उदंती.com

Mar 1, 2025

उदंती.com, मार्च - 2025

वर्ष 17, अंक - 8

झूठ आज से नहीं अनंत काल से रथ पर सवार है और सच चल रहा है पाँव - पाँव।  -भवानीप्रसाद मिश्र

इस अंक में

अनकहीः ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के दस साल ... - डॉ.  रत्ना वर्मा

महिला दिवसः आनंदीबाई जोशी: चुनौतियाँ और संघर्ष - पूजा ठकर

मौसमः अब तक का सबसे गर्म वर्ष 

पर्व-संस्कृतिः सामाजिक समरसता का पर्व होली  - प्रमोद भार्गव

प्रेरकः क्या लोगों को आपकी कमी खलेगी?

संस्मरणः ममता का मूल्यांकन  - देवी नागरानी

आलेखः भाग.. उपभोक्ता.. तेरी बारी आई - डॉ. महेश परिमल

क्षणिकाएँः हँस पड़ी है नज़्म  - हरकीरत हीर

विश्व कविता दिवसः अभिव्यक्ति में कविताएँ गद्य से बेहतर हैं - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन   

लघुकथाः हम बेटियाँ हैं न! - सन्तोष सुपेकर

पर्व-संस्कृतिः सृष्टि का जन्म दिवस - उगादी  - अपर्णा विश्वनाथ

कविताः अकिला फुआ  - डॉ शिप्रा मिश्रा

कविताः औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?  - डॉ. शैलजा सक्सेना

बोध कथाः एक स्त्री किसी पुरुष से क्या चाहती है? - निशांत

कविताः कहाँ हो तुम - दीपाली ठाकुर

व्यंग्यः पियक्कड़ों की देशसेवा - गिरीश पंकज

कहानीः मुलाकात - जूही

दो लघुकथाएँः 1. पराया खून , 2.चलते-फिरते कार्यालय - राममूरत ‘राही’

दो लघुकथाएँः 1.सुहाग की निशानी, 2. मान का पान  - सुधा भार्गव

किताबेंः सैनिक पत्नियों की डायरीः महत्त्वपूर्ण अभिलेख - रश्मि विभा त्रिपाठी

जीवन दर्शनः भूलने का विज्ञान- छिपा हुआ वरदान  - विजय जोशी 

अनकहीः ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के दस साल ...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

मेरे घर खाना बनाने वाली जो महिला आती है। उसके दो बच्चे हैं; एक लड़का और एक लड़की। दोनों पति- पत्नी कमाते हैं और उन्हें पढ़ने के लिए स्कूल भेजते हैं। परंतु एक बात जो अजीब लगी, जब उसने बताया कि मेरा बेटा एक निजी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है और बेटी सरकारी स्कूल में। इस भेदभाव के बारे में पूछने पर उसके पास कई तरह के जवाब थे कि किराए के मकान में रहते हैं, खर्च बहुत बढ़ गए हैं। हम एक ही बच्चे की पढ़ाई का खर्चा उठा सकते हैं आदि आदि... 

इसे विडम्बना ही कहेंगे कि आज भी निम्न और मध्यमवर्ग के परिवारों में बेटा और बेटी की परवरिश को लेकर भेदभाव जारी है। हमारे देश में ऐसे कई प्रदेश हैं, जहाँ आज भी बेटी के जन्म पर दुख और बेटे के जन्म पर जश्न मनाया जाता है । हम आज भी अपनी उस पुरानी दकियानूसी सोच से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं, जहाँ यह माना जाता है कि बेटा ही कुल का वंशज होता है। बेटा ही माता-पिता को मुखाग्नि देता है।  वहीं बेटियों को पराया धन, बच्चे पैदा करने वाली, चूल्हा चौका सम्भालने वाली से अधिक कुछ नहीं समझा जाता।  इस सोच को बदलने के लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर बरसों से अनेक योजनाएँ चलाई जाती रही हैं; परंतु परिवर्तन की धीमी रफ्तार के चलते बेटियों को लेकर उक्त दकियानूसी सोच को बदलने में समय लग रहा है। 

अभी अभी सरकार की  एक प्रभावशाली योजना-  ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’  के 10 वर्ष पूरे हुए हैं। 22 जनवरी 2015 में शुरू की गई इस योजना का प्रमुख उद्देश्य लड़कियों के जन्म के समय लिंगानुपात में सुधार लाना और समाज में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के साथ- साथ बालिकाओं की सुरक्षा, शिक्षा और सशक्तीकरण को भी बढ़ावा देना था। अफसोस, इस योजना का बहुत अधिक फायदा नहीं मिला। हाल ही में प्रकाशित एक समाचार के अनुसार प्राथमिक शिक्षा में लड़कियों की नामांकन दर 90-100% के बीच तो थी; परंतु माध्यमिक शिक्षा तक आते आते यह दर 77-80% तक आ गई और उच्चतर माध्यमिक शिक्षा में और भी कम होकर 50-58% के बीच पहुँच गई। इस योजना का एक और उद्देश्य महिलाओं के खिलाफ हिंसा को रोकना भी था। खासकर लड़कियों को आत्मरक्षा के प्रशिक्षण के माध्यम से। लेकिन इस क्षेत्र में योजना के प्रयासों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा में वृद्धि ही देखने को मिली है। 

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के आँकड़ों के अनुसार 2018 से 2022 के बीच महिलाओं के खिलाफ अपराधों में 12.9% की वृद्धि हुई है। इस मामले में इस योजना को असफल ही कहा जाएगा। हम सभी इस बात से सहमत होंगे कि महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा एक ऐसा संकट है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है। इसके लिए हम कानून को काफी हद तक जिम्मेदार ठहरा सकते हैं क्योंकि जहाँ सजा का डर खत्म हो जाता है वहाँ अपराध भी बढ़ जाते हैं। लड़कियों पर हो रहे अपराध के मामले में सामाजिक दबाव एक बहुत बड़ा कारण कहा जा सकता है। क्योंकि माता पिता बदनामी के डर से चुप्पी साध लेते हैं जिससे अपराधी बेखौफ हो जाता है। 

सबसे बड़ी असफलता तो इस योजना के लिए जारी राशि का सही उपयोग न किया जाना रहा है।  करोड़ों के जारी फंड में से आधे से अधिक को सिर्फ प्रचार- प्रसार में खर्च कर दिया गया। अभी भी योजना की राशि बची हुई है।  जाहिर है, योजना को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। ये सब नाकामयाबी इस बात की ओर इशारा करते हैं कि हमारे पास पैसा तो है, पर हम उसका इस्तेमाल करना नहीं जानते, अन्यथा क्या कारण है कि जहाँ संसाधनों की कमी नहीं है, पूरा पावर आपके पास है, लेकिन राजनीतिक दांव-पेंच, प्रशासन की भर्राशाही के बीच अच्छे उद्देश्य के लिए आरंभ की गई योजनाएँ भी फेल हो जाती हैं। 

तो बात फिर वहीं आ जाती है कि किया क्या जाए? समाज की बेहतरी के लिए जब भी कोई योजना बनती है, तो सबको मिलजुलकर काम करना होता है । उद्देश्य चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, सिर्फ पैसा ही किसी योजना को सफल नहीं बना सकता। लगन, दृढ़ इच्छा शक्ति और देश के प्रति सम्मान तथा प्रेम जब तक नहीं होगा, हम अपने समाज और देश के उत्थान के लिए कुछ नहीं कर सकते। हमारे देश में समाज कल्याण और कुरीतियों को खत्म करने के लिए अनेक महान मनीषियों ने काम किए हैं और पूरा जीवन समर्पित कर दिया। ऐसे में सदियों से बेटियों के प्रति किए जा रहे भेदभाव को एक झटके में तो खत्म नहीं किया जा सकता । इसके लिए समाज की सोच को अनेक स्तरों पर बदलना होगा। बेटियों को देवी की तरह पूजने वाले देश में बेटियों के जन्म को उत्सव के दिन में बदलना होगा। उनकी शिक्षा को बीच में ही न रोककर उन्हें आत्मनिर्भर बनने की दिशा में प्रोत्साहित करना होगा। उनके लिए बेहतर अवसर उपलब्ध कराने होंगे। और यही सब उद्देश्य भी बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ योजना का है, जिसे गंभीरता से लागू करने की आवश्यकता है।  

इन सबके लिए जनजागरूकता तो आवश्यक है ही; परंतु इसे फलीभूत करने के लिए कुछ ऐसे उदाहरण और आदर्श प्रस्तुत करने होंगे जो सबके लिए प्रेरणा का स्रोत बने। बेहतर काम करने वाली संस्थाओं, व्यक्तियों की कमी नहीं है देश में। उन सबको साथ लेकर चलना होगा। सबसे जरूरी इस तरह की योजनाओं को राजनीति से दूर रखकर लागू करना होगा क्योंकि राजनीतिक फायदे के लिए बनाई गई योजनाओं से सामाजिक उत्थान की कल्पना नहीं की जा सकती।

महिला दिवसः स्मृति- आनंदीबाई जोशी: चुनौतियाँ और संघर्ष

आनंदी बाई जोशी
जन्म 31 मार्च 1865, मृत्यु 26 फरवरी 1887

 न्यूयॉर्क के पॉकीप्सी ग्रामीण कब्रिस्तान के ‘लॉट 216-ए’ में, अमरीकियों की कई कब्रों के बीच डॉ. आनंदीबाई जोशी की कब्र है। उनकी आयताकार कब्र पर लगा कुतबा (संग-ए-कब्र) बयां करता है कि आनंदी जोशी एक हिंदू ब्राह्मण लड़की थीं, जो विदेश जाकर शिक्षा प्राप्त करने और चिकित्सा (मेडिकल) की डिग्री हासिल करने वाली पहली भारतीय महिला थीं। उन्होंने यह कैसे हासिल किया? उन्हें किन बाधाओं का सामना करना पड़ा? इन सवालों के आनंदी बाई के जो जवाब होते, उन्हें यहाँ  मैं अपने अंदाज़ में देने का प्रयास कर रही हूँ; ये जवाब मैंने आनंदीबाई के बारे में और उनके समय के बारे में पढ़कर जुटाई गई जानकारी के आधार पर लिखे हैं।  - पूजा ठकर

मेरा जन्म 31 मार्च, 1865 को मुंबई के पास एक छोटे से कस्बे कल्याण में यमुना जोशी के रूप में हुआ था। मेरा परिवार कल्याण में ज़मींदार हुआ करता था, लेकिन तब तक उनकी जागीर समाप्त हो चुकी थी। 9 साल की उम्र में मेरी शादी हुई और मेरा नाम बदलकर आनंदी रख दिया गया।

शादी के पहले मैं मराठी पढ़ लेती थी; उस समय लड़कियों का पढ़ाई करना आम बात नहीं थी। लेकिन मेरे पति गोपालराव विधवा पुनर्विवाह और महिलाओं की शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। वास्तव में, उन्होंने इसी शर्त पर मुझसे विवाह किया था कि उन्हें मुझे पढ़ाने की इजाज़त होगी। हमारी शादी के बाद उन्होंने मुझे पढ़ाना शुरू किया। यह बहुत मुश्किल था; उन दिनों, दूसरों के सामने कोई पति अपनी पत्नी से सीधे बात नहीं कर सकता था। शुरुआत में, मेरे पति ने मुझे मिशनरी स्कूलों में दाखिला दिलाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनाी। हमें कल्याण से अलीबाग, अलीबाग से कोल्हापुर और फिर कोल्हापुर से कलकत्ता जाना पड़ा। लेकिन एक बार जब मैंने सीखना-पढ़ना शुरू कर दिया तो मैं जल्द ही संस्कृत पढ़ने लगी और अंग्रेज़ी पढ़ने और बोलने लगी।

अपने पति से सीखना कोई आसान बात नहीं थी। वे मुझे संटियों से मारते थे; गुस्से में मुझ पर कुर्सियां और किताबें फेंकते थे। मुझे याद है कि जब मैं 12 साल की थी, तब उन्होंने मुझे छोड़ने की धमकी दी थी। सालों बाद, जब मैंने उन्हें अमेरिका से पत्र लिखा तब मैंने उनसे पूछा था कि क्या यह सही था? मैं हमेशा सोचती हूँ कि क्या मेरे प्रति उनका यह व्यवहार ठीक था? मान लो, यदि मैंने उन्हें तब छोड़ दिया होता तो क्या होता? मैंने पत्र में उन्हें समझाया था कि उन्होंने मेरे लिए जो कुछ किया है, उसके लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूँगी। लेकिन उसी पल मुझे यह ख्याल भी कचोटता कि कैसे एक हिंदू महिला के पास अपने पति को उसकी मनमानी करने देने के अलावा कोई और विकल्प नहीं होता है।

