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Feb 1, 2022

प्रकाश प्रदूषण - ज़रूरी है अँधेरा भी जीवन के लिए

- निर्देश निधि

 मनुष्य ने प्रकाश के लिए कभी चाँद और सूरज की तरफ़ देखा होगा। कभी अँधेरी रात्रियों में वह जुगनू के नगण्य से प्रकाश के चमकने पर कौतूहल से भर उठा होगा। मनुष्य का मस्तिष्क दूसरे जानवरों की तरह नहीं था, इसीलिए वह प्रकृति प्रदत्त रास्तों से कुछ हटकर चलने को आतुर, व्याकुल हो उठा। धीरे-धीरे ही सही उसने अपने चार पैरों में से दो को हाथ बना लिया और दो को पैर ही रहने दिया और सब जीवों से अलग, वह अपना विकास करता गया। विकास के इसी क्रम में उसने संसार की एक महत्त्वपूर्ण खोज कर डाली और वह थी ‘आग’ । हालाँकि उसकी यह खोज सोची-समझी नहीं थी, आग तो उसे अचानक ही मिली थी। जल्दी ही वह जान गया होगा, आग के दूसरे कई प्रयोगों से साथ उससे प्रकाश का होना भी। परंतु वह यहाँ भी ठहरा नहीं रह सका।

प्रकाश की लम्बी छलाँग

मनुष्य सभ्यता के विकास की सीढ़ियाँ चढ़ता गया और प्रकाश के लिए दूसरे बेहतर साधनों की खोज करता रहा। हालाँकि उसे सदियाँ लगीं;  पर एक दिन उसने बिजली से जलने वाले बल्ब का आविष्कार कर लिया। श्रेय गया एक महान् अमरीकी वैज्ञानिक और व्यवसायी थॉमस अल्वा एडिसन (1847-1931) को जब उन्होंने 1879 में बिजली से जलने वाले वैक्यूम बल्ब का आविष्कार कर दिखाया। प्रकाश के क्षेत्र में मनुष्य ने यह बड़ी छलांग भरी थी। रात को दिन बना लेने की अपनी क्षमता ने मनुष्य को फूलकर कुप्पा हो जाने का पूरा-पूरा अवसर दिया।

तब किसी के मस्तिष्क की इतनी क्षमता शायद न रही हो कि वह सोच पाता कि प्रकृति ने सारी व्यवस्थाएँ देखभाल कर की थीं। जीवन के लिए जितना ज़रूरी प्रकाश था, उतना ही ज़रूरी था गहन अंधकार भी। हमारे वेद-पुराणों में अति की वर्जना है परंतु मनुष्य ने नहीं माना और रात्रियों को भी अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से भर दिया।

मनुष्य ने कल्पना भी नहीं की होगी कि एक दिन उसकी रात को दिन बना लेने की अद्भुत क्षमता को कभी ‘प्रकाश प्रदूषण’ जैसे नकारात्मक नाम से भी पुकारा जाएगा। यदि हम किसी सुविधा की बात भी करें, तो वह भी एक सीमा के पार होने पर अपना हानिकारक रूप दिखाने लगती है। यही प्रकाश के साथ भी हुआ। रिहायशी इलाक़े तो दूर बिजली की चमचमाती रोशनी ने जंगलों की आँखें भी चौंधिया दीं।

प्रकाश प्रदूषण को फ़ोटो पॉल्यूशन के नाम से भी जाना जाता है।

प्रकाश प्रदूषण के कई रूप हो सकते हैं। कृत्रिम प्रकाश के अत्यधिक और अनुचित प्रयोग का जब प्रकृति और जीवों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगे, तब यह प्रकाश, प्रदूषण बन जाता है। यह नकारात्मक प्रभाव कई तरीक़ों से आ सकता है। अब तो अन्य प्रदूषणों के साथ ही धरती पर प्रकाश प्रदूषण भी एक भीषण समस्या बनता जा रहा है। यह प्रदूषण नगरीकरण से उपजी समस्या का अप्रत्यक्ष परिणाम है। नगरीय जीवन में अब रात भी एक दूसरे प्रकार का दिन ही है। अमरीका के शिकागो में इंटरनेशनल डार्क स्काई असोसिएशन द्वारा किए गए अध्ययन के अनुसार मनुष्य के द्वारा रात्रि में किया गया कृत्रिम प्रकाश पक्षियों के लिए अत्यधिक घातक सिद्ध हो रहा है। शिकागो में लगभग 40, 000 तक मृत पक्षी पाए गए। अध्ययन के अनुसार ऊँची इमारतों की खिड़कियों में जलने वाली लाइटों के कारण रात्रि में उड़ने वाले पक्षी भ्रमित हो जाते हैं। लाइट जलने वाली खिड़कियों में उन्हें अपना मार्ग दिखाई देता है और वे तेज रफ़्तार में उड़ते हुए उनसे जा टकराते हैं, उस बलपूर्वक टकराने और गम्भीर रूप से घायल होने के कारण उनकी मृत्यु हो जाती है। अक्तूबर 2020 में फ़िलाडेल्फ़िया में भी हज़ारों प्रवासी पक्षी ऊँची इमारतों की प्रकाश भरी खिड़कियों से टकराने के कारण मृत्यु को प्राप्त हो गए। भारत में आने वाले भी तमाम प्रवासी पक्षियों के लिए यह प्रदूषण बहुत हानिकारक है। पक्षियों का भ्रमित होना तो कृत्रिम प्रकाश के प्रयोग के आरम्भिक दिनों से ही आरम्भ हो गया होगा। 1884 में मिसिसिपी घाटी में यह देखा भी गया था, जब एक प्रवासी जल पक्षी पोर्जाना कैरोलीना की लाइट टावर से टकराने से मृत्यु हो गई थी। तब ही भविष्य द्रष्टा लोगों ने जान लिया था कि रात्रि में किया जाने वाला अत्यधिक प्रकाश धरती पर विचरते जीवों और उनके जीवन पर नकारात्मक असर भी डालेगा।

