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Jun 11, 2013

गिरमिट के 140 वर्ष


अँधियारी रातें और उजला सवेरा
- भावना सक्सैना
वही दिनवा जब याद आवेला अँखिया में भरेला पानी रे।
हिंदुस्तान से भागकर आइली यही है अपनी कहानी रे
भाई छूटा, बाप छूटा और छूटी महतारी रे।
अरकटिया खूब भरमवलीस कहै पैसा कमैबू भर-भर थाली रे
वही चक्कड़ मा पड़ गइली, बचवा याद आय गइल नानी रे।
मारिया भैश के जंगल मा बीती मोरी जवानी रे
तब भी कमाय कमाय के लड़कन के खूब पढ़वली रे।
डॉक्टर वकील, सेस्तर, जज, सिपाही, मेस्तर खूब बनवली रे
(सूरीनाम के कवि श्री अमर सिंह रमन की रचना आप्रवासी यादगार)

1870 में ब्रिटेन की रानी विक्टोरिया और हॉलैंड के सम्राट विलियम तृतीय के बीच हुए एक समझौते के परिणाम स्वरूप भारत से सूरीनाम के लिए शर्तनामे पर मजदूरों की भर्ती शुरू हुई और पुरानी दास प्रथा को शर्तबंधी का नया जामा पहनाकर पुनरुजीवित किया गया। सूरीनाम के लिए भारतीय मजदूरों के निर्यात हेतु डच एजेंटों ने कलकत्ता में अपना मुख्य डिपो खोला और भर्ती के लिए गोरखपुर, इलाहबाद, बनारस, बस्ती व मथुरा में उपकेंद्र खोले। उत्तरप्रदेश के पूर्वी भागों व बिहार की ग्रामीण जनता के बीच यह प्रचार किया गया कि समुद्र के बीचों बीच श्रीराम द्वीप हैं जहाँ हर प्रकार की सुख-सुविधाएँ हैं और बेहतर जीवन के साथ धर्म कमाने का भी लाभ मिल सकता हैं।
श्रीराम देश के सुख और धर्म प्राप्ति की लालसा में भोले-भाले लोग अनजाने स्थान पर जाने को तैयार हो गए। भर्ती किए गए कुल 410 लोगों में से अधिकतर उत्तरप्रदेश के थे और इन सभी कोलकत्ता ङिपो से 26 फरवरी 1873 को लालारुख जहाज से रवाना किया गया। अनेक कठिनाइयों, खराब मौसम आदि का सामना करते हुए यह जहाज तीन माह एक सप्ताह बाद 5 जून 1873 को पारा मारिबो पहुँचा और भारतीयों के कदम सूरीनाम की पावन धरती पर पड़े, कालांतर में 64 जहाजों द्वारा 34304 भारतीय मजदूर सूरीनाम पहुँचाए गए।
लालारुख से सूरीनाम आगमन के पश्चात् हिंदुस्तानियों को जिस कठिन दौर से गुजरना पड़ा वह एक दर्द भरी कहानी हैं, यहाँ पहुँचने पर इन सभी लोगों को एक डिपो में छोटी-छोटी कोठरियों में रखा जाता था, इन कोठरियों का आकार इतना छोटा होता था कि जिसमें एक व्यक्ति सीधा लेट भी न पाए।  और फिर यहीं पर श्रम शक्ति का बँटवारा करके अलग-अलग प्लैंटेशनों पर भेज दिया जाता था। उदाहरण के लिए पहले जहाज लालरुख से आए श्रमिकों को प्लैंटेशन अलायंस, जुलन, आलख़मार, होइलैंड और रेसोलूसी प्लैंटेशन में भेजा गया। एक गाँव के लोगों को प्राय: अलग -अलग स्थान पर भेजा जाता, यहाँ तक कि कहीं-कहीं एक  परिवार के लोग जो यहाँ आए ,वे भी यहाँ आकर बिछड़ गए। कुली शब्द से संबोधित इन भारतवंशियों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार नहीं किया जाता था। सूरीनाम में भारतवंशियों के इतिहास से संबंधित अधिकतर मूल लेखन डच में ही हुआ है। इनमें मुख्य हैं- ईसाई मिशनरी, डॉ. सीजे एम दॅक्लॉर्क द्वारा लिखित दो पुस्तकें- सूरीनाम में हिंदुस्तानियों का आप्रवास, और रूढि़वादी हिंदुओं के रीति-रिवाज। इसके अतिरिक्त डॉ. जे. डीस्पैकमैन की एक पुस्तक।  अत: आज जो भी लिखित इतिहास प्रत्यक्ष रूप से सामने आता है वह एकतरफा है, कितना तथ्यपरक है यह भी नहीं कहा जा सकता ; किन्तु पुरखों के सुनाए किस्से जिनके आधार पर कालांतर में साहित्य की रचना आरंभ हुई कवियों व लेखकों के शब्दों में परिलक्षित होते हैं जिसका उदाहरण सूरीनाम के प्रसिद्ध कवि श्री अमरसिंह रमन की ऊपर उद्धृत कविता है।
