परीक्षा में पेपर बिगड़ा, तो फाँसी लगा ली, माँ ने किसी बात पर डाट लगाई, तो बेटी ने आत्महत्या कर ली। ये केवल खबरों की सुर्खियाँ नहीं; बल्कि हमारे समाज की व्यवस्था से उपजी ऐसी त्रासदी हैं, जिसके कारण हमारे देश की भावी पीढ़ी की ऊर्जा और ज्ञान कहीं अँधेरे में गुम होते चले जा रहे हैं। इस तरह की घटनाएँ न केवल व्यक्तिगत या पारिवारिक त्रासदी है; बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और सांस्कृतिक व्यवस्था पर एक करारा तमाचा है, जो हम सबको यह सोचने पर मजबूर करता है कि आखिर हम अपनी भावी पीढ़ी को कौन से रास्ते पर ले जाना चाहते हैं? समस्या इतनी भयानक है कि परिवार को, समाज को और शिक्षण- संस्थानों को इस विषय पर गहराई से चिंतन- मनन करना होगा और इस समस्या से मुक्ति पाने का कोई हल निकालना होगा ।
दरअसल आज के बच्चों पर अपेक्षाओं का बोझ इतना भारी है कि वे बचपन का आनंद लेना ही भूल चुके हैं। माता-पिता, स्कूल, कोचिंग, समाज- सभी अपनी आकांक्षाएँ उनके कंधों पर लाद देते हैं । वे अपनी अधूरी इच्छाओं को बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं। प्रत्येक माता पिता की यही चाहत होती है कि उनका बच्चा श्रेष्ठ बने है, अच्छे अंक लाए, प्रतियोगिता में जीते है, इंजीनियर, डॉक्टर या साइंटिस्ट बने; पर हर बच्चा डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बन सकता और न ही उसे बनना चाहिए। हम हैं कि उनसे हर क्षेत्र में प्रथम आने की उम्मीद लगाए रहते हैं। यह भूल जाते हैं कि प्रत्येक बच्चा एक अलग व्यक्तित्व लिये जन्म लेता है, जिसकी अपनी रुचि, इच्छा और पहचान है; लेकिन उनकी इच्छा पर परिवार समाज और व्यवस्था का मानसिक दबाव इतना ज्यादा होता है कि कई बच्चे उसे झेल नहीं पाते। जब ऐसे बच्चे नाकामी को बर्दाश्त नहीं कर पाते, तब अवसाद से घिर जाते हैं और आत्महत्या की ओर अग्रसर होते हैं।
शिक्षा प्रणाली को व्यावहारिक बनाने की बात तो हर कोई करता है; परंतु सच्चाई इसके विपरीत ही है। हमारी शिक्षा प्रणाली आज भी अंकों और परीक्षाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। रटने, अंक लाने और प्रथम आने की दौड़ में विद्यार्थी अपनी असल पहचान खो बैठते हैं। स्कूलों और कोचिंग संस्थानों में हर बच्चा एक नंबर बन गया है- रोल नंबर, रैंक या प्रतिशत। स्कूलों में काउंसलिंग की समुचित व्यवस्था नहीं है। शिक्षक भी अक्सर केवल पाठ्यक्रम पूरा कराने तक सीमित रह जाते हैं। छात्रों के मानसिक उतार-चढ़ाव, डर, चिंता, और तनाव पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है। परीक्षा के दिनों में यह दबाव कई गुना बढ़ जाता है और विफलता की स्थिति में वे अकेला और पराजित महसूस करते हैं। माता-पिता का प्यार भी कई बार सशर्त हो जाता है- अगर अच्छे नंबर लाओगे, तो तुम्हें ये दिलवा देंगे, या फिर नहीं ला पाए तो फिर देख लेना.... दूसरे बच्चे से की गई तुलना भी उन्हें कमजोर करती है -कि देखो पड़ोसी के बच्चे को, तुम्हें उससे ज्यादा नम्बर लाकर दिखाना है... आदि- आदि... जैसे धमकी भरे वाक्य बच्चों के मन में डर और असुरक्षा की भावना पैदा कर देते हैं। वे यह सोचने लगते हैं कि यदि वे असफल हुए, तो उन्हें वह सम्मान और प्यार नहीं मिलेगा। यही भावना उन्हें आत्महत्या की ओर अग्रसर करती है।
