बाँस गीत इस सुरीली तान को सहेजना होगा
- राजेश अग्रवाल
- राजेश अग्रवाल
पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था। दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी ठहर कर कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था।
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निर्धनता के थपेड़ों से सूख चुके 70 साल के छेडूराम को आज की शाम भी चौकीदारी पर जाने के लिए देर हो रही थी। अपने पोपले मुंह से बार-बार उखड़ती सांसों पर जोर देते हुए उसने तकरीबन एक घंटे तक सुरीली तान छेड़ी फिर पूरे आदरभाव के साथ बांस को भितिया पर लटका दिया। अब ये कई-कई दिनों तक इसी तरह टंगा रहेगा।
छेडूराम को याद नहीं कि पिछली बार बांस उसने कब बजाया। छेडूराम कहते हैं- अब कौन पूछता है इसे... मैं क्या उम्मीद करूं कि मेरे नाती-पोते इसे साध पाएंगे। पूरी रात खत्म नहीं होगी, अगर मैं एक राजा महरी का ही किस्सा लेकर बैठ जाऊं। अब तो वह कोलाहल है कि मेरे बांस बजाने पर पड़ोसी को भी पता नहीं चलता, पहले गांवों की रात इतनी शांत होती थी कि चार कोस दूर तक यह लोगों को मन में झुनझुनी भर देता था। दूर किसी पगडंडी में चलने वाला राहगीर भी कानों पर बल देकर बांस सुनने के लिए ठहर जाता था। एक वह भी समय था जब छठी, बरही, गौना सब में बांस गीत गाने-बजाने वालों को बुलाया जाता था। राऊतों का तो कोई शुभ प्रसंग बांस गीत की बैठकी के बगैर अधूरा ही होता था।
अब इंस्टेन्ट का जमाना हैं। टेस्ट मैच की जगह ट्वेन्टी-20 पसंद किये जाते हैं। बांस गीत की मिठास को पूरी रात पहर-पहर भर धीरज के साथ सुनकर ही महसूस किया जा सकता है। इसके सुर बहुत धीमे-धीमे रगों में उतरते हैं, आरोह- अवरोह, पंचम, द्रुत सब इसमें मिलेंगे। जब स्वर तेज हो जाते हैं तो मन-मष्तिष्क का कोना-कोना झनकने लगता है। रात में जब भोजन-पानी के बाद बांसगीत की सभा चबूतरे पर बैठती है तो बांस कहार, गीत कहार, ठेही देने वाले रागी और हुंकारू भरने वाले के बीच सुरों की संगत बिठाई जाती है। इसके बाद मां शारदा की वंदना होती है फिर शुरू होता है किसी एक कथानक का बखान। यह सरवन की महिमा हो सकती है, गोवर्धन पूजा, कन्हाई, राजा जंगी ठेठवार या लेढ़वा राऊत का किस्सा हो सकता है। गांव के बाल-बच्चों से लेकर बड़े बूढ़े बारदाना, चारपाई, पैरा, चटाई लाकर बैठ जाते हैं और रात के आखिरी पहर तक रमे रहते हैं।
अहो बन मं गरजथे बनस्पतिया जइसे,
डिलवा मं गरजथे नाग हो
मड़वा में गरजथे मोर सातों सुवासिन गंगा,
सभा में गरजथे बांस हो।
राऊत जब जंगल की ओर गायों को लेकर गए होंगे तब बांस की झुरमुट से उन्हें हवाओं के टकराने से निकलते संगीत का आभास हुआ होगा। इसे कालान्तर में उन्होंने वाद्य यंत्र के रूप में परिष्कृत कर लिया। इसी का उन्नत स्वरूप बांसुरी के रूप में सामने आया। बांसुरी अपने आकार और वादन में बांस के अनुपात में ज्यादा सुविधाजनक होने के कारण सभी समुदायों में लोकप्रिय हो गया। बांस, जंगल-झाड़ी और पशुओं के साथ जन्म से मृत्यु तक का नाता रखने वाले यादवों ने बांस गीत को पोषित पल्लवित किया।

राजनांदगांव के विक्रम यादव ने बांस की धुनों से पूरे नाटक में जादुई माहौल पैदा किया है। विक्रम ने बनारस के घाट पर हुए सन् 2007 के संगीत नाटक अकादमी के वार्षिक समारोह में भी प्रस्तुति दी। सार्क फेस्टिवल 2007 के विज्ञापनों और निमंत्रण पत्रों में बांस गीत गायक खैरागढ़ के नकुल यादव की तस्वीर को ही उभारा गया था।
आकाशवाणी रायपुर में बांस गीतों के लिए हर सोमवार का एक समय निर्धारित था। यदा-कदा कला महोत्सवों में भी बांस गीत के कलाकारों को शामिल किया जाता है।
छत्तीसगढ़ के हर उस गांव में जहां यादव हैं, बांस गीत जरूर होता रहा है। यह बस्तर तक भी फैला हुआ है। बस्तर कोंडागांव के खेड़ी खेपड़ा गांव में यादवों का एक समूह बांस गीत को बड़ी रूचि से बजाते हैं।
बांसुरी से लम्बी किन्तु बांस से पतली और छोटी, मुरली भी बजाने की परम्परा यादवों में रही है। मुरली बजाने वाला एक परिवार बिलासपुर के समीप सीपत में मिल जाएगा। यादव दो मुंह वाला अलगोजना और नगडेवना भी बजाते रहे हैं, जो काफी कुछ सपेरों के बीन से मिलता- जुलता वाद्य यंत्र है, यह खोज-बीन का मसला है कि कहां कहां बांस या उससे मिलते जुलते वाद्य यंत्र अब बजाये जा रहे हैं।
बांस गीतों का सिमटते जाने के कुछ कारणों को समझा जा सकता है। बांस गीत में वाद्य बांस ही प्रमुख है। गीत-संगीत की अन्य लोक विधाओं की तरह इसके साजों में बदलाव नहीं किया जा सकता। यादवों के अलावा भी कुछ अन्य लोगों ने बांस गीत सीखा पर इसके अधिकांश कथानक यादवों के शौर्य पर ही आधारित हैं। सभी कथा-प्रसंग लम्बे हैं, जिसके श्रोता अब कम मिलते हैं। पंडवानी, भरथरी में कथा प्रसंगों के एक अंश की प्रस्तुति कर उसे छोटा किया जा सकता है, पर बांस गीत में इसके लिए गुंजाइश कम ही है। हिन्दी फिल्मों की फूहड़ नकल से साथ फिल्मांकन कर छत्तीसगढ़ी लोक गीतों का सर्वनाश करने वालों को बांस गीतों में प्रयोग करने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। अब तेजी से जंगल खत्म हो रहे हैं, गांवों में बड़ी मुश्किल से चराई के लिए दैहान मिल पाता है। ऐसे में कच्चे बांस के जंगल कहां मिलेंगे। वे पेड़ नहीं मिलते, गाय चराते हुए जिस पर टिककर बांस या बांसुरी बजाई जा सके। यादवों के एक बड़े वर्ग से उनका गाय चराने का परम्परागत व्यवसाय छिन चुका है। छैड़ूराम, नकुल या विक्रम में से किसी का भी परिवार अब गाय नहीं चराता है। बांस गीत से इनका लगाव अपनी परम्परा और संगीत बचाये रखने की ललक की वजह से ही है।

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