मेरी द्रुत प्रगति के चलते मेरे पति की यह ज़िद थी कि मुझे उच्च शिक्षा प्राप्त करनी चाहिए। मुझे एहसास हुआ कि हमारे देश में अधिकतर महिलाओं के लिए कोई महिला डॉक्टर नहीं है, और जो महिलाएं पुरुष डॉक्टर के पास जाने में शर्माती हैं या पुरुष डॉक्टर के पास जाना नहीं चाहती हैं, उन्हें इसके नतीजे में बहुत तकलीफ झेलनी पड़ती है। मैंने खुद 14 साल की उम्र में अपने नवजात बेटे को खो दिया था। इसलिए मैंने तय किया कि मैं डॉक्टर बनूँगी। यहाँ  तक कि बाद में मैंने अपनी थीसिस के लिए जो विषय चुना, वह था 'आर्य हिंदुओं में प्रसूति विज्ञान'।

मेरे पति ने मुझे अमेरिका के किसी विश्वविद्यालय में दाखिला दिलाने की बहुत कोशिश की। उन्होंने इसके लिए मिशनरी बनने का दिखावा भी किया, लेकिन इससे सिर्फ उपहास ही हुआ। संयोग से, न्यू जर्सी के रोसेल की श्रीमती कारपेंटर को यह कहानी पता चली और मिशनरी रिव्यू में पत्राचार से द्रवित होकर उन्होंने मुझे एक पत्र लिखा। उन्होंने मुझे होस्ट करने का प्रस्ताव दिया और जल्द ही श्रीमती कारपेंटर और मैं एक-दूसरे को बहुत पत्र लिखने लगे। वे मुझे बहुत अपनी लगने लगीं थीं और मैं उन्हें ‘मवशी' (मौसी) कहकर बुलाने लगी थी। इन पत्रों में, हमने विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की; मैं उन मामलों/मुद्दों पर अपनी चिंताएं उन्हें लिख सकती थी, जिनको मुझे नहीं लगता कि मैं सार्वजनिक रूप से व्यक्त कर सकती थी। हमने बाल विवाह और महिलाओं के स्वास्थ्य पर उसके प्रभाव की चर्चा की। मुझे याद है, एक पत्र मैं मैंने उन्हें लिखा था कि सती प्रथा की तरह बाल विवाह पर प्रतिबंध का भी कानून होना चाहिए। इसी तरह हमने समाज में महिलाओं की स्थिति पर चर्चा की।

चूंकि गोपालराव को वहाँ  नौकरी नहीं मिली, इसलिए हमने तय किया कि मुझे अकेले ही अमेरिका चले जाना चाहिए। हमें बहुत विरोध और आलोचना का सामना करना पड़ा, यहाँ  तक कि लोगों ने हम पर पत्थर और गोबर फेंके। आखिरकार, कई आज़माइशों और क्लेशों के बाद, जून 1883 में मैं अमेरिकी मिशनरी महिलाओं के साथ अमेरिका पहुंच गई, और मेरी मुलाकात कारपेंटर मौसी से हुई।

अमेरिका में ऐसी कई चीजें थीं जो मुझे अजीब लगती थीं और कई ऐसी चीजें थीं जो कारपेंटर परिवार को मेरे बारे में अजीब लगती थीं। लेकिन कारपेंटर मौसी ने मेरा ऐसे ख्याल रखा जैसे मैं उनकी बेटी हूँ। जब वे मुझे फिलाडेल्फिया के महिला कॉलेज में छोड़कर आ रही थीं तो वे एक बच्चे की तरह रोईं। 

1886 में ली गई इस तस्वीर में आनंदीबाई जोशी (बाएँ बैठी) को जापान की केई ओकामी और सीरिया की ताबात इस्लामबौली के साथ दिखाया गया है। ये तीनों अपने-अपने देशों से चिकित्सा में स्नातक करने वाली पहली महिला थीं।

कॉलेज के अधीक्षक और सचिव बहुत दयालु थे और वे इस बात से प्रभावित थे कि मैं इतनी दूर से पढ़ने आई हूँ। उन्होंने मुझे वहाँ  तीन साल के लिए 600 डॉलर की छात्रवृत्ति भी दी।

अमेरिका में मेरे सामने पहली समस्या जाड़ों के लिबास की थी। पारंपरिक महाराष्ट्रीयन नौ गज़ की साड़ी जो मैं पहनती थी, उससे मेरी कमर और पिंडलियां खुली रहती थीं। पश्चिमी पोशाक, जो ठंड से निपटने का उम्दा तरीका था, पहनने में मैं पूरी तरह से सहज नहीं थी। उसी समय, मुझे भगवद गीता का पढ़ा हुआ एक श्लोक याद आया, जिसमें कहा गया था कि शरीर मात्र आत्मा को ढकता है, आत्मा को अपवित्र नहीं किया जा सकता। तब मुझे अहसास हुआ कि यह बात सही है कि मेरे पश्चिमी पोशाक पहनने से मेरी आत्मा कैसे भ्रष्ट या अपवित्र या नष्ट हो सकती है। कई सवाल-जवाब से जूझते हुए और बहुत सोच-विचार के बाद मैंने गुजराती महिलाओं की तरह साड़ी पहनना तय किया; इस तरीके से साड़ी पहनकर मैं अपनी अपनी कमर और पिंडलियों को ढंके रख सकती थी और अंदर पेटीकोट भी पहन सकती थी। मैंने तय किया कि इस बारे में अभी गोपालराव को नहीं बताऊँगी।

कॉलेज में मुझे जो कमरा दिया गया था उसमें फायरप्लेस (अलाव) की ठीक व्यवस्था नहीं थी। अलाव जलाने पर कमरे में बहुत अधिक धुआँ भर जाता था। तो मेरे पास दो ही विकल्प थे, या तो धुआँ बर्दाश्त करो या ठंड! वहाँ  रहने से मेरा स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ। अमेरिका में लगभग दो साल रहने के बाद, मुझे अचानक बेहोशी और तेज़ बुखार के दौरे पड़ने लगे। खाँसी ने मुझे लगातार जकड़े रखा। तीसरे साल के अंत तक, मेरी हालत बहुत खराब हो गई थी। खैर, जैसे-तैसे मैं आखिरी परीक्षा में पास हो गई थी।

दीक्षांत समारोह, जिसमें मेरे पति और पंडिता रमाबाई मौजूद थे, में यह घोषणा की गई कि मैं भारत की पहली महिला डॉक्टर हूँ और इसके लिए सबने खड़े होकर तालियां बजाईं! वह लम्हा मेरी ज़िंदगी के सबसे अनमोल लम्हों में से एक था। मेरा स्वास्थ्य दिन-ब-दिन खराब होता गया। मेरे पति ने मुझे फिलाडेल्फिया के महिला अस्पताल में भर्ती कराया और मुझे टीबी होने का पता चला। लेकिन टीबी तब तक मेरे फेफड़ों तक नहीं पहुंची थी। डॉक्टरों ने मुझे भारत वापस जाने की सलाह दी। मैंने भारत लौटकर कोल्हापुर में लेडी डॉक्टर के पद का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

घर वापसी की यात्रा ने आनंदीबाई के स्वास्थ्य पर और अधिक प्रभाव डाला; क्योंकि जहाज़ पर मौजूद डॉक्टरों ने एक अश्वेत महिला का इलाज करने से इन्कार कर दिया था। भारत पहुंचने पर वे एक प्रसिद्ध आयुर्वेदिक वैद्य से इलाज कराने के लिए पुणे में अपने कज़िन के घर रुकीं, लेकिन उन वैद्य ने भी उनका इलाज करने से इन्कार कर दिया; क्योंकि उनके अनुसार आनंनदीबाई ने समाज की मर्यादा लाँघी थीं। अंतत: बीमारी के कारण 26 फरवरी, 1887 को 22 वर्ष की आयु में आनंदीबाई की मृत्यु हो गई। पूरे भारत में उनके लिए शोक मनाया गया। उनकी अस्थियाँ श्रीमती कारपेंटर को भेज दी गईं। उन्होंने अस्थियों को पॉकीप्सी में अपने पारिवारिक कब्रिस्तान में दफनाया।

यह गज़ब की बात है कि महज़ 15 वर्षीय आनंदीबाई अपने समय के समाज को कितना समझ पाई थीं। श्रीमती कारपेंटर को लिखे उनके पत्रों से पता चलता है कि उन्होंने उन मुद्दों पर अपनी राय बना ली थी, जिन्हें आज नारीवादी माना जाता। ताराबाई शिंदे की ‘स्त्री पुरुष तुलना’, पंडिता रमाबाई की ‘स्त्री धर्म नीति’ और रख्माबाई के ‘दी हिंदू लेडी’ नाम से टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखे गए पत्र जैसे नारीवादी लेखन भी इसी दौर के हैं। यह कमाल की बात है कि आनंदीबाई महज़ 15 साल की थीं जब उन्होंने इसी तरह के नारीवादी विचार व्यक्त किए थे।

हालाकि, आनंदीबाई के प्रयास व्यर्थ नहीं गए। आज भी, वे सभी क्षेत्रों में भारतीय लड़कियों को प्रेरित करती हैं और यह विश्वास दिलाती हैं कि परिस्थितियां चाहे जैसी भी हों, सपनों को साकार करना नामुमकिन नहीं हैं और हममें से हर किसी में सपने साकार करने की, चाहतों को पूरा करने की क्षमता होती है। महाराष्ट्र सरकार ने महिला स्वास्थ्य पर काम करने वाली युवा महिलाओं के लिए उनके नाम पर एक फेलोशिप शुरू की है। (स्रोत फीचर्स)

मौसमः अब तक का सबसे गर्म वर्ष

 2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हुआ, जिसमें वैश्विक तापमान औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार कर चुका है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को अनदेखा करना मुश्किल हो गया है। इसमें लू लगने से मृत्यु जैसे तुरंत दिखने वाले प्रभावों का तो पता चल जाता है लेकिन दीर्घकालिक संचयी नुकसान पर कम ही ध्यान दिया जाता है। जलवायु में हो रहे तेज़ी से बदलाव को देखते हुए इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।  

लंबे समय तक ग्रीष्म लहर और सूखे के प्रभाव से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएँ हो सकती हैं। बार-बार डीहाइड्रेशन (निर्जलन) और इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन से किडनी की जीर्ण बीमारियां हो सकती है। लगातार गर्म रातों के कारण नींद की कमी से मानसिक क्षमता घटती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता कमज़ोर होती है और शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होता है। यह खतरा गर्भ में पल रहे बच्चों को भी हो सकता है। गर्भावस्था के दौरान ग्रीष्म लहर जैसी पर्यावरणीय चुनौतियाँ गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित कर सकती हैं और लंबे समय के उनके स्वास्थ्य पर असर डाल सकती हैं।

देखा जाए तो, जलवायु परिवर्तन के दबाव जीन अभिव्यक्ति तक को प्रभावित कर सकते हैं। शोध बताते हैं कि जो बच्चे गर्भ में गर्म और शुष्क परिस्थितियों के संपर्क में आते हैं, उनमें वयस्क होने पर उच्च रक्तचाप की संभावना अधिक होती है। 

कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव गहरे और दूरगामी हो सकते हैं।

इन खतरों के बावजूद, वर्तमान जलवायु आकलन स्वास्थ्य पर पूरे प्रभाव को सही ढंग से मापने में असफल रहे हैं। वास्तव में वर्षों में विकसित होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को मापना मुश्किल होता है। असंगत स्वास्थ्य डैटा के कारण लंबे समय तक स्वास्थ्य  के जोखिमों को ट्रैक करना काफी जटिल कार्य है। उदाहरण के लिए, हम यह तो समझते हैं कि गर्मी शरीर को कैसे प्रभावित करती है, लेकिन यह अलग-अलग लोगों को दीर्घावधि में किस तरह प्रभावित करती है, इसे ट्रैक करना अब भी एक चुनौती बना हुआ है।  

इस अंतर को पाटने के लिए, शोधकर्ताओं और जन स्वास्थ्य अधिकारियों को जलवायु प्रभाव से जुड़े अध्ययनों का दायरा बढ़ाना होगा। उपलब्ध साक्ष्य बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली बीमारियों और मौतों का बोझ मौजूदा अंदाज़ों से कहीं अधिक है। इसलिए, बेहतर स्वास्थ्य डैटा और दीर्घकालिक प्रभावों का अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)


पर्व - संस्कृतिः सामाजिक समरसता का पर्व होली

 - प्रमोद भार्गव

होली शायद दुनिया का एकमात्र ऐसा त्योहार है,जो सामुदायिक बहुलता की समरसता से जुड़ा है। इस पर्व में मेल-मिलाप का जो आत्मीय भाव अंतर्मन से उमड़ता है, वह सांप्रदायिक अतिवाद और जातीय जड़ता को भी ध्वस्त करता है। फलस्वरूप किसी भी जाति का व्यक्ति उच्च जाति के व्यक्ति के चेहरे पर पर गुलाल मल सकता है और आर्थिक रूप से विपन्न व्यक्ति भी धनकुबेर के भाल पर गुलाल का टीका लगा सकता है। यही एक ऐसा पर्व है,जब दफ्तर का चपरासी भी उच्चाधिकारी के सिर पर रंग उड़ेलने का अधिकार अनायास पा लेता है और अधिकारी भी अपने कार्यालय के सबसे छोटे कर्मचारी को गुलाल लगाते हुए, आत्मीय भाव से गले लगा लेता है। वाकई रंग छिड़कने का यह होली पर्व उन तमाम जाति व वर्गीय वर्जनाओं को तोड़ता है, जो मानव समुदायों के बीच असमानता बढ़ाती हैं। गोया, इस त्यौहार की उपादेयता को और व्यापक बनाने की जरूरत है।

