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Aug 1, 2025

कहानीःसौगात

  - सुमन कुमावत

राखी के त्योहार के दिन की धुंधली-सी सुबह । अंजना को विस्मय हो रहा था कि तीनों भाइयों में से किसी का भी फोन नहीं आया, पहले तो राखी आने के दो दिन पहले से ही, भाई और भाभियाँ फोन कर जल्दी आने का आग्रह किया करती थी और बच्चों को साथ लेकर आने का भी कहती रहती थीं। लेकिन वह बच्चों को उनके दादा- दादी की देखभाल के लिए घर पर ही छोड़ कर आती थी।

पूरे साल में आखिर एक ही तो दिन होता है जब बहन भाइयों के लिए कुछ करती है, बाकी साल भर तो भाई–भाभी लोग ही अपनी बहनों के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते हैं ।

लेकिन अंजना के साथ इसका उल्टा है, वह तो साल भर भाइयों की मदद किसी ना किसी बहाने से करती रहती थी।

माँ कहती है- "अंजना जैसी बहन होना मुश्किल है !"

अंजना दो दिन पहले से ही भाइयों को राखी बांधने की तैयारी बड़े ही प्रेम व उत्साह से कर रही थी। उसने रंग- बिरंगी, चमकीली, मोतियों वाली राखियाँ भाइयों के लिए, चूड़े की राखियाँ भाभियों के लिए, गुड्डे–गुड़ियों व कार्टून वाली राखियाँ बच्चों के लिए ली थीं । भाइयों की पसन्द की मिठाइयों में फीरणी, घेवर, जलेबी के छोटे–छोटे डिब्बे रख लिए थे। इसके अलावा भाइयों के लिए नारियल, बच्चों के लिए सूखा नारियल यानी खोपरा ,और भी बहुत चीजें इकट्ठा करने की अपनी हैसियत से ज्यादा कोशिश कर रही थी।

लेकिन एकदम से उसका मन बुझने लगता है, उसे याद आने लगता है कि पहले  हर साल वह सबके लिए चाँदी की राखियाँ और बच्चों के लिए ढ़ेर सारे खिलौने, कपड़े, घेवर-फीरणी, मिठाइयाँ, मेवे लेकर जाती थी।

पिछले साल बड़ी भाभी बोली थीं "हर साल चाँदी की राखी मत लाया करो अंजना बाई–सा, तुम्हारी पुरानी राखियों से ही डिब्बा भर चांदी इकट्ठी हो गयी हम सबके यहाँ।"

लेकिन इस बार हालात अलग हो गये है, इतना सब कुछ करना अब उसके वश में नहीं हैं।

चाय पीते- पीते उसने सोचा, मेरे भाई बहुत अच्छे हैं, वो मुझसे बहुत स्नेह रखते हैं, अतः वो मेरी मजबूरी अवश्य समझेंगे! उन्हें भी तो पता है, कि भाइयों के प्रेम में डूबे मेरे पति नौकरी छोड़ घाटे में जाते हार्डवेयर के व्यापार को बिना बँटवारा किए ही ऐसा संभाला कि उसे करोड़ों की सरकारी सप्लाई तक पहुँचा दिया था। लेकिन दो साल बाद ही मेरे जेठ व देवर ने सब शर्म-लिहाज छोड़ कर धोखे से जमीन– जायदाद, खेती- बाड़ी यहाँ तक कि जमी-जमाई दुकान सहित सब कुछ अपने नाम करके खड़े- खड़े हम सभी को घर से निकालकर दर- दर की ठोकरें खाने को मजबूर कर दिया।

अंजना ने एक लम्बी ठंडी साँस ली... ईश्वर का शुक्र था कि मेरे पास कुछ गहने थे, जिससे सिर छिपाने जितनी दो कमरों की छत कर ली और एक छोटी-सी दुकान डाल ली थी, नहीं तो इन तीनों छोटे-छोटे मासूम बच्चों और बूढ़े सास– ससुर को लिए हम कहाँ मारे– मारे फिरते? खैर, जो हुआ उसे बदला नहीं जा सकता! 

