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Aug 1, 2025

आलेखःदेश विभाजन की त्रासदी

  - प्रमोद भार्गव

स्वतंत्रता संघर्ष के बीच महात्मा गांधी ने बड़े आत्मविश्वास से कहा था कि अगर कांग्रेस बंटवारे को स्वीकार करना चाहती है तो उसे मेरी लाश के ऊपर से गुजरना होगा। जब तक मैं जीता हूँ, मैं कभी भी हिन्दुस्तान का बँटवारा स्वीकार नहीं करूँगा और जहाँ तक मेरा वश चलेगा, कांग्रेस को भी स्वीकार नहीं करने दूँगा। अलबत्ता ऐसा एकाएक क्या हुआ कि जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल को बँटवारे के समर्थन में खड़े होना पड़ गया। लार्ड माउंटबेटन से पहली मुलाकात में ही गांधी उनके वाग्जाल की गिरफ्त में ऐसे आए कि उनकी ‘प्राण जाए, पर वचन न जाए' की वचनबद्धता भंग हो गई। कांग्रेस मुस्लिम अलगाववाद के आगे घुटने टेकती चली गई। नतीजतन 'भारत और पाकिस्तान स्वतंत्रता अधिनियम' पर ब्रिटिश संसद में मोहर लगा दी गई। ब्रितानी हुकूमत में औपनिवेशिक दासता झेल रहे अखंड भारत को विभाजित कर दो स्वतंत्र देश बनाकर पृथक्-पृथक् सत्ता का हस्तांतरण करने का निर्णय ले लिया। संपूर्ण सत्ता सौंपने का दिन 14 अगस्त 1947 निश्चित किया। यह दिन भी एक तरह से दोनों देशों के स्वतंत्रता सेनानियों को चिढ़ाने की दृष्टि से मुकर्रर किया गया; क्योंकि इसी दिनांक को जापान मित्र देशों के समक्ष आत्मसमर्पण करने को मजबूर हुआ था। 

बंगाल का विभाजन

अंग्रेजों द्वारा अपनी सत्ता कायम रखने की दृष्टि से बंगाल-विभाजन एक ऐसा षड्यंत्रकारी घटनाक्रम रहा, जो भारत विभाजन की नींव डाल गया। इस बँटवारे के फलस्वरूप अंग्रेजों के विरुद्ध ऐसी उग्र जन-भावना फूटी की बंग-भंग विरोध में एक बड़ा आंदोलन खड़ा हो गया। दरअसल जब गोरी पलटन ने समूचे भारत को अपनी अधीनता में ले लिया, तब क्रांतिकारी संगठनों और विद्रोहियों के साथ कठोरता बरतने के लिए 30 सितंबर 1898 को भारत की धरती पर वाइसराय लार्ड कर्जन के पैर पड़े। कर्जन को 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से प्रेरणा ले रहे क्रांतिकारियों के दमन के लिए भेजा गया था। इस संग्राम पर नियंत्रण के बाद फिरंगी इस बात को लेकर चिंतित व सतर्क थे कि कहीं इसकी राख में दबी चिंगारी फिर न सुलग पड़े। क्योंकि अंग्रेज भली भाँति जान गए थे कि 1857 का सिलसिला टूटा नहीं है। अंग्रेजों को यह भी शंका थी कि कांग्रेस इस असंतोष को पनपने के लिए खाद-पानी देने का काम कर रही है। कर्जन ने अंग्रेजी सत्ता के संरक्षक बने मुखबिरों से ज्ञात कर लिया कि इस असंतोष को सुलगाए रखने का काम बंगाल से हो रहा है। वाकई स्वतंत्रता की यह चेतना बंगाल के जनमानस में एक बेचैनी बनकर तैर रही थी। यह बेचैनी 1857 के संग्राम जैसे रूप में फूटे, इससे पहले कर्जन ने कुटिल क्रूरता के साथ 1905 में बंगाल के दो टुकड़े कर दिए। जबकि इस बंग-भंग का विरोध हिंदू और मुसलमानों ने अपनी जान की बाजी लगाकर किया था। इस बँटवारे का मुस्लिम बहुल क्षेत्र को पूर्वी बंगाल और हिंदू बहुल इलाके को बंगाल कहा गया। अर्थात जिस भूखंड पर हिंदू-मुस्लिम संयुक्त भारतीय नागरिक के रूप में रहते चले आ रहे थे, उनका मानसिक रूप से सांप्रदायिक विभाजन कर दिया। इस विभाजन से सांप्रदायिक भावना की एक तरह से बुनियाद डाल दी गई, वहीं दूसरा इसका सकारात्मक परिणाम यह निकला कि पूरे भारत में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष तेज हो गया। यानी फिरंगी-सत्ता के विरुद्ध एक जुटता ने देशव्यापी उग्र भावना का संचार अनजाने में कर दिया। लेकिन कर्जन ने इसे कुटिल चतुराई से मुस्लिम लीग की स्थापना में बदल दिया।

