उदंती.com

Jul 1, 2025

उदंती.com, जुलाई - 2025

 वर्ष - 17, अंक - 12

खुद को खुश करने का सबसे अच्छा तरीका है किसी और को खुश करने का प्रयास करना।  – मार्क ट्वेन

अनकहीः विमान यात्रा ... हम कितने सुरक्षित हैं – डॉ. रत्ना वर्मा

पर्व- संस्कृतिः श्रावण मास और शिव की महिमा - प्रमोद भार्गव

प्रकृतिः दक्षिण भारत में भी है फूलों की घाटी - डॉ. ओ. पी. जोशी

चिंतनः बंद आँख से देख तमाशा दुनिया का... - डॉ. महेश परिमल

मिसालः आधुनिक रायगढ़ के शिल्पी दानवीर सेठ किरोड़ीमल -  बसन्त राघव

जीवन दर्शनः ज़ोहनेरिज़्म : एक कुख्यात अवधारणा - विजय जोशी

प्रेरकः जीवन का सौंदर्य - डॉ. पीयूष गोयल

कविताः अधूरे सत्य की पूर्णता -  अनीता सैनी

निबंधः हिम्मत और ज़िन्दगी  - रामधारी सिंह ‘दिनकर’

कहानीः औरत खेत नहीं - डॉ. परदेशीराम वर्मा

कविताः तोते - हरभगवान चावला

 दो लघुकथाएँः 1. उसके मरने के बाद, 2.  फुलस्टॉप  - सन्तोष सुपेकर

किताबेंः ‘तुम हो मुझमें’ नवगीतों की आत्मीय यात्रा - पूनम चौधरी

व्यंग्यः युद्ध और बुद्ध के बीच ट्रेड युद्ध की तीसरी टाँग - बी. एल. आच्छा

लघुकथाः परिवर्तन  - उपमा शर्मा

संस्मरणः एक भिखारी की कथा - श्यामल बिहारी महतो

लघुकथाः तीसरा झूठ - राममूरत 'राही'

कविताः झुक आई बदरिया - श्रीमती रीता प्रसाद

अनकहीः विमान यात्रा ... हम कितने सुरक्षित हैं

- डॉ. रत्ना वर्मा

लंदन जा रहा एअर इंडिया का ड्रीम
लाइनर विमान पिछले दिनों अहमदाबाद एयरपोर्ट से उड़ान भरने के कुछ ही समय बाद आवासीय इलाके में क्रैश हो गया। विमान में दो पायलट और चालक दल के 10 सदस्य सहित 242 लोग सवार थे। एक यात्री को छोड़कर सभी की दर्दनाक मौत ने समूचे देश के हृदय को झकझोर दिया।  जब भी कोई विमान हादसा होता है, वह केवल एक यांत्रिक विफलता या मानवीय त्रुटि भर नहीं होता - वह असंख्य कहानियों, सपनों और जीवन की आकस्मिक समाप्ति की त्रासदी बनकर हमारे समक्ष उपस्थित होता है। यह हादसा भी उसी शृंखला का एक कड़वा सच है, जहाँ तकनीक और सुरक्षा तंत्र के तमाम दावे एक पल में टूट कर बिखर जाते हैं।

इस प्रकार के हादसे में एक जीवन का समाप्त हो जाना केवल एक आँकड़ा नहीं होता, वह किसी का बेटा-बेटी, किसी की माँ या पिता, किसी की पत्नी या पति होता है। ऐसे भयानक हादसों में केवल एक व्यक्ति नहीं, पूरा परिवार, पूरा देश शोक में डूब जाता है। जिसे केवल मुआवजा दे कर भरा नहीं जा सकता। यह समय केवल आँसू बहाने या संवेदना प्रकट करने का नहीं, बल्कि आत्ममंथन का है। यह देखना ज़रूरी है कि क्या यह हादसा टल सकता था? क्या हमारे तकनीकी और प्रशासनिक इंतज़ाम पर्याप्त थे? और अगर नहीं, तो क्यों नहीं? ऐसे कई सवाल उठ खड़े होते हैं। 

