नये वर्ष की पहचान
- विद्यानिवास मिश्र
नया
साल की मुबारकबादी कई बार मिलती है। दीपावली से कुछ लोगों का नया हिसाब किताब शुरू
होता है, तब
बधाई मिलती है। 1
जनवरी की बधाई मिलती है और युगादि, वर्षादि, गुड़ी पड़िवा, नव संवत्सर की बधाई चैत्र शुक्ल प्रतिपादा को
मिलती है और बसंत में ही मेष संक्रान्ति पर वैशाखी की बधाई और बांग्ला वर्ष की
बधाई मिलती है। कैसे पहचाने नया वर्ष कौन है? कुछ नये वर्ष प्रादेशिक माने जाते हैं, कुछ धार्मिक माने जाते
है, कुछ
सेक्यूलर माने जाते हैं कुछ व्यावसायिक माने जाते हैं, कुछ निपट गँवारू और
कुछ राजनैतिक माने जाते हैं। नये वर्ष के साथ जुडऩा काफी जोखिम का काम हो गया है।
क्या कैलेंडर या पंचांग की तिथि ही प्रमाण है, क्या ब्रह्माण्ड या सौर जगत में नया मोड़
प्रमाण नहीं है, पहले
तो जैसा कि नाम से ही प्रकट है दिसम्बर भी दसवाँ महीना था, मार्च ही पहला महीना
हुआ करता होगा, दो
महीनों के नाम राजनीति ने बदल डाले। भारतीय महीनों के नाम तो चन्द्रमा जिस महीने
की पूर्णिमा के दिन जिस नक्षत्र में रहता है, उसी के आधार पर पड़ते हैं, चैत्र की पूर्णिमा के
दिन चित्रा नक्षत्र वैशाख की पूर्णिमा के दिन विशाखा, ज्येष्ठ की पूर्णिमा
के दिन ज्येष्ठा, आषाढ़
की पूर्णिमा के दिन पूर्वाषाढ़ या उत्तराषाढ़, श्रावण की पूर्णिमा के दिन श्रवण, भाद्रपद की पूर्णिमा
के दिन पूर्व या उत्तर भाद्रपद, आश्विन की पूर्णिमा , के दिन अश्विनी, कार्तिक की पूर्णिमा
के दिन कृतिका, मार्गशीर्ष
की पूर्णिमा के दिन मृगशिरा, पौष
की पूर्णिमा के दिन पुष्य, माद्य की पूर्णिमा के दिन मद्या और फाल्गुन की पूर्णिमा
के दिन पूर्वा या उत्तरा फाल्गुनी अब ये नाम भारतीयों ने 5000 वर्ष पूर्व दिये, इसलिए ये नाम तो अपने
आप किसी धार्मिक छूत से छुए हुए नहीं होंगे। नक्षत्रों, सौर मंडल के ग्रहों और
पृथ्वी पर रहने वाले प्रत्येक मनुष्य के भीतर सूक्ष्म रूप से वर्तमान ब्रह्माण्ड
के बीच का सम्बन्ध तो सांप्रदायिक हो नहीं सकता। ऐसे सम्बन्ध को अनुभव करना कोई
पाप तो नहीं हो सकता। पर लोग डरते हैं कि कहीं इन सम्बन्धों की चर्चा करेंगे तो
कुछ गलत न समझे जायँ।

वर्षा
आरंभ से पहले अर्थात् माघसुदि पंचमी से चैत्र कृष्ण प्रतिपदा तक वर्ष का बचपन और
किशोरवस्था है, यकायक
नये वर्ष में तरुणाई आती है और तपती है, बरसाती है। फिर प्रौढ़ावस्था आती है, अनुभव परिपक्व होते है, सब आँधी पानी थाह जाते
हैं, मन कुछ
स्थिर हो जाता है, कातिक
की नदी के जल की तरह फिर आती है जरा की जीर्णता। केश धवल होने लगते हैं, अंग शिथिल होने लगते
हैं, झुरियाँ
पडऩे लगती हैं और अजीब सी ठिठुरन देह की पोरपोर में समा जाती है। पूरा का पूरा
जीवन भी ऐसे ही वृत्त में घूमता रहता है, बच्चों में कभी-कभी बड़े बूढ़ों का भाव आता है, जवानों बूढ़ों के भीतर
कभी बचपन की उत्सुकता आती है, बूढ़े से बूढ़े के भीतर किशोरवस्था आती रहती
है। यह न हो तो जीवन पूरा आस्वाद्य न हो। जीवन में छह ऋतुएँ हैं तो छह स्वाद भी
हैं। मधुर लवण अम्ल कटु तिक्त कषाय। छहों रसों का अस्वाद अलग-अलग अवस्थाओं के कुछ
विशेष अनुकूल है, बचपन
के अनुकूल मधुर और अम्ल है, उसके बाद की अवस्था के लिए लवण, उसके बाद कटु उसके बाद
तिक्त और सबसे अन्त में कषाय। कषाय ऐसा स्वाद है, जिसमें सब स्वाद घुल जाते हैं और उसके बाद फीका
पानी भी मीठा लगता है।