होली का पर्व हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन की घटना से जुड़ा है। ऐसी लोक-प्रचलन में मान्यता है कि होलिका को आग में न जलने का वरदान प्राप्त था। अलबत्ता उसके पास ऐसी कोई वैज्ञानिक तकनीक थी, जिसे प्रयोग में लाकर वह अग्नि में प्रवेश करने के बावजूद नहीं जलती थी। चूँकि होली को बुराई पर अच्छाई के पर्व के रूप में माना जाता है, इसलिए जब वह अपने भतीजे प्रहलाद को विकृत व कू्रर मानसिकता के चलते गोद में लेकर प्रज्वलित आग में प्रविष्ट हुई तो खुद तो जलकर खाक हो गई, किंतु प्रहलाद बच गए। उसे मिला वरदान सार्थक सिद्ध नहीं हुआ; क्योंकि वह असत्य और अनाचार की आसुरी शक्ति में बदल गई थी। 

      इसी कथा से मिलती-जुलती चीन में एक कथा प्रचलित है, जो होली पर्व मनाने का कारण बनी है। चीन में भी इस दिन पानी में रंग घोलकर लोगों को बहुरंगों से भिगोया जाता है। चीनी कथा भारतीय कथा से भिन्न जरुर है, लेकिन आखिर में वह भी बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। चीन में होली का नाम है, ‘फोश्वेई च्ये’ अर्थात् रंग और पानी से सराबोर होने का पर्व। यह त्योहार चीन के युतांन जाति की अल्पसंख्यक 'ताएं’ नामक जाति का मुख्य त्योहार माना जाता है। इसे वे नए वर्ष की शुरुआत के रुप में भी मनाते हैं।

इस पर्व से जुड़ी कहानी है कि प्राचीन समय में एक दुर्दांत अग्नि-राक्षस ने 'चिंग हुग’ नाम के गांव की उपजाऊ कृषि भूमि पर कब्जा कर लिया। राक्षस विलासी और भोगी प्रवृत्ति का था। उसकी छह सुंदर पत्नियाँ थीं। इसके बाद भी उसने चिंग हुग गाव की ही एक खूबसूरत युवती का अपहरण करके उसे सातवीं पत्नी बना लिया। यह लड़की सुंदर होने के साथ वाक्पटु और बुद्धिमती थी। उसने अपने रूप-जाल के मोहपाश में राक्षस को ऐसा बाँधा कि उससे उसी की मृत्यु का रहस्य जान लिया। 

राज यह था कि यदि राक्षस की गर्दन से उसके लंबे-लंबे बाल लपेट दिए जाएँ, तो वह मृत्यु का प्राप्त हो जाएगा। एक दिन अनुकूल अवसर पाकर युवती ने ऐसा ही किया। राक्षस की गर्दन उसी के बालों से सोते में बाँध दी। इन्हीं बालों से उसकी गर्दन काटकर धड़ से अलग कर दी; लेकिन वह अग्नि-राक्षस था, इसलिए गर्दन कटते ही उसके सिर में आग  प्रज्वलित हो उठी और सिर धरती पर लुढ़कने लगा। यह सिर लुढ़कता हुआ जहाँ-जहाँ से गुजरता वहाँ-वहाँ आग प्रज्वलित हो उठती। इस समय साहसी और बुद्धिमान लड़की ने हिम्मत से काम लिया और ग्रामीणों की मदद लेकर पानी से आग बुझाने में जुट गई। आखिरकार बार-बार प्रज्वलित हो जाने वाली अग्नि का क्षरण हुआ और धरती पर लगने वाली आग भी बुझ गई। इस राक्षसी आतंक के अंत की खुशी में ताएँ जाति के लोग आग बुझाने के लिए जिस पानी का उपयोग कर रहे थे, उसे एक-दूसरे पर उड़ेलकर झूमने लगे। और फिर हर साल इस दिन होली मनाने का सिलसिला चल निकला।

ऐतिहासिक व पौराणिक साक्ष्यों से पता चलता है कि होली की इस गाथा के उत्सर्जन के स्रोत पाकिस्तान के मुल्तान से जुड़े हैं। यानी अविभाजित भारत से। अभी भी यहाँ भक्त प्रहलाद से जुड़े मंदिर के भग्नावशेष मौजूद हैं। वह खंबा भी मौजूद है, जिससे प्रहलाद को बाँधा गया था। भारत विभाजन के बाद पाकिस्तान में हिंदू धर्म से जुड़े मंदिरों को नेस्तनाबूद करने का जो सिलसिला चला, उसके थपेड़ों से यह मंदिर भी लगभग नष्टप्रायः हो गया है, लेकिन चंद अवशेष अब भी मुलतान में मौजूद हैं। यहाँ भी अल्पसंख्यक हिंदू होली के उत्सव को मनाते हैं। वसंत पंचमी भी यहाँ वासंती वस्त्रों में सुसज्जित महिलाएँ मनाती हैं और हिंदू पुरुष पतंग उड़ाकर अपनी खुशी प्रगट करते हैं। जाहिर है, यह पर्व पाकिस्तान जैसे अतिवादियों के देश में सांप्रदायिक सद्भाव के वातावरण का निर्माण करता है। गोया, होली व्यक्ति की मनोवृत्ति को लचीली बनाने का काम करती है।

वैदिक युग में होली को ‘नवान्नेष्टि यज्ञ’ कहा गया है; क्योंकि यह वह समय होता है, जब खेतों से पका अनाज काटकर घरों में लाया जाता है। जलती होली में जौ और गेहूँ की बालियाँ तथा चने के बूटे भूनकर प्रसाद के रूप में बाँटे जाते हैं। होली में भी बालियाँ होम की जाती हैं। यह लोक-विधान अन्न के परिपक्व और आहार के योग्य हो जाने का प्रमण है। इसलिए वेदों में इसे 'नवान्नेष्टि यज्ञ' कहा गया है। मसलन अनाज के नए आस्वाद का आगमन। यह नवोन्मेष खेती-किसानी की संपन्नता का द्योतक है,जो ग्रामीण परिवेश में अभी भी विद्यमान है। गोया यह उत्सवधर्मिता आहार और पोषण का भी प्रतीक है, जो धरती और अन्न के सनातन मूल्यों को एकमेव करता है।

होली का सांस्कृतिक महत्व ‘मधु’ अर्थात 'मदन' से भी जुड़ा है। संस्कृत और हिंदी साहित्य में इस मदनोत्सव को वसंत ऋृतु का प्रेमाख्यान माना गया है। वसंत यानी शीत और ग्रीष्म ऋृतुओं की संधि-वेला। अर्थात एक ॠतु का प्रस्थान और दूसरी ऋतु का आगमन। यह वेला एक ऐसे प्राकृतिक परिवेश को रचती है, जो मधुमय होता है, रसमय होता है। मधु का ॠगवेद में खूब उल्लेख है; क्योंकि इसका अर्थ है, संचय से जुटाई गई मिठास। मधु-मक्खियाँ अनेक प्रकार के पुष्पों से मधु जुटाकर एक स्थान पर संग्रह करने का काम करती हैं। जीवन का मधु संचय का यही संघर्ष जीवन को मधुमयी बनाने का काम करता है। 

होली को ‘मदनोत्सव’ भी कहा गया है। क्योंकि इस रात चंद्रमा अपने पूर्ण आकार में होता है। इसी शीतल आलोक में भारतीय स्त्रियाँ अपने सुहाग की लंबी उम्र की कामना करती हैं। लिंग-पुरण में होली को ‘फाल्गुनिका’ की संज्ञा देकर इसे बाल-क्रीड़ा से जोड़ा गया है। मनु का जन्म फाल्गुनी को हुआ था; इसलिए इसे ‘मन्वादि तिथि’ भी कहते हैं। भविष्य-पुराण में भूपतियों से आह्वान किया गया है कि वे इस दिन अपनी प्रजा को भय-मुक्त रहने की घोषणा करें; क्योंकि यह ऐसा अनूठा दिन है, जिस दिन लोग अपनी पूरे एक साल की कठिनाइयों को प्रतीकात्मक रूप से होली में फूंक देते हैं। इन कष्टों को भस्मीभूत करके उन्हें जो शांति मिलती है, उस शांति को पूरे साल अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए ही भविष्य-पुराण में राजाओं से प्रजा को अभयदान देने की बात कही गई है। भारतीय कुटुंब की भावना इस दर्शन में अंतर्निहित है। अर्थात होली के सांस्कृतिक महत्त्व का दर्शन नैतिक, धार्मिक और सामाजिक आदर्शों को मिलाकर एकरूपता गढ़ने का काम करता है। तय है, होली के पर्व की विलक्षण्ता में कृषि, समाज, अर्थ और सद्भाव के आयाम एकरूप हैं। इसलिए यही एक ऐसा अद्वितीय पर्व है, जो सृजन के बहुआयामों से जुड़ा होने के साथ-साथ सामुदायिक बहुलता के आयाम से भी जुड़ा है।

प्रेरकः क्या लोगों को आपकी कमी खलेगी?

 लगभग सौ साल पहले एक व्यक्ति ने सुबह समाचार पत्र में स्वयं की मृत्यु का समाचार छपा देखा और वह स्तब्ध रह गया। वास्तव में समाचार पत्र से बहुत बड़ी गलती हो गई थी और गलत व्यक्ति की मृत्यु का समाचार छप गया। उस व्यक्ति ने समाचार पत्र में पढ़ा – ‘डायनामाइट किंग अल्फ्रेड नोबेल की मृत्यु… वह मौत का सौदागर था।’

अल्फ्रेड नोबेल ने जब डायनामाइट की खोज की थी, तब उन्हें पता नहीं था कि खदानों और निर्माणकार्य में उपयोग के लिए खोजी गई विध्वंसक शक्ति का उपयोग युद्घ और हिंसक प्रयोजनों में होने लगेगा। अपनी मृत्यु का समाचार पढ़कर नोबेल के मन में पहला विचार यही आया – “क्या मैं जीवित हूँ? ‘मौत का सौदागर ‘अल्फ्रेड नोबेल’… क्या दुनिया मेरी मृत्यु के बाद मुझे यही कहकर याद रखेगी?”

उस दिन के बाद से नोबेल ने अपने सभी काम छोड़कर विश्व-शांति के प्रसार के लिए प्रयत्न आरम्भ कर दिए।

स्वयं को अल्फ्रेड नोबेल के स्थान पर रखकर देखें और सोचें:

* आपकी धरोहर क्या है?

* आप कैसे व्यक्ति के रूप में याद किया जाना पसंद करेंगे?

* क्या लोग आपके बारे में अच्छी बातें करेंगे?

* क्या लोग आपको मृत्यु के बाद भी प्रेम और आदर देंगे?

* क्या लोगों को आपकी कमी खलेगी? (हिन्दी ज़ेन से)


संस्मरणः ममता का मूल्यांकन

  - देवी नागरानी 

मुझसे दो दशक छोटी पर सोच के विस्तार में उसका किरदार मुझसे दो क़दम आगे और ऊँचा।  ऐसी ही एक मानवी ने जब रिश्तों के निर्वाह पर निकली बात पर अपने रिश्ते को लेकर आप- बीती सुनाई, तो सच मानिए, दो तीन दिन तक मैं उस मानसिकता के बाहर न आ पाई।                                     

उसका कथन- “मैं पाँच बजे काम से रुखसत पाकर छह-साढ़े छह के बीच जब घर पहुँचती हूँ, तो लगता है सभी मेरे इंतजार में मायूस सन्नाटों को जी रहे होते हैं: घर के दर-दरीचे, बिस्तर पर लेटे मेरे अपाहिज पिता, माँ की देखभाल करने वाली अम्मा और मेरी माँ, जिसकी आँखें निरंतर चारों ओर घूम ने की आदी होकर जाने क्या कुछ ढूँढते हुए जब मुझपर आकर टिकती है, तो वह कह उठती है- “आ गई कमली!” और तत्पश्चात वह सुकून से सो जाती है।  “पर तुम्हारा नाम तो बीबा है न ?” -मैंने विस्मय में पूछा                                                                            

 “हाँ मेरी माँ का नाम कमला है, और वह अपनी इस अविकसित अवस्था में मुझको कमली के नाम से पहचानती है।’’

सुनकर एक अजीब- सी सिहरन शरीर में लहरा उठी, लगा कहीं दिमाग में बिजली कौंध उठी.  माँ अपने बच्चों को पाल पोसकर बड़ा करते करते ममत्व को साधना की हदों तक ले जाने की अवस्था में अपने आप को इस कद्र भूल जाती है कि उसे अहसास मात्र नहीं रहता कि उसका अपना वजूद बच्चों में समावेश कर गया है।

मैं इस समय यहाँ A.I.R स्टेशन में सिन्धी रिकॉर्डिंग की इन्चार्ज मिस बीबा के केबिन में बैठी रिश्तों की उन गूढ़ रहस्यमय स्थिति के बारे में सोचती रही।  कभी लगता है- हमारी सोच भी किन हदों में जकड़ी हुई है, जिसका हमें इल्म ही नहीं. विकसित- अविकसित अवस्थाओं से परे अंतःकरण में भी कई गुफाएँ हैं जो हमें हर बंधन से, हर सीमा से पार करते कराते हमें अपने आप से जोड़ती है. और इन बातों का महत्त्व सिर्फ बीबे जैसे बेटी ही समझ सकती, जिसने माता-पिता की देखरेख के लिए अब तक शादी नहीं की है.