अचानक सबसे छोटी छह वर्षीय बेटी रीना, अंजना की गोदी में आकर धप् से बैठ गई, और पूछने लगी- "मम्मा, आज रक्षा- बंधन है?"

"हाँ बेटा।"

"आप हमेशा की जैसे मामा के यहाँ जाओगे ना..?"

"हाँ..हाँ बिटियाँ रानी जाएँगे न! बस अभी थोड़ी देर से, तुम दोनों बहनें पहले भैया के राखी बाँध दो, फिर जाती हूँ, जाओ.. जाओ.. जल्दी से तैयार हो जाओ.."

"लेकिन मम्मा, मुझे भी आपके साथ मामा के यहाँ चलना हैं।"

"नहीं मेरी बच्ची, तुम वहाँ जाकर क्या करोगी..?  मैं शाम तक वापस आ जाऊँगी.. तुम यहाँ दीदी, भैया के साथ खेलना, मैं तुम्हें फिर कभी ले चलूँगी।"

 “नहीं.. नहीं.. मम्मा मुझे तो आज ही चलना है।" इतना कह रीना मचलकर रोने लगी।

माँ से उसका रोना देखा न गया।

"अच्छा चल चुप हो जा, चलना मेरे साथ, मैं तुझे तैयार कर देती हूँ। भैया, के राखी भी तो बाँधना है।"

“हाँ, हाँ” वह खिलखिला कर हँस पड़ी, अंजना ने भी मुस्कुराकर उसे बाँहों में भर लिया और लाड़ से बोली "मेरी गुड़ियाँ रानी!"

रीना, टीना ने अपने भाई रवि को राखी बाँधी, उसके बाद अंजना ने सब बच्चों को खाना परोसा।

टीना बोली,"मम्मा, आप खाना क्यों नहीं खा रहे हो!"

“मैं तो मामा को राखी बाँधने के बाद खाऊँगी, वहाँ मामा भी भूखे होंगे न! वो मेरा इंतजार कर रहे होंगे...!"

चलो, अब मैं तैयार हो जाती हूँ, ऐसा कहकर वह उठी और अलमारी खोलकर सभी साड़ियों को उलट- पलटकर देखने लगी और सोचने लगी इसबार रक्षाबंधन पर वह नई साड़ी नहीं खरीद पाई। खैर जो भी है उसने उन्हीं में से एक सुंदर-सी साड़ी निकाली और झटपट तैयार होकर, रीना के साथ बस स्टॉप की ओर चल पड़ी। हालाँकि, उसका मायका ज्यादा दूर नहीं था, लगभग दस किलोमीटर ही होगा, लेकिन फिर भी वह कहाँ बार-बार मिलने जा पाती थी? हर गृहणी की तरह  उसके घर में भी हजारों काम थे, कभी कोई विशेष काम या किसी कार्यक्रम पर ही आना-जाना हो पाता था। बस में बैठते ही वह अपने मायके की यादों में खोती-सी चली गई!

अंजना के पिता सरकारी ठेकेदार थे, वे दस साल पहले एक एक्सीडेंट में अचानक खत्म हो गए तो घर बरबाद हो गया था, तीनों भाई बेरोजगार थे और फिजूल खर्च भी! छोटी-मोटी प्राइवेट नौकरी पकड़ के उनका गुजारा शुरू हुआ था। अपना फर्ज समझकर और भाइयों के प्रति अत्यधिक स्नेह रखने के कारण अंजना अपने भाइयों की हमेशा मदद करती रहती थी, उसने ही अपने बड़े भाई की एक वेल्डिंग की दुकान, मंझले की भी कपड़ों की और छोटे की किराने की दुकान खुलवाने में मदद की थी।

तीन भाइयों में दो भाई माँ के साथ एक ही मकान में रहते थे, जबकि तीसरा छोटा भाई पास ही दूसरे मकान में रहता था। आपसी विवाद के कारण दोनों बड़े भाई, छोटे भाई से बातचीत नहीं करते थे।

अंजना इन्ही ख्यालों में खोई हुई थी, तभी रीना ने अंजना का हाथ झिंझोड़ते हुए कहा- "मम्मा, मामा का घर आने वाला है, ऊपर से अपना सामान उतार लो!"

