनी की शांति भी। एक चुस्त- फुर्तीली चिड़िया ने अपने चिड़े के साथ वहाँ अपना आवास बनाना तय किया। गृहस्थी का सामान जुटाया जाने लगा। नीड़ का निर्माण कार्य आरंभ किया गया। दोनों एक – एक तिनका अपनी चोंच में खोंसकर लाने लगे। तिनका – तिनका गृहस्थी जुड़ने लगी। पर यह क्या ? चिड़ा तिनके लाता, तो चिड़िया उसे एक तिनका भी घोंसले में ना रखने देती। चिड़े की चोंच से छीनकर स्वयं उसे बड़े करीने से नीड़ में खोंसती। जब देखो तब चिड़िया चिड़े से झगड़ती रहती, झगड़ती क्या उसे झिड़कती, डाँटती - फटकारती रहती। हमारी दृष्टि में बेचारा वह चिड़ा हमेशा चुपचाप रहता। कहीं जाना होता तो आगे वह खुद होती, चिड़ा निरीह पीछे उड़ता। खाना - पीना होता तो भी चिड़िया का अधिकार पहले और अधिक ही होता। मसलन चिड़े को स्वेच्छा से कुछ भी करने की स्वतन्त्रता नहीं थी। अब उन  नन्हे-नन्हे नए पड़ोसियों के प्यारे सान्निध्य के कारण हमें बालकनी में बल्ब की कमी खलनी बंद हो गई थी। अब दिल्ली के आधुनिक समाज के दर्शनों से भी अधिक दिलचस्पी हम अपने उन्हीं नए और नन्हें परवाज़ पड़ोसियों में लेने लगे थे। लगभग रोज़ ही चिड़िया की दबंगई देखकर हमारा कौतूहल कुछ अधिक ही बढ़ गया था। पुरुष प्रधान समाज में रहने वाले हम दोनों उस वाचाल चिड़िया के चिड़े के प्रति क्रूर व्यवहार की बड़ी निंदा करते और चिड़े को दया का पात्र मानते।

जुलाई का महीना था। उस साँझ, दिन भर बरसात के बाद आकाश खुल गया था,  छोटे – छोटे सफ़ेद रुई के फाहे से बादल कहीं -  कहीं अभी भी बिखरे पड़े थे। हमने बालकनी में खुलने वाला अपना दरवाजा खोल दिया, दरवाजा खुलते ही ठंडी – ठंडी हवा हमारे कमरे में आई और आए चिर्र- चिर्र करते हमारे परवाज़ पड़ोसी। उन दोनों का अंदर आना बड़ा सुखद लगा। उनकी आवभगत के नाम पर हम बस इतना ही कर पाए कि जस के तस बैठकर उन्हें निहारते रह गए। हमारे तीन कमरों वाले घर में चिड़िया की अगवानी में दोनों गृहस्थ एक के बाद एक कमरे में बार– बार आए और गए, दो- एक मिनटों तक दोनों ने पूरे घर का जायज़ा लिया। सारे घर में सैर– सपाटा करके जब दोनों सैलानी वापस लौटे, तो थोड़ा- सा कन्फ़्यूजन हो गया। दरवाज़ा खुला था और ठीक उसके साथ एक खिड़की बनी थी जो उस दरवाजे के बराबर की ही थी और वह पूरी खिड़की काँच से परमानेंटली बंद थी। खिड़की का काँच पूरी तरह साफ था उन दोनों सैलानियों को लगा कि दरवाजे की अपेक्षा वे उस खुली जगह से आसानी से निकल पाएँगे। निर्धारित रूप से अगवानी तो चिड़िया की ही होती; परंतु इस बार तो चतुर सुजान खुद ही धोखा  खा गई थी और धड़ से उस पारदर्शी काँच से जा टकराई; परंतु क्षण भर भी व्यर्थ गँवाए बगैर लौट गई और तेज़ी से उड़कर फुर्र से दरवाजे के रास्ते बाहर निकल गई। बाहर जाते ही अपने स्वभाव के अनुसार चिड़– चिड़ करना शुरू कर दिया। कुछ अपनी खिसियाहट भी उतार रही होगी, धोखा खा जाने से पनपी। चिड़ा बेचारा हमारे घर में ही फँसा रह गया। वो बार– बार आकर उसी काँच से टकराता रहा। एक तो वो बेचारा पहले ही बहुत घबराया हुआ था, ऊपर से चिड़िया की डाँट- फटकार की वजह से अपना होश खो बैठा। वह बाहर निकलने के कई असफल प्रयास कर चुका था। चिड़िया को लगा कि अब यह ग़ुस्से से नहीं समझेगा, इसे समझाना होगा।  चिड़िया उसे रास्ता दिखाने के लिए दरवाजे के रास्ते अंदर आने और बाहर जाने लगी। कई बार में जाकर चिड़े को चिड़िया का अनुकरण करने की बात समझ में आ पाई और किसी तरह वो बाहर निकला। उस शाम तो चिड़िया तब तक चिल्लाई जब तक थक नहीं गई। चिड़ा निरीह बना उस छत  के छेद वाले नीड़ में  चुपचाप सिकुड़ा हुआ एक कोने में बैठा रहा। उसके भयभीत कंठ से एक चिर्र भी तो ना निकल सकी।

