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Apr 1, 2025

कहानीः बालमन

 - डॉ. कनक लता मिश्रा 

बचपन बड़ा ही मासूम होता है, बहुत ही सुंदर, कोमल, नव कोपलों के समान ताजगी से भरा हुआ। सारे ही भावों का शुभारंभ यहीं से होता है। इसे हम यों भी कह सकते हैं कि सारे भावों की जड़े यही से प्रारंभ होती हैं और इसलिए भावों की गुणवत्ता का निर्धारण भी यहीं से होता है और यह इस बात पर निर्भर है कि उसमें किस प्रकार का खाद पानी मिलाया जा रहा है, कितनी धूप, कितनी तपिश, कितनी हवा, कितनी शीतलता मिल रही है। मिट्टी भी बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है। यही कारण है, जिस तरह से हमारे शरीर का रूप, रंग व हमारे शरीर की आकृति दूसरों से भिन्न होती है उसी तरह से हमारे मन का भी रूप रंग और आकार सबसे भिन्न होता है और सबसे अलग अस्तित्व लिए रहता है।

हाँ , तो हम बचपन की बात कर रहे थे। उस बचपन की, जिससे होकर हर कोई गुजरता है। 

  एक छोटी- सी बच्ची रत्ना, जो अब बच्ची नहीं, एक प्रौढ़ा हो चुकी है।  बात उस वक्त की है, जब रत्ना केवल सात वर्ष की थी और मोहल्ले के ही एक शिशु मंदिर की दूसरी कक्षा में पढ़ती थी। उन दिनों बच्चे सुनियोजित जीवन जीने के आदी नहीं होते थे और ना ही बच्चे समाजीकरण की प्रक्रिया को सोशल मीडिया से सीखते थे; बल्कि वास्तविक समाज का अवलोकन करते हुए अपने खेल खिलौनों के माध्यम से सीखते थे। तब वीडियो गेम्स नहीं होते थे और ना ही बच्चों के पास कार्टून चैनल बदलने का विकल्प हुआ करता था। टीवी पर कुछ चुने हुए कार्टून आते थे और वह भी एक निश्चित समय पर और फिर सबसे बड़ी बात तो यह थी कि टीवी भी गिने-चुने घरों में हुआ करते थे। रत्ना के घर में भी नहीं था, हालाँकि रत्ना कभी - कभार माँ से मिन्नत- मशक्कत करके इजाजत ले लेती थी और मोहल्ले की एक चाची के घर जाकर टीवी देख आती थी । पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए घरवाले इतना जोर नहीं दिया करते थे। हाँ, स्कूल जाना और रात के समय जब तक माँ खाना ना दें, तब तक किताब लेकर जोर-जोर से पढ़ने का कार्य किया जाता था। दोपहरी तो घर वालों को चकमा देकर सहेलियों के साथ खेलने का समय हुआ करता था । कभी साइकिल चलाना, कभी आम की कैरी तोड़कर किसी एक के घर में इकट्ठा होकर कैरी को छीलकर, काटकर नमक डालकर चटखारे लेकर खाना और किसी - किसी दिन माँ को खुश करने के लिए कैरी लाकर माँ को देना और कहना- माँ चटनी बनाने के लिए लाई हूँ । एक और भी बहुत सुंदर परंपरा थी उन दिनों की और वह यह कि दिवाली के दो एक दिन पहले हर छोटे बड़े घरों में आँगन जो कि उस समय घर का अहम हिस्सा हुआ करता था, छोटा या बड़ा कैसा भी और हाँ खुला हुआ। उसी आँगन के एक कोने में एक बहुत छोटा- सा घर बनाया जाता था, जिसे बच्चे ही मिलकर बनाया करते थे बारी - बारी से सबके घरों में जाकर। किसी किसी परिवार में बड़े भी जिसमें ज्यादातर बड़े भाई- बहन भी रुचि लेते थे और घर को बनाने से लेकर सजाने सँवारने तक में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। घर का रंग- रोगन भी किया जाता था, कभी चावल के आटे से तो कभी हल्दी मिलाकर या कभी चूने से। कुछ पुराने कपड़ों से तथा लकड़ियों से गुड़िया- गुड्डा भी बना करते थे और ये गुड़िया -गुड्डा और उनका परिवार इन्हीं घरों में रहा करते थे। इस घर में वे अपनी संपूर्ण साज़ो-सामान के साथ रहा करते थे। एक दिवाली से दूसरी दिवाली तक का समय अर्थात एक वर्ष का समय अंतराल उनका संपूर्ण जीवन काल होता था इसी एक वर्ष में यह युगल एवं इनका परिवार जीवन के सभी पखवारे जी लिया करते थे।

