हवाओं के मिजाज़ बदलते हैं... कभी गर्म तो कभी शीतल या फिर कभी शुष्क तो कभी
वासंती। खाने के दौर भी कभी बेस्वाद तो
कभी चटकार....दोस्तो! कभी हालात ज़िंदा कर देते
हैं और कभी हमें मिटते -सिमटते या सँभालते हुए एक -एक कदम भी फूँक फूँककर रखना पड़ता है। कभी जिन रिश्तों पर जान छिड़कने का दावा करते
हैं और कभी मुद्दत तक उनकी शक्ल और सीरत से भी दूर हो जाते हैं। कभी अपनों की डफ़ली
बजाते और कभी भरी सभा में बाप की पगड़ी चकरी समझकर
घुमा देते हैं।
एक और बात ज़िंदगी की उधेड़बुन में ले जाती है कि सागर का जल भले ही खारा है ; पर बादल तो बनाता ही है।
मैं आप ही सब कुछ हूँ । मैं अपना आपा ही सँवार लेती हूँ; अतः मेरा अब सब के साथ रहना असंभव है; क्योंकि किसी की
गलत बात मेरी बर्दाश्त से बाहर है। मैं एक
ऐसी बुज़ुर्ग महिला से आपको मिलवाना चाहती हूँ, जिसके तीन बेटे और दो बेटियाँ
हैं। बेटियों ने तो शादी के बाद अपनी गृहस्थी सँभाल ली और कुछ समय बाद बेटों ने भी यही किया। अब माँ बच्चों के परिवार मे मिश्री- सी घुल जाए , ये हो न सका । मैं बहुत हैरान होकर सोचती हूं कि माँ सबके साथ क्यों
नहीं रहती। उत्तर एक नई शैली में मिला कि साथ-साथ रहने में सब मेरे अनुकूल नहीं, सब मेरे काम, सब मेरे स्वाद और मेरे कम से कम
खर्चा करने के तरीके में दख्लअंदाज़ी करेंगे। उन्होंने स्पष्ट बताया कि सब मेरे
क्या, क्योंकि जवाब जब नहीं देंगे, तो कैसे साथ रह पाऊँगी। मैं अकेली ही भली हूँ । तब मेरे मन से आवाज़ आई कि क्या साथ- साथ रहना
इसलिए ही मुश्किल होता है। साथ-साथ स्वयं को लकीर से खिसकाना या दूसरों के लिए
स्वयं को न बदलना इतना कठिन हो जाता है कि भले ही घुटना पकड़कर खिसकना पड़े या सोटी लेकर
अपनों के होते हुए भी जीना पड़े, तब भी साथ का हाथ गवारा नहीं होता।। अपनी मैं की जय -जयकार करते बस चलते रहना है। साथियो ! मैं ज़िंदगी के ऐसे दंभ से तब और भी
हैरान हो जाती हूँ, जब यह
महसूस करती कि अकेले रहना आसान है , बजाय इसके कि अपनों के संग बैठ मिलकर दिल के तार मिला
लें। एक ऐसी बेटियों की माँ को भी जानती हूँ
, जो हर बात में यह कहती हैं...हाय!
बेटियों के घर जाना मुझे गवारा नहीं। नहीं- नहीं ये कैसे संभव है कि मेरे प्राण
कहीं बेटी के घर न निकल जाएँ ,तो मैं फिर हैरान हो सोचती हूँ कि यह
भी अकेली।
शायद आप सोच रहे हैं कि बेटियाँ और बेटों में अब तो कोई अंतर नहीं रह
गया। हाँ , इस जुमले को बार-बार केवल दोहराया ही जाता है। ऐसे में बेटियाँ बूढ़े माँ -बाप की सँभाल करती हैं तो उनके माँ
बाप जब तक दामाद बेटी के शुक्राने की रसधारा न बहा लें तब तक उन्हें सकून नहीं इधर
बेटे के माँ बाप तो अपना अधिकार ही समझ लेते हैं कि शुक्राना कैसा ? बेटा है तो पूछेगा ही।।
ऐसे अंतर से एक विचार जैसे अंतर में कुलबुलाता है कि शुक्राने का यह कैसा
सलीका है।
इधर बेटियों के जन्म पर , परवरिश पर, पहनावे पर, उनके जीने के अंदाज़ पर और तो और रिश्ते निभाने न निभाने के दायित्व पर एक नई
छत्र छाया का दिखना भी हैरान करता है।
खान-पान की हदें पार कर लेने से आने वाली ज़िंदगी लाचारी में, धुटन में सांस लेकर कैसे वात्सल्य को पाएगी। हैरान होती हूँ लड़कियाँ पहले कैसे पारिवारिक जीवन में अपने
बड़प्पन को जी लेती थी पर आज हैरान हूँ बराबरी भी करें तो पुरुष के मदांध की और तो और
बराबरी भी करें साथ-साथ सुरा और सुराही की ….ये तो ऐसा लगता हम पुरुष को न बदल पाए
तो हम उन्हीं की लड़खड़ाती राह पर उनके पीछे ही चल पड़े। रात-रात घूमना फिर यह कहना
कि लड़के घूमें तो मैं क्यों नहीं, सुबह देखी न रात दिन रात काम। ऐसी व्यस्त माँ के बच्चे भी सोचते होंगे माँ शायद ऐसी ही होती है। जब सब समान हैं तो न जाने किस अंधी गली में पैर