समय बहुत तेजी से बदल रहा है - आज का हर बच्चा इंटरनेट और सोशल मीडिया की दुनिया में जी रहा है। वहाँ हर कोई अपनी सबसे अच्छी तस्वीरें, सफलताएँ और उपलब्धियाँ साझा करता है। इस दिखावे की दुनिया में बच्चे जब अपनी स्थिति की तुलना दूसरों से करते हैं, तो उन्हें लगता है कि वे पीछे हैं, असफल हैं। यह तुलना और प्रतिस्पर्धा उन्हें निराशा की खाई में धकेल देती है। यह निराशा कब मानसिक रोग बन जाता है, यह न वह बच्चा जान पाता, न माता पिता और न ही उन्हें शिक्षा देने वाले शिक्षक।
कुल मिलाकर देखा जाए, तो बच्चों द्वारा लगातार की जा रही आत्महत्या एक गंभीर समस्या का रूप ले चुकी है। इस स्थिति से निपटने के लिए वृहत् स्तर पर प्रयास की आवश्यकता है। सबसे पहला कदम परिवार को उठाना होगा- माता पिता बच्चों से खुलकर बात करें, उनकी बात सुनें और उनकी रुचि, इच्छा और उनकी काबिलीयत को जानें और उसी के अनुसार उनकी परवरिश करते हुए उन्हें शिक्षित करें।
दूसरा कदम शैक्षिक स्तर पर उठाया जाना चाहिए- प्रत्येक शिक्षण- संस्थान में मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग को अनिवार्य किया जाना चाहिए, जिसमें शिक्षकों को मानसिक स्वास्थ्य की प्राथमिक ट्रेनिंग भी दी जाए। परीक्षाओं का बोझ कम किया जाए, वैकल्पिक मूल्यांकन प्रणाली अपनाई जाए। जागरूकता अभियानों के माध्यम से मानसिक स्वास्थ्य के प्रति नजरिया बदला जाए। सोशल मीडिया पर सकारात्मक और यथार्थवाद को प्रोत्साहित किया जाए। स्कूलों और कॉलेजों में हेल्प लाइन और इमरजेंसी सपोर्ट सिस्टम तैयार किए जाए। तीसरा कदम सामाजिक स्तर पर उठाना होगा- बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं; जीवन के संघर्षों से जूझने की कला भी सिखानी होगी। योग, ध्यान, खेलकूद और कला जैसी गतिविधियाँ मानसिक संतुलन बनाए रखने में मदद करती है। किताबी कीड़ा बनाकर हम उनका भविष्य नहीं सुधार सकते।
सोचने वाली गंभीर बात है कि हमारे देश में मानसिक स्वास्थ्य को अब भी गंभीरता से नहीं लिया जाता। अवसाद या तनाव को अक्सर आलस्य, नाटक, या कमजोरी मान लिया जाता है। अगर कोई बच्चा उदास दिखे, रोए, या अलग-थलग रहे, तो उसे डाँट दिया जाता है या उसकी उपेक्षा कर दी जाती है। मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की पहुँच अब भी सीमित है, खासकर ग्रामीण और कस्बाई क्षेत्रों में। जब कोई बच्चा आत्महत्या करता है, तब पूरा समाज क्यों, कैसे जैसे अनेक सवाल तो उठाता है; पर जब बच्चा मानसिक रूप से अपने आप से जूझ रहा होता है, तब कोई उसका हाथ थामने आगे नहीं आता।
