कहा है कि श्रम से बड़ा कोई कर्म नहीं और सेवा से
बड़ा कोई धर्म नहीं बशर्ते सेवा हो अहंकार रहित। सेवा में अहंकार का कोई स्थान
नहीं। यह तो मन में उपजा पवित्र भाव है। पर सेवा इतनी सरल भी नहीं। इसीलिए तो कहा
भी गया है सेवा धरम कठिन मैं जाना। और जो इसे सफलतापूर्वक समर्पित भाव से संपन्न
कर लेता है उसके आभारी तो स्वयं ईश्वर तक हो जाते हैं।
एक बार नारद नारायण नारायण करते -करते राम के
द्वार दर्शन करने पहुँचे तो पहरा दे रहे हनुमान द्वारा रोक लिए गए।
नारद
बोले – मैं तो प्रभु से मिलने आया हूँ। वे क्या कर रहे हैं।
पता नहीं – हनुमान बोले – कुछ बही-
खाता लिख रहे हैं। और चूँकि व्यस्त हैं;
अतः आप अंदर नहीं जा सकते।
नारद को यह नागवार गुजरा और वे
हनुमान को परे हटाकर अंदर प्रवेश कर गए। अंदर जाकर उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही-
जब नारद ने देखा कि वे कुछ लिख रहे हैं।
प्रभु आप स्वयं – नारद ने जिज्ञासा
वश पूछा। किसी और को कह देते।
नहीं नारद मेरा काम मुझे ही करना है।
और यह तो विशेष कार्य है – प्रभु बोले।
भला बताइये ऐसा क्या लिख रहे थे – अब तक
नारद उत्सुक हो चुके थे।
उन भक्तों के नाम जो मुझे हर पल भजते हैं।
उनकी मैं हर दिन हाजिरी लगाता हूँ – प्रभु ने उत्तर दिया।
तो प्रभु बताइये भला इसमें मेरा नाम कहाँ
है - और जब सूची देखी तो स्वयं का नाम सबसे ऊपर पाया।
अब नारद के मन में अहंकार इसलिए
भी उपज आया कि इसमें हनुमान का नाम कहीं नहीं था। बाहर आकर यही बात उन्होंने
हनुमान से कही। पर हनुमान वैसे ही बने रहे तथा बोले – कोई बात नहीं। प्रभु ने शायद
मुझे इस लायक नहीं समझा। पर वे एक दैनंदिनी और भी रखते हैं।
आप शायद एक दैनंदिनी और रखते हैं।
उसमें क्या लिखते हैं – अब नारद ने पुन: राम के पास जाकर पूछा।
वह तुम्हारे काम की नहीं - प्रभु
बोले।
नारद ने विनय की - पर मैं तो जानना
चाहता हूँ।
मुनिवर मैं उसमें उन लोगों के नाम
लिखता हूँ, जिनको
मैं भजता हूँ– अब प्रभु ने समापन किया संवाद का और यह कहते हुए सूची आगे बढ़ाई,
तो नारद ने देखा कि उसमें हनुमान का नाम सबसे ऊपर था। नारद का सारा
अभिमान तत्क्षण तिरोहित हो गया।
मित्रो! यही है अहंकार से रहित
निर्मल, निःस्वार्थ भक्ति का
वह भाव जिसके अंतर्गत ईश्वर भी भक्त के प्रति समर्पित हो जाते हैं।
52 comments:
भक्त और निष्काम सेवक का अंतर आपने सरल उदाहरण से बहुत ही सुन्दर तरीके से समझाया। अहंकार अच्छाई को कितना प्रभावित करता है यह संदेश भी इससे स्पष्ट है। अति सुन्दर प्रस्तुति।
आदरणीय,
आपका सोच तो मुझसे भी कई गुना आगे है। भक्त और निष्काम कर्मी सेवक की कितनी सुंदर परिभाषा की व्याख्या आपने की है।
हार्दिक हार्दिक आभार सहित सादर 🙏🏽
बहुत अच्छा ब्याख्यान।
पिताश्री हमेशा कि तरह आप ने बहुत सरल और सुन्दर शब्दों से अहंकार और निष्काम सेवक का अंतर समझाया। पिताश्री को सादर चरण स्पर्श 🙏
आदरणीय, हार्दिक आभार सादर
प्रिय हेमंत, आपकी सरलता अद्भुत है। सस्नेह
शक्ति, भक्ति और सरलता के सब से अद्भुत उदाहरण हैं बजरंगबली।
जय जय श्री राम
जय बजरंगबली
बहुत सही जहाँ अहम है वहाँ भगवान नहीं रह सकते प्रेम गली अति साँकरी। भक्तों को भगवान अपने ह्रदय में रखते हैं।
पढ़कर आनन्द आ गया, आदरणीय। हनुमानजी के कई प्रसंग याद आ गए। किष्किन्धा की प्रथम मुलाकात और "प्रभु पहिचानि परेउ कपि चरना" ।