      रत्ना के छोटे से घर में भी एक बड़ा- सा आँगन, जिसके कोने में हर साल एक छोटा- सा घर बना करता था, जिसमें माता पिता के लिए चाचा चाची के लिए दादा दादी के लिए और अतिथियों के लिए अलग-अलग कमरे हुआ करते थे बच्चों का अस्तित्व माता पिता के होने से हुआ करता था; इसलिए बच्चों के लिए अलग से कमरे नहीं होते थे। पूजा और धार्मिक कार्यों हेतु अलग से स्थान हुआ करता था। उस समय इसके लिए अलग कमरे नहीं होते थे और इसी के साथ घर के एक कोने में सामूहिक रसोईघर होता; क्योंकि यही परंपरा मान्य थी; अतः इस छोटे से गुड़िया गुड्डे के घर में भी यही परंपरा निभाई जाती है। मिट्टी के छोटे छोटे खिलौने वाले बर्तन भी होते थे।

रत्ना ज़्यादातर दादी के साथ सोया करती थी। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण भी था और वह यह था कि दादी सोते समय कहानी तो सुनाती ही थी, साथ ही जब तक रत्ना सो ना जाए, तब तक बालों में हाथ फिराती थी। एक रोज़ रत्ना को देर रात तक नींद नहीं आई। उस रात भी रत्ना दादी के साथ ही सोई थी। उस रात दादी कहानी सुनाते सुनाते सो गई; पर रत्ना देर तक नहीं सो पाई। वृद्ध लोग थोड़ी थोड़ी देर में नींद से जगते रहते हैं, सो दादी भी जगी और जागते ही उनका ध्यान रत्ना पर गया और उन्होंने देखा कि वो अभी तक सोई नहीं, तब उन्होंने पूछा कि बिटिया तुम अभी तक सोई क्यों नहीं? तब रत्ना ने बड़े ही भारी मन से कहा, “माई मुझे चिंता है।” (रत्ना दादी को माई कहती थी)

 माई ने पूछा, “भला किस बात की तुम्हे चिंता हो गई?”

 रत्ना ने बड़े ही रुँधी हुई आवाज़ में जवाब दिया- “माई कल मेरी गुड़िया की शादी है और मेरे पास बर्तन नहीं हैं, जो दीवाली पे लिया था वह सारे टूट गए । मुझे चिंता है, मैं शादी में आने वाले मेहमानों को किस में खाना खिलाऊँगी ?” 

 माई ने बड़े ही प्यार से कहा, “हाँ, यह तो चिंता की बात है; पर अभी सो जाओ। मै कल देख लूँगी और सारी व्यवस्था कर दूँगी।”

 चिंता बाल मन की थी, सो भरोसा आसानी से हो गया और फिर माई ने जैसे ही प्यार से सिर पर हाथ फिराया रत्ना कुछ ही पल में बेसुध होकर सो गई। अगली सुबह चिंता फुर्र हो चुकी थी। सुबह उठते ही स्कूल के लिए तैयार हुई  और मस्ती में स्कूल चली गई। स्कूल में ज्यादातर मोहल्ले की सहेलियाँ ही साथ में पढ़ा करती थीं। उन्हें देखकर रत्ना की चिंता की लकीरें फिर से खींचने लगीं; पर फिर यह सोचकर कि माई सब ठीक कर देगी, वह सबको निमंत्रण देने लगी। सब ने बड़ी उत्सुकता से निमंत्रण स्वीकार किया। रत्ना घर आते ही सबसे पहले माई के पास गई। माई के चेहरे पर एक बहुत ही प्यारी- सी मुस्कान दिखाई दी सुमन को । रत्ना ने माई से कुछ नहीं पूछा बस गले में हाथ डाल कर झूल गई । माई ने स्नेह और रुदन- मिश्रित आवाज में कहा, “छोड़ दे बिटिया, तेरी बूढ़ी माई की हड्डियाँ कमजोर हो गई हैं , टूट जाएँगी, तो फिर शाम को तेरी गुड़िया की शादी कैसे देखने जा पाएगी।”

