वर्ष-12, अंक-9९
खुद के लिये जीने वाले
की ओर कोई ध्यान नहीं देता पर जब आप दूसरों के लिये जीना सीख लेते हैं तो वे आपके
लिये जीते हैं।
- परमहंस योगानंद
कोरोना
विशेष
दूसरी तरफ हम सब
देख ही रहे हैं कि विश्व के सबसे विकसित देशों में कोरोना से लगातार बढ़ते मौत के
आँकड़ें इस बात की ओर इशारा करते हैं कि आर्थिक प्रगति के मायने सुरक्षित जीवन
नहीं होता। एक दूसरे से होड़ लगाते हुए आगे बढ़ते जाना, उन्नति का प्रतीक नहीं है। ऐसी उन्नति, ऐसी प्रगति किस काम की, जिससे जीवन ही खतरे में पड़ जाए। लोग बस धन
कमाने में लगे रहते हैं बगैर यह सोचे समझे कि इस धन को जोड़ते
हुए, वे कौन-सा बहुमूल्य धन खो रहे हैं!
कोरोनाः हार की शुरुआत
शक्ति कोई भी हो दिशाहीन हो जाए तो विनाशकारी ही होती है लेकिन यदि उसे सही दिशा दी जाए तो सृजनकारी सिद्ध होती है। शायद इसीलिए प्रधानमंत्री ने 5
अप्रैल को सभी देशवासियों से एकसाथ दीपक जलाने का आह्वन
किया जिसे पूरे देशवासियों का भरपूर समर्थन भी मिला।। जो लोग कोरोना से भारत की
लड़ाई में प्रधानमंत्री के इस कदम का वैज्ञानिक उत्तर खोजने में लगे हैं वे निराश
हो सकते हैं क्योंकि विज्ञान के पास आज भी अनेक प्रश्नों के उत्तर नहीं हैं। हाँ लेकिन संभव है कि दीपक की लौ से निकलने वाली ऊर्जा देश के 130 करोड़ लोगों की ऊर्जा को एक सकारात्मक शक्ति का वो आध्यात्मिक बल
प्रदान करे जो इस वैश्विक आपदा से निकलने में भारत को संबल दे। क्योंकि संकट के इस समय भारत जैसे अपार जनसंख्या लेकिन सीमित संसाधनों वाले
देश की अगर कोई
सबसे बड़ी शक्ति, सबसे
बड़ा हथियार है जो कोरोना जैसी महामारी से लड़ सकता है तो वो है हमारी "एकता"। और इसी एकता के दम पर हम जीत भी रहे थे। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के विशेष दूत डॉ डेविड नाबरो ने भी अपने ताज़ा बयान में कहा कि
भारत में लॉक डाउन को जल्दी लागू करना एक दूरदर्शी सोच थी, साथ ही यह सरकार का एक साहसिक फैसला था। इस फैसले से भारत
को कोरोना वायरस के खिलाफ मजबूती से लड़ाई लड़ने का मौका मिला।
आम जनता को कोरोना
की भयावहता का अनुमान शुरू में नहीं हुआ था। मार्च 22 को जब एक दिन का जनता कर्फ्यू
लगा और ताली, थाली, घंटी आदि
बजाने का आह्वाहन प्रधानमंत्री जी ने किया, तब इसका भय
लोगों में बढ़ा। फिर भी काफी सारे लोगों के लिए
ताली-थाली-घंटी बजाना मनोरंजन का अवसर रहा और वे अपने-अपने घरों से निकलकर मानो
उत्सव मनाने लगे। यूँ जैसे ताले-थाली-घंटी पीटने से
कोरोना की हत्या की जा रही हो, या यह कोई जादू टोना हो
जिससे कि कोरोना समाप्त हो जाएगा। अप्रैल 5 को जब
प्रधानमन्त्री जी ने रात के 9 बजे घर की बत्ती
बुझाकर दीया जलाने को कहा, तो लोगों ने इसे दीपोत्सव
बना दिया। दीये भी जलाए गए, आतिशबाजी
भी खूब हुई, मोदी जी के लिए खूब नारे लगे। यूँ लग रहा
था मानो यह कोई त्योहार हो। अगर प्रधानमन्त्री जी एक दीया जलाकर, जो लोग इस महामारी में मारे गए हैं, उनके लिए 2 मिनट का मौन रखने को कहते तो शायद लोग इसे गंभीरता से लेते और भीड़ इकट्ठी
कर न पटाखे फोड़ते न दिवाली मनाते। हम भारतीय इतने असंवेदनशील कैसे होते जा रहे हैं? कोरोना कोई एक राक्षस नहीं है जिसे भीड़ इकट्ठी कर अग्नि से डरा कर ललकारा
जाए और वो मनुष्यों की एकजुटता और उद्घोष से डर कर भाग जाए।
प्रधानमन्त्री जी
द्वारा लॉकडाउन की घोषणा किए जाने के बाद जिस तरह अफवाहों का बाज़ार गर्म हुआ उससे कोरोना का संक्रमण और
