उजली धूप
– सुदर्शन रत्नाकर
"माँ"
" हूँ"
" सर्दी लग रही है।" सबसे छोटे ने कहा
रधिया ने लिहाफ़ थोड़ा खींच कर छोटे की तरफ़ कर दिया। वह सो गया।
थोडी देर बाद बड़े ने पुकारा, "माँ"
" क्या है?"
"सर्दी लग रही है।"
उसने मँझले को दूसरी ओर करके बड़े को अपने पास कर लिया। वह भी सो गया। रधिया को भी झपकी आ गई। मँझला ठिठुरने लगा। उसने धीरे से पुकारा, "माँ, मुझे सर्दी लग रही है।"
अब की बारी रधिया की थी। वह बीच में से उठ गई। तीनों पर पूरी तरह से लिहाफ़ डाल कर वह स्वयं किनारे हो गई। अपने पाँव अंदर करके उसने बच्चों के ऊपर रख दिए।थोडी देर ऐसे ही बीत गई । लेकिन आज की सर्दी उसे सोने नहीं दे रही थी। बाहर आसमान में गहरे ,काले बादल छा रहे थे जो ठहर -ठहर कर गरजने लगते। तेज़ हवा के कारण झोंपड़ी के दरवाज़े पर टँगा टाट उड़ कर उससे आ टकराता और उसका सारा शरीर सिंहर उठता। एक ओर तीनों बच्चे एक दूसरे से चिपक कर सो रहे थे और दूसरी ओर गठरी बना, छलनी -से कम्बल में लिपटा हरिया अपनी टाँगों को छाती से सटाने की कोशिश में बार -बार काँप उठता।

रधिया ने पूछा," नींद नहीं आ रही का?"
हरिया भी उठकर बैठ गया।
" आज तो बादल थमने का नाम ही नहीं ले रहे" रधिया ने कहा।
" आज शाम से इतने ही ज़ोर से तो बरस रहा है" हरिया ने जैसे ही कहा, एक ज़ोर का झोंका सारी झोंपड़ी को अंदर से गीला कर गया।
छलनी हुआ कम्बल, कपडे सब गीले हो गए। पानी धीरे-धीरे अंदर आना शुरु हो गया। रधिया ने बच्चों को उठा कर एक कोने में कर दिया।स्वयं भी दुबक कर एक ओर बैठ गई।
" एक लिहाफ़ और हो तो कितना अच्छा हो।सब सुख से सो लें।"- रधिया ने कहा
" सोच तो पिछले बरस से रहा हूँ। पर तीन-चार सौ से कम में बनता नहीं और इतना रुपये तो तुम जानत ही हो कहाँ से इक्ठ्ठे होवें।फिर अब तो सर्दी है ही कितने दिन।बस दस-बीस दिन।निकल ही जावैगी रधिया। पता ही नहीं चालेगा"
कहते हुए हरिया ,रधिया के साथ सट कर बैठ गया।
वर्षा और भी तेज़ हो गई। तेज़ बौछार के छींटों से तो उन्होंने स्वयं को बचा लिया था लेकिन झोंपड़ी से रिस-रिसकर आते पानी से वे अपने को नहीं बचा पा रहे थे। पानी की बूँदें टपक -टपक कर लिहाफ़ को भिगोए जा रही थीं।रधिया ने तीनों बच्चों को उठा दिया। मँझला आँखें मलते लुढ़क रहा था और छोटा रोने लगा।
पूरी झोंपड़ी में कोई भी स्थान नहीं बचा था, जहाँ वे बैठ सकते ।सर्दी से उनके दाँत बजने लगे।
बड़े ने कहा," माँ आग ही जला दे न।" पर लकड़ी कहाँ थी। वह भी सब बाहर पड़ीं गीली हो रही थीं।
रधिया ने दियासलाई जलाई। डिब्बे में दो-चार काग़ज़ पड़े थे वह भी जला दिए। उससे गर्मी क्या मिलती। हाँ ,सारी झोंपड़ी रोशनी से अवश्य भर गई।
बिजली चमक रही थी। पानी अब भी बरस रहा था लेकिन थोड़ा कम।लगता था थोडी देर में सब शांत हो जाएगा। नीचे टाट और ऊपर अधगीला लिहाफ़ डाल कर रधिया ने तीनों बच्चों को फिर से सुला दिया। स्वयं उनीदीं आँखों से हरिया के साथ सटकर बैठ गई। एकाध बार झपकी भी आ गई और जब आँख खुली तो वर्षा थम चुकी थी। पूरा आसमान साफ़ था। तेज़ ठंडी हवा के साथ उजली धूप भी थी। रात का सारा कालापन उसने निगल लिया था।
सारा बदन अकड़ गया था उसका। लकड़ी हुई टाँगो को सीधा कर वह बैठ गई। हरिया और बच्चे भी उठ गए। सब कुछ पूर्ववत् होने लगा।दोनों को काम पर जाने की जल्दी थी। बच्चे उजली धूप में रात की सर्दी को भूल गए। इस उजली धूप में उनका भविष्य छुपा था, पता नहीं गहरा काला या धूप जैसा उजला।
सम्पर्कः ई-29, नेहरू ग्राँऊड , फ़रीदाबाद 121001
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