इन्द्रियों के
नियामक का
साधन...
- रंजना सिंह
व्रत उपवासों का आध्यात्मिक ही नहीं कल्याणकारी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पहलू भी है। समग्र रूप में व्रत अपने आप से किया हुआ एक संकल्प है, जिसकी पूर्णता आत्मबल बढ़ाने में परम सहायक होता है और उपवास सांकेतिक रूप में इन्द्रियों के नियामक का साधन है। शरीर की सबसे मौलिक आवश्यकता भूख पर नियंत्रण पाने का प्रयास, हठ साधना द्वारा मौलिक आवश्यकता पर विजय प्राप्त कर आत्मबल की संपुष्टि है। मनुष्य इन्द्रियों को जितना अधिक वश में रखने में क्षमतावान होगा उसका आत्मबल, क्षमता उतनी ही उन्नत होगी और विवेक जागृत होगा। सकारात्मक शक्ति ही मनुष्य को सकारात्मक कार्य के लिए भी उत्प्रेरित करती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सि$र्फ भोजन भर त्याग देना व्रत या उपवास कहलायेगा और यह उतना ही सिद्धिदायी होगा। उपवास वस्तुत: मन, कर्म, वचन तथा व्यवहार में शुचिता लाने का व्रत/ संकल्प लेते हुए अटलता से उस पर कायम रहते हुए सत्य पथ पर चलने के प्रयास का नाम है। भोजन भर छोड़ देना और अवधि समाप्ति तक मन ध्यान भोजन पर केंद्रित रखते हुए व्यंजनों के ध्यान में झुंझलाहट के साथ समय निकलना, व्रत उपवास नही है। ईश्वर ने मानव शरीर को जिन पचेंद्रियों से विभूषित किया है, जिनकी सहायता से हम सुख प्राप्त करते हैं, सुख प्रदान करने वाली ये इन्द्रियां यदि मनुष्य के विवेक की सीमा में न रहें तो बहुधा अत्यधिक सुख की अभिलाषा व्यक्ति को अनुचित कार्य करने को उकसाती ही नहीं कभी कभी विवश भी कर देती हैं और मनुष्य का अधोपतन हो जाता है, इसलिए इन व्रत उपवासों का प्रावधान सभी धर्मो में एक तरह से इन्द्रियों के नियमन के निमित्त किया गया है।
किसी भी देवी देवता चाहे उसे अल्लाह
कहें, जीसस
क्राइष्ट या राम कृष्ण, शंकर, दुर्गा, हनुमान या इसी तरह के अन्य देवी देवता
(हिंदू धर्म में देवी देवताओं की जो संख्या तैंतीस करोड़ मानी गई है, वह भी
अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे श्रद्धा
का पात्र नही माना गया है, चाहे वह चल हो या अचल और उसके प्रतिनिधि
विशेष के रूप में उसे देव या देवी के रूप में पूजनीय माना गया है ) सबसे पहले तो
धार्मिक दृष्टि से यदि देखें तो, जिस किसी देवी- देवता के नाम पर यह व्रत
अनुष्ठान किया जाता है, मनुष्य जब इसका परायण करता है तो सहज ही उस से जुड़ जाता है
और ध्यान में जब इष्ट हों, उसके प्रति प्रेम श्रद्धा और निष्ठा हो, तो सहज ही
उसके स्मृति से जुड़कर मन उस इष्ट विशेष के गुणों से
अभिभूत हो उसका अनुकरण करने
को प्रेरित होता है। ईश्वर जो सकारात्मकता का पुंज है, सद्गुणों
का भण्डार है, व्यक्ति
जितना उसकी भक्ति में डूबता है उतना अधिक सद्गुणों से विभूषित होता है। यूँ भी तो
हम देखते हैं न कि जिस किसी मनुष्य से मानसिक रूप से हम जितने गहरे जुड़े होते हैं
अनजाने ही उस व्यक्तिविशेष के कई गुण हममे ऐसे आ मिलते हैं कि लंबे समय तक के
प्रगाढ़ मानसिक सम्बन्ध दो व्यक्तियों के बीच सोच विचार और आचरण में आश्चर्यजनक
