अस्तित्व को तलाशती
- शैफाली गुप्ता
कपड़ों की तह में
फुल्कों की नरमाई में
ढूंढ़ती खुद को वो।
कभी कपड़ों की धुलाई में,
कभी सब्जी के नमक में,
कभी खीर की मिठास में,
कभी रायते की मिर्च में
जीवन अपना 'सजाती’ वो।
कभी घर को निखारने में,
कभी घरवालों को संवारने में,
कभी किताबों को जमाने में,
कभी लिहाफ को चढ़ाने में
नियम अपना 'पाती’ वो।
कभी शब्दों के जाल में,
कभी पन्नों के थाल में,
कभी कलम की स्याही में,
कभी रचना के भेदों में
अस्तित्व अपना 'तलाशती’ वो।

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