मैं और वरुण यह पूरा दृश्य चुपचाप बैठकर देखते रहे। वो अपनी पढ़ाई और मैं अपनी रसोई छोड़कर। जिस चिड़िया के कसहले और निरंकुश व्यवहार की हम दोनों अक्सर निंदा करते थे, उसके प्रति आज हमारा दृष्टिकोण कुछ बदल गया था। ठीक वह हो गया था, जिसे अंग्रेज़ी में कहते हैं, पैराडिम शिफ्ट। अब हम उसे दृढ़ निश्चयी और अपने साथी के प्रति वफ़ादार के रूप में देखने लगे थे। अन्यथा उस मूर्ख चिड़े के साथ वो स्मार्ट फ्लायर कैसे रह सकती थी। वरुण ने फिर भी कहा कि वह उसे प्यार से भी तो सिखा सकती थी। पर कौन जाने गृहस्थी के शुरूआती दिनों में उसने कितने प्रयास किए होंगे प्यार से सिखाने के। उसे सिखाते – सिखाते ही तो कहीं वो अपना व्यवहार चिड़चिड़ा नहीं कर बैठी थी, और इतना भी कम था क्या कि वो उसके साथ रही।

उसी वर्ष वरुण का चयन आई आई टी में हो गया। अब तो वह अपनी कंपनी चला रहा है; पर जब भी कभी हम लॉन में बैठकर चिड़ियों का आवागमन देखते हैं, तो वो राजधानी वाली स्मार्ट फ्लायर स्वतः ही हमारे सामने आ खड़ी होती है। उसकी स्मार्टनेस की चर्चा के साथ ही हम ये कहना कभी नहीं भूलते कि चाहे वो इंसान हो, पशु-पक्षी हो या कोई अन्य, आदेश तो उसी का चलता है, जो दूसरे से बुद्धिमान होता है, कुशल होता है।

कविताः बुद्ध बन जाना तुम


 - सांत्वना श्रीकान्त 

कुछ अल्ड़ह- सा, ऊँघता

हिलोरे लेता हुआ

तुम्हारे ख्वाबों का उन्माद

बड़ा जिद्दी है।

बन जाना चाहता है

तुम्हारे रूह का लिबास।

कमरे में छोड़ी तुम्हारी

अशेष खामोशी

ढूँढ रही है कोना,

खुद को स्थापित करने का।

हाथ पकड़कर

मेरी चुप्पी का,

ले जाना चाहती है

कहीं दूर बहुत दूर.........

लाँघकर देहरी

उस मैदान तक।

तब-

गरम साँसों की छुअन,

होठों की चुभन

समाधि तक चलेगी साथ,

वहीं घटित होगा प्रेम।

उकेर देना चाहते हो न!