साम्यता ला व्यक्तित्व को एक दूसरे का प्रतिबिम्ब सा बना देता है। यही कारण है कि
अपने मन में ईश्वर की प्रीति धारण कर मन कर्म वचन से सदाचार पर चलने वाले मनुष्य
भी देवतुल्य पूज्य हो जाते हैं। इसका एक पहलू यह भी है कि चूँकि प्रत्येक व्यक्ति
में इतनी मात्रा में करनीय अकरणीय में विभेद कर अनुशाषित जीवन जीने की विवेक
क्षमता तो होती नही है, सो यदि कर्मकांडों से जोड़कर उसे ईश्वर के प्रति आस्था रखने
को विवश कर दिया जाता है तो व्रत विशेष के कालखंड में अनिष्ट के भय से ही सही
जुड़कर कुछ पल को उस सर्वशक्तिमान से जुड़ता तो है और उस उपास्य विशेष से जुडऩा और
उसके सद्गुणों की स्मृति भी व्यक्ति को सन्मार्ग के अनुसरण को प्रेरित करती है।
हम कहते हैं, विश्व ने, विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है और मनुष्य
का जीवन स्तर चमत्कारी रूप से उन्नत हुआ है। तथ्य को नाकारा नही जा सकता, परन्तु
विश्व स्तर पर तरक्की लाख उचाईयाँ पा चुका हो अन्नाभाव में मरने वालों की संख्या
में कमी करने की दिशा में बहुत कम कर पाया है। आज भी जनसँख्या वृद्धि का जो दर है, अन्न
उत्पादन के दर की तुलना में वह कई गुना अधिक है,जो दिनोदिन मांग और पूर्ती के संतुलन को
ध्वस्त करती जा रही है। पेट्रोल डीजल की बढ़ती दरों को महंगाई का प्रमुख कारण
मानने वाले बहुत जल्दी ही यह मानना शुरू करेंगे कि जनसँख्या वृद्धि के सामने अन्न
की कमी का दिनोदिन बढ़ता असंतुलन, इस संकट का बहुत बड़ा कारण है। भारत तथा इस
जैसे बहुत से देशों में आज खेती करना निम्न दर्जे का काम माना जाता है और न तो पढ़े
लिखे लोग कृषि कार्य में दिलचस्पी रखते हैं और न ही कृषि कार्य को बेहतर रोजगार का
विकल्प मानते हैं। कृषि कार्य में जो लोग संलग्न हैं अधिकाँश संसाधनहीन ही हैं तथा
कृषिकार्य उनका शौक नही मजबूरी है। बहुत तेज गति से पारंपरिक कृषकों का अन्य
वैकल्पिक रोजगार क्षेत्र में पलायन हो रहा है। आज यह स्थिति तो आ ही गई न, कि विश्व
भर में पेयजल समस्या बहुत बड़े रूप में उपस्थित हो गया है और -पानी बचाओ- मुहिम
आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है। हाल की ही
बात है न दस रुपये किलो दूध पीने वाला समाज शुद्ध पेय जल के लिए न्यूनतम दस रुपये
लीटर पानी खरीद कर पी रहा है। कारखाने
उद्योग तो खूब लग रहे हैं। रोजगार के साधनों में निरंतर वृद्धि हो रही है, परन्तु
खाने के लिए तो अन्न ही चाहिए। बहुत कुछ करना सर्वसाधारण के वश में नहीं पर इतना
तो किया ही जा सकता है कि हम अपनी खुराक को उतनी ही रखें जितने की आवश्यकता इस
शरीर को सुचारू रूप से स्वस्थ रखने के लिए है। धर्म के लिए न सही, सम्पूर्ण
मानव समुदाय के हित के लिए और साथ ही अपने शरीर के लिए भी हितकारी नियमित निराहार
का संकल्प लें तो किसी न किसी रूप में अन्न संकट से जूझने की दिशा में अपना योगदान
दे सकते हैं। लोहे और कंक्रीट के फलते फैलते जंगल और सिकुड़ते कृषि भूमि के बीच
मनुष्य मात्र का यह नैतिक कर्तव्य बनता है।
नियामक का
साधन...