भी फ़ैल गया।अधिकतर लोग बाज़ार से महीनों का सामान घर में
भरने लगे। जिससे बाज़ार में ज़रूरी सामानों की किल्लत हो
गई और दुकानों में भीड़ इकट्ठी होने लगी। चारो तरफ
अफरातफरी का माहौल हो गया। क्वारंटाइन, आइसोलेशन, सोशल डिस्टेनसिंग, घर से बाहर न निकलना आदि को
लेकर ढ़ेरों भ्रांतियाँ फैलने लगी. लोग भय और आशंका से पलायन करने लगे; जिससे ट्रेन, बस इत्यादि में संक्रमण और फैलने
लगा।
लॉकडाउन होने के
बाद भी दिल्ली से पलायन करने के लिए हज़ारों की संख्या में लोग एकत्र हो
गए। इनमें दूसरे राज्यों से आए दिहाड़ी मज़दूरों की
संख्या ज्यादा थी। निःसंदेह अफ़वाहों और सरकार के प्रति
अविश्वसनीयता के कारण वे सभी ऐसा करने के लिए विवश हुए होंगे। न काम है, न अनाज है, न पैसा है, न घर है; ऐसे में कोई क्या करे? सरकार खाना देगी यह
गारंटी कौन किसे दे? गरीबों की सुविधा का ध्यान कभी
किसी सरकार ने रखा ही कब? हालाँकि पहली बार यह हुआ है
कि दिल्ली में सरकारी स्कूलों और अस्पतालों की स्थिति आश्चर्यजनक रूप से बहुत
अच्छी हुई है। रैनबसेरा, सस्ता खाना आदि का प्रबंध
उत्तम हुआ है। फिर भी राजनीति, नेता और सरकार पर विश्वास शीघ्र नहीं होता है। ऐसे
में उन्हें यही विकल्प सूझा होगा कि किसी तरह अपने-अपने घर चले जाएँ ताकि कम से कम
ज़िंदा तो रह सकें। इनमें सभी जाति, धर्म और तबके के लोग
शामिल थे। लॉकडाउन की घोषणा होने के बाद सुरक्षित तरीके से सरकार अपने खर्च पर सभी
को अपने-अपने गाँव या शहर पहुँचा देती तो समस्याएँ इतनी विकराल रूप नहीं लेती। शेल्टर में रहकर कोई कितने दिन समय काट सकता है?
राजनीति और सियासत
का खेल हर हाल में जारी रहता है, भले ही देश में आपात्काकाल की स्थिति हो। एक
दिन अख़बार में फोटो के साथ ख़बर छपी कि दिल्ली सरकार एक लड्डू, ज़रा-सा अचार के साथ सूखी पूड़ी बाँट रही है। अब
देश में महा समारोह तो नहीं चल रहा कि पकवान बना-बनाकर सरकार परोसेगी। यहाँ अभी किसी तरह ज़िंदा और सुरक्षित रहने का प्रश्न है। ऐसे हालात में दो वक़्त दो सूखी रोटी और नमक या खिचड़ी मिल जाए, तो भी काम चलाया जा सकता है। अगर अच्छा भोजन उपलब्ध हो जाए तो इससे बढ़कर
ख़ुशी की बात क्या होगी. अफवाह यह भी फैला कि खाना मिल
ही नहीं रहा है, भूख से लोग मर रहे हैं। जबकि दिल्ली
सरकार, केंद्र सरकार, ढ़ेरों
संस्थाएँ, सामाजिक कार्यकर्ता आदि इस काम में पूरी
तन्मयता से लगे हुए हैं।
कोरोना के कहर से
बचाव के लिए हम सभी को स्वयं खुद का और सरकार का सहयोग देना होगा। सिर्फ सरकार पर
दोषारोपण कहीं से जायज नहीं है। हम देशवासियों को भी अपना कर्त्तव्य समझना चाहिए। जिन्हें संक्रमण की थोड़ी भी आशंका हो, उन्हें
स्वयं ही ख़ुद को आइसोलेट कर लेना चाहिए या क्वारंटाइन के लिए चला जाना चाहिए। इस राष्ट्रीय और वैश्विक आपदा की घड़ी में अपने-अपने घरों में रहकर हम आवश्यक
और मनवांछित कार्य कर सकते हैं। मनोरंजन के ढ़ेरों साधन
घर पर उपलब्ध है, ऐसे में बोरियत का सवाल ही नहीं है। एकांतवास से अच्छा और कोई अवकाश नहीं होता जब हम चिन्तन मनन कर सकते हैं
और कार्य योजना बना सकते हैं। आत्मवलोकन, आत्मविश्लेषण और कुछ नया सीखने का भी यह बहुत अच्छा मौका है। यूँ तो कोरोना के कारण मन अशांत है और खौफ़ में हैं परन्तु इससे कोरोना का
ख़तरा बढ़ेगा ही कम नहीं होगा। बेहतर है कि हम इस समय का
सदुपयोग करें स्वयं, परिवार, समाज, देश और विश्व के उत्थान के लिए।