मेरे शरीर के

हर हिस्से पर अपना नाम,

वहाँ पर बीज बो दूँगी मैं,

जब आखिरी बार मिलोगे

तब वह बन चुका होगा

बोधिवृक्ष

और-

तुम उसकी छाँव में

बैठकर बुद्ध बन जाना।

email - drsantwanapaysi276@gmail.com

विज्ञानः बंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’

 भूत-प्रेत के किस्से कहानियाँ काफी प्रचलित हैं। यकीन करें या ना करें, लेकिन ऐसे किस्से-कहानियाँ इतने

रोमांचक होते हैं कि हर जगह इनको सुनने-सुनाने वाले लोग मिल ही जाते हैं।

किसी भी आहट, हरकत, या मंजर को भूत की करामात मान लेने का हुनर और विश्वास दुनिया के सभी हिस्सों में होता है और ऐसे किस्से हर जगह मिल जाएँगे। इसी का एक उदाहरण है दक्षिण कैरोलिना के समरविले के जंगल में एक बंद पड़ी रेल लाइन पर अचानक कौंधने वाली चमक। 

इस इलाके के कुछ बड़े-बुज़ुर्ग इस चमक से जुड़ी एक भूतिया कहानी सुनाते हैं: कई साल से एक महिला रात के वक्त हाथ में लालटेन लिये अपने पति का सिर इस रेल लाइन पर तलाशने निकलती है। उसका पति कभी किसी समय इस रेल लाइन पर ट्रेन से कट गया था और इस घटना में उसका सिर धड़ से अलग हो गया था।

इस कहानी पर गौर करें, तो मन में कुछ ज़ाहिर से सवाल उठ सकते हैं। जैसे महिला को यदि सिर की ही तलाश है, तो वह रात में तलाशने क्यों निकलती है, दिन में क्यों नहीं जाती? दिन में तलाशे, तो सिर मिलने की संभावना अधिक होगी। 

इसी कहानी का एक दूसरा रूप भी सुनने को मिलता है: 1880 के दशक में जब यह रेल लाइन चालू थी, तब एक महिला रोज़ रात को हाथ में लालटेन लिए अपने ट्रेन कंडक्टर पति से मिलने और उसे खाना देने इस रेल ट्रेक पर आती थी। एक रात को वह आई; लेकिन ट्रेन नहीं आई, बस खबर आई कि ट्रेन पटरी से उतर गई है और उसका पति उसमें मारा गया। लेकिन उसे यकीन नहीं हुआ और इस विश्वास में कि उसका पति लौटकर आएगा, वह रात को यहाँ लालटेन लेकर उसका इंतज़ार करती है। 

कहानी के ऐसे कुछ और भी संस्करण सुनने को मिलते हैं; लेकिन जितने भी संस्करण आप सुनेंगे, उनमें एक चीज़ कॉमन है: रेल ट्रेक के पास लालटेन की रोशनी, या यूँ कहें लालटेन की लौ के समान प्रकाश की वलयाकार चमक। दरअसल, इन सभी कहानियों में (एकमात्र) यही वास्तविक अवलोकन है और लोगों द्वारा इसके विविध अनुभवों ने भूतिया कहानियों को जन्म दिया है।

इन कहानियों ने जब स्थानीय किस्सागोई से आगे बढ़कर किताबों और अखबारों की सुर्खियों में जगह बनाई तो यू.एस. जियोलॉजिकल सर्वे की भूकंपविज्ञानी सुज़ैन हफ का ध्यान इनकी ओर गया। और बारीकी से जब उन्होंने इनके विवरणों को पढ़ा , तो पाया कि यह कोई भूत-प्रेत का मामला नहीं बल्कि एक भूकंपीय घटना का संकेत है। 

जैसे लोगों ने कहा था कि उन्होंने अपनी कारें बेतहाशा हिलते हुए महसूस कीं, या अचानक घर के दरवाज़े हिलते हुए देखे। स्पष्ट तौर पर ये भूकंप के नतीजे थे। अलबत्ता, कुछ विवरण ऐसे थे जो सीधे तौर पर भूकंपीय घटना से जुड़े नहीं लगे रहे थे। जैसे, लोगों को शोर और फुसफुसाहट सुनाई देना। लेकिन हवा में टंगी वलयाकार रोशनी तो भूकंपीय घटना का परिणाम लग रही थी। 

