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Sep 27, 2012

प्रेरक

निर्णय

एक व्यक्ति किन्हीं महात्मा के पास गया और उनसे पूछा, क्या मनुष्य स्वतन्त्र है? यदि वह स्वतन्त्र है तो कितना स्वतन्त्र है? क्या उसकी स्वतंत्रता की कोई परिधि है? भाग्य, किस्मत, नियति, दैव आदि क्या है? क्या ईश्वर ने हमें किसी सीमा तक बंधन में रखा है?
लोगों के प्रश्नों के उत्तर देने की महात्मा की अपनी शैली थी। उन्होंने उस व्यक्ति से कहा, खड़े हो जाओ।
यह सुनकर उस व्यक्ति को बहुत अजीब लगा। उसने सोचा, मैंने एक छोटी सी बात पूछी है, और ये मुझे खड़ा होने के लिए कह रहे हैं। अब देखें क्या होता है। वह खड़ा हो गया।
महात्मा ने उससे कहा, अब अपना एक पैर ऊपर उठा लो।
यह सुनकर उस व्यक्ति को लगा कि वह किसी अहमक के पास चला आया है। मुक्ति और स्वतंत्रता से इसका क्या संबंध है? लेकिन अब वह फंस तो गया ही था। वह उस जगह अकेला तो था नहीं। आसपास और लोग भी थे। महात्मा का बड़ा यश था। उनकी बात न मानना उनका अनादर होता। और फिर उसमें कोई बुरी बात भी न थी। इसलिए उसने अपना एक पैर ऊपर उठा लिया। अब वह सिर्फ एक पैर के बल खड़ा था।
फिर महात्मा ने कहा, बहुत बढिय़ा। अब एक छोटा सा काम और करो। अपना दूसरा पैर भी ऊपर उठा लो।
यह तो असंभव है, व्यक्ति बोला, ऐसा हो ही नहीं सकता। मैंने अपना दायाँ पैर ऊपर उठाया था। अब मैं अपना बायाँ पैर नहीं उठा सकता।
महात्मा ने कहा, लेकिन तुम पूर्णत: स्वतन्त्र हो। तुम पहली बार अपना बायाँ पैर उठा सकते थे। ऐसा कोई बंधन नहीं था कि तुम्हें दायाँ पैर ही उठाना था। तुम यह तय कर सकते थे कि तुम्हें कौन सा पैर ऊपर उठाना है। मैंने तुम्हें ऐसा कोई निर्देश नहीं दिया। तुमने ही निर्णय लिया और अपना दायाँ पैर उठाया।
अपने इस निर्णय में ही तुमने अपने बाएं पैर को उठाना असंभव बना दिया। यह तो बहुत छोटा सा ही निर्णय था। अब तुम स्वतंत्रता, भाग्य और ईश्वर की चिंता करना छोड़ो और मामूली चीजों पर अपना ध्यान लगाओ। 
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