जिस स्थान पर मनुष्य का काम एक अकेली लाइट से चल सकता है, वहाँ भी वह कई-कई लाइट्स लगाकर चकाचौंध का वातावरण बना देता है, जिसके कारण जीवों की आँखें चौंधिया जाती हैं और वे भ्रमित होकर अपनी सामान्य जीवन- प्रक्रिया से भटक जाते हैं।

रात्रि में शहरों के आसमान पर जो लाइट का ग्लोब जैसा घेरा दिखाई देता है, उसे शहरी आकाशीय चमक या अर्बन स्काई ग्लो कहा जाता है। सड़कों पर लगी तेज लाइटों और वाहनों की चमचमाती हैड लाइटों या ऊँची अट्टालिकाओं में जलती तेज लाइटों के कारण नगर का आकाश सामान्य से अधिक चमकीला दिखाई देता है। आकाश पर प्रकाश का एक डोम जैसा बन जाता है और आकाश पर खिले हुए तारे दिखाई नहीं देते, आकाशगंगा भी दिखाई नहीं देतीं, जिसके कारण अंतरिक्ष सम्बन्धी, या खगोलीय खोज और शोध भी बुरी तरह प्रभावित होते हैं। अत्यधिक प्रकाश का परिणाम ग्लेयर के रूप में भी प्रकट होता है। ग्लेयर का अर्थ प्रकाश की चकाचौंध है। अत्यधिक चमक चीजों को देखने में बाधा बनती है। अपलाइट, खुले आकाश की दिशा में ऊपर को जलाई जाने वाली लाइट को अपलाइट कहा जाता है यह प्रकाश प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण होती है। अपलाइट रात में उड़ने वाले पक्षियों के लिए सबसे अधिक घातक होती है। क्लटर प्रकाश स्रोतों के समूह हैं। जब एक ही स्थान पर बहुत बड़ी संख्या में प्रकाश के बल्बों की व्यवस्था होती है तब वह प्राणियों को उनके सही मार्ग से भटका देने वाली होती है। कई स्थानों पर अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश दिन और रात का अंतर ही समाप्त कर देता-सा प्रतीत होता है उन स्थानों पर जीवों की आंतरिक प्रक्रियाओं की प्राकृतिक अवस्थाओं में उथल-पुथल मच जाती है और उनका अस्तित्व डगमगाने लगता है। प्रकाश का अतिचार जिसे अंग्रेज़ी में लाइट ट्रेसपास कहते हैं। जब हम ज़रूरत से अधिक प्रकाश का प्रयोग करते हैं, तब यह समस्या पैदा होती है। ज़रूरत से ज़्यादा प्रकाश का प्रयोग करना ही प्रकाश अतिचार का हिस्सा है।

अंधकार और प्रकाश का प्राकृतिक चक्र मनुष्य सहित अन्य जीवों की नींद को सामान्य रखता है। अत्यधिक क्रत्रिम प्रकाश मनुष्यों के मेलाटोनिन हार्मोन के स्राव में कमी लाता है, यह हार्मोन मनुष्य को नींद लाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब मेलाटोनिन हार्मोन का स्त्राव कम होता है तो मनुष्य के सोने-जागने की प्रक्रिया बाधित होती है। यह बाधित प्रक्रिया अनिद्रा की स्थिति पैदा करती है और अनिद्रा जीवों में प्रजनन की सामान्य प्रक्रिया को भी बाधित करती है। नींद पूरी ना आना या बेसमय आना मनुष्य की मानसिक कार्यक्षमता को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। कृत्रिम प्रकाश मनुष्य की सर्केडियन लय या बायोलॉजिकल क्लॉक को भी प्रभावित करता है, जिसके कारण मनुष्य को अवसाद, झुँझलाहट, बेचैनी, चिंता, चिड़चिड़ाहट और नींद का ना आना आदि समस्याएँ पैदा होती हैं। जिससे कैंसर, हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा और गेस्ट्रो एंटाइनल आदि रोगों का भय उत्पन्न होता है। अत्यधिक प्रकाश आँखों में भी तकलीफ़ पैदा करता है।