दरअसल इस इलाके में किए उनके पूर्वकार्य के अनुभव कह रहे थे कि यह रोशनी भूकंपीय घटना का परिणाम है। 2023 में, हफ और उनके साथियों ने इन्हीं पटरियों पर फील्डवर्क करते समय देखा था कि इन पटरियों में एक अजीब सा खम (घुमाव) है; बिछे ट्रेक पर पटरियाँ जहाँ-तहाँ थोड़ा मुड़ गई हैं और सीधी की बजाय लहरदार बिछी हैं। कभी सीधी रहीं इन पटरियों के लहरदार हो जाने का कारण उन्होंने 1886 में चार्ल्सटन में 7.3 तीव्रता का भूकंप पाया था।

फिर, कई अन्य जगहों पर भूकंपीय रोशनी अनुभव भी की गई हैं, जैसे विलमिंगटन और कैरोलिनास में भी इसी तरह की रोशनी दिखने की सूचना मिली है। और ये विलमिंगटन, कैरोलिनास या दक्षिणी कैरोलिना में ही नहीं, बल्कि कहीं भी दिख सकती हैं। लेकिन इनका अध्ययन करना मुश्किल है; क्योंकि ये कब-कहाँ दिखेंगी इसका कोई ठिकाना नहीं; इसलिए भूकंप की रोशनी को कैमरों वगैरह में कैद करना थोड़ा मुश्किल है। और फिर अब इतने सालों बाद समरविले और ऐसे अन्य स्थान इतने भी सुनसान और अंधकार में डूबे नहीं रहे हैं कि पल भर को कौंधती रोशनी अच्छे से दिख जाए। 

जापान के एक वैज्ञानिक, युजी एनोमोटो ने इन भूकंपीय रोशनियों के निकलने का कारण तो बताया है। जब भूकंप आता है, तो कभी-कभी इसके साथ रेडॉन या मीथेन जैसी गैस निकलती हैं, और जब ये गैस ऑक्सीजन के संपर्क में आती हैं , तो जलने लगती हैं। नतीजतन चमक पैदा होती है।

लेकिन समरविले के मामले में हफ का ख्याल है कि यहाँ भूकंप के साथ रोशनी पैदा करने में रेडॉन या मीथेन जैसी गैसें नहीं बल्कि रेल की पटरियाँ भूमिका निभाती हैं। दरअसल साउथ कैरोलिना में अपने फील्डवर्क के दौरान उन्होंने देखा था कि ट्रेक के आसपास पुरानी पड़ चुकी पटरियों का ढेर पड़ा हुआ है। होता यह है कि जब रेल कंपनियाँ पुरानी पटरियों को बदलती हैं , तो प्राय: पुरानी पटरियों को वहाँ से हटाती ही नहीं हैं। इसलिए, ट्रेक के आसपास ढेर सारी स्टील की पटरियाँ पड़ी होती हैं। और थोड़ी हलचल या भूकंप से जब ये पटरियाँ आपस में रगड़ खाती हैं , तो इनसे चिंगारी निकलती है, जो लोगों ने अनुभव की। और कहानी बन गईं।

अपने इस विचार को हफ ने सिस्मोलॉजिकल रिसर्च लैटर्स में प्रकाशित किया है, और वे इस पर खुद व अन्य लोगों द्वारा आगे काम करने और भूकंपीय रोशनी को तफसील से समझने की उम्मीद करती हैं।

बहरहाल, जैसा कि हमने शुरूआत में कहा, हमारे यहाँ भी ऐसी ढेरों कहानियाँ मशहूर हैं। भानगढ़ के मशहूर किले को ही ले लें; किले में रात के वक्त सुनाई देने वाली आवाज़ें उसे भूतिया करार देती हैं। हफ के द्वारा किया गया यह अध्ययन और उसका परिणाम क्या हमारे यहाँ के वैज्ञानिकों को यह समझने के लिए प्रेरित कर सकता है कि खाली पड़े खंडहर में रात को किसी (‘प्राणी’ या ‘शय’) की गूंज/पुकार सुनाई देती है या माजरा कुछ और ही है? (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाः बीमार