- रंजना सिंह
किसी भी धर्म
में, परम्परा
में निहित कर्मकांडों में कालक्रमानुसार भले बहुत से ऐसे नियम विधान जुड़ गए जो
पूर्णरूपेण उसी विधि के साथ ग्राह्य अथवा अनुकरनीय न हों, पर उसकी
पड़ताल उसके सूक्ष्म और व्यापक उद्देश्यों की धरातल पर करेंगे तो पाएंगे कि उसमे
कितना गहन अर्थ छुपा पड़ा है। धार्मिक आस्था को दृढ़ करने के साथ साथ आचरण को
व्यवस्थित करते हुए मानव संबंधों को प्रगाढ़ कर सभ्यता संस्कृति के पोषण संरक्षण
की कैसी अद्भुद क्षमता इसमे निहित है। लंबे समय से चले आ रहे इन कर्मकांडों को
वाहियात और बकवास कह नकारे जाने के पूर्व इनके पीछे छिपे तथ्यों और उद्देश्यों की
पड़ताल अत्यन्त आवश्यक है।
व्रत उपवासों का आध्यात्मिक ही नहीं कल्याणकारी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पहलू भी है। समग्र रूप में व्रत अपने आप से किया हुआ एक संकल्प है, जिसकी पूर्णता आत्मबल बढ़ाने में परम सहायक होता है और उपवास सांकेतिक रूप में इन्द्रियों के नियामक का साधन है। शरीर की सबसे मौलिक आवश्यकता भूख पर नियंत्रण पाने का प्रयास, हठ साधना द्वारा मौलिक आवश्यकता पर विजय प्राप्त कर आत्मबल की संपुष्टि है। मनुष्य इन्द्रियों को जितना अधिक वश में रखने में क्षमतावान होगा उसका आत्मबल, क्षमता उतनी ही उन्नत होगी और विवेक जागृत होगा। सकारात्मक शक्ति ही मनुष्य को सकारात्मक कार्य के लिए भी उत्प्रेरित करती है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि सि$र्फ भोजन भर त्याग देना व्रत या उपवास कहलायेगा और यह उतना ही सिद्धिदायी होगा। उपवास वस्तुत: मन, कर्म, वचन तथा व्यवहार में शुचिता लाने का व्रत/ संकल्प लेते हुए अटलता से उस पर कायम रहते हुए सत्य पथ पर चलने के प्रयास का नाम है। भोजन भर छोड़ देना और अवधि समाप्ति तक मन ध्यान भोजन पर केंद्रित रखते हुए व्यंजनों के ध्यान में झुंझलाहट के साथ समय निकलना, व्रत उपवास नही है। ईश्वर ने मानव शरीर को जिन पचेंद्रियों से विभूषित किया है, जिनकी सहायता से हम सुख प्राप्त करते हैं, सुख प्रदान करने वाली ये इन्द्रियां यदि मनुष्य के विवेक की सीमा में न रहें तो बहुधा अत्यधिक सुख की अभिलाषा व्यक्ति को अनुचित कार्य करने को उकसाती ही नहीं कभी कभी विवश भी कर देती हैं और मनुष्य का अधोपतन हो जाता है, इसलिए इन व्रत उपवासों का प्रावधान सभी धर्मो में एक तरह से इन्द्रियों के नियमन के निमित्त किया गया है।
किसी भी देवी देवता चाहे उसे अल्लाह
कहें, जीसस
क्राइष्ट या राम कृष्ण, शंकर, दुर्गा, हनुमान या इसी तरह के अन्य देवी देवता
(हिंदू धर्म में देवी देवताओं की जो संख्या तैंतीस करोड़ मानी गई है, वह भी
अपने आप में अद्भुत इसलिए है कि इस ब्रह्माण्ड में ऐसा कुछ भी नहीं जिसे श्रद्धा