अहमदाबाद की इस दुर्घटना की प्रारंभिक रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि तकनीकी गड़बड़ी का संदेह है। सवाल उठता है कि क्या विमान की समय-समय पर जांच की जा रही थी? क्या कोई पुरानी शिकायत नजरअंदाज की गई थी? भारत में, खासकर छोटे विमानों और प्राइवेट एयरलाइनों की सुरक्षा प्रणाली कितनी पारदर्शी और सुदृढ़ है - यह सवाल बार-बार उठता हैं। अफसोस तो तब होता है, जब दुर्घटना के कुछ दिन बाद सब कुछ भुला दिया जाता है। हम अक्सर तकनीक को दोष देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं; लेकिन मानव कारक भी कई बार हादसों की जड़ में होता है। पायलटों को किस प्रकार का प्रशिक्षण दिया गया था? क्या वे किसी दबाव में थे? क्या उन्होंने उड़ान भरने से पहले पूरी सावधानी बरती थी?

आज जब एयर ट्रैफिक तेज़ी से बढ़ रहा है, और हवाई अड्डों पर विमानों की आवाजाही लगातार हो रही है, ऐसे में पायलटों की मानसिक स्थिति, कार्य का दबाव और प्रशिक्षण की गुणवत्ता को लेकर गहन मंथन की आवश्यकता है ; क्योंकि एक पायलट केवल एक चालक नहीं होता - वह सैकड़ों जीवन की ज़िम्मेदारी अपने कंधे पर लेकर उड़ता है।

कई बार मौसम की भूमिका को भी नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है ; लेकिन यह दुर्घटना किस मौसम में हुई, क्या आसमान साफ़ था, क्या तेज़ हवाएँ चल रही थीं - ये सभी बातें महत्वपूर्ण हैं। जलवायु परिवर्तन के दौर में आज जबकि मौसम का पूर्वानुमान लगाना बहुत आसान हो गया है, ऐसे में खराब मौसम के कारण दुर्घटना हो जाना खेदजनक है। इसका ताजा उदाहरण है अहमदाबाद विमान हादसे के दो दिन बाद ही उत्तराखंड में केदारनाथ धाम के पास हेलीकॉप्टर क्रैश में सात लोगों की मौत।  कई बार हम मौसम विज्ञान की सतर्कता को नजअंदाज कर सिर्फ कमाई करने के उद्देश्य से यात्रियों की जान को जोखिम में डाल देते हैं। सोचने वाली बात है कि क्या हादसे के पहले मौसम संबंधी कोई चेतावनी दी गई थी? यदि हाँ, तो उसे गम्भीरता से क्यों नहीं लिया गया?

एक रीत- सी बन गई है कि हर हादसे के बाद एक जाँच समिति गठित कर दी जाए।  हादसे को लेकर मीडिया में कुछ दिन बहस होती है, कुछ तकनीकी विवरण प्रकाशित होते हैं, और फिर सब कुछ धीरे-धीरे भुला दिया जाता है; लेकिन क्या कोई स्थायी बदलाव आता है? देश के नागरिक क्या यह जानने के अधिकारी नहीं हैं कि- कौन उत्तरदायी था? क्या कार्रवाई हुई? क्या भविष्य में ऐसे हादसे रोकने के लिए कोई ठोस कदम उठाए गए?