  - कमल चोपड़ा

साइकैट्रिस्ट के पास जाने के लिये उनकी पत्नी बड़ी मुश्किल से मानी थी। वह पूछती, ‘मुझे क्या हुआ है? मैं तो ठीक-ठाक हूँ। क्या मैं पागल हूँ। साइकैट्रिस्ट डॉ० मदान के कुछ भी पूछने बताने से पहले मेहता ने कहा, ‘‘डॉ० साहब ये मेरी वाइफ है। पिछले चार पाँच साल से मैं इन्हें महँगा से महँगा कोई गिफ्ट लाकर देता हूँ। तो इसका रिएक्शन बहुत ठंडा सा होता है? पिछले चार-पाँच वर्ष से इसने हमारी कोठी के आगे-पीछे छत पर हर जगह फल, फूलों, सब्जियों के पेड़-पौधे लगवा दिये हैं। कहीं गमले पड़े हैं तो कहीं पक्षियों के लिये दाना पानी के मिट्टी के कसोरे लटक रहे हैं। घर पर दुनिया भर के पक्षी आने लगे हैं। और तो और ये दिन में दो बार दूध ब्रेड लेकर गलियों में घूम रहे आवारा कुत्तों को खिलाने पहुँच जाती है। हमारी अलीशान कोठी को छोटा-मोटा जंगल जैसा बना दिया है। हमारा एक ही बेटा है और वह विदेश में पढ़ रहा है। सारा दिन पक्षियों की आवाजें आती रहती हैं। यों यह खासी पढ़ी-लिखी हैं पर……? सारा दिन घर पर रहकर पेड़-पौधे जानवरों की सेवा में लगी राहती है।’’

      डॉक्टर ने उन्हें चुप कराते हुए कहा, ‘‘ठीक है मैं इनसे कुछ प्रश्न पूछूंगा अब। बाद में मुझे आपकी भी काउंसलिंग करनी पड़ेगी तब तक आप प्लीज बाहर बैठिए। पत्नी से तरह-तरह के प्रश्न पूछने के बाद डॉक्टर ने मेहता को बुलाया और पूछा, ‘‘आप कुछ अपने बारे में बताइए?

      लगभग पच्चीस वर्ष पहले मैंने दो लाख रुपयों से काम शुरू किया था। अपनी काबिलियत और परिश्रम से मैंने अपनी कम्पनी को तीन सौ करोड़ तक पहुँचा दिया है। घर में नौकर-चाकर सभी सुविधाएँ मौजूद हैं। पर पत्नी ने घर में गंद मचा रखा है। कहीं तिनके और सूखे हुए पत्ते …….?

      मैं जबरदस्ती इन पेड़, पौधों को उखड़वाकर साफ करवा सकता हूँ। पर डरता हूँ कि कहीं ये पूरी पागल न हो जाए।

      डॉक्टर ने उन्हें टोकते हुए फिर पूछा, ‘‘अच्छा ये बताओ आपके अपनी पत्नी से रिलेशंस कैसे हैं? आप आखरी बार कब हँसे थे। आपको फूलों का खिलना, पौधों का धीरे-धीरे बड़ा होना, पेड़ों का झूमना और पक्षियों का चहचहाना क्या आपको यह सब अच्छा नहीं लगता। कुछ देर चुप रहने के बाद वे एकाएक बोले, ‘‘दिन भर मैं तो ऑफिस में काम करता हूँ। घर पर रहने का मेरे पास टाइम ही कहाँ है? मुझे बी.पी., शुगर है। पर दवाई गोली खाकर काम में लगा रहता हूं। ऑफिस में पूरा स्टाफ है, पर मुझे खुद सुबह से शाम तक कामों में जुटा रहना पड़ता है। लाखो की कमाई है। चिन्ता रहती है कि कहीं कम्पनी घाटे में न चली जाए।’’

      हँसते हुए डॉक्टर ने कहा, ‘‘लाखो की जो कमाई  आगे और होनी है। उसके नुकसान होने की आपको टेंशन है।

      मैंने आपकी वाइफ को चेक कर लिया है। मेण्टली सीइज क्वाइट फिट एंड नार्मल। उसे प्रकृति से प्रेम है। माफ करना आपकी पत्नी नहीं: बल्कि मानसिक रूप से बीमार तो आप हैं। शारीरिक और मानसिक रुप से स्वस्थ होना है< तो आपको प्रकृति की तरफ वापिस लौटना ही होगा……।’’

