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Aug 1, 2025

व्यंग्यःश्रद्धांजलि की बढ़ती सभाएँ

  - अख़्तर अली 

यह बहुत चिंता की बात है कि इन दिनों छुट्टी, जन्मदिन और शादी के इतने कार्यक्रम नहीं हो रहे हैं जितनी श्रद्धांजलि सभाएँ आयोजित हो रही हैं । शोक संदेशों की सुनामी आई हुई है । एक दिन में एक आदमी जितनी श्रद्धांजलि सभा में जा रहा है, उससे दुगनी सभाओं में नहीं जा पा रहा है; क्योंकि एक व्यक्ति एक ही समय में तीन चार स्थानों पर तो नहीं पहुँच सकता ।

श्रद्धांजलि सभा की लगातार बढ़ती संख्या को देखते हुए परिवार के एक सदस्य को इसी काम के लिए नियुक्त कर दिया गया है । वह व्यक्ति दुकान, गोदाम, वसूली, टेंडर, ख़रीदी जैसे किसी काम में नहीं जाता । वह सिर्फ और सिर्फ श्रद्धांजलि सभा में शामिल होकर वहाँ अपने परिवार का नेतृत्व करता है । यही उसकी ड्यूटी है । परिवार में यही वह व्यक्ति है, जो सबसे पहले काम पर निकलता है और सबसे अंत में घर लौटता है । सब से अधिक वर्क लोड इसी पर है । परिवार में सब से अधिक यही व्यक्ति खटता और थकता है ।

पहले लोग थियेटर, होटल, गार्डन, मॉल जाते थे, अब जिसे देखो वह श्रद्धांजलि सभा में जा रहा है । लोगों का रेला का रेला एक ही दिशा की ओर बढ़ रहा है । अब तो कोई किसी से पूछता भी नहीं कि कहाँ जा रहे हो ? लोगों को जाता देख समझ जाते हैं- हम सब की मंज़िल एक है ।

एक श्रद्धांजलि सभा के बाद उसी स्थान पर एक समान्य सभा रखी गई, जिसका एजेंडा था- शोक सभाओं से बिगड़ते बजट पर कैसे नियंत्रण करे ? सामान्य सभा में इस बात पर चर्चा हुई कि अब तो यह रोज़ का काम हो गया है । हम अपनी - अपनी गाड़ी में एक ही स्थान से चलकर एक ही स्थान पर आते हैं और यहाँ से एक ही स्थान पर जाते हैं । जरा सोचिए, हम पेट्रोल पर कितना अनावश्यक पैसा खर्च कर रहे हैं । क्यों न हम सब मिलकर दिन भर की गाड़ी बुक करा ले । दोपहर और रात का खाना किसी ढाबे में खाकर देर रात तक घर पहुँचेंगे । सबने प्रस्ताव का समर्थन किया और श्रद्धांजलि को इंजाय किया जाने लगा । जब लोग रात को घर पहुँचते, तो उन्हें अगले दिन की सूची थमा दी जाती।

इन लोगों ने अपना व्हाट्सएप ग्रुप भी बना लिया है । श्रद्धांजलि संबंधित सभी सूचनाएँ इसी ग्रुप में डाली जाती हैं । जिस दिन श्रद्धांजलि की कोई सभा नहीं होगी, उस दिन भी हम एकत्रित होंगे और मस्ती करेंगे, ऐसा तय किया था; लेकिन ऐसा कोई दिन इन्हें नसीब नहीं हुआ । समूह में एक ऐसा भी प्रस्ताव आया था कि अलग - अलग श्रद्धांजलि देने के बजाय क्यों न संयुक्त रूप से सामूहिक श्रद्धांजलि दे दी जाए । इसका सभी ने एक स्वर में यह कहते हुए विरोध किया कि इससे तो मज़ा किरकिरा हो जाएगा । अतः यह प्रस्ताव ध्वस्त हो गया ।

श्रद्धांजलि के बढ़ते अवसर को भाँपते हुए अब लोग कपड़े भी इसी के अनुसार सिलवाने लगे हैं। इन्होंने श्रद्धांजलि को इतना आत्मसात् कर लिया है कि पत्नी से प्रेम की बाते भी दुःख भरे स्वर में करने लगे हैं । सब्जी मार्केट में सब्जी का भाव इस तरह पूछते हैं, मानो शोक प्रगट कर रहे हैं । शादी में जाते हैं, तो दूल्हे से कहते हैं - होनी को कौन टाल सकता है, जो होना था वह हो गया, सब ऊपर वाले की इच्छा अनुसार होता है, हिम्मत से काम लेना ।

अब वो इस काम के कुशल कारीगर माने जाते हैं, जो अक्सर युवाओं को समझाते हैं कि यह एक सरल क्रिया है, इसे जटिल मत बनाओ श्रद्धांजलि की बढ़ती हुई संख्या के चलते अब यह धीरे धीरे महज औपचारिकता का रूप लेती जा रही है, इसमें से वेदना और संवेदना के भाव लुप्त होते जा रहे है । मृत्यु की संख्या इतनी अधिक होती जा रही है कि जीवन सहम गया है । फिर भी कोई प्रश्न नही कर रहा है, सवाल खड़ा नहीं कर रहा है कि मृत्यु पर रोकथाम क्यों नहीं हो रही है ? कभी कोई मृत्यु मुखर हो जाती है, तब वह जीवित लोगों की ज़ुबान से बात करती है । जागरूक लोगों के ज़हन में लाशों ने ट्रैफ़िक जाम कर दिया, तो बात उठी ।

जो कभी नहीं होता, वह भी एक दिन होता है। तो एक दिन श्रद्धांजलि सभा से लौटते हुए समूह में यह बात उठाई गई कि मृत्यु की इस बढ़ती संख्या पर कोई चिंता ही नहीं कर रहा है । स्वाभाविक मौत तो स्वीकार है; लेकिन दुर्घटना में लोग लगातार मर रहे है, हत्या आम बात हो गई है। इन मौतों को तो रोका जा सकता है । चिंतन - मनन के बाद यह बात सामने आई कि चालाक राजनीतिज्ञ और होशियार अफ़सरों के साथ अब हमें एक सद्गुरु की सख्त ज़रूरत है, जो शासन, प्रशासन और आम जन को सही मार्ग दिखायेगा ।

सम्पर्कः निकट मेडी हेल्थ हाँस्पिटल, आमानाका, रायपुर (छत्तीसगढ़) 492010, मो. 9826126781

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