हादसे की ख़बर मिलते ही मीडिया घटनास्थल पर तुरंत पहुँच जाती है। यह बेहद जरूरी भी है; लेकिन कई बार  यहाँ संवेदना की जगह सनसनी हावी हो जाती है। घटनास्थल की तस्वीरें, रोते-बिलखते परिजनों के चेहरे, खून से सने मलबे की क्लोज़-अप तस्वीरें - यह सब क्या सूचना है या सिर्फ़ टीआरपी की होड़? क्या हम इतने असंवेदनशील हो गए हैं कि दूसरों का दुःख हमारे लिए एक ‘कंटेंट’ बन जाए? सोशल मीडिया  के इस नए दौर में  संवेदना की बाढ़ आ गई।  शुरूआती कुछ घंटों तक “RIP” हैशटैग ट्रेंड करता रहा; लेकिन क्या इतनी सी संवेदना काफी है? क्या हम सबका यह कर्तव्य नहीं बनता कि हम भी प्रशासन से सांसदों से या विमानन मंत्रालय से सवाल पूछें? समाज में जब तक नागरिकों की भूमिका केवल दर्शक की बनी रहेगी, तब तक व्यवस्थाओं में सुधार की संभावना कम ही होगी।

हमें यह भी देखना होगा कि क्या समाज, प्रशासन और सरकार इस प्रकार की घटनाओं के बाद पीड़ित परिवारों के साथ कब तक खड़ा होता है? क्या हम अपने आसपास ऐसे परिवारों को सहारा देने के लिए आगे आते हैं? संवेदना केवल शब्दों की नहीं, कर्मों की भी होनी चाहिए।

इतने आधुनिक समय में भी यदि हम ऐसे हादसों को सिर्फ नियति मानकर सबको चुप करा देंगे तो इससे बड़ी शर्मिंदगी की और क्या बात होगी।  होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक विमान की सुरक्षा जाँच  में पारदर्शिता हो, ताकि सच सबके सामने आ सके। मौसम और पर्यावरणीय जोखिमों की सटीक जानकारी हो और उसका कड़ाई से पालन हो, जाँच रिपोर्ट को सार्वजनिक किया जाना चाहिए और जो भी कमियाँ हों, उन्हें हर हाल में दूर कर यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित की जानी चाहिए। 

अहमदाबाद का यह विमान हादसा हमें फिर से याद दिलाता है कि जीवन कितना कीमती है, और व्यवस्था की चूक कितनी भारी कीमत वसूल सकती है। हम केवल संवेदना व्यक्त करके चुप नहीं रह सकते। 

हर हादसा एक आम दुर्घटना नहीं है -  यह एक ऐसा हादसा है, जो हमें हमारे तंत्र की खामियों, हमारी सामूहिक ज़िम्मेदारियों की याद दिलाता है और इन सब कमियों को दूर किए बिना हम यह नहीं कह सकते कि हम आगे अपनी किसी भी यात्रा में सुरक्षित हैं। 


पर्व- संस्कृतिः श्रावण मास और शिव की महिमा

  -  प्रमोद भार्गव

भारत में श्रावण मास ऐसा महीना है, जिसमें पूरे माह भगवान शिव की आराधना की जाती है। सनातन संस्कृति में इसे सबसे शुभ महीना माना जाता है। इस समय ब्रह्मांड में शिव तत्वों की व्याप्ति हो जाती है। ऐसे में शिव की पूजा यदि अनुष्ठानों के माध्यम से की जाती हैं तो शरीर, इंद्रिय और आत्मा शुद्ध बनी रहती है। काल गणना के सौर वर्ष के अनुसार यह पाँचवाँ महीना है। इस माह की विशेषता यह भी है कि इस माह के समाप्त होने के बाद निरंतर पर्वों का सिलसिला शुरू हो जाता है। रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी, श्री गणेश महोत्सव, शारदीय नवरात्रि, दशहरा और फिर दीपावली। इस समय लोग स्थानीय शिव मंदिरों में तो पूजा करते ही हैं, बारह ज्योतिर्लिंग पर भी पूजा करने जाते हैं।