"हूँ..."एक संक्षिप्त-सा उत्तर अंजना ने सरका दिया और बाहर की ओर झाँका, वह बुदबुदाई-  "अरे.. सचमुच हम तो पहुँचने वाले हैं।"

खड़ी होकर सीट के ऊपर की ब्रेकेट से वह अपना सामान उतारने लगी।

बस से उतरकर उसने आस-पास नजरें घुमाई, उसे बस स्टॉप पर कोई नहीं दिखा, कभी उसे किसी कारणवश बस से आना पड़ता तो बड़े भैया हमेशा आते थे, चाहे उन्हें कितना ही जरूरी कार्य हो, उसे याद नहीं शायद ही कभी वो अकेली घर गयी हो। जरूर कोई बहुत जरूरी कार्य होगा, तभी तो कोई भी... उसने मन ही मन सोचा। हमेशा वह कार से आती थी तो घर के पास की गली में ही सब इंतजार करते हुए मिल जाते थे।

वैसे तो बस स्टॉप से उसका मायका ज्यादा दूर नहीं था, सो बस से उतरकर, सामान उठाकर वो घर की तरफ पैदल ही चल पड़ी।

बैठक के खुले द्वार से उसने प्रवेश किया तो बड़े भाई ने उसे देखते ही कहा, "आ गई अंजना?"

"हाँ.. भैया" उसने मुस्काते हुए कहा।

"चल यहीं बैठ, मैं सबको बुलाता हूँ।"

फिर भीतर आँगन की ओर मुँह करके वो बोले- "सब लोग नीचे आ जाओ, अंजना आ गई है!"

वह भाई का चेहरा देखती ही रह गई। थोड़ी देर में सब लोग अंजना के आसपास आ गए।

"आ गए दीदी", दोनों भाभियाँ बुझे से स्वर में एक साथ बोली।

"हाँ, भाभी!"

बैठो, चाय पिओगी ना? मैं चाय बना कर लाती हूँ।" बड़ी भाभी ने औपचारिकता वश पूछा,

"भाभी, पहले मैं सबको राखी बाँध देती हूँ, फिर आराम से बैठ कर साथ चाय पिएँगे।"

भाभी कुछ ना बोली। अंजना ने बारी-बारी से सबको राखी बाँध दी।

भाइयों ने कहा "अंजना, तुम अब खाना खा लो।"

"अभी नहीं भैया, पहले छोटे को भी राखी बाँधकर आ जाऊँ, फिर हम सब साथ बैठकर खाना खाएँगे।"

"लेकिन अंजना, हम सभी ने तो खाना खा लिया!"

अंजना ने चौंककर भाई की तरफ देखा, उसने मन ही मन सोचा कि इससे पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था।

भाई ने बोलना जारी रखा- "वो क्या हैं न, तुम्हारा कोई भरोसा नहीं था, कि तुम कब तक आओगी। पहले तो फ़ोन पर बात हो जाती थी, लेकिन अब तुम्हारे घर में फ़ोन तो है नहीं, हम भी कैसे पता करते कि तुम कब तक आ रही हो?" अंजना भाई की बातें चुपचाप सुनती रही।

उसे सबका व्यवहार भी बदला-बदला-सा लग रहा था, छोटी भाभी ने भी ज्यादा बात नहीं की!