सूरीनाम के अभिलेखागार में मुझे दो हस्तलिखित पत्र भी मिले। कलम से लिखे गए पीले पड़ चुके कागज़ पर कई जगह कलम की स्याही कुछ उड़ गई है। लिखने वाले व्यक्तियों ने वर्णों को जिस प्रकार मिला कर लिखा है उसके दो कारण हो सकते है या तो वह स्वयं बहुत शिक्षित नहीं था अथवा अन्य कोई उसे सरलता से न समझ सके इसलिए ऐसा लिखा। सुनी सुनाई कहानियों के इन लिखित दस्तावेजों का अध्ययन कर मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची कि अनुमानत: यह  गिरमिट काट रहे व्यक्तियों द्वारा तत्कालीन उच्चाधिकारियों को लिखे गए हैं। पत्रों पर कोई तारीख तो स्पष्ट नहीं है किन्तु यह अवश्य स्पष्ट होता है कि उस समय वह कितने कष्ट में थे, पहला पत्र किसी कुली इंदर अथवा इंद्रा का है, जिसने उच्चाधिकारी से सरदार को बदलने कि अपील की है ;क्योंकि चीनी माँझा उनकी बात नहीं सुनता सरदार की ही बात मानता है, कमिश्नर के आ कर चले जाने पर भी उन्हें किसी प्रकार की राहत नहीं मिली है, करुण शब्दों में की गई यह अपील निश्चित रूप से हृदय को द्रवित करती है। 
दुख -दर्द की यह दास्ताँ समय के साथ भारत भी पहुँची और वहाँ शर्तबंधी समाप्त करने के लिए आवाज़ उठाई गयी। उस समय भारत से दो व्यक्ति चिम्मनलाल और मकेनल महोदय को विदेशों में भारतीय श्रमिकों की दशा देखने के लिए भेजा गया। जब सूरीनाम में रहने वाले भारतीयों को इस बारे में पता लगा तो हजारों व्यक्तियों द्वारा हस्ताक्षर किया गया एक पत्र इंग्लैंड की सरकार के पास भेजा गया और आग्रह किया गया कि उन दोनों व्यक्तियों को सूरीनाम भी भेजा जाए। 1913 में दोनों सर्वेक्षणकर्ता सूरीनाम आए; किन्तु उनकी सूरीनाम यात्रा से किसी को लाभ नहीं हुआ ; क्योंकि वह, तोलक श्री शीतल महाराज के अतिथि बने और शीतल महाराज सदा अफसरों के पक्ष में ही रहते थे ; अत: उन्हें बताया गया कि सूरीनाम में भारतीयों के साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया जाता है और वह इसे सत्य मानकर वापस लौट गए।  लेकिन इसके पूर्व जब कुछ भारतीय शर्तबंधी प्रथा से मुक्त हुए तो उन्होंने जनसमाज कल्याण के लिए कुछ कदम बढ़ाए और 1910 में भारत उदय नामक संस्था का गठन किया। कुछ समय सही रूप से चलने के बाद सभा में मतभेद उत्पन्न हो गए और कुछ लोगों ने सभा छोड़ दी और सन 1911 में एक नई सभा का गठन किया जिसका नाम रखा अख्तयार और हक। उस सभा कि संरक्षिका एक यूरोपीय महिला श्रीमती स्नैदेर्स थी। श्रीमती स्नैदर्स ने भारतीय श्रमिकों के साथ खराब व्यवहार के बारे में आपत्ति उठाई और सभा की सम्मति से एक पत्र भारत भेजा जिसमें चिम्मनलाल और मकेनल की रिपोर्ट को गलत बताया। इस घटना को सुनकर श्री मदन मोहन मालवीय, और महात्मा गाँधी, श्रीमती शेख महताब, कुमारी बेलियामा, श्री गोखले और श्री शौकत अली आदि ने दिल्ली में नई क्रांति शुरू की , जिसके परिणाम स्वरूप 20-03-1916 को लॉर्ड हार्डिंग ने कानून जारी किया और उसी समय से सूरीनाम में भारतीय मजदूरों का आना बंद हुआ।
भारतीय श्रमिक प्लैंटेशनों पर उनसे लिए जा रहे अत्यधिक कार्य व मँझा और अधिकारियों के व्यवहार से असंतुष्ट थे। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार भी अफसरों से मतभेद के कारण 1876 में अनेक प्लांटेशनों पर समय समय पर झगड़े होने लगे थे। कहीं कहीं आग भी लगाई गई थी; जिसके परिणाम स्वरूप कईं मजदूरों की मृत्यु भी हुई। उल्लेखनीय घटनाएँ हैं अलाइन्स प्लैंटेशन, मरियम बर्घ प्लैंटेशन, जुलन और सोर्ख प्लैंटेशन हैं। कहीं-कहीं तो सेना बुलाने की अवश्यकता भी पड़ी। इन सभी झगड़ो का कारण अत्यधिक कार्य, कम मजदूरी से उत्पन्न असंतोष था।