राम रोष से सुग्रीव की रक्षा। लंका प्रस्थान के पूर्व जामवंत से आज्ञा और निर्देश प्राप्ति "जामवंत मैं पूँछहु तोहीं। उचित सिखावन दीजहूँ मोहीं।" वगैरह। सबसे आनन्द तो तब आता है जब विभीषण शरणागति के प्रसंग में सुग्रीव अपनी राय देते हैं कि "राखिय बाँधि मोहिं यह भावा।" तो हनुमानजी एकदम चुप रहते हैं। जबकि विभीषण ने लंका में हनुमानजी को कितना सहयोग किया था इस बात का ज्ञान सभी को था। इस प्रकार हनुमानजी को अपने स्वामी राम पर पूरा भरोसा था कि वे उचित निर्णय ही लेंगे। और हुआ भी यही। हनुमान जी के स्थान पर कोई अन्य होता तो सुग्रीव से लड़ जाता। यह सेवक का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप है।
इसी प्रसंग में एक बात और भी उल्लेखनीय है। जब हनुमानजी माता सीता का संदेश भगवान राम को सुनाते हैं तो राम कहते हैं "तुम मोहिं प्रिय भरतहि सम भाई"। भाव यह नहीं कि राम को हनुमानजी अपने भाई भरत के समान प्रिय हैं। तुलसी दास जी ने अयोध्याकाण्ड में ही यह स्पष्ट कर दिया था "भरत सरिस को राम सनेही। जग जप राम राम जप जेही।" अर्थात राम हनुमान को जपते हैं।
इसी तथ्य को कवि बिन्दु इस प्रकार से लिखते हैं। "प्रबल प्रेम के पाले पड़कर प्रभु को नियम बदलते देखा। अपना मान टले टल जाए जन का मान न टलते देखा।
नियम तो यही है कि भक्त भगवान को भजता है, लेकिन अति विशिष्ट भक्तों को भगवान भी भजते हैं।
बहुत प्रिय प्रसंग। बहुत साधुवाद।
बिल्कुल सही सर.... हनुमान श्रेष्ठ भक्त... श्री राम भक्त श्रेष्ठ...
भगवान और भक्त के संबंध की सुंदर व्याख्या। प्रेरणादायक लेख के लिए धन्यवाद।
सर, अति सुंदर लेख।
तुलसी रामहु तें अधिक, राम भगत जियें जान।
रिनिया राजा राम में, धनिक भए हनुमान॥
अपने भक्त का अहंकार प्रभु तुरंत हर लेते है , यही है प्रभु कि कृपा मुनिवर नारद जी के ऊपर।
आइये हम सब प्रभु के चरणों में ध्यान करे , प्रभु के गुणों का गान करे, संतों का सत्संग करे और निरंतर प्रभु के नाम का स्मरण करें।
आदरणीय विजय जोशी जी की जय हो - आप निरंतर समाज को श्री रामचरितमानस के प्रसंगो द्वारा जाग्रत करते रहते है आपको कोटिशः धन्यवाद ।
विष्णु भगवान इसीलिए तो श्रेष्ठ हैं, उन्हें अपने भक्तों में श्रेष्ठ व निस्वार्थ सेवक की पहचान कर सके और उसी के हिसाब से उसे उचित स्थान व सम्मान दिया.. और हनुमान जी ने भी बिना किसी लाभ हानि के प्रभु की सेवा जारी रखी.. भगवान को भक्त पर और भक्त को भगवान पर असीम विश्वास.. सुंदर प्रसंग से समझाया आपने सर 😊 बधाई 💐
सादर
रजनीकांत चौबे
लेख पढ़कर बहुत उत्साहित हूं और इससे यह प्रेरणा मिलती है कि कोई भी कार्य नि:स्वार्थ भाव से किया जाए तो भगवान भी भक्त के भक्त बन जाते हैं और अपना काम स्वयं करना चाहिए
सादर चरणस्पर्श।
बहुत ही प्रेरणादायक लेख लगा है
लक्ष्मण सिंह सैनी राजसमंद राजस्थान।
सत्य है, प्रभु अपने भक्तों के हृदय में अहंकार को समूल नष्ट कर देते हैं।
भगवान श्री राम और महावीर हनुमान जी के कई प्रसंग हम कथाओं में,सत्संग में श्रवण करते है पर उन्हें अगर हम अपनी ज़िंदगी मे अपना ले तो कई समस्याओं का समाधान हो जाये।जीवन में सबसे बड़े दुश्मन है,अहम और वहम।रामचरित मानस में जीवन की हर समस्या का समाधान मिल जाएगा।हमेशा की तरह आपने सरल,सहज भाषा मे इसे समझाया है।जय श्री राम।
लक्ष्मण भाई, राजस्थानी की अद्भुत परंपरा को आपने कितने मनोयोग से निभाया है वह स्तुति योग्य है। हार्दिक आभार
अनिल भाई, आपने तो सदैव लक्ष्मण रूपी स्नेह दिया है, गो मैं राम नहीं बन पाया। हार्दिक आभार। सस्नेह
हार्दिक आभार मित्र
भाई अनिल, हार्दिक आभार। सस्नेह
निःस्वार्थ सेवा ही प्रभु सेवा है। हार्दिक आभार। सस्नेह
जनार्दन भाई, आपकी विद्वत्ता और सरलता के आगे तो मैं अकिंचन हूं। हार्दिक आभार। सादर
हार्दिक आभार मित्र महेश। सस्नेह
आदरणीय, हार्दिक आभार। सादर
हार्दिक आभार मित्र
Thanks .
