सामयिकः
चुनाव से गायब
रहे पर्यावरणीय मुद्दे
डॉ. ओ. पी. जोशी
देश की सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव,
जल की कमी एवं
बढ़ता प्रदूषण, वायु प्रदूषण का विस्तार,
जैव विविधता तथा
सूर्य की बढ़ती तपिश सरीखे प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों पर किसी भी राजनैतिक दल ने
ध्यान नहीं दिया। एच.एस.बी.सी. ने पिछले वर्ष ही
बताया था कि भारत में जलवायु परिर्वतन के खतरे काफी अधिक हैं। विज्ञान की प्रसिद्ध
पत्रिका नेचर ने भी चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से भारत,
अमेरिका व सऊदी अरब
सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

जलवायु परिवर्तन के बाद देश की एक और प्रमुख पर्यावरणीय समस्या पानी की
उपलब्धता एवं गुणवत्ता की है। वर्ल्डरिसोर्स संस्थान की रिपोर्ट अनुसार देश का
लगभग 56प्रतिशत हिस्सा पानी की समस्या से परेशान है। हमारे ही देश
के नीति आयोग के अनुसार देश के करीब 60 करोड़ लोग पानी की कमी झेल रहे हैं एवं
देश का 70प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। इसी का परिणाम है कि जल
गुणवत्ता सूचकांक में 122 में हमारा देश 120वें स्थान पर है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 2-3 वर्षों पूर्व ही अध्ययन कर बताया था कि
देश के 387, 276 एवं 86 ज़िलों में क्रमश: नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा
निर्धारित स्तर से अधिक है। बाद के अध्ययन बताते हैं कि भूजल में 10 ऐसे प्रदूषक पाए
जाते हैं, जो जन स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक
हैं। इनमें युरेनियम, सेलेनियम, पारा,
सीसा आदि प्रमुख
हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा 2018 में किए गए
अध्ययन के अनुसार देश की 521 प्रमुख नदियों में से 302 की हालत काफी
खराब है, जिनमें गंगा, यमुना, सतलज,
नर्मदा तथा रावी
प्रमुख हैं। आज़ादी के समय देश में 24 लाख तालाब थे। जिनमें से 19 लाख वर्ष 2000 तक समाप्त हो
गए।
वायु प्रदूषण का घेरा भी बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची
में सबसे ज़्यादा शहर हमारे देश के ही हैं। वायु प्रदूषण अब महानगरों एवं नगरों से
होकर छोटे शहरों तथा कस्बों तक फैल गया है। खराब आबोहवा वाले पाँच देशों में भारत
भी शामिल है। अमेरिकी एजेंसी नासा के अनुसार देश में 2005 से 2015 तक वायु प्रदूषण
काफी बढ़ा है। वर्ष 2015 में तीन लाख तथा 2017 में 12 लाख मौतों का
ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण को माना गया है। वायु प्रदूषण के ही प्रभाव से देशवासियों
की उम्र औसतन तीन वर्ष कम भी हो रही है। वाराणसी सरीखे धार्मिक शहर में भी वायु
गुणवत्ता सूचकांक 2017 में 490 (खतरनाक) तथा 2018 में 384
(खराब) आंका गया है।
कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारी वन संपदा भी लगातार घट रही है। प्राकृतिक
संतुलन हेतु देश के भूभाग के 33प्रतिशत भाग पर वन ज़रूरी है परंतु केवल 21-22प्रतिशत पर ही
जंगल है। इसमें भी सघन वन क्षेत्र केवल 2प्रतिशत के लगभग ही है (देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में देश के
कुल वन क्षेत्र का लगभग एक चौथाई हिस्सा है परंतु यहाँ भी दो वर्षों में (2015 से 2017 तक) वन क्षेत्र लगभग 650 वर्ग कि.मी. घट गया। वनों का
इस क्षेत्र में कम होना इसलिए चिंताजनक है कि यह भाग विश्व के 18 प्रमुख जैव
विविधता वाले स्थानों में शामिल है। सबसे अधिक जैव विविधता (80प्रतिशत से ज़्यादा)
वनों में ही पाई जाती है परंतु वनों के विनाश से देश के 20प्रतिशत से ज़्यादा
जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

वर्षों की अनियमितता से देश में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का भी विस्तार हो रहा
है। अक्टूबर2018 से मार्च 2019 तक आठ राज्यों
में सूखे की घोषणा की गई है। सरकार की सूखा चेतावनी प्रणाली के अनुसार देश का 42प्रतिशत भाग सूखे
की चपेट में है जिससे 50 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं।
पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति राजनैतिक दलों एवं जनता की ऐसी उदासीनता भविष्य
में खतरनाक साबित होगी। देश के जी.डी.पी., बेरोज़गारी,
गरीबी,
कुपोषण,
कृषि व्यवस्था,
स्वास्थ्य सेवाएँ
एवं बाढ़ व सूखे की समस्याएँ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की समस्याओं से
ही जुड़ी हैं। (स्रोत फीचर्स)
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