का पात्र नही माना गया है, चाहे वह चल हो या अचल और उसके प्रतिनिधि
विशेष के रूप में उसे देव या देवी के रूप में पूजनीय माना गया है ) सबसे पहले तो
धार्मिक दृष्टि से यदि देखें तो, जिस किसी देवी- देवता के नाम पर यह व्रत
अनुष्ठान किया जाता है, मनुष्य जब इसका परायण करता है तो सहज ही उस से जुड़ जाता है
और ध्यान में जब इष्ट हों, उसके प्रति प्रेम श्रद्धा और निष्ठा हो, तो सहज ही
उसके स्मृति से जुड़कर मन उस इष्ट विशेष के गुणों से
मानव समुदाय को परस्पर सुदृढ़ बंधन में आबद्ध रखने में
धर्म सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और धर्म से मनुष्य को जोड़े रखने में
धार्मिक अनुष्ठान और कर्मकांड पोषक की भूमिका निभाते हैं। क्योंकि समुदाय विशेष जब
एक साथ किसी कालखंड विशेष में किसी अनुष्ठान को संपन्न करते हैं तो स्वाभाविक हो
उनमे भाईचारे की भावना का संचार होता है। उदहारण के लिए हम देख सकते हैं, रमजान के
महीने में एक साथ विश्व के सभी मुस्लिम धर्मानुयायी महीने भर का व्रत रख सूर्योदय
से सूर्यास्त तक उपवास रखते हैं। निश्चित रूप से यह पूरे समुदाय को एकजुटता के
सूत्र में आबद्ध करने में प्रभावकारी भूमिका निभाता है।
शारीरिक रूप से देखें तो भी उपवास का शरीर पर बड़ा ही
महत्त्वपूर्ण सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। प्रतिदिन जो हम आहार ग्रहण करते हैं लाख
चाहकर भी वे पूर्णरूपेण पोषक संतुलित और ऋतु अनुकूल नही होते। असंतुलित आहार शरीर
में रक्त, वायु
या पित्त दोष उत्पन्न करते हैं तथा लगातार भोजन के पाचन क्रिया में संलग्न तंत्र
शिथिलता को प्राप्त होने लगते हैं। ऐसे में सप्ताह, पखवाड़े या मास में एक बार नियमित रूप से
यदि फलाहार, निराहार, एक संझा
या बिना नमक के भोजन किया जाए तो पाचन तंत्र बहुत हद तक व्यवस्थित हो जाता है। किंतु
उपर्युक्त किसी भी उपवास में जल के पर्याप्त सेवन से शरीर में संचित दूषित अवयव (
टाक्सिन) शरीर से निकल जाता है। कुछ लोग भोजन को दैनिक आवश्यकता मानते हैं और
उपवास करना अपने शरीर को कष्ट पहुँचाना मानते हैं। लेकिन यह नि:संदेह एक भ्रम से
अधिक कुछ भी नहीं। उपवास शरीर के हानिकारक अवयवों से शुद्धिकरण का सर्वथा कारगर
उपाय है।
हम कहते हैं, विश्व ने, विज्ञान ने बहुत तरक्की कर ली है और मनुष्य
का जीवन स्तर चमत्कारी रूप से उन्नत हुआ है। तथ्य को नाकारा नही जा सकता, परन्तु
विश्व स्तर पर तरक्की लाख उचाईयाँ पा चुका हो अन्नाभाव में मरने वालों की संख्या
में कमी करने की दिशा में बहुत कम कर पाया है। आज भी जनसँख्या वृद्धि का जो दर है, अन्न
उत्पादन के दर की तुलना में वह कई गुना अधिक है,जो दिनोदिन मांग और पूर्ती के संतुलन को