प्रकाश प्रदूषण मनुष्य के साथ-साथ पौधों और अन्य जीव जंतुओं पर भी अपना बुरा असर डालता है। यह पौधों के फ़ोटो पीरियड या दीप्तिकाल को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। फ़ोटो पीरियड वह अवस्था होती है, जब पौधा प्राकृतिक प्रकाश प्राप्त करके पुष्पन की प्रक्रिया पूरी करता है। जिसके लिए उसे दिन और रात्रि अर्थात् प्रकाश और अंधकार का संतुलन चाहिए। रात्रि का कृत्रिम प्रकाश पौधों के फ़ोटोपीरियड को प्रभावित करता है। यह रात्रि में खिलने वाले तमाम पौधों के परागण में भी बाधा बनता है। यह अनेक जीवों की जैविक क्रियाओं को प्रभावित करता है। पृथ्वी का हर जीव प्राकृतिक प्रकाश और अंधकार दोनों का अभ्यस्त है। उनकी बॉडी क्लॉक उसी के आधार पर कार्य करती है। इस प्राकृतिक व्यवस्था के चरमरा जाने से वे अपने जीवन की गुणवत्ता, मात्रा और अपने जीवन की अवधि तक सामान्य नहीं रख पाते।

दिन के समय शांत पड़े रहने वाले और सुबह-शाम या रात्रि में सक्रिय होने वाले जीवों की प्रजनन क्रिया में भी कृत्रिम और अत्यधिक प्रकाश बाधा उत्पन्न कर सकता है। यह प्रकाश कोरल की सामान्य प्रक्रियाओं को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। उभय चर जीव रात्रि के समय ही मेटिंग की प्रक्रिया करते हैं। अधिक समय तेज कृत्रिम प्रकाश में रहने के कारण वे समझ ही नहीं पाते कि रात्रि हो चुकी है, फलस्वरूप उनकी प्रजनन- क्रिया भी बाधित होती है। भारत के समुद्र तटों पर कुछ जीव, विशेषकर कछुए रात्रिकाल में ही प्रजनन क्रिया करते हैं। अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश उन्हें समुद्र तटों की ओर जाने से रोकता है जिसके कारण उनकी प्रजनन दर बहुत अधिक प्रभावित होती है। मछलियाँ भी इस रात्रिकालीन प्रकाश से बहुत प्रभावित होती हैं। यह डी आर डी ओ के तत्कालीन अध्यक्ष और भारत के भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय श्री ए पी जे अब्दुल कलाम ने ओडीशा में स्थित व्हीलर आयलैंड पर अनुभव किया था कि समुद्र की ओर जाने वाले कछुए अपने निषेचन पीरियड में समुद्र की ओर ना जाकर भटक रहे हैं। अतः उन्होंने रात में व्हीलर आयलैंड के समुद्री किनारों पर फ़्लड लाइट बन्द रखने के आदेश जारी किए थे। फलस्वरूप कछुए अपनी सामान्य अवस्था में आने लगे। जब तक वे अध्यक्ष रहे इस आदेश का पालन हुआ; परंतु उनके पद परिवर्तन के साथ ही इस आदेश की अनदेखी की गई। परंतु हमें ध्यान रखना चाहिए कि पारिस्थितिकी तंत्र को दुरुस्त रखने के लिए सभी जीवों की प्रजनन क्रिया और उनके जीवन का सामान्य बना रहना अत्यधिक आवश्यक है। अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश कीड़ों की आबादी में कमी लाता है। कीड़े नहीं,  तो परागण नहीं, जिस पर दुनिया के खाद्य उत्पादन का लगभग एक तिहाई हिस्सा निर्भर है।