अरे...मैं, भी कैसी बुद्धू हूँ, क्या-क्या सोचने लग गई! सही भी तो हैं सब लोग कब तक मेरा इंतजार करते। मन ही मन उसने सोचा।

अंजना ने कहा- "कोई बात नहीं भैया, मैं भी खाना खा कर ही आई थी, अच्छा हुआ, आपने भी खाना खा लिया, वैसे भी, इस बार मुझे देर हो ही गई।"

और उसने धीरे से साड़ी के पल्लू से अपनी पलकें सुखाई।

"अच्छा भैया, मैं छोटे के यहाँ जाकर आती हूँ।"

वह छोटे भाई के यहाँ जाने लगी, तभी दौड़ते हुए रीना आई, और बोली.. "मम्मा, छोटे मामा के यहाँ मुझे भी चलना हैं।"

"मैं तो अभी थोड़ी देर में आ जाऊँगी, सब बच्चे यहीं खेल रहे हैं ना, तुम भी उनके साथ खेलों।"

"नहीं नहीं, मुझे तो आपके साथ ही चलना हैं।"

"रीना, अच्छे बच्चे ऐसे जिद नही करते।"

इतने में ही बड़े भैया, झुंझलाकर बोले - "हाँ, इसे भी ले जा अपने संग, छोटे के यहाँ से भी इसको कुछ ढंग के कपड़े, मिठाई, खिलौने और थोड़े बहुत पैसे मिल जाएँगे, जो तेरे घर खर्च चलाने में काम आएँगे।"

भैया की ये बात सुनकर वह अंदर तक हिल गई, उसकी नम हो गई और दिल एक अजीब-सी भावना से भर गया। उसे अपने आप पर यकीन ही नहीं हुआ कि ये मेरा ही भाई है, जब मेरे पास सब कुछ था, तब मेरी एक आवाज़ से दौड़ा चला आता था और जब आज मेरी ऐसी स्थिति है, तो मेरे अपने भाई, मेरी सहायता करने के बजाय मुझे दुत्कार रहे हैं! क्या खून के रिश्तों से बढ़कर इन लोगों के लिए मेरा पैसा और रुतबा था! "उफ़्फ़... कितनी मूर्ख बनी रही मैं इतने सालों तक। मेरे लिए रक्षाबंधन कभी कोई रस्म नहीं था, न ही सिर्फ़ एक धागा। वह तो एक विश्वास था - उस राखी की परंपरा में छिपा प्यार, अपनापन और सुरक्षा का वादा। एक बहन का विश्वास कि उसका भाई हर मुश्किल में उसके साथ खड़ा रहेगा...।"

लेकिन आज वही त्योहार - भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक - एक नए रूप में उसके सामने आया था। अंजना की आँखों में दर्द की स्याही उतर आई। एक भाई की मूक ममता और एक बहन की निस्वार्थ भावना का भ्रमरूपी पर्दा अब हट चुका था।

क्या आज उसे वास्तव में राखी के त्योहार की असली सौगात मिली थी? वह इसी द्वंद्व में उलझती जा रही थी। अपने भीतर उठते भावनाओं के तूफान को रोकने की कोशिश कर रही थी। उसके चेहरे पर गहरे दुःख की छाया थी, और आँखें भीगने लगी थीं। उसने अपनी साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछनी चाहीं ही थीं कि अचानक कोमल हथेलियाँ उसके हाथ से छू गई और एक मीठी आवाज उसके कानों में गूँजी।

उसकी चार वर्षीय भतीजी स्वीटी उसका हाथ पकड़कर तोतली आवाज में बोल रही थी.. “बुआ, बुआ, जल्दी घल चलो, पापा, आपका इन्तजाल कल लहे हैं, हमने अभी तक खाना भी नहीं थाया। पापा बोल रहे थे बुआ आ जाएगी तब सब साथ में ही थाएँगे, चलो जल्दी, मुझे भी राखी बँधवाना है।”

अंजना ने अपनी नज़रें कृतज्ञता के भाव से ऊपर उठाई और बोली- “हे ईश्वर तूने भाई-बहन के रिश्तों की लाज रख ली। आज मुझे असली सौगात मिल गई।

उसने अपने कदम छोटे भाई के घर की ओर बढ़ा दिए। अब उसके मन में कोई द्वन्द्व नहीं था।

सम्पर्कः 10 MIG मुखर्जी नगर, बीमा रोड, समर्पण डेंटल क्लिनिक, देवास (म. प्र.) 455001, मो. - 9694533666

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