वैदिक
साहित्य में नये संवत्सर का नाम दिया गया यज्ञ और जीवन को भी उपमा दी गयी यज्ञ की।
यज्ञ का अर्थ कुछ नहीं, अपने
में सर्व के प्रति अर्पित करना। जीवन की सार्थकता इस सर्वमय होने के संकल्प में है
और उस संकल्प के लिए अनवरत प्रयत्न में है। वर्ष का आरम्भ यथार्थ की पहचान से होती
है तो अधिक सटीक होती है। मुझे स्मरण आता है विवाह का एक गीत, जो विवाह पूर्व की
पिछली संध्याओं में गाया जाता है, जिसका अन्त होता है कन्नौजे के मोड़ो बबुर तर
छाई लेबो (पूरे कन्नौजी ठाठ का विवाह मण्डप बबूल की छाया में छा लेंगे)।
विवाहित
जीवन हमारे यहा मधु राका से नहीं, इस बबूल की छाया के यथार्थ- ज्ञान से प्रारंभ
होता है। हम
ठीक पहचान लें और हम नव वर्ष काँटों की चुभन और विराट वीरानी में बबूल की सुरभित
छाया के सुख की अनुभूति से शुरू करते हैं तो इस रूमानी खयालों की दुनिया में नहीं
घूमते, न हम
रंगीली तस्वीरों को देखते-देखते अन्धकार में प्रवेश करते हैं। हम जानते हैं हर कदम
में कुछ जोखिम है, हर
गीत में कुछ दुराव है, हर
हँसी में कुछ ज़हर है और इसके साथ ही हर तल्खी में एक मिठास है, हर कडुए प्रत्यय में
एक सलोनापन है और यह अनुभव हमारे नववर्षोत्सव को उन्मादी नहीं होने देता। हम भरे
पूरे मन से नववर्षोत्सव के रूप में सामने पसरे वर्ष के ऋतु चक्र पर दृष्टिपात करते
हैं या पंचांगवाले पंडित से सुनते हैं, वर्षा के योग की कैसे-कैसे पहचान होगी। सौर
मंडली राज्य व्यवस्था कैसी है, उसकी परिणति किस रूप में सामने आयेगी। यह दिन
अपने जीवन को वेदी के रूप में आकार देने के लिए है और पूरा वर्ष इस वेदी पर अपनी
निजताओं की आहुति है। मालवा
में और महाराष्ट्र में नये गुड़ का आस्वाद इस दिन लेते हैं और घर को फूलों
पत्तियों से सजाते हैं, उसका
भी अर्थ यही है कि प्रकृति ने जो माधुर्य दिया, उसे आस्वादें और प्रकृति के नये उल्लास के साथ अपनी संगति बिठलाएँ। हम जो कुछ हैं अपनी
आभ्यंतर और बाह्य प्रकृति के परिणाम हैं, उनसे जुड़े रह कर, उनका उत्सव अपना उत्सव
मान कर चलते हैं तो सब कुछ असमंजस रहता है, आदमी आदमी के भी रिश्ते बने रहते हैं, रिश्तों की गरमाहट बनी
रहती है, जीवन
के प्रति उत्सुकता बनी रहती है और सबको सबका हिस्सा मिलता है कि नहीं इसकी चिंता
बनी रहती है। शकुन्तला के बारे में कालिदास ने कहा था कि सजना- धजना नयी वय में
किसे नहीं सुहाता, पर
शकुन्तला पेड़- पौधो से इतना प्यार करती है कि उनके नये पल्लव तोडऩे का मन न होता
था, वे पल्लव
जहाँ हैं, वहीं
से शकुन्तला की शोभा बने पेड़ में पहला फूल आता तो शकुन्तला उत्सव मनाती थी, जैसे ये फूल उसी में
खिले हैं।
आज
हमारे जीवन में वह एकात्मता नहीं है तो भी एक दिन उसका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण तो
किया जा सकता है। नये वर्ष के दिन यही स्मरण करें कि हम शकुन्तला की सन्तान भारत
के राज्य में हैं, हम
भारत की सन्तान है तो कहीं वह शकुन्तला हमारी मातृभूमि की तरह ही इतने झंझावतों से
गुजरी माता है, जिसकों
सत्ता का अधिकार मिलकर भी नहीं मिलता है। बस सन्तान का सर्वदमन तेज सिंह के दाँत
गिरने वाला साहस उसे पुन: प्रतिष्ठापित करता है। यह आत्म परीक्षण का दिन है कि हम
कितने उस बालक भारत के हैं। कितना हम नकार सकते हैं एश्वर्य के अधिकार को कि माँ
से कहें कौन है माँ यह, जो
अपना अधिकार मुझ पर जमाना चाहता है, पुत्र-पुत्र कह कर के गोद में लेना चाहता है? शकुन्तला का उत्तर आज
के दिन तो हमारे कानों में गूँजे-भागधेयान वे पृच्छ। बेटा मुझसे यह सवाल न करो, पूछो अपने जन्मसिद्ध
भागधेय से तुम्हें जो तुम्हारा हिस्सा मिला हुआ है, उस हिस्से से पूछो। हम
आज इतने साक्षर अशिक्षित हैं कि हमें अपना भागधेय भी नहीं मालूम। हमें यही नहीं
मालूम हमारा इस शासन के तंत्र में कितना बड़ा हिस्सा है। हमें मालूम भी है तो हम
इतने कायर हैं कि हिस्सा ले नहीं सकते। केवल रिरियाते रहते हैं। हमें भी हिस्सा दो, थोड़ा- सा ही दो। या
हम इतने बेसुध हैं कि बिसूरते रहते हैं। कभी हम यह थे, कभी हम वह थे, आज ही दीनहीन हैं। हम
थे का कोई अर्थ नहीं होता, हम इतने हजार वर्षो के अस्तित्व को निरंतर
निचोड़ते रहने वाले लोग हजार वर्षो के अस्तित्व को निचोड़ते रहने वाले लोग, उस रस को आत्मसात्
करने वाले लोग, मन्थनों
में विष निकालने पर भी अमृत की प्रतीक्षा करने वाले अप्रतिहत जीवन के विश्वासी लोग, आज के दिन क्यों इतने
कुंठित है? जाने
कितना सागर हमने मथा है, कितना
हमने पिया है, आज
हमें सागर की लहरों से क्यों डर? ये हमें क्या लील पायेंगी?


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