दादाजी खोब्रागड़े
-गायत्री
क्षीरसागर
तीसरी पास और कृषि वैज्ञानिक? बात कुछ अजीब
लगती है। किंतु शोध कार्य करने के लिए केवल तीन बातें ज़रूरी होती हैं - इच्छा शक्ति, जिज्ञासा और कुछ नया सीखने की मानसिकता। इन्हीं तीन खूबियों
के चलते नांदेड़, महाराष्ट्र के
तीसरी पास दादाजी रामाजी खोब्रागड़े ने धान की नौ किस्में विकसित कीं।
दादाजी को स्कूल में भर्ती होने और सीखने की तीव्र इच्छा थी, किन्तु परिवार की गरीबी के कारण वे तीसरी कक्षा तक ही पढ़
पाए। बचपन से ही उन्होंने अपने पिता के साथ खेती करके कृषि का व्यावहारिक ज्ञान
प्राप्त किया। सन 1983 में धान के खेत
में काम करते समय उनका ध्यान कुछ ऐसी बालियों की ओर गया जो सामान्य बालियों से अलग
थीं। दादाजी ने इस धान को सहेज कर उगाया तब उनके ज़ेहन में आया कि धान की इस किस्म
की भरपूर फसल मिल सकती है। उन्होंने चार एकड़ में इस धान को लगाया और उन्हें 90 बोरी धान प्राप्त हुआ। सन 1989 में जब वे इस धान को बेचने के लिए कृषि
उपज मंडी में ले गए ,तब इस किस्म का
कोई नाम न होने के कारण उन्हें कुछ दिक्कतें आर्इं। उस समय एचएमटी की घड़ियाँ बहुत लोकप्रिय होने के कारण इस बढ़िया और
खुशबूदार चावल की किस्म का नाम एचएमटी रखा गया। उदारमना दादाजी ने इस धान का बीज
अपने गाँव के अन्य किसानों को दे दिया, जिससे उन
किसानों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। इस तरह दादाजी का गाँव एचएमटी धान के लिए मशहूर
हो गया।

आज कई प्रदेशों के किसान धान की इन नई किस्मों का उत्पादन करके अच्छी कमाई कर
रहे हैं। ये नई किस्में लोगों को भी पसंद आ रही हैं। किंतु तीसरी तक पढ़े दादाजी को
यह ज्ञान नहीं था कि अपने द्वारा विकसित नई किस्मों का पेटेंट कैसे करवाएँ। इसका
कई लोगों ने फायदा उठाया और नतीज़ा यह हुआ कि दादाजी को उनके शोधकार्य के लिए उचित
मेहनाताना कभी भी नहीं मिला; किन्तु कई प्रकार
की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए दादाजी ने अपना शोध कार्य जारी रखा। कुछ दिनों
बाद बेटे की बीमारी के कारण दादाजी को अपनी प्रयोगशाला यानी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी
और हालत अधिक खराब होने पर उसे बेचना ही पड़ा।

छोटे गाँव में रह कर लगातार शोध कार्य करने के लिए उन्हें सन 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का पुरस्कार
दिया गया। इसी प्रकार, तत्कालीन
राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के
हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। इसके बाद दादाजी का नाम पूरे देश में
जाना जाने लगा। सन 2006 में महाराष्ट्र
सरकार ने उन्हें कृषिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें केवल 25 हज़ार रुपए नकद और सोने का मेडल दिया
गया। कुछ समय बाद दादाजी की आर्थिक हालत और भी खराब हो गई और उन्होंने अपना सोने
का मेडल बेचने का विचार किया; किन्तु उन्हें गहरा धक्का तब लगा ,जब यह पता चला कि वह मेडल खालिस सोने का नहीं था। जब इस
मुद्दे को मीडिया ने और जनप्रतिनिधियों ने उठाया ,तब उन्हें उचित न्याय मिला।
सन 2010 में
अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे उत्तम ग्रामीण उद्यमियों की
सूची में दादाजी को शामिल किया, तब हमारे प्रशासन
की नींद खुली। इसके बाद सारी मशीनरी इस या उस बहाने से दादाजी को सम्मानित करने के
आयोजनों में जुट गई। उन्हें सौ से अधिक पुरस्कार दिए गए, अनगिनत शालें, हार और तोहफे दिए
गए; किन्तु उनके शोध-कार्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार
की आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, वह नहीं मिली।
उन्हें अपनी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव गरीबी और अभाव में बिताना पड़ा। उनका 3 जून 2018 को निधन हो गया।

यदि भारत को सही अर्थों में एक विकसित देश बनाना है तो यह ज़रूरी है कि बिलकुल
निचले स्तर के व्यक्ति के मन में भी शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत हो। इसके साथ
ही यह भी आवश्यक है कि गाँवों और छोटे-बड़े शहरों में
शोध कार्य के प्रति रुचि रखने वाले और खोजी प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों को यथोचित
सम्मान और उचित पारिश्रमिक देकर उनके साथ न्याय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)
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