ध्वस्त करती जा रही है। पेट्रोल डीजल की बढ़ती दरों को महंगाई का प्रमुख कारण
मानने वाले बहुत जल्दी ही यह मानना शुरू करेंगे कि जनसँख्या वृद्धि के सामने अन्न
की कमी का दिनोदिन बढ़ता असंतुलन, इस संकट का बहुत बड़ा कारण है। भारत तथा इस
जैसे बहुत से देशों में आज खेती करना निम्न दर्जे का काम माना जाता है और न तो पढ़े
लिखे लोग कृषि कार्य में दिलचस्पी रखते हैं और न ही कृषि कार्य को बेहतर रोजगार का
विकल्प मानते हैं। कृषि कार्य में जो लोग संलग्न हैं अधिकाँश संसाधनहीन ही हैं तथा
कृषिकार्य उनका शौक नही मजबूरी है। बहुत तेज गति से पारंपरिक कृषकों का अन्य
वैकल्पिक रोजगार क्षेत्र में पलायन हो रहा है। आज यह स्थिति तो आ ही गई न, कि विश्व
भर में पेयजल समस्या बहुत बड़े रूप में उपस्थित हो गया है और -पानी बचाओ- मुहिम
आन्दोलन का रूप लेता जा रहा है। हाल की ही
बात है न दस रुपये किलो दूध पीने वाला समाज शुद्ध पेय जल के लिए न्यूनतम दस रुपये
लीटर पानी खरीद कर पी रहा है। कारखाने
उद्योग तो खूब लग रहे हैं। रोजगार के साधनों में निरंतर वृद्धि हो रही है, परन्तु
खाने के लिए तो अन्न ही चाहिए। बहुत कुछ करना सर्वसाधारण के वश में नहीं पर इतना
तो किया ही जा सकता है कि हम अपनी खुराक को उतनी ही रखें जितने की आवश्यकता इस
शरीर को सुचारू रूप से स्वस्थ रखने के लिए है। धर्म के लिए न सही, सम्पूर्ण
मानव समुदाय के हित के लिए और साथ ही अपने शरीर के लिए भी हितकारी नियमित निराहार
का संकल्प लें तो किसी न किसी रूप में अन्न संकट से जूझने की दिशा में अपना योगदान
दे सकते हैं। लोहे और कंक्रीट के फलते फैलते जंगल और सिकुड़ते कृषि भूमि के बीच
मनुष्य मात्र का यह नैतिक कर्तव्य बनता है।
धर्म में निहित कर्मकांड और व्रत उपवास
के प्रावधान का यह महत सर्वमंगलकारी सामाजिक पहलू है, जिसकी
उपयोगिता किसी भी काल में सन्दर्भहीन नही होगा।धर्म व्यक्ति के ह्रदय के सबसे निकट होता है और धर्म के
नाम पर आचरण की शुचिता का कार्य सर्वाधिक प्रभावकारी ढंग से कराया जा सकता है।
धर्म के साथ इसलिए अनिष्ट के भय को जोड़ा गया कि यदि इसे स्वेच्छा पर नैतिक
दायित्व रूप में छोड़ दिया जाता तो बहुत कम लोग ही इसका अनुसरण करते। धर्म से मजबूती से जोड़े रखने के महत उद्देश्य
से ही कर्मकांडों की व्यवस्था की गई।
कर्मकांड एक ओर जहाँ उत्सव रूप में व्यक्ति के मनोरंजन का सुगम साधन हैं
वहीं समाज को एकजुट रखने में सहायक भी। धार्मिक सामाजिक और शारीरिक रूप से मानव
समुदाय के लाभ हेतु ही मनीषियों ने व्रत- उपवास का प्रावधान कर रखा है... अत: इन
प्रावधानों का अनुसरण कर हम नि:संदेह सुखी होंगे...

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