 शिव की महिमा इसलिए है; क्योंकि उन्हें ब्रह्म माना जाता है। उनका अस्तित्व प्रत्येक उस प्राणी में माना जाता है, जिसका अस्तित्व है। जब पृथ्वी पर कुछ भी नहीं था, तब भी शिव थे। अतएव उन्हें आदि देव कहा जाता है। आदिदेव से तात्पर्य है, सर्वोच्च ईश्वर; इसलिए श्रद्धालु सभी ज्योतिर्लिंग पर दर्शन करने जाते हैं। झारखंड में बाबा वैद्यनाथ धाम पवित्र स्थानों में से एक माना जाता है। श्रावण के महीने में यहाँ  एक मेला आयोजित होता है, जिसे श्रावण मेला कहते हैं। अनेक श्रद्धालु यहाँ  नंगे पैर चलकर आते हैं और शिवलिंग पर गंगाजल अर्पित करते है। महाराष्ट्र का त्र्यंबकेश्वर मंदिर में शिवलिंग पर तीन चेहरे उत्कीर्ण हैं, जिनमें ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र विराजमान हैं। ऋग्वेद में रुद्र को शिव ही कहा गया है। गुजरात में सोमनाथ मंदिर भी ज्योर्तिलिंग हैं। श्रावण महीने में यह मंदिर सुबह 4 बजे खुलता है और रात 10 बजे कपाट बंद होते है। पूरे भारत से यहाँ  भक्त आते हैं। उत्तराखंड में केदारनाथ मंदिर हिमालय में मंदाकिनी नदी के निकट है। इस मंदिर के निकट ही चार प्रमुख धार्मिक स्थल यमुनोत्री, गंगोत्री और बद्रीनाथ हैं। यहाँ  स्थित गौरीकुंड से 14 किमी की चढ़ाई करने पर दुनिया के सबसे ऊँचे शिखर पर स्थित तुंगनाथ शिव मंदिर है। लोग 3810 मीटर की यह ऊंचाई बम-बम भोले का नाम लेते हुए चढ़ते हैं।

 वाराणसी में प्रसिद्ध काशी विश्वनाथ मंदिर गंगा नदी के तट पर स्थित है। यह मंदिर ब्रह्मांड के शासक भगवान विश्वनाथ को समर्पित है। इस मंदिर से साढ़े तीन हजार साल पुराना इतिहास जुड़ा है। श्रावण महीने में इस मंदिर पर भव्य उत्सव मनाने के साथ भगवान को नए-नए आभूषणों से सजाया जाता है। ओड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर में लिंगराज मंदिर है। श्रावण महीने में यहाँ  भी बड़ा समारोह आयोजित करके शिव की पूजा की जाती है। मध्य प्रदेश में ओंकारेश्वर ज्योर्तिलिंग है। नर्मदा नदी के तट पर स्थित यहाँ जो पहाड़ है, वह ओम के आकार का है; इसलिए इसे ओंकारेश्वर शिव मंदिर कहा जाता है। शंकराचार्य ने इसी पर्वत पर आराधना करके ज्ञान की प्राप्ति की थी। आंध्र प्रदेश में मल्लिकार्जुन मंदिर श्रीशैलम जिले में स्थित है। इसकी गिनती भी ज्योतिर्लिंग में है। इस मंदिर परिसर की पहाड़ियों की दीवारों पर शिव के अनेक नयनाभिराम चित्र अंकित हैं। उज्जैन में भगवान महाकाल के नाम से प्रसिद्ध ज्योर्तिलिंग हैं। क्षिप्रा नदी के किनारे स्थित इस मंदिर को पृथ्वी का केंद्र बिंदु माना जाता है; क्योंकि यहाँ  से कर्क और भूमध्य रेखाएँ  परस्पर काटते हुए निकलती हैं। इसलिए यह कालगणना का भी प्राचीन केंद्र है। मुनि सांदीपनि का यहाँ  आश्रम है। भगवान कृष्ण और बलराम ने इसी आश्रम से शिक्षा प्राप्त की थी। कर्नाटक में मुरुदेश्वर मंदिर है। यह अरब सागर के उत्तरी किनारे पर स्थित है। यहाँ  शिवलिंग मंदिर के अलावा भगवान शिव की 123 फीट ऊंची शिव की प्रतिमा है। असम में सुकरेश्वर शिव मंदिर है। इसे राजा प्रमत्त सिंघा ने बनवाया था। पश्चिम बंगाल में तारकनाथ शिव मंदिर है। यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। महाराष्ट्र के पुणे के निकट भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग है। महाराष्ट्र में ही घृश्णेश्वर ज्योतिर्लिंग है। यहाँ महाशिवरात्रि पर विशेष आयोजन होते है। यहाँ  बारह स्थानों पर स्थित शिव ज्योति स्वरूप में स्थापित हैं। गुजरात में द्वारका के निकट नागेश्वर ज्योतिर्लिंग मंदिर है। शिव-पुराण के अनुसार शिव का एक नाम नागेश है, इसलिए इसे नागेश्वर कहा जाता है। तमिलनाडु में रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग है। त्रेतायुग में भगवान राम ने रावण वध के बाद यही रुके थे और समुद्र तट पर बालू से शिवलिंग बनाकर उसकी पूजा की थी। बाद में यह शिवलिंग वज्र के समान हो गया। इसे ही रामेश्वरम कहा जाने लगा। अतएव श्रावण का महीना ईश्वर की पूजा-अर्चना की दृष्टि से बारह महीनों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।   