हाइबनः तुम बहुत याद आओगे

  - प्रियंका गुप्ता

उस रात जाने क्यों मन थोडा उदास- सा था...अजीब सी बेचैनी। बहुत सारी बातें थी मन में; पर समझ नहीं आ रहा था कि बेचैनी थी आखिर किस बात पर। अजीब- सा अहसास। बहुत हद तक कारण अगले दिन समझ आ गया,जब शैडो के जाने की ख़बर मिली।

शैडो, कहने को किसी को जो हिकारत से कहा जाता है, वह था। यानी कि गली का कुत्ता, स्ट्रीट डॉग था वह। मेरी गली का एक वफादार बाशिंदा। बहुत सारे इंसानों से ज्यादा भावनाएँ मैंने उसमें देखी थी। इंसानी हिसाब से देखा जाए, तो वो एक दीर्घायु जीकर गया। तेरह साल की उम्र, जब कुत्तों की अधिकतम आयु शायद चौदह साल ही होती है।

अंतिम के तीन दिन, जब उसने खाना-पीना छोड़ा, उसके पहले तक वो सचमुच शैडो बनकर मेरे साथ चला। नाम उसका वैसे मोती था; पर जब वह इस मोहल्ले में आया था, जाने कैसे चुनमुन ने उसे `शैडो' बुलाना शुरू कर दिया था। वह अपने दोनों नाम पहचानता था, बातें समझता था। रात को मेरे गेट का ताला बंद होने से पहले अगर किसी दिन वो कहीं लापता होता और रोटी न खा पाता, तो दूसरे दिन सुबह गेट खोलते ही एक ख़ास अंदाज़ में शिकायत होती मुझसे और मेरे इतना कहते ही-हाँ-हाँ, समझ गए, कल खाना नहीं मिला था न, अभी देते हैं। बिलकुल शांत हो जाता था।

लम्बाई-चौडाई यूँ थी कि अपनी जवानी के दिनों में कि मजाल है कोई अनजान मोटरसाइकिल वाला भन्नाटे से सही सलामत गली से गुज़र सके। इसलिए बच्चों का लाडला था शैडो; क्योंकि गली क्रिकेट में फील्डिंग के साथ-साथ वो इस तरह के घुसपैठियों से भी सबको बचाता था।

एक वफादार साथी की तरह न जाने कितनी दूर तक वो अक्सर मेरे साथ चला है, एक बच्चे की तरह न जाने कितनी बार दो पैरों पर खड़े होकर गले लगा है और जाने कितनी बार किसी अनजान को मेरे दरवाज़े पर ऐंवेही फटकने से भी रोका था।

लोगो को अपनी भयानक आवाज़ से कँपा देने वाला शैडो हमारे झूठमूठ धमकाने पर यूँ दुबक जाता था कि बरबस हँसी आ जाती थी। जिसने उसे कुछ सालों पहले तक देखा था, वो उसे ‘गली का कुत्ता’ कहने की बजाय ‘गली का शेर’ ही कहते थे।

वह किसी एक का नहीं था, फिर भी सबका था। मौत को अपना बना वो तो अपने कष्टों से मुक्ति पा गया; पर आज भी जब मेरी ही तरह उसे इस गली के कई लोग याद करते हैं, तो ऐसे में मुझे उन लोगों पर तरस आता है, जो अपने कर्मों के कारण ऐसी याद से भी वंचित हैं, उस प्यार से वंचित हैं, जो एक ‘गली का कुत्ता’ पा गया।

शैडो के जाने के बाद उसकी विदाई में बस एक ही बात दिल में गूँजी थी- तुम बहुत याद आओगे, हमेशा याद आते रहोगे, हर उस पल में जब कोई साया साथ चलेगा।

वफ़ा की सीख

बेजुबान दे जाते

नेह से भरे।

कविताः बोलने से सब होता है

 





