...धरा
ने ओढ़ ली सफेद चादर
- रश्मि शर्मा
कल निकल
गई थी शहर से दूर.....अचानक नजर पड़ गई कास के सफेद फूलों पर। झट से याद आ गई
स्कूल पाठ्यक्रम में पढ़ी तुलसीदास रचित
शरदलालित्य का वर्णन.....
‘वर्षा विगत शरदरितु आई, देखहूं लक्ष्मण परम सुहाई,
फूले कास सकल मही छाई, जनु बरसा कृत प्रकट
बुढा़ई’
पुराने को तज के नए की ओर देखने का वक्त है शरद—ऋतु.....जब
बारिश समाप्ति की ओर होती है तो हमें सबसे
पहले मैदानी इलाकों में कास के सफेद फूल लहलहाते दिखाई पड़ते हैं। लगता है धरा ने
सफेद चादर ओढ़ ली है। बहुत ही मनोरम होता है
यह दृश्य....कास के फूल जब तेज हवाओं से झूमते हैं तो मन आनंदित हो जाता है,
जैसा कि कल मेरा हो गया था। उस पर से लगातार बारिश....सफेद आसमान
में आच्छादित बादल, मन
को धवल मुग्धता से बाँध रहे थे। जैसे पूरी धरा स्नान कर तरोताज़ा हो गई हो। सब कुछ
नया, सुंदर मनमोहक.....
तो
सामने खड़ी थी शरद ऋतु.....शरद ऋतु यानी त्योहारों का मौसम...फूलों का मौसम...सबसे
खूबसूरत होता है नाजुक हरसिंगार का खिलना और धरती पर बिछ जाना.... मैं ढूँढती हूँ
रातों में खिले हरसिंगार ...उसके नारंगी डंठल को देख हर्षित होती हूँ...और एकदम
सुबह समेट लाती हूं हथेलियों में। मन में
उपजे नाज़ुक अहसास के साथ शहर के कुछ किलोमीटर दूर निकल जाइए तो तालाब - पोखरों में
लाल-सफेद कमल और कुमदिनी लदे दिखते हैं, यहाँ तक कि गड्ढों में भी
कुमुदिनी सुशोभित होती है। जी ललक उठता है
कि उतर जाएँ पोखरों में और तोड़ लाए कुछ कमल।
यह मौसम
होता है साफ नीला आसमान और ठंड के आगमन से पहले खूबसूरत मौसम का सन्धि काल। न गरमी न ठंड....मन खिला-खिला सा लगता
है...खिले फूल ...खुले आसमान की तरह। मधुमालती की लताएँ भरने लगती हैं इसी वक्त।
शाम को मालती के फूलों की हल्की-हल्की मादक खुशबू मन मोहती है और चाँद अपने पूरे
सौंदर्य के साथ होता है। शरद पूर्णिमा का चाँद, सोलह कलाओं से परिपूर्ण। शरद
में ही कृष्ण ने गोपियों संग रासलीला रचाई थी.....
शायद
इसलिए हमारे कविगण इस ऋतु के प्रशंसक हैं। निराला लिखते हैं...‘झरते हैं चुंबन गगन के’ तो उधर वैदिक वांग्मय सौ शरद की
बात करता है- ‘जीवेम्शरद- शतम्’ अर्थात
कर्म करते हुए सौ शरद जीवित रहें।
यह ऐसा
मौसम है जब न हमें ताप का अहसास होता है न ही ठंड का। फसलें भी लहलहाती हैं इसलिए
सबके मन में खुशी होती है। उपर से सबसे ज्यादा त्योहार शरद ऋतु में ही मनाया जाता
है। पितृपक्ष के पंद्रह दिनों के बाद
दशहरा। दशहरा में चार दिनों तक इतनी गहमागहमी होती है, लोग पूजोत्सव में
इस कदर रमे होते हैं कि लगता नहीं पूरे झारखंड में कोई समस्या या गरीबी है।
वैसे भी
झारखंड का राजनीतिक मौसम जैसा भी रहे, यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य
इतना अभिभूत करने वाला है कि बाहर के राज्यों से आए लोगों की बातें छोड़
दीजिए...... हमें खुद अहसास होता है कि हम एक ऐसी जगह निवास करते हैं जहाँ पर
प्रकृति ने कूट- कूट कर सौंदर्य भरा है और यह
नैसर्गिक है। अब तक सरकारी उपेक्षा
का शिकार है....शायद इसलिए अछूता सौंदर्य आंखों में भर आता है।
तुलसीदास
लिखते हैं- शरद के सुहावने मौसम में राजा, तपस्वी, व्यापारी,
भिखारी सब हर्षित होकर नगर में विचरते हैं और हम जैसे कुछ प्रकृति
प्रेमी शरद ऋतु का वर्ष भर इंतजार करते हैं और शहर के कोलाहल से दूर गाँवों की ओर
जा निकलते हैं।
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