  अयोध्या में भागवान राम की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही देश के मंदिरों में धार्मिक पर्यटन कई लाख करोड़ की अर्थव्यवस्था का आधार बन रहा है। भक्ति का यह व्यापार 10 से 15 प्रतिशत की वार्षिक दर से बढ़ रहा है। यहाँ  तक की कई राज्यों में प्रमुख मंदिरों की आर्थिकी उस राज्य के कुल वार्षिक बजट से भी कहीं अधिक है। भारत में धनी मंदिरों की बात करें तो तिरुवनंतपुरम में स्थित पद्मनाभ स्वामी मंदिर के खजाने में हीरे, सोने और चाँदी के गहनों समेत इन्हीं धातुओं की अनेक मूर्तियाँ हैं। माना जाता है मंदिर के पास 20 अरब डॉलर की संपत्ति है। मंदिर के गर्भगृह में 500 करोड़ रुपये की भगवान विष्णु की मूर्ति है। इस मंदिर के बाद तिरुपति बालाजी मंदिर सबसे धनी मंदिर है। यहाँ  680 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष दान में मिलते हैं। इस विष्णु मंदिर के पास नौ टन सोना है और 14000 करोड़ रुपये बैंक में सवधि योजनाओं में जमा है। तीसरे नंबर पर शिरडी के साईं बाबा मंदिर है। यहाँ सालभर में 380 करोड़ रुपये दान में आते है, इसके अलावा मंदिर के पास 460 किलो सोना, 5428 किलो चाँदी और डॉलर-पाउण्ड जैसी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा को मिलाकर 18000 करोड़ रुपये बैंकों में जमा है। 52 शक्ति पीठों में एक माता वैष्णव देवी मंदिर में प्रतिवर्ष 500 करोड़ दान में आते हैं। उज्जैन के महाकाल मंदिर में लगभग 100 करोड़ रुपये प्रतिवर्ष दान में आते हैं। मंदिर के पास 34 लाख का सोना और 88 लाख 68 हजार की चाँदी है। तमिलनाडु के मीनाक्षी मंदिर की प्रतिवर्ष सालाना कमाई छह करोड़ रुपया है। इनमें से ज्यादातर मंदिर भक्तों के लिए निशुल्क भोजन के अलावा शिक्षा, स्वास्थ्य, जल प्रबंध और सड़क निर्माण के प्रकल्प चलाते हैं। आपदा आने पर सरकारी राहत कोश में योगदान भी करते हैं। 