- रमेश कुमार सोनी

बहुत बोलता है वह,

बोलते-बोलते उबल जाता है 

आग बबूला हो जाता है

उसे यह सब अच्छा लगता है 

क्योंकि उसके अनुसार तो 

यही उसका टोन है 

उसे नहीं मालूम कि 

कब,कहाँ उबलना है और क्यों

लोग उसे अब नजरंदाज करते हैं।


दूसरा बिलकुल ही नहीं बोलता

ख़ामोशी आदत हो चुकी है

बर्फ़ की मानिंद ठंडा

उकसाने पर भी चुप

कहता है जाने दे ना जी

उसे भी नहीं पता कि 

कब, कहाँ, कैसे और क्या बोलना है

लोग इसे भी नजरंदाज करते हैं।


एक वो हैं जिनके 

बोलने से फूल झरते हैं 

लोग उसके बोलने की प्रतीक्षा में हैं

वह अमूमन सिर्फ इशारों में 

जवाब देकर मुक्त हो जाती है

इसे भी बोलना नहीं आता कि 

कब, कहाँ, कैसे और क्या बोलना है

लोग इसे भी नज़रंदाज़ करते हैं।


बोलना चाहिए गूँगे को भी

अन्याय और शोषण के विरुद्ध 

चीखना चाहिए आसमान सिर उठाकर 

ज़िगर के साथ,नज़र मिलाकर

सीना ठोंककर बोलें

पीठ पीछे तो कोई भी बोलता है।


बोलना सिर्फ विरोध में क्यों?

कभी प्रशंसा के बोल भी बोलें

इन दिनों कोई भी, कुछ भी 

कहीं भी बोलकर चला जाता है और 

लोग हैं कि लकीरें पीट रहे हैं

बोलना यानी आंदोलन और 

चुप रहना यानी 

मौन जुलूस कतई नहीं है।

 

बोलने के लिए साहस चाहिए 

यह शक्ति हमें हमारी एकता देती है

कभी किसी से बोलकर तो देखिए

मेरे पिताजी कहते थे 

ज़बान पर शहद लगाकर बोलो 

कि पत्थर दिल भी मोम हो जाए

इन दिनों सही को सही और 

ग़लत को ग़लत बोलने वाला ढूँढ रहा हूँ मैं।

व्यंग्य कथाः आराम में भी राम...

  - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह 

प्रभु राम में अपनी पूरी आस्था है। लेकिन जब ऐसे लोगों को फलते-फूलते देखता हूँ जो हराम की खाते-पीते हैं, तो कदाचित् यह सोचने को मजबूर- सा हो जाता हूँ कि क्या ऐसे लोगों के सिर पर भी राम का वरदहस्त रहता है?

प्रोफेसर रामभरोसे जब मरेंगे, तो उनके चित्र पर माला चढ़ाई जाएगी, इस बात को याद करने के लिए कि ये एक मात्र ऐसे प्रोफेसर थे जिन्हें कुछ भी न करने के लिए तनख़्वाह मिलती थी। प्रोफेसर रामभरोसे का रिकॉर्ड है वे कभी क्लास में पढ़ाने को नहीं गए। साल में एक या दो बार ही क्लास में जाते हैं, बस छात्रों को अपनी जीवन-शैली के बारे में कुछ बातें बताने के लिए और कॉलेज- लाइफ सम्बन्धी हिदायतें देने के लिए।

कई बार तो कुछ छात्र एकत्र हो उनकी शिकायत लेकर प्राचार्य के पास पहुँचे। प्रोफेसर भी प्राचार्य के पास ही मौजूद थे, जैसा कि वे अक्सर किया करते थे। इस सम्बन्ध में वे कहा करते, "नियर टू चेयर, नियर टू गॉड" यानी जो कुर्सी के नजदीक, वह ईश्वर के नजदीक। छात्रों ने प्राचार्य को बताया कि बहुत दिन हुए उनकी इतिहास विषय की कोई क्लास नहीं लगी है। प्राचार्य ने पूछा कि कौन प्रोफेसर पढ़ाते हैं? वे बोले यह भी तो मालूम नहीं कि टीचर कौन हैं?  उनका नाम भी तो मालूम नहीं।

प्राचार्य ने प्रोफेसर रामभरोसे से पूछा कहीं यह क्लास उनकी तो नहीं? टाईमटेबल की जाँच के बाद मालूम हुआ, यह क्लास प्रोफेसर रामभरोसे की ही थी। बहुत क़रीबी होने की वजह से प्रोफेसर से प्राचार्य ने कुछ अधिक नहीं बस इतना ही आग्रह किया कि वे ज़रा छात्रों की जिज्ञासा को शान्त कर दें।