‘‘रिश्ता वो ही निभाएगा ‘देवी’ जिसको रिश्ता समझ में आया है।’’ 

सोच को ब्रेक देते हुए मैंने बीबा से पूछा- “इस अवस्था में माँ कितने दिन से है?”   

“कुछ एक साल के क़रीब हुआ है और उनकी यह प्रतिक्रिया- मुझे कमली कहकर पुकारना, और उस रूप में ढूँढना, सामने देखकर राहत महसूस करना, खुद मुझे हैरत में डाल देती है। उनके मनोभावों को जानते हुए जैसे ही मैं घर में पाँव रखती हूँ, उनके सामने जाकर खड़ी हो जाती हूँ, जब तक वह अपनी आँखें घुमाते हुए मुझ पर टिकाकर यह नहीं कहती- “कमली तू आ गई!” 

कुछ पल रुककर बीबा कहने लगी- “अपने आपे- से बाहर की अवस्था और खुद से भीतर जुड़ने की अवस्था का नाम ही शायद ममता है और वह है मेरी माँ कमली।”                                    

उसके कहने और मेरे सुनने के बीच का वक़्त जैसे ठहर गया। मैं कितनी सदियाँ पीछे लाँघ आई थीं, यह मैंने तब जाना जब उसकी आवाज़ ने मुझमें चेतना लौटाई- “ मैडम जी आपकी चाय ठंडी हो रही है।’’

मैं याद के भूल - भुलैया में खो जाती हूँ।  शायद वे मेरे ज़हन में अपना स्थान बना बैठी हैं. बारी -  बारी वे इन झरोखों से सांस लेने आ जाती है.

अब तो सिर्फ यही, बाकी कुछ और याद आने पर...

dnangrani@gmail.com


आलेखः भाग..उपभोक्ता.. तेरी बारी आई

  - डॉ. महेश परिमल

आजकल सरकारी माध्यमों द्वारा उपभोक्ताओं को जाग्रत करने के कई उपाय किए जा रहे हैं। प्रसार माध्यमों में यह कहा जा रहा है कि उपभोक्ता जागो, तुम्हें ठगा जा रहा है। तुम सचेत हो जाओ। तुम्हें सचेत होना ही होगा। उपभोक्ताओं को तो ऐसे कहा जा रहा है मानों वे सचेत हैं ही नहीं। पर एक सचेत उपभोक्ता यदि इस दिशा में कुछ करना चाहे, तो सरकारी तंत्र इतना सबल हैं कि उसकी पुकार अनसुनी ही रह जाती है।

अब आप ही बताएँ कि जब आप कोई वस्तु खरीदना चाहें, तो वह आपके सामने होती है, आप उसे छूकर उसकी गुणवत्ता पर विश्वास कर लेंगे, उसके रंग से भी अच्छी तरह वाकिफ हो जाएँगे। सचेत उपभोक्ता का प्रदर्शन करते हुए आप ने व्यापारी से खरीदी हुई वस्तु का बिल भी माँग लिया; ताकि वस्तु यदि खराब निकले तो बिल दिखाकर उसे वापस किया जा सके। यह सब तो बिल के कारण हो सकता है। पर आज भी हमारे सामने कई सवाल हैं, जिसका जवाब हमें नहीं मिलता। हमारी पूरी जागरूकता के बाद भी। क्या आप भी जानना चाहेंगे कि हम रोज ही किसी न किसी तरह से ठगे जा रहे हैं। हमारी जागरूकता भी हमारे काम नहीं आ रही है। हमारी कहीं सुनवाई नहीं है। हमारे सवालों का जवाब सरकार के पास भी नहीं है। कहीं-कहीं तो सरकार भी लाचार है। उपभोक्ताओं को जगाकर वह स्वयं भी परेशान होगी, यह तय है।

आइए कुछ ऐसे बिंदुओं की ओर ध्यान दें, जिसके कारण हम ठगे जा रहे हैं-

· आप जो पेट्रोल खरीद रहे हैं, वह किस रंग का है?

· क्या आप विश्वासपूर्वक कह सकते हैं कि जो पेट्रोल आपने खरीदा, उसका माप सही है?

· क्या आपको यह भी विश्वास है कि उसकी गुणवत्ता और मात्रा सही है?

· हर पेट्रोल पंप पर आपको नोजल के पीछे का पाइप काले रंग का ही दिखाई देगा। इससे आपको यह भी पता नहीं होता कि पाइप से किस रंग का पेट्रोल आ रहा है, कहीं घासलेट तो नहीं आ रहा है?

· आप यदि दो लीटर पेट्रोल की माँग करते हैं, तो पम्प में क्या दो लीटर का माप है?

· इलेक्ट्रॉनिक मीटर पर आप कहाँ तक भरोसा कर सकते हैं?

· हमें जिन कर्मचारियों से पेट्रोल प्राप्त होता है, उनका वेतन बहुत ही कम होता है। अनजाने में मालिक द्वारा उन्हें छूट मिल जाती है कि वे हमें पेट्रोल देते हुए अपनी आय बढ़ा सकते हैं।

· पेट्रोल पंप पर जब आप पहुँचे, तब आपके आगे कोई अन्य उपभोक्ता नहीं है, तो कर्मचारी ने नोजल सीधे आपके वाहन के टैंक के मुहाने पर रखा और शुरू कर दिया पेट्रोल देना। आप शायद भूल गए कि शुरू में कुछ देर तक उससे पेट्रोल नहीं, हवा ही निकली है। मीटर ने सही बताया, आपने बिल लिया और आगे बढ़ गए। मतलब आपने पेट्रोल की कीमत पर हवा खरीदी!

· पेट्रोल पंप पर आपके वाहन में भरी जाने वाली हवा मुफ्त में मिलती है, लेकिन हवा भरने वाला आपसे रुपए माँगता है। क्या यह उचित है?

· अगर आपको दिए गए पेट्रोल पर आपको शक है और आप उसकी जाँच करवाना चाहते हैं, तो क्या आपको मालूम है कि वह पेट्रोल कहाँ जाएगा? शायद नहीं। चूँकि सरकार के पास अपनी प्रयोगशाला नहीं है, इसलिए वह पेट्रोल जाँच के लिए उसी कंपनी की प्रयोगशाला में जाएगा, जिस कंपनी का वह पेट्रोल है!

· मानक माप के लिए हर पेट्रोल पंप पर केवल पाँच लीटर का ही माप रखा हुआ है। उससे केवल पाँच लीटर पेट्रोल मापा जा सकता है। अभी तक सरकार ने इससे कम पेट्रोल का माप बनाया ही नहीं। यह परंपरागत माप है, जो हम सब बरसों से देखते आ रहे हैं। इन मापों के तलों में फेरफार करके काफी पेट्रोल बचाया जा रहा है।

· सरकार के इस संबंध में नियम कायदे इतने पेचीदा हैं कि साधारण उपभोक्ता उसे समझ नहीं सकता। उसके बाद उसकी कार्यप्रणाली भी इतनी ही पेचीदा है कि उसे पूरी करने में उपभोक्ता का समय और श्रम ही बरबाद होगा।

· अभी तक किसी पेट्रोल पंप मालिक पर ऐसी कोई कड़ी कार्रवाई नहीं हुई, जिससे अन्य पेट्रोल पंप मालिकों पर प्रभाव पड़े।

· अंत में यही बात कि पेट्रोल पंपों की जाँच करने वाले नाप-तौल विभाग के कर्मचारियों को कंप्यूटर का ज्ञान नहीं है, इससे वे इलेक्ट्रॉनिक मीटर में होने वाली गड़बड़ी से अनजान होते हैं।

· पेट्रोल के बाद अब यदि आप बाजार चले जाएँ, तो वहाँ सब्जी वालों के तराजुओं पर जरा भी विश्वास न किया जाए, तो ही ठीक है। क्योंकि ये तराजू हमेशा से ही त्रुटिपूर्ण होते हैं। इनकी जाँच समय-समय पर होती है, पर केवल उनकी, जिनके पास मानक तराजू हैं। बाकी तो छापे के पहले ही भाग जाते हैं। थोड़ी देर बाद वे फिर आ जाते हैं।

· अंत में एक महत्वपूर्ण बात। अपने घर पर आने वाले बिजली बिल का संपूर्ण अध्ययन कर क्या आप बता सकते हैं कि आप पर किस तरह का चार्ज किस कारण लिया गया?

ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो आम उपभोक्ता नहीं जानता। यदि यह सब जान जाएगा, तो सरकार और उसके विभाग को जवाब देना मुश्किल हो जाएगा। इन पंक्तियों के लेखक ने मध्यप्रदेश के नियंत्रक नाप- तौल से विस्तार से बात की, उन्होंने एक आम उपभोक्ता की तरह उपभोक्ता के अधिकारों को बताया, पर सच कहा जाए, तो वे अधिकार भी इतने पेचीदा हैं कि उस पर अमल करना भी मुश्किल होगा। एक शिकायत के बाद सारी मशक्कत उपभोक्ता को ही करनी होगी। सच तो यह है कि आज किसी उपभोक्ता के पास इतना समय नहीं है कि अपने सारे काम छोड़कर शिकायत और उसकी तमाम कार्रवाइयों की जानकारी में लगाए। आम उपभोक्ता की इसी कमजोरी का लाभ उठाते हुए आज हर जगह उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है। एक जागरूक उपभोक्ता यह तो देख रहा है कि उसने पेट्रोल लेने के पहले ही 0 देख लिया है, उसके बाद भी यदि उसे पेट्रोल कम मिलता है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? एक किलो सब्जी के बजाय उसे मात्र 900 ग्राम ही मिलती है। इसका जवाबदार कौन है? जिम्मेदारी कोई नहीं लेना चाहेगा; क्योंकि पूरे प्रदेश में एक आँकड़े के अनुसार नाप तौल- विभाग के 600 कर्मचारी हैं और उपभोक्ता 10 लाख।

इसके सुझाव के रूप में कुछ बातों का समावेश किया जाए, तो स्थिति काफी हद तक नियंत्रित हो सकती है-

· यदि सभी उपभोक्ता अपने साथ प्लास्टिक या एक्रेलिक का माप रखें और उसी से पेट्रोल प्राप्त करें, तो उन्हें कम से कम पूरी मात्रा में पेट्रोल मिलेगा।

· नोजल के पीछे का पाइप पारदर्शी किया जाए, इससे उपभोक्ता को पता तो चलेगा ही कि वह पेट्रोल ले रहा है या हवा। जब गोली की मार झेलने वाला पारदर्शी कवच बन सकता है, तो पारदर्शी पाइप क्यों नहीं बनाया जा सकता?

