फसल, अन्न और पशु के साथ खुशहाली का पर्व
- संजीव तिवारी
भारतीय सनातन परम्परा के अनुसार
कार्तिक महीने में दीपों के उत्सव का त्योहार दीपावली संपूर्ण भारत में मनाई जाती
है। पत्र—पत्रिकाएँ, शुभकामना
संदेश दीप और लक्ष्मी के तत्सम तद्भव शब्दों के लच्छेदार वाक्यांशों से भर जाते
है। आखिर ऐसा हो भी क्यों ना, क्योंकि यह हमारा महत्त्वपूर्ण त्यौहार जो
है। अलग अलग स्थानों और आख्यानों में इसे
मनाने के पीछे कारण जो भी रहे हों किन्तु सभी का केन्द्र धन, आनन्द और
दीप से है। परम्पराओं में जन के लिए धन का मूल अर्थ धान्य से है जो हमारे देश का
मूल है। लम्बे इंतजार और कठिन श्रम के उपरांत धान्य जब हमारे घर में आये तो उत्साह
तो निश्चित है, उसके
स्वागत में दीप जलाना हमारी परम्परा है। इस त्योहार की परिकल्पना इसी से आगे बढ़ती
है, कल्पना
कीजिये ऐसे समय की जब रोशनी का माध्यम सिर्फ दीप रहा होगा। अमावस की रात को अनगिनत
दीप जब जल उठे होंगें। जन स्वाभाविक रूप से नाच उठा होगा।
श्रम के धान्य स्वरूप से परे दीपों
के इस पर्व का छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में सीधा संबंध कृष्ण से भी है जो असल
मायनों में धुर विद्रोही रहे हैं, वर्तमान परिवेश में वामपंथी। चाहे उनका जन
शिक्षण का उद्देश्य इंद्र की पराधीनता के विरूद्ध हो या कंस के अराजकता के
विरूद्ध। जननायक कृष्ण के वंशज यादवों के लिए वैचारिक जीत के उत्साह का यह पर्व
छत्तीसगढ़ में इनके दोहों, गुडदुम बाजों और नृत्य से आरम्भ होता है।
कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था होने के
कारण पशुओं के महत्त्व को नकारा नहीं जा सकता और इन पशुओं के पालक होने के कारण
यादवों के सामाजिक महत्व को भी नकारा नहीं जा सकता। इन्हीं के आगाज से आरंभ देवारी
सुरहुत्ती यानी घनतेरस से शुरू होकर जेठउनी यानी देव उठनी तक चलने वाला लम्बा
त्योहार है। यही वो समय है जब किसानों की फसलें खलिहान या घर पर होती है, किसानों
के श्रम का फल उसे मिलता है और धन के रूप में धान्य उसके घर में होता है। इसी
धान्य लक्ष्मी के स्वागत में हम दीप जलाते हैं एवं खुशियाँ मनाते हैं। दीप और
धान्य के अंतरसंबंधों को आप इस बात से समझ सकते हैं कि दीपावली के पहले या बाद में
भी जब धान को मींज कर उसे साफ कर खलिहान में एक जगह इक_ा किया
जाता है जिसे रास कहा जाता है उसके ऊपर शंकु पर दीपक रखा जाता है फिर पूजा के बाद
धान की नपाई होती है। यानी दीप का स्थान सर्वोच्च है अन्न से उपर क्योंकि दीप
प्रतीक है, राह
दिखाता है।
प्राकृतिक कारणों से स्वाभाविक रूप
से बरसात में घर के दीवार खराब हो जाते हैं उन्हें साफ करके उसमें नया रंग रोंगन
की आवश्यकता पड़ती है। बरसाती प्रभाव व आद्रता एवं संक्रामक बीमारियों से लड़ते
मनुष्य और कृषि कार्य में लगे पशुओं के लिए भी यह मौसम उनमें नई उर्जा का संचार
करने एवं रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करने में सहायक होता है। पशुओं के कोठे
लीपे पोते जाते हैं, उन्हें सोहई बांधा जाता है, उनका श्रृंगार किया जाता है। कोठा सहित पूरे
डीह डोंगर यानी गाँव के हर जगह दीपक जलाया जाता है।
छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों के साथ
ही बस्तर के आदिवासी के लिए यह 'दियारी' खेतों में खड़ी फसल के पूजन का त्यौहार हैं
जो कार्तिक माह में ही तीन दिन का होता है। परम्परानुसार पहले दिन खेतों में खड़ी
फसल की बालियों का नारायण राजा के साथ विवाह तथा चरवाहे पशुपालकों के यहाँ जाकर
गौशाला में बैल और गायों के गले में पवित्र धागा बांधकर भेंट प्राप्त किया जाता
हैं, पशुपालकों
के द्वारा चरवाहों को धान भेंट में दिया जाता है। दूसरे दिन बैलों को लाल टीका
लगाकर खिचड़ी खिलाई जाती है, तीसरे दिन गोठान पूजा जात्रा किया है जिसमें
बैलों को सजा कर सींगों पर लाल कपड़ा बांध कर दौड़ाया जाता है। बाद में घर की
महिलाएँ चरवाहों को सूपा भर अनाज दान में देती है। फलस, अन्न और
पशु इन तीनों के संयोंग से प्राप्त ऐश्वर्य खुशहाली का नाम ही दियारी या देवारी
है। इसी दियारी में बनाये जाने वाले धान के बालियों से निर्मित झालर के संबंध में
लाला जगदलपुरी की एक हल्बी गीत 'उडी गला चेडे' प्रासंगिक है 'राजे दिना/ धन धन हयं/ उछी उडी करी आयते
रला/ बसी-बसी करी खयते रला/ सेस्ता धान के पायते रला / केडे सुन्दीर / चटेया चेडे/
सरी गला धान/ भारी गला चेडे/ एबर चेडे केबे ना आसे/ ना टाक सेला/ कमता करबिस/ एबर
तुय तो 'खड' होयलिस/
एबर तोके फींगीं देयबाय/ गाय खयसी/ चेडे गला/ आउरी गोटे 'सेला' उगर। '

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