मुस्लिम लीग की स्थापना

कर्जन की दुर्भावना की चालाकी व रहस्य तत्काल तो बंग-भंग के रूप में ही नजर आई, लेकिन वास्तव में पूर्वी बंगाल की लकीर खींच देने का अर्थ मुसलमानों में ऐसी भावना जगाना भी था, जो उन्हें हिंदुओं के विरुद्ध एकजुट करने का काम करें। इस कुटिल दृष्टि के चलते कर्जन ने मुसलमानों में मुगल बादशाहों, जमींदारों और जागीरदारों के जमाने को बहाल करने का लालच दिया। यही नहीं कर्जन ने अपने वाक्चातुर्य से ढाका के नवाब सलीमुल्ला को बंगाल विभाजन का समर्थन और अचानक उदय हुए स्वदेशी आंदोलन का बहिष्कार करने के लिए राजी कर लिया। सलीमुल्ला कर्जन से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने सक्रिय होकर कुछ नवाबों को बरगलाकर दिसबंर 1906 में ‘मुस्लिम लीग’ संगठन खड़ा कर दिया। स्वदेशी आंदोलन को विफल करने के लिए अंग्रेज अधिकारियों ने सलीमुल्ला के साथ मिलकर हिंदू-मुस्लिमों के बीच संप्रदाय के आधर पर दंगे भड़काने का काम भी शुरू कर दिया। यहीं से हिंदुओं की हत्या करने और उनकी संपत्ति लूटने व हड़पने का सिलसिला शुरू हो गया।

इस दुर्विनार स्थिति के निर्माण होने पर ब्रिटिश पत्रकार एच डब्ल्यू नेविंसन ने ‘गार्जियन’ अखबार में लिखा भी’, ‘ब्रिटिश न्यायिक अधिकारी जानबूझकर हिंदुओं पर अत्याचार के साक्ष्यों को नजरअंदाज करते हैं और मुस्लिमों के कथन पर एक तरफा यकीन करते हैं।’ इस खबर पर लंदन में ब्रिटिश संसद के सदस्य सीजी ओ डेनल ने गंभीरता से लेते हुए हाउस ऑफ कामंस में कहा, ’क्या मैं जान सकता हूं कि अपनी संपत्तियों को उनके धर्म के आधार पर बाँटने की नीति का हिस्सा बन गई है ?’ तब तक भारत में कर्जन की जगह लेने के लिए लार्ड मिंटो को भारत भेज दिया गया। मिंटो ने आने के साथ ही ‘फूट डालों और राज करो’ की अनीति को पुख्ता कर दिया।

मुस्लिमों के लिए पृथक मतदाता सूची

गवर्नर जनरल और वायसराय मिंटो ने मुस्लिम पृथक्तावादियों के साथ मिलकर एक नई चाल चली। इसके तहत बंग-भंग विरोध आंदोलन को देश के एक मात्र ‘मुस्लिम-प्रांत’ की खिलाफत के आंदोलन के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। नतीजतन मुस्लिम नेता पूरी ताकत से बँटवारे के समर्थन में आ खड़े हुए। इसी समय आगा खान के नेतृत्व में एक प्रतिनिधि मंडल मिंटो से शिमला में मिला और मुस्लिमों के लिए पृथक् ‘मतदाता सूची’ बनाए जाने की माँग उठा दी। मिंटो इस मंशा पूर्ति के लिए ही भारत भेजे गए थे कि मुस्लिमों को हिंदुओं के विरुद्ध एक समुदाय के रूप में खड़ा किया जाए। अतएव मिंटो ने नगरपालिकाओं, जिला मंडलों और विधान परिषदों में मुस्लिमों की संख्या आबादी के अनुपात में बढ़ाने की पहल कर दी। यही नहीं मुस्लिमों को महत्त्व ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति वफादारी के आधार पर भी रेखांकित की गई। मिंटो ने आगा खान को इन बिंदुओं को सुझाया कि इस समय बृहद् बंगाल से काटकर बनाए गए असम सहित पूर्वी बंगाल के 1 लाख 6 हजार 540 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में मुस्लिमों की आबादी 1 करोड़ 80 लाख थी। जबकि हिन्दू मात्र 1 करोड़ 20 लाख थे। इसी कालखंड में हिंदुओं के खिलाफ मुल्लाओं ने घृणित प्रचार की कमान अपने हाथ में ले ली। एक लाल पुस्तिका छापी गई। जिसमें कहा गया – ‘हिंदुओं ने इस्लाम के गौरव को लूटा है। उन्होंने हमारा धन और सम्मान लूटा है। स्वदेशी का जाल बिछाकर हमारी जान लेना चाहते हैं; इसलिए मुसलमानों, हिंदुओं के पास अपना धन मत जाने दो। हिंदुओं की दुकानों का बहिष्कार करो। वह सबसे नीच होगा, जो उनके साथ ‘वंदे मातरम्’ कहे।'