· हर पेट्रोल पंप पर पेट्रोल की जाँच करने वाला यंत्र उपलब्ध हो, जिससे तुरंत जाँच हो सके।

· सरकार इस काम में वाहन बनाने वाली कंपनियों का सहयोग ले सकती है, जिन्हें हमेशा यह शिकायत मिलती है कि उनका वाहन सही एवरेज नहीं देता। यह सभी जानते हैं कि एवरेज सही इसलिए नहीं मिलता; क्योंकि उन्हें पेट्रोल या डीजल ही सही माप का नहीं मिलता। वाहन कंपनियों के आगे आने से उपभोक्ताओं को इस तरह की परेशानी से मुक्ति मिल जाएगी।

· पेट्रोल पंप पर ऐसी व्यवस्था की जाए, जिसमें उपभोक्ता पहले बिल प्राप्त करे, बाद में उसे पेट्रोल मिले। इससे हर उपभोक्ता को बिल तो मिल ही जाएगा, फिर उसे शिकायत करने में सुविधा होगी। अभी तो माँगने पर ही बिल मिलता है, या फिर 'बाद में ले लेना' कहकर टाल दिया जाता है। इससे पंप मालिक को ही लाभ होता है।

· सारी व्यवस्था उपभोक्ता की परिस्थितियों को देखते हुए की जाए; क्योंकि आज किसी के पास इतना समय नहीं है कि बिल लेने के लिए भी दो मिनट खड़ा रहे। उसे वे दो मिनट भी भारी पड़ते हैं।

· पेट्रोल पंप पर आवश्यक फोन नम्बर की सूची में नियंत्रक नाप- तौल का भी नम्बर हो, ताकि शिकायत करनी हो, तो उनसे सम्पर्क किया जा सके।

· जिन पेट्रोल पंपों पर छापे पड़े हों और उन पर कार्रवाई हुई हो, तो उनके नाम शहर के चौराहों पर अंकित किए जाएँ, जिससे उपभोक्ता उन पेट्रोल पंपों पर जाने के पहले सचेत हो जाएँ।

· उपभोक्ता कई बार कम पेट्रोल मिलने की शिकायत इसलिए नहीं कर पाता, क्योंकि जब उसके वाहन में पहले से ही कुछ पेट्रोल था, उस पर पेट्रोल डाला गया, इससे पूरा पेट्रोल नहीं मापा जा सकता। आखिर इसका भी तो कोई उपाय होना चाहिए।


क्षणिकाएँः हँस पड़ी है नज़्म

   - हरकीरत हीर






1. वादा 

वादा किया था 

ख़ुद से

कि अब कभी 

रुख़ न करेंगे तेरे दर की ओर ....

बेहया नज़्म  

ख़्वाबों में रातभर

तेरे लफ़्ज़ों के सिरहाने

बैठी रही ....

2. चुभन

कुछ टुकड़े 

रातभर चुभते रहते हैं देह में

जिन्हें चाहकर भी 

नहीं समेट पाई मेरी नज़्म

ज़रूरी होता है 

कुछ टुकड़ों का चुभते रहना भी

लिखे जाने के लिए ......

3.ख़ामोशी

ख़ामोश

हो गई हैं तमन्नाएँ 

जब से 

उन्हें 

दिल से 

निकाला गया है ...

4. किनारा

वो भी

समंदर सा 

मतलबी निकला

जान लेकर

 कह दिया

जाओ लहरों अब 

किनारे लगा दो ....

5. मुहब्बत 

पलटकर देखे

यादों ने

कुछ नज़्मों के पन्ने

 तो

मुहब्बत के कई सारे लफ़्ज़

मुस्कुरा रहे थे

उन दिनों 

दीवारें भी हँसा करती थीं ...

6.दफ़्न

इल्म न था

यूँ

अंदर ही 

दफ़्न करने पड़ेंगे लफ़्ज़

जिन 

लफ़्ज़ों के सहारे

ताउम्र

ज़िंदा रहना चाहती थी

नज़्म ...

7. ख़्वाब 

रात भर

मुझसे लिपटकर 

रोते रहे 

ख़्वाब 

जबसे उन्हें

ख़बर लगी थी

टूट जाने की ...

8. पैग़ाम 

मुद्दतों बाद

ज़ोर से

हँस पड़ी है नज़्म 

आज फिर

कोई

उसके दर पर

रख गया है 

मुहब्बत का पैग़ाम....

9. रिश्ता

बड़ा ही

तकलीफ़ देय था

रिश्ता 

होते हुए भी

बिना किसी अहसास के

उम्र का कट जाना ...

10. बस इतना

मुहब्बत को

अब तुम्हारे 

किसी लफ़्ज़ की

ज़रूरत नहीं 

बस 

इतना दिख जाया करो

कि 

आँखों का गुज़ारा हो जाए ....


विश्व कविता दिवसः अभिव्यक्ति में कविताएँ गद्य से बेहतर हैं

  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यूनिसेफ ने 21 मार्च के दिन को विश्व कविता दिवस के रूप में घोषित किया है। विश्व कविता दिवस मनाने का उद्देश्य काव्यात्मक अभिव्यक्ति (कविताओं) के माध्यम से भाषायी विविधता को बढ़ावा देना है। हर साल इस दिन के लिए कोई एक थीम चुनी जाती है। वर्ष 2022 में इस दिन की थीम ‘पर्यावरण' रखी गई थी। 2023 की थीम थी, ‘सदैव कवि, गद्य में भी (Always a poet, even in prose)' और 2024 की थीम ‘दिग्गजों के अनुभव पर बढ़ना (Standing on the shoulders of giants)'। 

कविता का उपयोग भावनाएँ जगाने के लिए, बिंब रचने के लिए, और विचारों को सुगठित और कल्पनाशील तरीके से व्यक्त करने के लिए किया जाता है। इसमें लय होती है, छंद या मीटर होता है, भावनात्मक अनुनाद होता है। पाठक या गायक कवि की भावना को महसूस करते हैं और यह उनके दिल-ओ-दिमाग में प्रभावी ढंग से उतर जाती हैं। इसमें किफायत, अलंकरण और लय की समझ होती है। ये अक्सर गाई जा सकती हैं। जैसे, हमारा राष्ट्रगान ‘जन गण मन’; यह रवींद्रनाथ टैगोर द्वारा लिखी गई एक कविता है, जिसे हम सभी जोश-ओ-खरोश से गाते हैं। वहीं, हममें से कई अपनी भाषा में दुख-दर्द भरे नगमे भी गुनगुनाते हैं, गाते हैं, सुनते हैं।

वर्ष 2022 का विश्व कविता दिवस लुप्तप्राय भाषाओं, इन भाषाओं में कविताओं, गद्य और गीतों पर केंद्रित था। दुनिया भर में, 7000 से अधिक भाषाएँ लुप्तप्राय हैं। यूनेस्को के अनुसार भारत में, 42 भाषाएँ लुप्तप्राय (10-10 हज़ार से कम लोगों द्वारा बोली जाने वाली) हैं। 2013 से, भारत ने अपनी लुप्तप्राय भाषाओं के बचाव और संरक्षण के लिए एक योजना शुरू की है। वेबसाइट ‘endangered languages in India (भारत में लुप्तप्राय भाषाएँ)’ पर इन लुप्तप्राय भाषाओं की सूची दी गई है। इस सूची में ‘ग्रेट अंडमानी’, लद्दाख में बोली जाने वाली ‘तिब्बती बलती’ और झारखंड की ‘असुर’ भाषाएँ शामिल हैं। मैसूर स्थित स्कीम फॉर प्रोटेक्शन एंड प्रिवेंशन ऑफ एन्डेंजर्ड लैंग्वैज (SPPEL) इस क्षेत्र में सक्रिय रूप से कार्यरत है। 

2023 में विश्व कविता दिवस की थीम थी: आलवेज़ अ पोएट, ईवन इन प्रोज़। शेक्सपियर इसका एक बेहतरीन उदाहरण हैं। उनके गद्य में भी काव्यात्मक लय थी। यहाँ  कुछ उदाहरण दिए गए हैं: ‘Brevity is the soul of wit'; और ‘my words fly up, but my thoughts remain below'। हिन्दी, उर्दू और तमिल में कई विद्वानों ने इसी तरह की कविताएँ/बातें लिखी हैं। 

जब हम गद्य में अपने मन की बात कह सकते हैं तो कविता क्यों लिखना? जहाँ गद्य में प्रयुक्त भाषा स्वाभाविक और व्याकरण-सम्मत होती है, वहीं काव्यात्मक भाषा आलंकारिक और प्रतीकात्मक होती है। ऑक्सफोर्ड स्कोलेस्टिका एकेडमी बताती है कि कविता साहित्यिक अभिव्यक्ति का एक ऐसा रूप है जिसमें भाषा का उपयोग होता है। और एनसायक्लोपीडिया ब्रिटानिका कहता है, कविता में आप भाषा (के शब्दों) को अर्थ, ध्वनि और लय के मुताबिक काफी सोच-समझकर चुनते और जमाते हैं। कविता पढ़ते या सुनते समय, आपके मस्तिष्क का ‘आनंद केंद्र' सक्रियता से बिंबों का अर्थ खोजने और रूपकों की व्याख्या करने में तल्लीन हो जाता है।

वैज्ञानिक और कविता

‘Scientists take on poetry (साइंटिस्ट टेक ऑन पोएट्री)' नामक साइट बताती है कि गणितज्ञ एडा लवलेस, रसायनज्ञ हम्फ्री डेवी और भौतिक विज्ञानी जेम्स मैक्सवेल ने अपने काम के बारे में कविताएँ लिखी हैं। भारत में, वैज्ञानिक एस. एस. भटनागर ने हिंदी में कविताएँ लिखीं। वैसे सी. वी. रमन कवि तो नहीं थे; लेकिन वायलिन की संगीतमय ध्वनियों का वैज्ञानिक आधार जानने में उनकी रुचि थी और उन्होंने ‘एक्सपेरिमेंट विथ मेकेनिकली प्लेड वायलिन’ (यांत्रिक तरीके से बजाए जाने वाले वायलिन के साथ प्रयोग) शीर्षक से एक शोधपत्र लिखा था, जो 1920 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी इंडियन एसोसिएशन फॉर दी कल्टीवेशन ऑफ साइंस में प्रकाशित हुआ था। उन्होंने भारतीय आघात वाद्य यंत्रों (ड्रम या ताल वाद्यों) की विशिष्टता का भी अध्ययन किया। तबला और मृदंग की ध्वनियों की हारमोनिक प्रकृति का उनका विश्लेषण भारतीय ताल वाद्यों पर पहला वैज्ञानिक अध्ययन था। 

इसी तरह, भौतिक विज्ञानी एस. एन. बोस तंतु वाद्य एसराज बजाया करते थे। बर्डमैन ऑफ इंडिया के नाम से मशहूर प्रकृतिविद सालिम अली ने भारत के पक्षियों पर कई किताबें लिखीं। और इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियर श्रीराम रंगराजन (जिनका तखल्लुस ‘सुजाता’ है) ने तमिल में बेहतरीन किताबें और लेख लिखे, जिन्हें उनके भाषा कौशल के कारण हर जगह सराहा जाता है। क्या ऐसे और वैज्ञानिक नहीं होने चाहिए जो संगीत पर कविताएँ और निबंध लिखें? (स्रोत फीचर्स)

लघुकथाः हम बेटियाँ हैं न!

- सन्तोष सुपेकर

 बारह वर्षीया निकिता और दस वर्षीया अमिता घर में अकेली थीं। उनका पाँच वर्षीय इकलौता भाई, माता–पिता के साथ किसी विवाह समारोह में गया हुआ था। दोनों बहनें बैठकर, घर के पुराने फोटो एलबम देख रही थीं।

"ये देखो दीदी, भैया का जन्म के बाद का पहला फोटो, ये उसका फर्स्ट बर्थ डे का फोटो, पीछे हम दोनों भी खड़े हैं।"

"और ये देख, भैया का पहली बार चलते हुए, नहाते हुए, खिलौनों से खेलते हुए, खाना खाते हुए, कितने सारे फोटो हैं। भैया कितना प्यारा लग रहा है न!"

"पर दीदी, भैया के इतने सारे फोटो एलबम में हैं, हमारे तो बस, दो–चार ही फोटो हैं, ऐसा क्यों?" एक तरफा व्यवहार देखकर नन्ही अमिता ख़ुद को रोक न सकी।

"हम बेटियाँ हैं न!" बड़ी ने समझाया। 


पर्व- संस्कृतिः सृष्टि का जन्म दिवस- उगादी

 - अपर्णा विश्वनाथ

उगादी आंध्र प्रदेश की पारंपरिक त्योहारों में से एक है। उगादी/ संवत्सरादि/ युगादि (युग+आदि) यानी एक नए युग की शुरुआत। यह पर्व चंद्र पंचाग के चैत्र मास के पहले दिन (पाड्यमी) को मनाया जाता है।

उगादी का दक्षिण भारत में विशेष महत्त्व अनेक कारणों से है। इस समय वसंत ऋतु अपने पूरे चरम पर होता है; इसलिए मौसम काफी सुहावना तो रहता ही है साथ ही कृषकों में नई फसल को लेकर काफी खुशी और उत्साह का माहौल रहता है।

इसके इतर उगादी के इतिहास (History of Ugadi Festival) पर नजर डालें, तो पौराणिक कथाओं के अनुसार — इसी दिन ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना शुरू की थी और इसी दिन भगवान विष्णु ने मत्स्य अवतार धारण किया था। जिस तरह हम अपना जन्मदिन मनाते हैं, ठीक उसी तरह उगादी सृष्टि के जन्म दिवस मनाने का सांप्रदाय है। इसलिए कई जगहों पर इस दिन ब्रह्म और विष्णु जी को पूजने की परंपरा है।

इतिहासकारों के अनुसार इस पर्व की शुरुआत सम्राट शालिवाहन (जिन्हें गौतमीपुत्र शतकर्णी के नाम से भी जाना जाता है)के शासनकाल में हुआ था।