अनेक किस्से हैं, जो रिपोर्टों में बंद हैं इन सब के साथ-साथ अभिलेखागार में सूरीनाम पहुँचने वाले सभी श्रमिकों का विवरण भी उपलब्ध है तो भी बहुत लोग भारत जाकर अपनी जड़ों को नहीं खोज पाते हैं, इसका कारण उनके नामों में हुआ परिवर्तन है, यह तथ्य सामने आया सूरीनाम के तीसरे राष्ट्रपति श्री रामदत्त मिसिर की पत्नी श्रीमती हिलडा दुर्गा  देवी दीवानचंद से बातचीत के दौरान। श्रीमती मिसिर ने बताया मेरे पिता श्री दीवानचंद        और राजनीति को दिशा प्रदान की। सर्वश्री चंदी साऊ, हीरा सिंह,  बाबूराम, शिवप्रसाद, हरी मूंगरा, ज्ञान अधीन, गजधर, भगवानदीन, करामत अली, मित्रासिंह, रामनिवास, त्रिभुवन सिंह, अजोध्या, मिश्र, बाल उमराव सिंह, राम दिहल, रघुबरसिंघ तथा वंशराज जाने माने वकील रहे हैं तो डॉ. अधीन, डॉ. शुक्ल, डॉ. करामत अली, डॉ. राधाकृष्ण, डॉ. गफूर खान, डॉ. एस. मूंगरा, डॉ. एल मूंगरा, डॉ. तिवारी, डॉ. रघुनाथ, डॉ. विशेश्वर, हीरा सिंह,  डॉ. रतन, डॉ. जीत नाराइन, डॉ. जमालुद्दीन, डॉ. पुनवासी, यहाँ के प्रसिद्ध चिकित्सकों में हैं। उल्लेखनीय व्यक्तियों कि सूची बहुत लंबी है और इसमें शामिल हैं सूरीनाम के तीसरे राष्ट्रपति श्रीमान रामदत्त मिसिर व चौथे राष्ट्रपति श्री राम सेवक शंकर जो हिंदुस्तानी मूल के रहे। पूर्व उप राष्ट्रपति श्री सरजू व मौजूदा उप राष्ट्रपति रौबेर्ट अमीरली भी हिंदुस्तानी मूल के ही हैं। इसके अतिरिक्त कईं हिंदुस्तानी समय-समय पर मंत्री पदों पर आसीन रह चुके हैं। सुश्री इंद्रा ज्वालाप्रसाद राष्ट्रीय असेंबली की सभानेत्री रही हैं; श्रीमती कृष्णा हुसैन अली मथुरा पुलिस चीफ रह चुकी हैं।
ध्यान देने का मुख्य बिन्दु यह है कि वर्षों के संघर्षों के बाद आज  हिंदुस्तानी वंशजों ने इस देश में अपना स्थान बनाया है। अपने पूर्वजों का नाम रोशन किया है, उन पूर्वजों का जो गिरमिट काटने एक अनजान देश आए थे और जिनमें से बहुत अपना मूल नाम भी खो चुके थे। सूरीनाम में हिंदुस्तानियों के पारिवारिक नाम कुछ अलग मालूम पड़े जैसे दुखी, सुखी, सुखाई, गरीब, जंगली, कल्लू, मथुरा, भुलई, भोंदू, आदि। इसके कई कारण हैं, कहा जाता है कि गिरमिट पर भेजने के लिए एजेंट कम पढ़े लिखे श्रमिक वर्ग के लोगों को ही भर्ती करते थे, किन्तु कुछ लोग ऐसे भी थे जो स्वयं अपनी तात्कालिक परिस्थितियों से बचकर भागना चाहते थे और सुख की लालसा में काफी लोग नाम बदल कर भर्ती हुए। दूसरा कारण रहा कि नाम लिखने के लिए अंग्रेज़ी वर्तनी का प्रयोग किया जाता था और उच्चारण भिन्न होने के कारण लिखे गए नाम मूल नामों से अलग थे। जैसे माथुर बन गया मथुरा और कहीं-कहीं मतौ; श्री प्रसाद बन गया सीपर्सौद। एक अन्य कारण है कि जब श्रमिक सूरीनाम पहुँचे उनसे डिपो में दोबारा नाम पूछा गया और तीन माह की कष्टकारी यात्रा के बाद खीझे हुए लोगों में किसी ने अपना नाम दुखी कह दिया तो किसी ने गरीब, डच अधिकारी इन शब्दों के अर्थ नहीं जानते थे और उन्होंने वास्तव में उनके नाम समझकर उन्हें उसी नाम से दर्ज कर दिया। और इस तरह उनके नए नाम पड़ गए। किन्तु नाम जो भी पड़े हों आज यहाँ की कुल जनसंख्या के एक-तिहाई हिंदुस्तानियों का सूरीनाम की धरती पर परचम लहरा  रहा है और अपनी भाषा व संस्कृति के प्रति आरंभ से सजग रहे इन हिंदुस्तानियों ने विषम परिस्थितियों के बावजूद आज भी अपनी भाषा व संस्कृति की ज्योति को जलाए रखा है।   

1 comment:

gazalkbahane said...

bhut sunder likha hai. thoda vistar dete to accha rahta