जिन्ना और हिंदू- मुस्लिमों के

 बीच पैदा हुई दरार

इस सब के बावजूद कांग्रेस को उच्च शिक्षित और वकील मोहम्मद अ
ली जिन्ना से समन्यवादी सहयोग की उम्मीद थी। जिन्ना के नेतृत्व में शिक्षित व युवा मुस्लिम सहयोगी बने भी रहे। लेकिन बरतानी हुकूमत के पास हिंदू-मुस्लिम एकता और सद्भावना नष्ट-भ्रष्ट करने की औजार थी। अतएव 1909 में मार्ले-मिंटो सुधारों के अंतर्गत मुस्लिमों के लिए अलग मतदाता सूची की माँग मंजूर कर ली गई। इस पहल ने हिंदु-मुस्लिम एकता की राह में स्थायी दरार उत्पन्न कर दी: क्योंकि विधान परिषद में चुने का यह एक अधिकार था, जिससे पल्ला झाड़ लेना मुस्लिम नेताओं के लिए आसान नहीं रहा। बावजूद जिन्ना, मौलाना अबुल कलाम आजाद और मोहम्मद अली कांग्रेस के साथ रहे। यहाँ तक की गांधी के खिलाफत आंदोलन और असहयोग आंदोलन में दोनों समुदाय कंधा मिलाकर साथ रहे। इस आंदोलन के देशव्यापी प्रभाव से अंग्रेजों को नाको चने चबाने पड़े थे। किंतु चौरा-चौरी में हुई हिंसा के कारण गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। 4 फरवरी 1922 को घटी इस घटना की पृष्ठभूमि में गोरखपुर के चौरा-चौरी के थानेदार ने कुछ कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की पिटाई कर दी थी। नतीजतन गुस्साई भीड़ के थाने में आग लगा दी, जिससे 23 पुलिसकर्मियों की मृत्यु हो गई थी। हालाँकि तीन आम नागरिक भी मारे गए थे। गांधी जी द्वारा आंदोलन वापस पर मोतीलाल नेहरू, सुभाष चंद्र बोस, जिन्ना और चितरंजन दास ने नाराजगी जताई।

कैबिनेट मिशन

6 दिसंबर 1946 ब्रिटेन के प्रधानमंत्री एटली ने भारत में एक तीन सदस्यीय शिष्टमंडल भेजा। ये लार्ड लारेंस, स्टेफर्ड क्रिप्स और एवी अलेक्जेंडर थे। इन्हें शांतिपूर्ण सत्ता हस्तांतरण के लिए भेजा गया था। इस मिशन ने कांग्रेस और लीग के प्रतिनिधियों से बातचीत की और सांप्रदायिक दंगों को रोकने के लिए हिंदू-मुस्लिमों के बीच साझा सत्ता की योजना को मूर्त रूप देना चाहा। इस संवाद में अनेक विरोधाभासी पहलू सामने आए। जिन्ना भारत के साथ रहना तो चाहते थे: लेकिन संविधान में मुसलमानों को विशेष राजनीतिक संरक्षण गारंटी चाहते थे। जिसमें हिंदुओं के साथ बराबरी की माँग प्रमुख थी। यही वह दौर था, जिसमें ठीक दीपावली पर्व के बीच नोआखली में भयंकर सांप्रदायिक दंगे भड़के। मुस्लिम बहुल इलाके में हिंदू नरसंहार, मंदिरों का विध्वंस और आगजनी की दर्जनों घटनाएँ घटी। हिंदू महिलाओं का अपहरण, दुष्कर्म और धर्मांतरण कराकर जबरन विवाह भी रचाए गए। इन घटनाओं से गांधी को जबरदस्त सदमा पहुँचा और शांति के लिए नोआखली पहुँच गए। बहरहाल, कैबिनेट मिशन की शिमला बैठक में कोई कारगर परिणाम नहीं निकला।

भारत विभाजन की अंत:कथा

लार्ड माउंटबेटन इतना चतुर निकला कि उसने विभाजन के लिए जिन्ना, नेहरू, पटेल और यहाँ तक की गांधी को भी मना लिया। भारत को दो स्वतंत्र राष्ट्रों में भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया गया। यही नहीं पंजाब और बंगाल को भी कपड़े की तरह दो टुकड़ों में चीर दिया गया, जिससे भारत हमेशा गृह- कलह की आँच से सुलगता रहे। यह पाकिस्तान के अस्तित्व से भी ज्यादा खतरनाक था। ब्रिटिश अधिकारियों ने जानबूझ कर 652 भारतीय रियासतों की प्रभुसत्ता उन्हें वापस सौंप दी। उन्हें भारत या पाकिस्तान मिल जाने की छूट तो थी ही, स्वतंत्र राष्ट्र बने रहने की छूट भी दे दी गई थी। अर्थात् भारत और पाकिस्तान के बीच हुआ विभाजन तो आधा सच है, पूरा सच तो देश के 652 टुकड़े कर देने का है। यह क्षेत्रीयता से कहीं ज्यादा सांप्रदायिक बँटवारा था। यह अलग बात है कि सरदार पटेल की दृढ़ता से इन रियसतों का विलय भारतीय गणतंत्र में हो गया। अतएव 14 एवं 15 अगस्त की मध्यरात्रि को भारत तब स्वतंत्र हुआ, जब दुनिया सो रही थी और सांप्रदायिक दंगों की आग में झुलसा  भारत जन्म लेकर आँख खोल रहा था।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी म.प्र., मो. 09425488224, 09981961100

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