   रत्ना का भोला मन उछल पड़ा और बड़े ही स्नेहिल भाव से माई को देखने लगी और फिर बोली “माई तुम कितनी अच्छी हो, तुम सारे नए बर्तन ले आई ना? अच्छा माई तुम कौन- सी साड़ी पहनकर आओगी? वही वाली पहनना, जो तुमने छोटे काका की शादी पर पहना था । आओगी ना माई? घर में सबको कहो ना माई, तुम कहोगी, तो सब आएँगे - माँ, दीदी, भइया सब.. सब आएँगे। माई सबसे कह देना कि सब लोग अच्छे कपड़े पहनकर आएँगे। अच्छा माई, तुम बताओ मैं कौन सी वाली फ्रॉक पहनूँ?”

 दादी बड़े ही लाड़ से बोलती हैं, “तू कोई सी भी फ्रॉक पहने तू पुतरी ही लगेगी मेरी बच्ची, जा अब तैयारी कर ले वरना सब मेहमान आ जाएँगे और तू काम में हीं लगी रहेगी।”

 रत्ना ने कहा, “हाँ माई, मैं जा रही हूँ अभी तो बहुत काम बचा है।” और फिर रत्ना ने जल्दी से माँ से खाना लेकर किसी तरह से खत्म किया और फिर तुरंत ही अपनी गुड़िया के उस छोटे से घर में गई। जाकर देखा, तो देखती ही रह गई । घर सफेद रंग से रँगा हुआ है।  बूढ़ी उँगलियों से उस घर की हर ई़ट के किनारे को हल्दी के पीले रंग से किनारी रूप में सजाया गया है। मुख्य द्वार से बाहर छोटी- छोटी ईटों से घेरा बनाया गया। घेरे के अंदर आटे और हल्दी के मिश्रित पाउडर से स्वस्तिक भी बनाया गया है। रत्ना घेरे के अंदर स्वस्तिक को बचाते हुए धीरे- से बैठी। और अब कॉपी के गत्ते से बनाए घर के दरवाज़े को खोला। सभी छोटे- छोटे कमरों में छोटे- बड़े सभी तरह के मिट्टी के बर्तन करीने से सजाए गए हैं। एक कमरे में गुड़िया को नए कपड़े पहनाए गए हैं और उसे छोटी-छोटी मोतियों की नथ और टीके, हार और कर्णफूल भी पहनाएँ गए हैं । यह सब देखकर रत्ना के पैर ज़मीन पर नहीं थे, वह खुशी से फूली नहीं समा रही थी। वह तुरंत माई के पास गई है और मारे ख़ुशी के माई की गोद में अपना सर छुपा लिया। माई भी बड़े प्यार से रत्ना के माथे पर आई हुई लटों को सँवारने लगी।

लेखक के बारे में-  जन्मतिथि- 5 अक्टूबर, 1978, शिक्षा- M.Sc., Ph.D, संप्रति- प्रोफेसर, गृह विज्ञान, सेंट जोसेफ कॉलेज फॉर वुमेन, सिविल लाइंस, गोरखपुर, विधाएँ- कहानी, कविता, उपन्यास, ग़ज़ल, समीक्षा, प्रकाशन- कहानी संग्रह- डेढ़ पाव ज़िन्दगी…पुल भर मन, असंरचित क्षेत्रों में महिलाओं की सामाजिक आर्थिक स्थिति, पत्र पत्रिकाओं में रचना प्रकाशित, संप्रति- प्रोफेसर, गृह विज्ञान, सेंट जोसेफ कॉलेज फॉर वुमेन, सिविल लाइंस, गोरखपुर, Email- kanaklata1802@gmail.com

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