एक माँ की डाँट या एक पेपर का बिगड़ जाना, अगर जीवन को समाप्त करने का कारण बन जाए, तो यह हमारी, हमारे समाज की, सम्पूर्ण व्यवस्था की सामूहिक विफलता मानी जाएगी। यही समय है कि हम आत्मचिंतन करें, चेतें, और बच्चों के लिए एक ऐसा वातावरण तैयार करें, जहाँ वे असफल होकर भी मुसकुरा सकें, लड़खड़ाकर भी उठ सकें, और सबसे बड़ी बात- सच्चाई को स्वीकार कर जीना सीख सकें। बच्चे हमारे भविष्य हैं और उन्हें केवल सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ाने के लिए नहीं, एक संतुलित, और खुशहाल जीवन जीने के लिए तैयार किया जाना चाहिए। हमें समझना होगा कि हर बच्चा एक फूल की तरह है, जिसे प्यार, समझदारी और धैर्य से सींचने की आवश्यकता है। केवल अंक, रैंक और प्रतिस्पर्धा की तराजू पर बच्चों को तौलना बंद करना होगा।
रत्ना जी हर बार की तरह समाज में व्याप्त एक ज्वलंत समस्या पर आपने लेखनी चलाई है । सच में यह विडंबना है कि आज हमारी प्रतिभाएँ तनाव में आकर मृत्यु को अपने गले लगा रही हैं । आपने सटीक कारण दिए है। आपके सम्पादकीय की सदा यह विशेषता रहती है कि आप समाधान भी साथ देती हैं, जो समाज में जागरूकता का काम करते हैं।समस्या का सुंदर विश्लेषण है। बधाई आपको । सुदर्शन रत्नाकर
ReplyDeleteसदैव ही उत्साहवर्धन करने वाले आपके शब्दों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद और आभार सुदर्शन जी ।
Deleteइस बार भी बहुत ज्वलंत विषय उठाया है आपने, बदलती हुईं दुनिया की गला काट स्पर्धा वाले युग में सबसे ज्यादा बोझ युवा पीढ़ी पर ही आ रहा है, अभिभावक अपने अधूरे स्वप्न बच्चों के माध्यम से पूरा करना चाहते हैं जबकि बच्चों के लिए अपने अलग ही द्वार खुले हैं, परिणाम स्वरूप बच्चे मानसिक दवाब में आकर आत्मघाती कदम उठा लेते हैं। इस समस्या पर गंभीर मंथन की आवश्यकता है. एक सामयिक विषय उठाने हेतु बधाई।
ReplyDeleteआपने बिल्कुल सही कहा शिवजी। यह समस्या गंभीर मंथन की मांग करती है। जो सबके प्रयास से ही संभव है। अन्यथा हमारी युवापीढ़ी इसी प्रकार मानसिक दबाव में जीती रहेगी। प्रतिक्रिया के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद और आभार।
Deleteरत्ना जी, आपने जो लिखा है वह यथार्थ है। किन्तु इसका एक और पहलू भी है। हम ये तो कहते दोहराते रहते हैं कि परीक्षा में अंकों को महत्त्व दिया न जाये, बच्चों को अस्सी नब्बे प्रतिशत अंक लाने की प्रतिस्पर्धा में ना झोंका जाये। अपनी जगह यह सही होते हुए भी सच ये है कि आगे प्रवेश के लिए कट ऑफ में एक एक अंक के लिए स्पर्धा करनी होती है। तब लगता है कि अंकों का ही महत्त्व है,कोई कुछ भी कहे। इसलिए आवश्यकता है कि अंकों के प्रतिशत को प्रवेश का मापदंड न बनाया जाए तभी इस मानसिकता से निजात मिलेगी। तब तक न चाहते हुए भी छात्र और माता पिता अंकों के मकड़जाल में फंसे रहेंगे।
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