चाची और अब छोटी भाभी ने
बड़ी सँभाल से रखा है
मटमैली जिल्द और
पीले पन्नों वाला
रामायण का एक गुटका
अम्मा का गुटका
देख उसे अनायास ही
भीग गईं अँखियाँ।
अम्मा के इस गुटके में
साँस ले रही हैं
कितनी कहानियाँ
कितने चित्र, कितनी स्मृतियाँ।
रामायण, गीता, सुखसागर
गुनती, बाँचती अम्मा
पीछे कहीं बाबा की आवाज़
“अरी भागवान, बाल्टी में पानी भर
धूप में रखा या नहीं”
इसे देख जी उठा है बचपन
खुला ईंट बिछा आँगन
एक पीढ़ा, एक पलकिया
कहीं गाँव में मिलते हों शायद
शहर में तो नहीं दिखते
न पीढ़ा, न पलकिया, न आँगन…
राम नाम की लूट है
गुनगुनाती
कँपकँपाते जाड़े में
हैंडपंप के पानी से स्नान कर
भीगे कपड़े निचोड़ती
भीगे बालों में खड़ी अम्मा
अपने ठाकुर जी और
लड्डू गोपाल जी को स्नान कराती
उनका शृंगार करती
धूप दीप सजाती, आरती देती
बतासा हाथ पर धर असीसती
सीधे पल्ले की धोती में
मुस्कुराती अम्मा
काले फ़्रेम का चश्मा नाक पर चढ़ाए
फिर-फिर गीता के अध्याय दोहराती
जाड़ों की धूप
गर्मियों की लंबी दोपहर में
पढ़ती, सुनाती, समझाती अम्मा।
इस गुटके में महक है अम्मा की उँगलियों की
कुछ छंदों चौपाइयो पर हैं सही के निशान
उन्हें पढ़ा होगा, गुना होगा मेरी अम्मा ने बार-बार
या चिह्नित कर छोड़ा होगा आने वाली
पीढ़ी के लिए, किसी कुंजी स्वरूप
सब कुछ छोड़ मैं पढ़ना चाहती हूँ,
गुनना चाहती हूँ इसे
सब लागलपेट छोड़
हो जाना चाहती हूँ
अम्मा- सी सरल
उनका ही प्रतिरूप।
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