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May 2, 2025

कविताः पिता, तुम सच में चले गए?

  -  डॉ. पूनम चौधरी 

जब मैं विदा हुई थी,  

छलक गई थी तुम्हारी आँखें,  

पर छुपा कर सारा दर्द,  

ओढ़कर मुस्कान, थमाया था धीरज-

‘‘जा, यह नया संसार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।  

पर तेरा छूटा हुआ सब तेरा ही है।’’

 

मैंने बाँध लिये थे शब्द,  

आँचल में गाँठ लगाकर।  

पर अब वह गाँठ खुल गई।  

तुम सच में चले गए?  

और साथ में ले गए मेरा छूटा हुआ सब- 

आँगन, घर, मायका।  

 

अब लौटती हूँ तो घर  

वैसा नहीं लगता।  

खुले दरवाजे के पीछे तुम नहीं होते,  

तुम्हारी कुर्सी की जगह नहीं बदली,  

पर अब वो किसी को नहीं बुलाती।  

 

अब आती हूँ तो  

रास्ते भर फोन नहीं खटकता—  

"कहाँ पहुँची? कब आएगी?"  

तुम्हारी आतुरता और मेरा चिड़चिड़ाना—  

"पहले आ जाऊँ, फिर कर लूँगी बात!"  

अब बस एक भावुक स्मृति है।  

 

अब घर में बस तुम्हारी तस्वीर है।  

माँ चुपचाप तस्वीर पर फूल रख देती है,  

और मैं बिना बोले छू लेती हूँ तुम्हारा चेहरा,  

जो अब बस एक कागज़ में क़ैद है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए हो? 

 

अब वह आँगन खाली है,  

जिसमें गूँजती थी हँसी।  

जिस पर हर बार लौटने पर  

तुम पहले खड़े मिलते थे।  

अब घर की दीवारें सुनसान हैं,  

जैसे कोई अपना बहुत कुछ कहकर  

अचानक मौन हो गया हो।  

 

‘‘पिता, तुम सच में चले गए?’’  

 

अब जब अपने संसार में उलझती हूँ,  

दिल बोझिल हो जाता है।  

सुनना चाहती हूँ तुम्हारी आवाज़—  

‘‘भरोसा रख, वह सब सही करेगा।’’ 

पर अब सन्नाटा है।  

अब कुछ अपने आप सही नहीं होता।  

 

अब कोई अधिकार से नहीं पूछता—  

‘‘सब ठीक है ना, बेटा?’’  

सब कहते हैं, ‘‘तुम्हें तो मज़बूत होना चाहिए’’ 

पर जब पिता नहीं रहते,  

तो बेटियाँ अचानक से छोटी और कमजोर हो जाती हैं।  

और माँ भी...  

पिता के बिना अधूरी-सी लगती है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए?

 

अब मायका बस अतीत में झाँकने जैसा है।  

तुम थे, तो वह घर था,  

घोंसला था, हर समस्या का समाधान था।  

मेरा रुकना बिना प्रश्न स्वीकार था।  

अब सब बदल गया है।  

 

माँ की आँखों की नमी दिल को चीरती है।  

उनकी आँखों का खालीपन,  

जो कभी नहीं भर पाएगा।  

अब वहाँ लौटना खुद को दो हिस्सों में बाँटने जैसा है-  

एक हिस्सा जो कहता है, "यह मेरा ही घर था।" 

दूसरा जो चिल्लाता है, "यह सब छलावा है,  

सारे अधिकार तो पिता के साथ ही विदा हो गए!"  

 

अब यहाँ रहने से ज़्यादा  

यहाँ से लौटना कठिन हो गया है।  

अब मायका सिर्फ़ चारदीवारी का नाम है,  

जिसकी छत अभी सलामत है,  

पर जिसका आसमान खो गया है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए? 

 

सुना है, पिता कभी नहीं जाते।  

वह बेटियों की आत्मा में बस जाते हैं।  

अगर यह सच है,  

तो किसी शाम जब तेज़ हवा चले,  

तो ज़रा मेरी पीठ थपथपा देना।  

फिर रख देना सिर पर हाथ।  

 

किसी भूले-बिसरे गीत की धुन में  

बस इतना कह देना—  

‘‘बेटा, मैं यहीं हूँ!’’

 

कि यह दिल फिर से धड़कने लग जाए,  

यह जीवन फिर से मुस्कुरा उठे,  

यह आँखें फिर से रोशन हो जाएँ,  

और यह तसल्ली हो जाए  

कि अब भी मेरा कोना सलामत है।

रचनाकार के बारे में-  शिक्षा- एम.ए. (हिंदी) पी-एच.डी (शैलेश मटियानी के कथा साहित्य की संवेदना), एम. एड, एल. एल. बी (आगरा विश्वविद्यालय ),  नन्हे ईश्वर (कहानी संग्रह )
 विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, साहित्य परिक्रमा, वाग्प्रवाह व समाचार पत्रों राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, स्वदेश आदि में कहानियाँ व आलेख प्रकाशित, निरंतर आलोचनात्मक व रचनात्मक विमर्श में सक्रिय। संप्रति -अध्यापिका ( उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद), ईमेल- poonam.singh12584@gmail.com
सम्पर्कः  98, पुष्पांजलि नगर फेज -3, अवधपुरी आगरा ( उत्तर प्रदेश) 282010

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