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May 2, 2025

प्रसंगः एक भावुक दृश्य

 - लिली मित्रा 

ऐसे बिना अनुमति के किसी तस्वीर नही खींचनी चाहिए; पर मैं रोक नही पाई और मेट्रो रेल मे बैठे एक यात्री परिवार की फोटो  सबसे नज़र बचाकर खींच ली। पिता की वात्सल्यमयी गोद में बहुत सुकून से सोता हुआ बचपन... बहुत देर तक मैं उस, निश्चिन्त पितृ-अंक में सोए बालक को निहारती रही। शायद बच्चे की तबीयत खराब थी। मेट्रो के वातानुकूलित परिवेश में उसे ठंड लग रही थी। इसी कारण एक शॉल में किसी कंगारू के शावक- सा वह अपने पिता के गोद में सिकुड़कर सो रहा था।  बीच-बीच में ट्रेन के अनाउंसमेंट से चौंककर  इधर-उधर ताकती उसकी भोली मासूम आँखें वापस खुद को गुड़मुठियाकर पुनः अपने सुरक्षित, संरक्षित घेरे में सो जा रही थीं। जेहन में एक ख्याल का अकस्मात् अनाउंसमेंट हो गया... आह्लादित मुस्कान, भाव विभोर हो खुद के लिए भी ऐसे वात्सल्यमयी सुरक्षित अंक के लिए तड़प उठी।   वयस्क होकर हम कितना कुछ पाते हैं - आत्मनिर्भरता, स्वनिर्णय की क्षमता, अपनी मनमर्ज़ी को पूरा करने की क्षमता; पर सब कुछ एक असुरक्षा के भय के आवरण के साथ। उस निश्चिंतता का शायद अभाव रहता है कि यदि असफल हुए या ठोकर लगने को हुए, तो एक सशक्त संरक्षण पहले ही अपना हाथ आगे बढ़ा उसे खुद पर सह लेगा; पर हमें कुछ नही होने देगा।   

 जब शिशु पलटी मारना सीखते हैं, तो अभिभावक बिस्तर के चारो तरफ़ तकिए लगा देते हैं; ताकि वे नीचे ना गिर जाएँ। जब चलना सीखते हैं, तो हर पल की चौकसी बनाए रखते हैं, कहीं टेबल का कोन न लग जाए, कहीं माथा न ठुक जाए। मुझे याद है- मेरे घर के बिजली के कुछ स्विच बोर्ड नीचे की ओर लगे थे और बड़े वाले बेटे ने घुटनों के बल चलना सीखा था। वह बार-बार उन स्विच के प्लग प्वांइट के छेदों में उँगली डालने को दौड़ता था। मुझे सारे बोर्ड ऊपर की तरफ़ करवाने पड़े। और भी बहुत कुछ रहता है... जिन पर भरपूर चौकसी रखनी पड़ती है अभिभावकों को, जिससे शिशु का बचपन निश्चिंतता के परिवेश में पोषित और पल्लवित हो। ऐसा बहुत कुछ हम वयस्क होने के बाद खो देते हैं।     

 इस दृश्य को देखकर आँखें भर आईं ... लगा जैसे पृथ्वी के विलुप्त होते सुरक्षा आवरण ' ओज़ोन'- सा मेरा या हम सभी वयस्क हो चुके हैं, जो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, उनकी वह 'अभिभावकीय ओज़ोन लेयर' विलुप्त होती जा रही  है।   हम अब  स्वयं अभिभावक बन चुके हैं। अब हमें अपने बच्चों को सुरक्षित एंव निश्चिंतता का वात्सल्यमयी आवरण प्रदान करना है। उन्हें उसी तरह जीवन- पथ की ऊष्णता और आर्द्रता सहने के काबिल बनाना है, जैसे हमारे अभिभावकों ने हमें बनाया।          

 माँ-बाबा तो सशरीर इस जगत् में नहीं; पर एक आभासी विश्वास मन में सशक्तता से आसीन है- वे जिस लोक में हैं , अपने आशीर्वाद से आज भी अपना वात्सल्यमयी घेरा बनाकर हर बाधा, दुरूहता, चुनौतियों, कठिनाइयों से निपटने का सम्बल दे रहे हैं और मैं इसी फोटो वाले बालक- सी अपने अभिभावक की गोद में गुड़मुठियाए निर्विकार निश्चिंतता से सो रही हूँ।   ■

- फरीदाबाद हरियाणा 

2 comments:

मेरी अभिव्यक्तियाँ said...

रचना को पत्रिका में स्थान देने के लिए साभार धन्यवाद।

Anonymous said...

बहुत सुंदर।सुदर्शन रत्नाकर