पर्व का एक पक्ष यह भी है कि पुराने समय में किसानों के लिए यह एक खास अवसर होता था; क्योंकि इस समय उन्हें नई फसल की आमद जो होती थी,  जिसे बेचकर वह अपनी जरूरत का सामान खरीद सकते थे। यही कारण है कि उगादी के इस पर्व को कृषकों द्वारा आज भी इतना सम्मान दिया जाता है।

आंध्र प्रदेश और कर्नाटक के अलावा देश के कई हिस्सों में अलग-अलग नामों से यह पर्व मनाया जाता है।

ऐसी मान्यता कि इस दिन कोई नया काम शुरु करने पर सफलता अवश्य मिलती है, आज भी उगादी के दिन दक्षिण भारतीय राज्यों में लोग नए काम की शुरुआत, दुकानों का उद्घाटन, भवन- निर्माण का आरंभ आदि जैसे शुभ कार्यों की शुरुआत उगादी के दिन करते हैं।

प्रकृति और परंपरा

हमारे भारतीय त्योहार, और प्रकृति एक दूसरे के पर्याय हैं। हर त्योहार में एक विशेष खानपान का महत्त्व होता है। गौर करने पर हम पाएँगे कि यह विशेष खानपान के नियम हमारे शरीर को ऋतुओं में हुए परिवर्तन से लड़ने के लिए तैयार करता है और हमारे शरीर के प्रतिरोधी क्षमता को भी बढ़ाता है। प्रकृति के साथ अनुसंधान करने, प्रकृति के साथ तालमेल बिठाने और प्रकृति के करीब जाने का एक बहाना है हमारे भारतीय पर्व- त्योहार ।

उगादी के दिन

उगादी के दिन घर के सभी सदस्य जल्दी उठकर, सिर से नहाकर, नूतन या स्वच्छ वस्त्र धारण करते हैं। विधिपूर्वक घर में पूजा- पाठ करके भगवान को उगादी पच्चडी का नैवेद्य समर्पित किया जाता है और भगवान के आशीर्वाद के रूप में घर के सभी सदस्य यह उगादी पच्चडी ग्रहण करते हैं। अपने संस्कारों का निर्वहन करते हुए भगवान तथा बड़ों से आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। उसके बाद ही अन्य पकवान और खानपान खाने की प्रथा है। तत्पश्चात् देवालय जाकर भगवान के दर्शन करके वहाँ या अन्यत्र जहाँ पंचांग श्रवण हो रहा है,  वहाँ पंचांग श्रवण करने की प्रथा है। यह संस्कार और प्रथा आज भी आंध्रप्रदेश की परंपरा और संस्कृति में जीवित है।

उगादीपच्चडी (चटनी) और पंचांग श्रवणं का विशेष महत्त्व

उगादी के दिन प्रसाद के रूप में एक प्रकार की पच्चडी (चटनी) कुल छह प्रकार की खाद्य सामग्री (कच्चा आम, नीम का फूल, इमली, गुड़, हरी मिर्च और सेंधा लवण ) के मिश्रण से तैयार की जाती है। यह पदार्थ स्वास्थ्य और स्वाद दोनों ही दृष्टि से अति उत्तम है। इसके बिना उगादी अधूरी है।

ये छह पदार्थ आयुर्वेदिक और औषधीय गुणों से भरपूर होने के साथ ही जीवन के षड रसों को भी इंगित करता है। जिस तरह से यह छह रस हमारे भारतीय भोजन का महत्वपूर्ण हिस्सा है, उसी तरह हमारा जीवन भी हर्ष, विषाद, क्रोध, कड़वाहट, भय तथा आश्चर्य इन छह संवेदनाओं का मिश्रण है और हमारे जीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है।

इन षड् रसों में हमारी संवेदनाएँ किस तरह शामिल है -

1- गुड़ मीठा होता है और मीठा खुशियों का प्रतीक है।

2- कच्चे आम का तुर्श और अम्लीय स्वाद जीवन के आश्चर्य और जीवन की नई चुनौतियों का प्रतीक है।

3- नीम फूल का कड़वा स्वाद जीवन के विषाद और कठिनाइयों का प्रतीक है।

4- इमली का खट्टा स्वाद जीवन के चुनौतियों का प्रतीक है।

5- हरी मिर्च का उष्ण और तीखापन क्रोध का प्रतीक है।

6- लवण का नमकीन स्वाद जीवन के अज्ञात या अपरिचित पहलू का प्रतीक है।

इन छह सामग्रियों के अलावा पच्चडी को और स्वादिष्ट बनाने के लिए उपर से नारियल, केला, मधु का प्रयोग भी किया जाता है। कुछ लोग हरी मिर्च की जगह काली मिर्च (गोलमिर्च) का इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन उपर्युक्त छह सामग्री मुख्य रूप से उगादी पच्चडी के लिए होना अति आवश्यक है।

यह उगादी पच्चडी हमें बताता है कि जिस तरह भोजन को पौष्टिक और स्वादिष्ट बनाने के लिए हम षड् रस का प्रयोग करते हैं, ठीक उसी प्रकार भावनात्मक स्वास्थ्य जीवन के लिए इन छह संवेदनाओं का भी स्वागत किया जाना चाहिए और यह भी कि किसी तरह के असफलताओं पर उदास नही होना चाहिए बल्कि सकारात्मकता के साथ नयी  शुरुआत करनी चाहिए।

पंचांग श्रवणं

पंचांग के पाँच अंग है तिथि, वार, नक्षत्र, योगं और करणं।

इन पंच अंग का आपके जीवन में इस नववर्ष में क्या प्रभाव रहेगा। उगादी के दिन पंचांग सुनने की प्रथा उगादी पर्व का एक अंग है।


कविताःअकिला फुआ

  - डॉ. शिप्रा मिश्रा 


अब उनकी

कोई जरूरत नहीं

 


पड़ी रहती हैं

एक कोने में

अपनी खटारा मशीन लेकर

 

सुतली से बँधे चश्मे को

कई बार उतारती और

पहनती हैं और 

लगीं रहती हैं 

सूई में धागे पिरोने की

निरर्थक कोशिश में

 

एक जमाने में 

सलाइयों पर तो जैसे

उनकी अँगुलियाँ

थिरकती रहती थीं

 

रिश्तेदारी के सारे

नवजन्मे बच्चे

और तो कुछ बड़े भी

उन्हीं की सिले हुए

झबले, स्वेटर, कुलही

पहनकर पोषित हुए 

 खानदान भर के

पोतड़े, फलिया, गदेली

सिलती रहीं बच्चों के

 

अब तो सब कुछ

मिल जाता है रेडिमेड

सुन्दर, आकर्षक, सुविधाजनक

 

कौन सिलवाए ऐसी

फटी-पुरानी साड़ियों

और बदरंग चद्दरों के 

बेकार की जहमतें

 

एक जमाने में

गाँव भर में 

अकिला फुआ की 

हुआ करती थी

खूब पूछ

 

बेटी का सगुन या

बेटे का परछावन

नहीं होता था

उनके बिना

 

अकिला फुआ

पुरनिया- सी बैठकर

सलाह दिया करती थी

मुफ्त की

 

लेकिन अफसोस

अब खत्म हो गई

उनकी पूछ

हाल-चाल भी नहीं

जानना चाहता कोई

 

दमे की खाँसी ने

परास्त कर दिया उन्हें

अपनी धुँधली रोशनी में

भीग- भीग जाती हैं

उनकी बूढ़ी आँखें

अपने पुराने दिनों को

याद करते हुए

 

काश! 

अब भी कोई

विचारता

रेडिमेड के चलन से

टूट गए, बिखर गए

न जाने कितने परिवार

न जाने कितनी बूढ़ी आस..

0

shipramishra1969@gmail.com


कविताः औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?

   - डॉ. शैलजा सक्सेना 

औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


उनकी उम्मीद 

कमल के नाल सी,

न जाने किस भविष्य में गड़ी होती है,

कठोर सच की कैंची काटती है यह नाल

पर औरतों की उम्मीदें बीजासुर सी 

हज़ार शरीरों से उग आती हैं,

ये अपना पूरा सत देकर इन्हें पालती हैं,

औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


प्यार की उम्मीद,

आदर की उम्मीद

प्रशंसा और सराहना की उम्मीद

उम्मीद अक्सर होती नहीं पूरी,

और ये कड़वाती चली जाती है

पहले ज़ुबान/ फिर दिल/ फिर दिमाग

चिड़चिड़ेपन का एक झाड़ बना

अटक जाती हैं उसमें,

नोंचती हैं गुस्से में, 

अपनी ही संभावनाओं के पंख,

दुख से लहूलुहान हो जाती है!


आँसुओं से भीगकर 

पत्थर हो जाते हैं रुई से सपने

एकदम पराये लगते हैं सब अपने,

तब मौत के ख़्याल से 

जीने की ज़रूरत पूछ्ती हैं,

ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


ज़िंदगी भर एक ही वाक्य रटती/ रटाती हैं;

“सब कुछ ठीक हो जाएगा एक दिन”

तिनके की तरह पकड़कर इन शब्दों को

ज़िन्दगी पार करने की कोशिश करती हैं,

भोली हैं,

झूठ को सच करने पर तुली रहती हैं,

फिर-फिर धोखे खाती हैं

जीने की चाह में मरी-मरी जाती हैं,

ये औरतें इतनी उम्मीद क्यों करती हैं?


बोध कथाः एक स्त्री किसी पुरुष से क्या चाहती है?

  - निशांत

एक स्त्री किसी पुरुष से क्या चाहती है?

इस प्रश्न का उत्तर एक कहानी में है। यह कहानी पता नहीं कितनी सच है या झूठ। यह एक फैंटेसी है, तो काल्पनिकता के सारे तत्व इसमें मौजूद हैं।

कहते हैं कि राजा हर्षवर्धन किसी युद्ध में परास्त हो गया।

उसे कैदियों की तरह बांधकर जीतने वाले राजा का सामने पेश किया गया। जीतने वाला राजा उस समय बहुत खुश था।

उस राजा ने हर्षवर्धन के सामने एक प्रस्ताव रखा। उसने कहा, “यदि तुम मुझे एक प्रश्न का सटीक उत्तर खोजकर बता दोगे, तो मैं तुम्हारा राज्य तुम्हें वापस कर दूँगा। इस काम में असफल रहने पर तुम्हें आजीवन कारावास दिया जाएगा।”

“प्रश्न यह है , ‘स्त्री अपने पुरुष से क्या चाहती है?’ इसका उत्तर देने के लिए तुम्हें एक महीने का समय दिया जाता है।”

हर्षवर्धन ने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।

वह कई ज्ञानियों, उपदेशकों, संतों, पुजारियों, गृहणियों, नौकरानियों… यहाँ तक कि वेश्याओं के पास भी गया, ताकि यह पता लगा सके कि कोई स्त्री अपने पुरुष से क्या चाहती है?

किसी ने उसे आभूषणों के बारे में बताया, तो किसी ने संतान के बारे में कहा। किसी ने सुंदर घर-परिवार की बात कही, तो किसी ने धन-वैभव आदि के बारे में कहा।

हर्षवर्धन को किसी भी उत्तर से संतुष्टि नहीं हुई।

एक महीने की समयावधि पूरी होने वाली थी; लेकिन हर्षवर्धन की समस्या जस-की-तस बनी हुई थी।

फिर किसी ने हर्षवर्धन को बताया कि दूर किसी देश में एक चुड़ैल रहती है। केवल वही इस प्रश्न का उत्तर दे सकती है; क्योंकि उसके पास हर प्रश्न का उत्तर है।

हर्षवर्धन अपने मित्र सिद्धिराज के साथ उस चुड़ैल से मिलने गया। उससे उसने वही प्रश्न किया।

चुड़ैल बोली, “मैं इस प्रश्न का सही उत्तर दे सकती हूँ; लेकिन तुम्हारे मित्र को मुझसे विवाह करना होगा।”

जैसी कि चुड़ैलें होती हैं, यह चुड़ैल भी बहुत बूढ़ी और कुरूप थी। हर्षवर्धन अपने मित्र के साथ यह अन्याय नहीं करना चाहता था।

लेकिन हर्षवर्धन और उसके राज्य को बचाने के लिए सिद्धिराज ने चुड़ैल से विवाह करने के लिए मंजूरी दे दी। यह विवाह संपन्न हो गया।

फिर चुड़ैल ने हर्षवर्धन को प्रश्न का उत्तर बताया, “कोई भी स्त्री अपने पुरुष से यह चाहती है कि उसे इतनी स्वतंत्रता मिले कि वह अपने निर्णय स्वयं ले सके।”

हर्षवर्धन को यह उत्तर पसंद आया।

हर्षवर्धन ने जीतने वाले राजा को यह उत्तर बता दिया। राजा को भी यह उत्तर पसंद आया, और उसने हर्षवर्धन को मुक्त करके उसका राज्य उसे सौंप दिया।