  यदि ईश्वर दर्शन के इस धार्मिक पर्यटन में विवाह और दीपावली जैसे पर्व की आर्थिकी को भी जोड़ दिया जाए, तो यह आर्थिकी कई लाख करोड़ की होगी ? अतएव मर्यादा पुरुषोत्तम राम और कृष्ण की महिमा नैतिकता के प्रतिमान और मानवता के चरम आदर्श व उत्कर्ष से जुड़ी तो है ही, अब बड़ी आर्थिकी का भी आधार बन गई है। गोया यह धार्मिक पर्यटन का भक्तिकाल तो है ही, देश की अर्थव्यवस्था को नूतन व निरंतर बनाए रखने का भी बड़ा आयाम बनता दिखाई दे रहा है।

सम्पर्कः शब्दार्थ 49, श्रीराम कॉलोनी, शिवपुरी (म.प्र.), मो. 09425488224, 9981061100


प्रकृतिः दक्षिण भारत में भी है फूलों की घाटी

  - डॉ. ओ. पी. जोशी

उत्तराखंड राज्य के चमौली ज़िले में गोविंदघाट के पास स्थित फूलों की घाटी विश्व प्रसिद्ध है। इसे अब नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार एक दूसरी सुंदर फूलों की घाटी सह्याद्रि पर्वत माला के 900 से 1200 मीटर की ऊँचाई पर स्थित पठार के एक भाग में है। लाल लेटेराइट मिट्टी से बना यह पठार 1792 हैक्टर में फैला है एवं कास नामक गांव की बस्ती होने से इसे कास पठार (Kass Plateau) कहा जाता है। कास पठार महाराष्ट्र के सतारा जिले से 23 किलोमीटर की दूरी पर एवं समुद्रतल से 1200 से 1240 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जुलाई 2012 में इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों में शामिल किया गया था।

इस पठार पर 570 हैक्टर का क्षेत्र फूलों की अधिकता वाला है जिसे वन विभाग ने चार भागों में बांट रखा है। प्रत्येक भाग में लगभग एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पर्यटक नज़दीक जाकर फूलों को देख सकते हैं। पठार पर मिट्टी की सतह पतली होने से ज़्यादातर पौधे शाकीय प्रकृति के छोटे होते हैं। प्रत्येक भाग के चारों तरफ तारों की बागड़ है तथा वन विभाग के कर्मचारी सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं। मानसून आने के साथ ही जुलाई में फूल खिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। जुलाई से लेकर मध्य अक्टूबर तक बारिश एवं धूप जैसे मौसमी हालात के अनुसार फूल खिलने का क्रम आगे बढ़ता रहता है। सामान्यतः 15 से 20 दिनों में फूलों का रंग बदल जाता है एवं जिस रंग के फूल खिलते हैं उससे ऐसा लगता है मानो पठार पर प्रकृति ने रंगीन चादर फैलाई हो। सितंबर 10 से 25 तक का समय कास पठार की सुंदरता निहारने हेतु श्रेष्ठ बताया गया है। 