प्रोफेसर रामभरोसे को प्राचार्य की बात रखने के लिए उस दिन क्लास में जाना पड़ा। क्लास में जाते ही उनका प्रवचन शुरू हुआ - "देखो भाई लोगों, स्कूल की पढ़ाई और कॉलेज की पढ़ाई में बहुत फ़र्क़ होता है। कॉलेज होता है एक्सपोजर लेने के लिए। बंद कमरे की पढ़ाई से एक्सपोजर नहीं मिल सकता। किताबी कीड़े बने रहोगे, तो आज के समाज की, देश की वास्तविकताओं से रूबरू कैसे हो पाओगे? अब बड़े हो गए हो, समाज की हक़ीक़तों को समझो, प्रेक्टिकल बनो, और देश की समस्याओं को सुलझाने में अपना योगदान दो। इसलिए घूमो, फिरो और बाहर की दुनिया की भी सुध लो। एक्सपोजर मिलेगा, तो तुम्हारा व्यक्तित्व और निखरेगा; जीवन के संघर्ष को जानोगे, तो कभी हालात से हारोगे नहीं . . . और जहाँ तक इतिहास विषय का प्रश्न है, तो भला यह भी कोई पढ़ने-पढ़ाने का विषय है? बस पढ़ जाओ इतिहास की किताब को कहानी की तरह और जिन्हें ज़्यादा विस्तार और गहराई में विषय की जानकारी चाहिए वे छात्र मैडम संतोष की क्लास में जा सकते हैं। और बाकी छात्र वार्षिक परीक्षा के दस दिन पूर्व आकर मुझसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न नोट कर लेना. . .।" चूँकि प्रश्न-पत्र बनाने वालों की सूची में भी प्रोफेसर रामभरोसे शामिल रहते, प्रश्न-पत्र में उनके बताए दस में से पाँच प्रश्न तो आ ही जाते हैं। आश्चर्य की बात नहीं, कैम्पस में छात्र उनके पैर छूते हुए नज़र आते हैं। और इस तरह प्रोफेसर ने छात्रों की जिज्ञासा शान्त कर दी।

दरअसल प्रोफेसर रामभरोसे का शौक़ है ठेकेदारी व ज़मीन-जायदाद आदि में दलाली का। और अपने इस शौक़ के लिए वे हमेशा दत्तचित्त रहे हैं। यहाँ ज़मीन बेची, वहाँ ख़रीदी; यहाँ कोई मकान बनवाया, वहाँ कोई मकान ख़रीदा, फिर बेचा . . . इसी तरह के काम हैं जिनमें उनकी रुचि भी है । ऐसे ही चौदह-पन्द्रह बरस निकल गए। कहीं ज़्यादा शिकायत हुई, तो बात हँसी-ठिठोली में टाल दी; और यदि फिर भी बात नहीं बनी, तो राजनीतिक सम्पर्क का फ़ायदा उठाकर अपना स्थानान्तरण करा लिया। राजनीतिक पार्टियों में भी उनकी सत्तासीन व विरोधी दोनों दलों में बराबर पैठ है।

हाल ही में एक चमत्कार हुआ। यह चमत्कार ही था, जब समाचार पत्रों में छपा कि कुछ प्राध्यापक पदोन्नत हो गए और बहुत-से प्राध्यापकों को पीछे कर प्राचार्य बन गए हैं - जिनमें प्रोफेसर रामभरोसे का नाम प्रथम स्थान पर था। और उन्हीं के जैसे कुछ अन्य भी उस सूची में शामिल थे। उनकी बेफिक्री व आरामपरस्त  जीवन-शैली को देखते हुए जब कभी कोई प्रोफेसर साहब से कहता कि ज़्यादा आराम भी अच्छा नहीं होता, तो वे तपाक् से कहते - अरे भई, आराम में भी राम हैं. . ." यह सच है कि प्रोफेसर रामभरोसे ने हमेशा आराम की खाई। लेकिन जिसे वे आराम कहते, वह असल में हराम है।