प्रकृति ने नियम बनाया दिन-रात का, ताकि दिन में काम करने वाले जीव-जंतु, रात में काम करने वालों के काम में बाधा ना बने। जैसे बीटल गोबर या मानव अपशिष्ट को खाता है। वह अपशिष्ट को लुढ़काता हुआ अपने निर्धारित स्थान तक ले जाता है, ऐसा करके वह पर्यावरण को साफ़ रखता है। यह कार्य वह रात्रि में ही करता है और वह आकाशगंगा को देखकर अपने गंतव्य की दिशा निर्धारित करता है। कृत्रिम प्रकाश के कारण उसे आकाशगंगा दिखाई ही नहीं देती और वह अपने गंतव्य से भटक जाता है। प्रकृति का यह जमादार फ़ूड चेन को दुरुस्त बनाए रखता है। पारिस्थितिकी तंत्र को साधे रखता है। उसके जैसे जीवों के कार्य में बाधा पारिस्थितिकी को ख़ासी हानि पहुँचा सकती है। हमें याद रखना चाहिए कि गिद्ध के विनाश ने भी प्रकृति की सफ़ाई व्यवस्था को बहुत हानि पहुँचाई है। आकाशगंगाओं के तारे और चंद्रमा का प्रकाश पशुओं का भी मार्गदर्शन करते हैं;  परंतु अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश से पशुओं की देखने की क्षमता भी प्रभावित हुई है। रॉयल कमीशन ऑफ़ एनवायरमेंटल पोल्यूशन की रिपोर्ट बताती है कि अनेक जीव प्राकृतिक प्रकाश के उतार-चढ़ाव से अपनी जीवन प्रक्रिया साधते हैं; परंतु अत्यधिक प्रकाश उनके हाइबारनेशन और प्रजनन जैसी क्रियाओं को बाधित करता है जिससे वे जीव विचलित होते हैं और प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है।

उपाय

अभी अधिकर मनुष्य अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश के ख़तरों से अनभिज्ञ हैं। सभी को जागरूक किया जाना चाहिए, ताकि वे समवेत प्रयास करें और बिजली की बचत या उसके कम से कम प्रयोग के लिए जागरूकता फैलाएँ। जिन स्थानों पर कृत्रिम प्रकाश पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है, उन स्थानों पर अत्यधिक कृत्रिम प्रकाश का प्रयोग वर्जित किया जाना चाहिए। जैसा कि फ़्रांस ने किया भी है, उसने स्काई बीम को बैन कर दिया गया है। कई जगहों पर लाइट जलाने का समय निश्चित है। विशेष कर वन क्षेत्रों से गुजरने वाली सड़कों आदि पर प्रकाश की व्यवस्था को इस तरह किया जाना चाहिए, ताकि वह केवल आवश्यकता के स्थान पर ही फैले। तमाम स्थानों पर जहाँ कृत्रिम प्रकाश की आवश्यकता नहीं है, मनुष्य को उन स्थानों पर प्रकाश फैलाने से बचना चाहिए। आसमान की ओर प्रकाश फेंकने वाले प्रकाश उपकरणों को बदलकर, ऐसी व्यवस्था की जानी चाहिए, ताकि प्रकाश आसमान की ओर ना जाकर धरती की ओर सिर्फ़ उन जगहों पर पड़े, जहाँ उसकी आवश्यकता हो। जिसके लिए हम लैम्प शेड्स की व्यवस्था कर सकते हैं। साथ ही तेज़ लाइट्स के स्थान पर हल्की लाइट्स की व्यवस्था कर सकते हैं।

अगर प्रकाश प्रदूषण कम किया गया तो कार्बन के उत्सर्जन में कमी आएगी और जैव-विविधता को होने वाली हानि पर भी प्रतिबंध लगेगा। संसार के कई स्थानों पर 80 प्रतिशत आबादी को घने अँधेरे वाला आसमान दिखाई ही नहीं देता। 1994 में लॉस एंजिलिस में भूकम्प के आने के कारण बिजली व्यवस्था ठप हुई, तब ना जाने कितने बरसों के बाद घुप्प अँधेरे के कारण आकाश दिखाई दिया। कम प्रकाश की आदत पड़ने पर, आँखें उसी प्रकाश में ठीक से देख पाने में सक्षम और अभ्यस्त हो जाएँगी।

वर्तमान में प्रकाश प्रदूषण की यह समस्या किन्हीं दो या चार देशों की नहीं है। यह तक़रीबन 80 देशों के द्वारा किए गए शोध पर आधारित है। प्रकाश प्रदूषण की समस्या सीरिया जैसे वार हिट देशों में नहीं है;  क्योंकि उन देशों में शत्रु के आक्रमण के भय से रात में सभी तरह के प्रकाश स्रोत बन्द कर दिए जाते हैं। भले ही अँधेरे को अज्ञानता से क्यों ना जोड़ा गया, हो परंतु धरती के तमाम जीवों और माइक्रो ऑर्गैनिज़्म के लिए अँधेरा भी आवश्यक है।

email- nirdesh. nidhi@gmail. com, फ़ोन-9358488084


3 comments:

शिवजी श्रीवास्तव said...

जागरूक करता जरूरी आलेख।बधाई

nirdesh nidhi said...

शिवानी श्रीवास्तव जी हार्दिक शुभकामनाएं आपको

नीलाम्बरा.com said...

बहुत सुंदर, हार्दिक बधाई।