एक अध्ययन अनुसार यहाँ  पुष्पीय पौधों की 850 प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिनमें से 450 में जुलाई से सितंबर/अक्टूबर तक अलग-अलग समय पर भिन्न भिन्न रंगों के फूल खिलते हैं। गुलाबी, नीला-बैंगनी तथा पीला रंग क्रमशः बालसम (इमपेशीयंस), कर्वी या कुरिंजी तथा स्मीथिया प्रजातियों के पौधों में फूल खिलने से पठार उन्हीं रंगों का नज़र आता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (आईयूसीएन) ने यहाँ  624 प्रजातियों की सूची बनाई है जिनमें 39 स्थानिक (एंडेमिक) हैं अर्थात् यहीं पाई जाती हैं। संघ ने 32 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा बताया है जिनमें जलीय पौधा रोटेला तथा शाकीय सरपोज़िया मुख्य है। कोल्हापुर स्थित शिवाजी विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग के एक दल ने प्रो. एस. आर. यादव के नेतृत्व में 1792 हैक्टर में फैले पूरे कास पठार का लंबे समय तक सभी मौसम में अध्ययन कर बताया था कि वनस्पतियों (पुष्पीय व अन्य पौधे) की 4000 प्रजातियों यहाँ  है। इसमें से 1700 ऐसी हैं जो यहाँ  के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। जून के महीने में खिलने वाला गुलाबी फूल का पौधा एपोनोजेटान सतारेंसिस (Aponogeton satarensis) मात्र यहीं पाया जाता है। कुरिंजी (स्ट्रोबिलेंथस - Strobilanthes) की दो किस्में यहाँ  ऐसी है जिनमें 7 वर्ष में एक बार फूल खिलते हैं। कीटभक्षी पौधे ड्रॉसेरा (drosera) तथा यूट्रीकुलेरीया (utricularia) भी यहाँ  पाए जाते हैं।

कास पठार पर बसी इस फूलों की घाटी की प्रसिद्धि बढ़ने से मौसमी पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसे नियंत्रित करने हेतु प्रतिदिन 3000 दर्शकों को निर्धारित शुल्क लेकर प्रवेश की अनुमति दी जाती है। इको टायलेट्स बनाए गए हैं तथा प्लास्टिक उपयोग पर भी रोक है। पौधों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को नियंत्रित करने हेतु पेट्रोल-डीज़ल वाहनों के स्थान पर इलेक्ट्रिक वाहन बढ़ाए जा रहे हैं। आसपास के गाँवों हेतु अलग से मार्ग बनाए जा रहे हैं तथा ग्रामीणों को गैस के सिलेंडर एवं धुआँ रहित चूल्हे भी दिए गए हैं। यह विश्व धरोहर सस्ते पर्यटन स्थल में न बदले इस हेतु फार्म हाउस, होटल, बाज़ार, ऊर्जा निर्माण घर एवं पशुओं द्वारा चराई आदि को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के प्रयास भी जारी है। भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहाँ  जैव विविधता भरपूर है एवं इसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों स्थानों की फूलों की घाटियों का बड़ा योगदान है। (स्रोत फीचर्स)


चिंतनः बंद आँख से देख तमाशा दुनिया का..

  - डॉ. महेश परिमल

कोई माने या न माने, पर सच यह है कि समग्र सृष्टि का आरंभ अँधेरे से हुआ है। लोग भले ही अँधेरे को नकारात्मक दृष्टि से देखते हों, पर यह पूरा सच नहीं है। जीवन में प्रकाश से कहीं अधिक अँधेरे का महत्त्व है। योग की एक क्रिया है, आँखें बंद कर अंत:करण की तलाश। जीवन के सुखद क्षणों को याद करना हो, तो हमें अपनी आँखें बंद करनी होती है। अपार हर्ष के समय भी आँखें बंद हो जाती हैं। बच्चा जब खुशी से भर जाता है, तब वह अपनी आँखें बंद कर लेता है। जीवन के सारे आल्हादित क्षणों को हम बंद आँखों से ही सजीव कर पाते हैं। सोचने की प्रक्रिया में आँखों का बंद होना भी कई बार चमत्कारिक परिणाम देता है।