दूसरी ओर, विवाह की पहली रात को चुड़ैल ने अपने पति सिद्धिराज से कहा, “तुम्हारा मन बहुत शुद्ध है। तुमने अपने मित्र के लिए अभूतपूर्व त्याग किया है। मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूँ।”

“मैं हर दिन 12 घंटों के लिए इस चुड़ैल के वीभत्स रूप में रहती हूँ और शेष 12 घंटे अनिद्य सुंदरी के रूप में रहती हूँ। तुम मुझे बताओ कि तुम मुझे हमेशा किस रूप में देखना चाहते हो। तुम जो कहोगे मैं वैसा ही करूँगी।”

सिद्धिराज ने कहा, “यह निर्णय लेने का अधिकार तुम्हें ही है प्रिये। मैंने तुम्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया है। तुम वही करो, जो तुम्हें पसंद हो, और मैं तुम्हें वैसे ही चाहूँगा।”

यह सुनते ही चुड़ैल परम सुंदरी के रूप में बदल गई और बोली, “तुमने मुझे निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी; इसलिए अब से मैं हमेशा इसी रूप में सुंदर बनी रहूँगी।”

“वास्तव में मेरा असली रूप यही है। मैंने अपने चारों ओर सदा भद्दे लोगों को ही पाया इसलिए मैंने भी कुरूप चुड़ैल का रूप धर लिया था।” ( हिन्दी जेन से)

कविताः कहाँ हो तुम

  - दीपाली ठाकुर

पत्र, पत्रिकाओं में देखती हूँ 

खबर तुम्हारे आने की

और फिर आतुर, जा पहुँचती हूँ 

अपनी गैलरी में

देखती हूँ, हथेली की ओट बना

मगर पाम की कतारों के बीच

या कहीं अकेला ही खड़ा, 

नही दिखता कोई भी बौराया हुआ पेड़

दिखाई देते हैं केवल फूलों से लदे

कुछ पेड़, मैं इन्ही बेगाने फूलों में 

तलाशने लगती हूँ,

टेसू , पलाश ,अमलतास

मेरी तलाश अब बाहर से 

मेरी गैलरी में सजे 

पॉट्स पर आ टिकी 

एक नजर फिर 

पैलारगोनियम ,जिरियम,

पिटूनिया ,बिगुनिया

पर डालते हुए 

धर देती हूँ हथेली कान पर

इस आस में कि,

सुन लूँ कोयल की कूक ही

और फिर गाड़ी पर सवार

निकल आती हूँ, शहर के बाहर

तुम्हारी तलाश में

कहाँ हो तुम ?

बसन्त

सम्पर्कः B2/38 ‘ठाकुर विला’ रोहिणीपुरम, लोकमान्य सोसायटी, रायपुर ( छ. ग.)

व्यंग्यः पियक्कड़ों की देशसेवा

  - गिरीश पंकज

किसी ने प्रश्न किया : क्या लड़खड़ाते कदमों से भी देश की सेवा हो सकती है?

उत्तर मिला : क्यों नहीं हो सकती। इस तथ्य को जो नहीं समझते, वे बंदे नादान हैं। लड़खड़ाते कदमों से चलने वालों को कमअक्ल लोग शराबी कह कर अपमानित करते हैं। वे इस तथ्य से नावाकिफ है कि लड़खड़ाते कदमों का भारतीय अर्थव्यवस्था में कितना बड़ा योगदान है।

उस दिन हमने देखा, एक पियक्कड़ बंदे के कदम दिन में ही लड़खड़ा रहे थे।  मैं तो उस दिव्य आत्मा को देखकर बड़ा गद्गद हुआ। काहे कि देश की अर्थव्यवस्था के निरन्तर उत्थान में इस जैसे अनेक महापुरुषों का अप्रतिम योगदान है। इन सब का तो सार्वजनिक अभिनंदन होना चाहिए। सरकार को एक विशेष योजना चलानी चाहिए, जिस के तहत जिस किसी के भी कदम दिन-दहाड़े या रात-बिरात लड़खड़ाते दिखें, उनकी अलग से सुरक्षा-व्यवस्था करनी चाहिए; ताकि वे नाली-वाली में न गिर जाएँ। आज उस व्यक्ति के कदम भले ही लड़खड़ा रहे हैं; लेकिन उसके कारण देश आर्थिक समृद्धि की ओर बढ़ रहा है, यह नहीं भूलना चाहिए। हम विश्वास के साथ यह कह सकते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में पियक्कड़ों का अपना बड़ा योगदान है।

आज देश के अनेक राज्यों की अर्थव्यवस्था शराब की अद्भुत धुरी पर टिकी हुई है। शराबबंदी हो जाए, तो कुछ राज्य बेचारे शायद दिवालिया ही घोषित कर दिए जाएँ। यह तो बेचारी इकलौती शराब ही है, जिसके कारण सरकारों के चेहरों पर शबाब नज़र आता है । बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद। नादान हैं वे लोग, जो बोलते हैं कि शराब बड़ी खराब है। और अब तो सामने होली है। होली की खुशी में लोग छककर शराब पीते हैं। कुछ लोग तो सुबह से ही टुन्न रहते हैं । यह और बात है कि शाम होते-होते वे अकसर दिमागी तौर पर सुन्न भी हो जाते हैं। लेकिन ये महान लोग देश को मजबूत कर रहे हैं। अर्थशास्त्री बताते हैं कि लोग जितनी अधिक शराब पिएँगे, जितने ज्यादा लोगों के कदम लड़खड़ाएँगे, उतनी ही देश में समृद्धि आएगी। और हम देख भी रहे हैं कि कोई भी अति समझदार सरकार शराबबंदी नहीं लागू करना चाहती। पहले सरकारें मूर्ख हुआ करती थीं। वे जनता को अधिक-से-अधिक सब्सिडी देकर लाभ पहुँचाने की कोशिश किया करती थीं ; लेकिन अब इक्कीसवीं सदी में राज्य सरकार हो या केंद्र सरकार, सभी में होशियारी नहीं डेढ़-होशियारी आ गई है। विश्व बाजार में पेट्रोल की कीमत कम होती है ; लेकिन हमारे यहाँ एक बार जो कीमत चढ़ गई तो वह चढ़ी रहती है। जैसे किसी शराबी के दिमाग में नशा चढ़ा रहता है, उस तरह पेट्रोल की कीमत भी चढ़ी रहती है। शराब से दुखी लोग माँग करते रहते हैं कि शराबबंदी की जाए और सरकार कहती भी है कि हम जल्द करेंगे;  लेकिन यह जल्द कभी जल्द ही नहीं आता। मदिरा अपने हुस्न पर इठलाती हुई अपनी जगह जमी रहती है। पीछे के दरवाजे से सरकार को भी धन्यवाद भी देती है कि तुम्हारे कारण मेरे हुस्न का जलवा जमा हुआ है। सरकार भी एक आँख दबाते हुए कहती है- ''ऐ हुस्न की मलिका! तुम तो अपना काम करो। हमारे जीने-खाने की व्यवस्था तुम्हारे ही भरोसे तो है। अगर हम तुमको ही बंद कर देंगे, तो हमारा क्या होगा।''

तो सरकार और शराब दोनों मिल-जुलकर इस देश को आगे बढ़ा रहे हैं। लेकिन सबसे महत्वपूर्ण योगदान हर उस आदमी का भी है, जो शराब पीकर लड़खड़ा रहा है । आप कह सकते हैं- " देखिए, वह शराबी है। लड़खड़ा कर चल रहा है।'' लेकिन आप भूल जाते हैं कि उसके लड़खड़ाते कदम देश की अर्थव्यवस्था को लड़खड़ाने नहीं देते।

पिछले दिनों ऐसे ही एक टुन्न सज्जन  सो भेंट हो गई। देश की अर्थव्यवस्था में उनका योगदान है;  इसलिए मैंने उन्हें दूर से नमस्ते किया। फिर पास आकर कहा, ''तुम बहुत शराब पीते हो?"

वह उत्साहित होकर बोला, "हाँ,पीता हूँ।  आइए न, आप भी बैठ जाइए। एक से भले दो।"

मैंने हाथ जोड़ कर ज़वाब दिया,  ''बंधु, मैं तुम्हारी तरह महान नहीं हूँ।  मैं राष्ट्र की अर्थव्यवस्था में अपना योगदान नहीं कर पा रहा हूँ;  क्योंकि मैं दूध से काम चला लेता हूँ। कहाँ शराब और कहाँ दूध।"

शराबी ने मुझे हिकारतभरी नज़रों से देखते हुए कहा, "इतने बड़े हो गए हो और अभी तक दूध पीते बच्चे हो? शर्म नहीं आती । हमको देखो, हमने दूध पीना कब का छोड़ दिया है, शराफत की तरह। अब तो सुबह और शाम भर लेते हैं जाम, और सबको देते हैं यही पैगाम कि शराब पीकर देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत करें। मुझे अपने आप पर गर्व है कि रोज एक -दो बोतल खरीदकर सरकार के खजाने को समृद्ध करता हूँ। आप भी देश को मजबूत करें न! एक से भले दो!"

उसने मेरा हाथ पकड़ लिया और पैग  बनाने लगा। बड़ी मुश्किल से उसकी चंगुल से छूटकर निकल भागा। वैसे बंदे की बात में दम तो है। भले ही पियक्कड़ों के कदम लड़खड़ाते हों, लेकिन देश की अर्थव्यवस्था को वे मजबूती के साथ सँभाल रहे हैं, इसमें दो राय नहीं।

कहानीः मुलाकात

  - जूही 

युक्ता बार - बार खिड़की तक जाती और पर्दों के बीच एक छेद बना, बाहर देख लौट आती। जब यह क्रम उसने कई बार दोहरा लिया, तो एक ठंडी गहरी साँस उसके मुख से निकली और वह हताशा से भर कमरे में रखे दीवान पर पसर गई। कमरे की हवा जो पहले से ही बोझिल थी, अब एक नई उत्तेजना से भर गई। 

उसने अपने गले से दुपट्टा हटाया और कुछ यूँ ज़मीन पर फेंका, जैसे वह दुपट्टा न होकर उस प्रतीक्षा के क्षण हों, जिनमें वह जकड़ी है। अब उसकी नज़र खिड़की से हटकर घड़ी पर आ टिकी थी और मन ही मन कोफ्त हो रही थी कि वह समय से पहले क्यों तैयार हो गई। यूँ तैयार होने में भी उसे बहुत वक़्त लगा था और काफी सोचने के बाद उसने वार्ड रोब से एक सादा पीला सूट निकाला था। काफी देर तक वह हिसाब करती रही थी की पिछली मुलाकात और इस मुलाकात के बीच वह कितनी बदली थी। बाहर से, और भीतर से भी। पर इतनी जद्दोजहद के बाद भी वह समय से पहले तैयार थी। 

ज़िन्दगी में ऐसी कई चीज़ें थी जिनसे उसे सख्त नफरत है, और यूँ इंतज़ार करना भी कुछ समय से उस फेहरिस्त में शामिल हो गया था। अब वह उन लोगों में से नहीं थी, जिन्हें इंतज़ार करना अपनी नियति का हिस्सा लगता है, जिन्हें प्रतीक्षा में सुख मिलता है। इंतज़ार के समय को वह सोचने का समय कहने लगी थी और अकसर इस दौरान उन कामों को याद करने लगती, जो उसे करने थे। बाज़ार से सामान लाना था, बाथरूम में हो रही लीक की मरम्मत करवानी थी, कुछ पेपर थे - जिन्हें साइन करना था - जैसे मन ही मन इन कामों को याद कर वह खुद को याद दिला रही हो कि वह भी कुछ है, ज़रूरी है, व्यस्त है, आत्म निर्भर है। किसी भी चीज़ या बात के लिए इंतज़ार करना जैसे उसका अपना बड़प्पन है और वह एक झटके में किसी अन्य विकल्प को चुन इंतज़ार की डोर को तोड़ सकती है। और जब वह संतुष्ट हो जाती कि करने लायक कामों की काफी संख्या हो चुकी है, फिर उसे इंतज़ार का विकल्प सिर्फ एक ऐसा विकल्प मात्र लगता, जो उसने स्वयं चुना हो। पर उसने आखिरी बार कोई चीज़ चुनी ही कब थी? या कब  उसने इंतज़ार नहीं किया था? सवाल के जवाब में अपने सनकीपन पर पहले उसे खीज हुई और फिर बेतहाशा हँसी आई। वह सोचते अवश्य बहुत दूर निकल जाती कि घंटी बज पड़ी। निकलने के समय से कुछ पंद्रह मिनट पहले।

 उसे राहत हुई और अपने फेंके हुए दुपट्टे को उठा गले पर सजा लिया। एक बार शीशे में खुद को देखा और दरवाजे की तरफ बढ़ चली। 

“मुझे लगा ही था तुम तैयार हो गई होगी, इसलिए जल्दी चला आया।”

“हाँ, तैयार हुए भी कुछ देर हो गई। पर मैंने तुमसे कहा था कि मैं चली जाऊँगी, तुमने  ख्वाहमख्वाह  तकलीफ की।”

“तुम जानती हो मुझे कोई तकलीफ नहीं। और यह भी जानती हो कि मैं आने वाला था। खैर छोड़ो! मैं नीचे गाड़ी में हूँ।”

उसने धीमे से सर हिला दिया। वह जानती थी कुछ और कहना बेमानी होता। सालों की दोस्ती को यूँ लाग लपेट में तौलना उनके रिश्ते को मैला कर देता। 

गाड़ी में एक पुरानी ग़ज़ल चल रही थी। उन दोनों के बीच की चुप्पी उन पर तारी नहीं थी, न ही कभी होती थी। फिर भी बहुत से सवाल थे, जो अभय पूछना चाहता था, इसलिए चुप्पी को भेदना आवश्यक हो गया। पर बातों का कोई सिरा उसके हाथ नहीं लग रहा था, वह कुछ कहता - “हाँ, माँ का फ़ोन आया था। कह रही थी की आज तो कुछ बन पड़े। सुलह कर लो।”

“फिर तुमने क्या कहा ?”