इतनी अच्छी व्याख्या के लिये साधुवाद
हार्दिक आभार राठीजी, सादर
प्रिय अनिल, निःस्वार्थ सेवा ही सुखकारी होती है। हार्दिक आभार।
प्रिय विजेंद्र, हार्दिक आभार। सस्नेह
हार्दिक आभार मित्र
सरल , सहज और अहंकार रहित भाव से की गई भक्ति से भक्त और भगवान के मध्य आत्मीय संबंध हो जाता है और भगवान भी अपने भक्त के प्रेम के भक्त हो जाते हैं इसे आपने बहुत ही सुन्दर प्रसंग के द्वारा समझाया हैं । अति सुन्दर आलेख।
सरल , सहज और अहंकार रहित भाव से की गई भक्ति से भक्त और भगवान के मध्य आत्मीय संबंध हो जाता है और भगवान भी अपने भक्त के प्रेम के भक्त हो जाते हैं इसे आपने बहुत ही सुन्दर प्रसंग के द्वारा समझाया हैं । अति सुन्दर आलेख।
सादर प्रणाम
मधुलीका शर्मा
Really amazing 👏
Shayad hum yahan par bhool jate hain ki hume kya karna chahiye
So nice of you. Thanks very much. Regards
प्रिय मधु बेन, बहुत सहज और सही कहा। हार्दिक आभार। सस्नेह
आदरणीय गुप्ता जी,
आपकी तो बात ही अनोखी है। मैंने एक गागर उठाई और आपने तो समुद्र ही प्रस्तुत कर दिया। आपके अंतस में अध्यात्म है।
हनुमान से बड़ा निःस्वार्थ सेवा का कोई दूसरा उदाहरण हो ही नहीं सकता। तब ही तो बार बार प्रभु चहई उठावा। और सुग्रीव को तो राम मिलाय राज पद दीन्हा।
हार्दिक आभार सहित सादर
Dr S K AGRAWAL, GWALIOR
Dear Joshiji,
मंत्र मुग्ध हुआ
जय श्रीरामजी, जय हनुमानजी
आदरणीय महोदय,
बहुत ही सुंदर और शिक्षाप्रद लेख ।
अंतर्मन को जागृत करने वाली सीख ।
आसान शब्दों में कहा भी गया है की
दुनिया चले ना श्री राम के बिना ।
राम जी चले ना हनुमान के बिना ।।
जय श्री राम ।।
अति सुंदर । अहंकार और भक्ति पर सरल और सहज कथा।
अत्यधिक प्रेरक प्रसंग सर 🙏
हनुमान जी से श्रेष्ठ कोई और उदाहरण निष्काम सेवा का हो ही नहीं सकता। इसी कारण प्रभु श्रीराम उनके हृदय में विराजमान हैं☺️
निशीथ खरे
अति सुंदर कल्पना से परे प्रभु राम ने भी हनुमान जी को हमेशा हृदय में स्थान दिया येक्टो सर्व विदित है किन्तु प्रभु राम हनुमान जी जा नाम जपते है यह आज मालूम पड़ा
किशोर भाई, हार्दिक आभार एवं धन्यवाद। सादर
राजेश भाई, हार्दिक आभार एवं धन्यवाद। सादर
निशीथ भाई, हार्दिक आभार एवं धन्यवाद। सादर
प्रिय शरद, बिल्कुल सही कहा। सेवक के अभाव में तो राम का काम भी नहीं चलता। हार्दिक आभार। सस्नेह
श्रीकृष्ण भाई, हार्दिक आभार एवं धन्यवाद। सादर
A wonderful anecdotal incident related with Ram,was unknown to me. Thanks for sharing.
धन्यवाद सर
Thanks very very much sir. Kindest regards
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