रख लिया है हमने? आज हैरत की एक और बात भी हमारे ज़हन
पर दस्तक देती है कि मर्यादा के कोई मायने नहीं,परंपराओं
की चिंदियों पर लटक कर बिना शादी या रज़ामंदी के साथ-साथ रहने की तृष्णा को भी जीने
लगी हैं। यदि यह ज़िंदगी का नया पाठ है तो
समानता का यह नया दौर जाने किस जिंदगी को निमंत्रण दे रहा है। सच तो यही है कि
पतंग भी है और धागा भी पर हवा की कोई निश्चित दिशा नहीं।
भगवान ने लड़की को जो कोख और वात्सल्य का ताज पहनाया है वह तभी शोभित होगा जब
उसमें स्नेह, दायित्व और ममत्व के नगीने लगे
हों। यह सब सोच और भी हैरत होती है कि हर
कोई अपनी डफ़ली की धुन में मस्त है।
न अपनी प्रकृति का पता है , न कुदरत का। बस एक होड़ में शामिल
होकर पश्चिमी रोशनी में नहाना अच्छा लगने लगा है। सोचती हूँ वह कला या वह सलीका कहां से जुटाया जाए कि
ज़िंदगी एक पानी के सोते जैसी हो जाए जिसमें अपनी मर्यादाओं की रसधार हो। एकाकी जीवन से ऊपर उठकर संग, सहयोग और स्नेहकी नमी हो।
अपनी ज़िंदगी जीने में अपनों के भी रंग भी चमकते हों। आज हम सभी को समझना होगा कि जीवन केवल द्वीप ही
नहीं , क्योंकि नदी के बिना द्वीप के
अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
जीने के अंदाज़ मेरे अपने हों पर शाश्वत मूल्यों के दयारे में। गिन्नी का सोना चमकता है, मज़बूत है और दाम भी कम पर शुद्धता की कसौटी पर खरा नहीं
क्योंकि चौबीस कैरट नहीं। इसका मतलब यह
हरगिज़ नहीं कि हम लकीर के फ़कीर बन जाएँ नहीं,
नहीं जीए अपने शोक और हसरतों के
साथ पर समाज को ऊपर उठाते हुए। मैं अकसर अपने आपसे पूछती हूँ कि केवल उपदेशों और मूल्यों की माला हाथ से तो
नहीं फेरती मेरे वजूद में , आचरण और तहज़ीब में भी मनकों की
झलक दिखती है? अपने व्यवहार में भी जब उथली और
बनावटी टहनियों को देखती हूं तो जड़ से अलग होने की बात सोच हैरान हो जाती। अतः हर उम्र,हर हाल
और हर रिश्ते में स्वयं को जाँचना और बदलना ज़रूरी है। शायद तब हैरानी या परेशानी सकून में बयां हो
सके। अज्ञेय जी की कुछ पंक्तियाँ लिखकर अपनी
उपस्थिति को दर्ज कराना चाहूँ गी…
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्त्रोतस्विनी बह जाए।
माँ है वह! इसी से हम बने हैं
किंतु हम द्वीप हैं धारा नहीं।
हम बहते नहीं हैं क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
6 comments:
Sadhna, betiyan or maa or koi bhi stri alag alg nahi hain. Ek hi stri ka vyavhaar different roles mein different ho jata hai. And her situation ko deal karney ka bhi dhang vo dhoond leti hai. Bahu hi closely observe kar rahi hain aap aajkal apne aas paas. Vivid, clear n deep insight! Thsnks for sharing .
बहुत सुन्दर।।।।
वास्तविकता से जोड दिया।।।।।समाज में विचार हमेंशा वैसे ही बनें रहेंगे।।।।बढिया प्रयास।।।
Parivartan srishti ka niyam hai.jahan ek oar purani peedhi ko syayam aur parivar ki khushi ke liye apne vicharon aur maansikta mein badlaav zaroori hai, wahin nayi peedhi ko gagan mein udaan ki swatantrata ke saath yeh ahsaas zaroori hai ki zameen se judi jeevan mulyon ki jadon ko kaatna uske hit mein nahin
विविध व्यक्तित्व में जीना एक महिला की खूबी है पर अपने मापदंडों के साथ जीते हुए संतुलन रखने की कला से बड़ी या युवा लड़की का हुनर है। आपने लेख पढ़कर अपने सशक्त विचार दिए। शुक्रिया! बहू -बेटी ,मां सबके लिए ही समयानुसार बदलाव जीने की कला है। एक बार फिर धन्यवाद।
धन्यवाद!
शुक्रिया! धारा और द्वीप का सुखद संबंध बना ही रहे।
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