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Nov 2, 2025

कविताः झील के ऊपर अगहन माह के मेघ

  - गिरेन्द्रसिंह भदौरिया ‘प्राण’

नील गगन में रुई सरीखे फाहों के अम्बार लगे।

हे अगहन में दिखे मेघ! तुम हिम से लच्छेदार लगे।

निर्मल धवल कीर्ति के बेटे नभ के नव सरदार लगे।

पूरा जल कर चुके दान तुम सचमुच पानीदार लगे।


नीचे झील, झील का पानी दर्पण का आकार लगे।

इस दर्पण में सुगढ़ दूधिया जल घन एकाकार लगे।

निराकार से अजल सजल तुम प्रकट रूप साकार लगे।

सच पूछो तो श्वेत पटों से सजे हुए दरबार लगे।


बीच बसी थी बस्ती; लेकिन अब सूना संसार लगे।

कर्ज चुकाने की चाहत में सभी झील के पार लगे।

तुम्हें बसाना चाह रहे सब ताकि तनिक आभार लगे।

इसीलिए सारे रहवासी छोड़ चुके घर बार लगे।

2 comments:

  1. Anonymous19 November

    प्राकृतिक छटा बिखेरती मन भावन कविता। बधाई । सुदर्शन रत्नाकर

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  2. प्रगति गुप्ता12 December

    कुछ परंपराएं आत्मिकता महसूस करवाती है। अच्छा लेख है।

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