-रश्मि
विभा त्रिपाठी
मैं मुस्कराना चाहती
हूँ
धरती के उस पाँचवें छोर
पर
जहाँ मेरे बिखरे स्मित
की
चमक
चहक कर चाँद चुने
रात अथवा दिन
कोई धारणा बनाए बिन
मेरा मन्तव्य
गौर से सूरज सुने
मेरी हँसी का दूसरा अर्थ
निकाले न व्यर्थ
स्त्री का मधु हास
जग में अनर्थ
इस ग्रह पर
एक अजीब पूर्वाग्रह है
अकारण स्त्री का हँसना
है वर्जित
होगी परिवर्धित
कहलाएगी बुरी
स्त्री की धुरी
शब्दहीन
वरन
बनेगी स्थिति दीन
होगी हँसी की पात्र
स्त्री करे मात्र
मान्यताओं की
अनुपालना
रहे मौन
कब कहाँ कौन
इस पर न दे ध्यान
बन जाए गान्धारी
पलकों पर बाँधे पट्टी
बंद कर ले कान
तभी मिलता सम्मान
दुनिया के अजायबघर में
दिमाग की दीवार पे टँगा
देखती आ रही हूँ
मैं सदियों से
एक ओछा
मनोवृत्ति चित्र
मुस्कराती हुई स्त्री
का
मनोयोग से लोग माप रहे
हैं चरित्र ।
2 comments:
भावपूर्ण अभिव्यक्ति। सुंदर। बधाई
बहुत अच्छी रचना, शुभकामनाएं
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