“वही, जो मैं हर बार कहती हूँ। मैं कोशिश करूँगी।”

“देखो, मुझे पता है आंटी यह क्यों कह रही हैं और गलती उनकी भी नहीं है। दीदी भी यही कह रही थी। तुम उन्हें साफ़- साफ बताती क्यों नहीं कि तुम उसे कितने चांस दे चुकी हो? उसके साथ खुद को कितने चांस दे चुकी हो?”

सवाल सुनकर उसे लगा जैसे वह ठिठक गई है। गाड़ी ठिठक गई है। पर अफ़सोस दोनों चल रहे थे, पूरे  वेग से चल रहे थे। कितनी पेचीदा बात है, किसी के हिस्से बस सवाल आते हैं और किसी के हिस्से बस जवाब। और कोई उनमें कितने ही गोते लगाए , सवाल का अधिकारी, जवाब तक नहीं पहुँचता और जवाब का अधिकारी सवाल तक। 

चांस। वह गिनने लगी। माफियाँ, मिन्नतें जैसे ट्रेन के इंजन से लगे डिब्बों की तरह गिनती में खुद शुमार हो गए। फिर आया अपमान, डर, शक, जबरदस्ती, घृणा…। हिसाब की लकीरें उसके हाथों से एकाएक फिसल गई और खाने आपस में मिल गए। और उसके सामने जैसे रह गया एक लाल धब्बा। धब्बे ने आकार में बढ़ते हुए चारों तरफ से उसे घेर लिया। 

अभय को एहसास हो गया कि उसके सवाल ने बीते हुए के खुरंड को कुरेद दिया है। उसने बात बदली और बोला -“वह घबरा  रही थी, पर उसके घर पर बात कर ली है। और इसका श्रेय तुम्हें जाता है।”

“क्या कहा उसके घरवालों ने?”

“शादी के लिए राज़ी हो गए हैं। हम दोनों को एक्सेप्ट कर लिया है उन्होंने।” 

यह सुन एक हलकी मुस्कराहट युक्ता के चेहरे पर फ़ैल गई और वह उसका हाथ सहलाते हुए बोली- “मैं तुम्हारे लिए बहुत खुश हूँ – तुम दोनों के लिए बहुत खुश हूँ।”

ग़ज़ल के बोल कुछ यूँ चल रहे थे-

‘लेकर चले थे हम जिन्हें, जन्नत के ख्वाब थे

फूलों के ख्वाब थे , वो मोहब्बत के ख्वाब थे।’

दोनों ही इसे साथ गुनगुनाने लगे। इम्पीरियल पहुँचने पर भी दोनों ने ग़ज़ल ख़त्म होने तक इसे गुनगुनाना नहीं छोड़ा। दोनों अपनी - अपनी निजी परिस्थितियों से परे एक दूसरे के सुख- दुःख में रमे थे। 

 “जब लेने आना हो, तुम फ़ोन कर देना।”

“नहीं, क्या पता कितनी देर हो जाए। तुम चिंता मत करो, मैं चली जाऊँगी।”

दोनों ने विदा ली, और एक दूसरे को दुआएँ देते रहे। और युक्ता को महसूस हुआ कि दुनिया की सबसे सुखद अनुभूतियों में शामिल है इस बात का एहसास की दुनिया में ऐसा भी एक इनसान है, जो आपका ख्याल करता है। 

इम्पीरियल  के सामने काफी भीड़ थी, पर क्योंकि उसका रिजर्वेशन पहले से था; इसलिए वह सीधे अन्दर चली गई। घड़ी देखी तो ठीक वही वक़्त हुआ था जो मिलने के लिए निर्धारित किया गया था। 

हालाँकि विक्रम को वहाँ न पाकर उसे कोई अचरज नहीं हुआ, और बैरे ने जो टेबल दिखाई वह वहाँ बैठ गई। 

पास वाली टेबल पर एक जोड़ा बैठा था। दोनों को देख लगा जैसे लंबे समय से एक दूसरे को जानते हैं, और नई - नई  शादी हुई है। लड़की के चूड़े का रंग – उसकी ड्रेस से मेल खता था, और कंट्रास्ट में लड़के ने काला रंग पहना था। दोनों बहुत गहराई से एक दूसरे को सुन रहे थे।

सामने वाली टेबल पर एक बच्ची और उसके माता पिता बैठे थे। वह किसी बात पर खिलखिला रही थी और उन दोनों के हाथों पर अपना हाथ रख शायद कुछ नाप तौल कर रही थी।

आसपास की रौनक ने युक्ता के खोखलेपन को और खुरदरा कर दिया। कुछ शब्द उसके आगे तैरने लगे- “सुलह कर लो” , “बच्चा कर लो”, “पति पत्नी में यह बातें चलती रहती हैं। ”                                                                        

यह सब बातें अब उसे यूँ जान पड़ी, जैसे वह एक मृता हो, और उसे कब्र से जगाके कहा जा रहा हो- उठो और अपने कातिल से सुलह कर लो।

उसने घड़ी की और देखा। आधा घंटा हो चला था। इंतज़ार की डोर काटनी थी। उसने बैरे को बुलाया और मिमोसा (शराब) व सिज्ज्लर का आर्डर दे दिया। बैरे ने उसे हैरत भरी निगाहों से देखा, हालाँकि उसे अब इसकी आदत हो गई थी। जिस समाज के नाम से उसे डराया जाता था, यूँ उस समाज को मौका लगने पर जीभ दिखाने में अब उसे एक सुकून मिलने लगा था।

खाना आने के बाद उसने फिर वह मेसेज पढ़ा, जो उसके सवाल के जवाब में आया था – “बस पहुँच रहा हूँ।”

कहीं पहुँचने में कभी इतनी देर क्यों हो जाती है? और कभी चलते- चलते भी मंजिल क्यों हर कदम पर नजदीक आने की जगह दूर फिसलती हुई नज़र आती है?

“ क्योंकि जहाँ हम जाना चाहते हैं, वह जगह हमारे लिए बनी ही नहीं होती।”

उसने औचक हैरानी से सामने देखा, उसकी साथ वाली कुर्सी पर एक अधेड़ उम्र की स्त्री आ बैठी थी, स्त्री का चेहरा उसे कुछ - पहचाना लगा, पर बहुत याद करने पर भी यह समझ नहीं आया कि उसने उसे कहाँ देखा है। 

“माफ कीजिएगा, मैं यहाँ आकर बैठ गई और बड़बड़ाने लगी। दरअसल, बाकी सभी चेयर भरी हुई हैं, और मुझे किसी का इंतज़ार है।”

अगर स्त्री के सफ़ेद बाल न झाँक रहे होते, तो शायद वह उसकी उम्र का अनुमान न लगा पाती। उसके चेहरे पर एक नूर था, और उसकी सादी पीली साड़ी भी उस पर खूब जँच रही थी। 

“आप ज़रूर यहाँ बैठिए, मैं भी किसी का इंतज़ार ही कर रही हूँ।”

“फिर तो हम काफी कुछ एक जैसे ही हैं! आप किसका इंतज़ार कर रही हैं?”

उनका सवाल किसी ताकझाँक वाले शूल की तरह चुभा नहीं; बल्कि उसमें एक ऐसी आत्मीयता का बोध था, जो बोझ नहीं लगती। 

“जी मेरे पति का। हमारी शादी को चार साल हुए हैं। पर हम कुछ समय से अलग रह रहे हैं और रिश्ता बचाने के लिए महीने में दो बार मिलते हैं।”

“लेकिन जब हम साथ थे, तब भी सभी कुछ यूँ था जैसे हम दोनों पुल के अलग-   अलग छोर पर खड़े हों। और वह मुझे अपनी तरफ पुकारते हों। मैं उनकी बात मान उनकी तरफ भागती तो होऊँ: पर फिर भी हमारे बीच का वह पुल लम्बा होता चला जाता हो। मेरे लाख प्रयासों के बाद भी हमारी बनती नहीं है, बल्कि हर प्रयास के बाद जैसे रिश्ते में एक बल और पड़ जाता है। हमारे सम्बन्ध में सब कुछ ब्लैक एंड वाइट रहा है। सिर्फ मेरे इसे बदलने के लिए किए गए हर प्रयत्न को छोड़कर – जो हमेशा ग्रे (एरिया) रहा है।”

वह मिमोसा की सिप लेती हुई बोलती जा रही थी-“मैं पहले शराब नहीं पीती थी; पर इन्हें यह बात खटकती। यह कहते -हम मॉडर्न सोसाइटी में रहते हैं – यहाँ सब पति- पत्नी एक साथ पीते हैं। क्या तुम मेरे लिए इतना नहीं कर सकती? इनका मन रखने के लिए मैंने पीना शुरू किया; पर इनकी सख्त हिदायत थी कि जब मैं कहूँ और साथ रहूँ , सिर्फ तब ही तुम्हें ड्रिंक लेनी है। जैसे मॉडर्न सोसाइटी सिर्फ अपनी बात मनवाने के लिए दिया गया एक ढकोसला हो, और बस इस बात पर टिकी हो कि लोग हमें साथ पीते हुए देखें। कितनी दफा हम किसी महफ़िल में जाते और आने के बाद यह मुझसे शिकायत करते की तुम लोगों से घुलती मिलती क्यों नहीं हो? मैं अपने से परे जाकर लोगों से बात करती, तो कहते की तुम्हें क्या शर्म नहीं आती या शौक चढ़ा है गैर मर्दों से बाते करने का? मेरे ऑफिस को यह मजाक समझते और हर प्रमोशन पर मुझे यह दिखलाते कि मैं इनसे कमतर हूँ और हमेशा रहूँगी। मेरे बनाए खाने से लेकर, मेरे सोचने के ढंग तक हर बात में इन्हें कोई नुक्स नज़र आता; पर फिर भी, वह जिस रूप में मुझे ढालना चाहते, मैं उस रूप में ढलती रही; हालाँकि वह मुझसे संतुष्ट कभी न होते। देखने वालों को लगता कि गलती मेरी है, मेरे अपने घरवालों को लगता है कि गलती मेरी है; इसलिए मैं कोशिश करती हूँ…। पुरजोर कोशिश कि सब कुछ ठीक कर दूँ।

पर…। पर कभी अकेले में – कभी अँधेरे में, मैं सोचती हूँ की क्या इस रिश्ते का अंत कर देना चाहिए…। यूँ उसने अपनी बात पहले कभी नहीं रखी थी। वह थककर स्त्री को देखने लगी। यह थकान बीते कुछ मिनटों की थी या बीते कुछ सालों की यह तय कर पाना उसके लिए मुश्किल हो गया। स्त्री ने उसकी आँखों में झाँका और धीरे से कहा-“पर क्या तुम्हें नहीं लगता की असल में इस रिश्ते का अंत बहुत पहले ही हो चुका है।  इसे बचाने की हर कोशिश केवल छल मात्र है।”

उसकी आँखें भर आईं, और उसने उन्हें भींच लिया। उसके भीतर, कहीं बहुत भीतर दफना सच, जिस से वह बचती रही थी, सी ने यूँ पढ़ लिया था जैसे वह हाड़- मास से बने इनसान की जगह पूर्ण रूप से पारदर्शी हो। वह सच जो भीतर से उसे झकझोरता रहा था अब हवा के हर कण में फैल गया। उसका अपना आप जैसे एक धब्बे से बाहर निकल आया था।

उसने आँखें खोलीं, तो वह स्त्री कहीं दिखाई न दी।। उसने बैरे को बुलाया और पूछा कि उसने साथ जो स्त्री बैठी थी, वह कहाँ गई? 

“मगर आपके साथ तो कोई महिला नहीं थी।”

उसने एक ठंडी आह भरी। और बैरे से कहा की वह बिल ले आए। 

और वह मेसेज टाइप करके विक्रम को भेजा, जो वह लिख के कई बार मिटा चुकी है – “इट्स ओवर”

Email - juhiwrites1@gmail.com