सृष्टि के निर्माण में अँधेरे की भूमिका प्रमुख है। किसी भी वस्तु के आंरभ की शुरुआत अंधकार प्रमुख रूप से होता है। बीज के अंकुरण को ही ले लो, उसका जीवन माटी के नीचे अंधकार से ढंका होता है। माँ के गर्भ में शिशु गहरे अंधकार में ही पूरे नौ महीने गुजारता है। उसके बाद ही उसे प्रकाशमय जीवन मिलता है। इस जीवन में वह ऊर्जा प्राप्त करता है। वास्तव में आरंभ गूढ़ अर्थों में है। इसलिए जीवन में भी अंधकार की आवश्यकता रहती ही है। यह आरंभ ही बहुत नाजुक है। अंधकार में अटूट गहनता होती है। अंधकार शाश्वत है, निरंतर भी है। प्रकाश के पहले भी है और प्रकाश के बाद भी। कहा भी गया है कि जीवन में अंधकार जितना गहन होगा, सुबह की उजास उतनी ही सुहानी लगेगी। उजास को यदि हमें भीतर से अनुभव करना हो, तो पहले गहन अंधकार के द्वार से गुजरना होगा। इसके बिना हमें उजास को अपने भीतर नहीं ले सकते।

आकाश में लाखों तारे, चंद्रमा और सूर्य के होने के बाद भी अंतरिक्ष में अँधेरा व्याप्त है। वास्तव में जिसे हम प्रकाश कहते हैं, वह अँधेरे की कोख से ही पैदा होता है। कोयले को अँधेरे का पर्याय ही कहेंगे ना...किंतु उसी से अमोल हीरे की रचना होती है। अंधकार को काले रंग से बताया जाता है। कहा भी गया है कि एक बार जिस पर काला रंग चढ़ गया, उसके बाद उस पर कोई रंग चढ़ ही नहीं सकता। उसी प्रकार यदि हमारा मन अपने आराध्य में लग जाए, तो संसार की कोई मायावी शक्ति हमें अपने पथ से विचलित नहीं कर सकती। काला रंग ही सृष्टि का आदि और अंत है। 

हम अपनी दो आँखों से संपूर्ण सृष्टि को निहार रहे हैं। रंग-बिरंगी दुनिया का आनंद ले रहे हैं। पर क्या हमने कभी विचार किया कि जब तक हम अपनी आँखें खुली रखते हैं, उतनी ही हमारी आँखों की शक्ति खर्च होती है। आँखों के बंद होते ही अंत:करण की अकूत शक्ति असीम आनंद का अनुभव कराती है। सूरदास और हेलन केलर को ही ले लो, उनकी कल्पनाशक्ति की थाह नहीं मिलेगी हमें। उन्होंने प्रकृति का जो चित्रण किया है, क्या हम उनकी कल्पना के एक अंश को भी प्राप्त कर सकते हैं। धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी ने अपनी आँखों पर पट्‌टी बाँधकर जिस अँधेरी दुनिया में प्रवेश किया और अपार शक्ति प्राप्त की, उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। भगवान शिव ने युगों-युगों तक समाधि में रहकर विश्व कल्याण के लिए जो शक्ति प्राप्त की, वह सबके लिए कितनी उपयोगी हे, इसे बताने की आवश्यकता नहीं है। आँखों को बंद कर ध्यान करने से अंतरात्मा के विराट अंधकार से साक्षात्कार होता है। इस अंधकार में रहकर हम जितना अंतर्ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं, वह खुली आँखों से प्राप्त कर ही नहीं सकते। स्वयं को पहचानने के लिए हमें अपनी आँखें बंद करनी ही होगी।

लोग कहते हैं कि जीवन में अँधेरा दूर होना चाहिए। हमें प्रकाश के साथ रहना चाहिए। प्रकाश ही अँधेरे को दूर भगाता है। मानव सदैव प्रकाश की लालसा रखता है। वह सदैव अँधेरे से दूर भागता रहता है। अंधकार की उपयोगिता को हम समझ नहीं पाते हैं। अँधेरे से डरते हैं। जब अँधेरा हमें डराता है, तो तय है कि उजाला भी हमें डराएगा ही। जो अँधेरे से डरते हैं, उनका उजाले से डरना स्वाभाविक है। यही वजह है कि हमें जीवन के सत्य और सत्व को पहचान नहीं पाते हैं। उजास भरी सुबह को प्राप्त करने के लिए आत्मा के अंधकार से सत्व लेकर हमें बाहर आना ही होगा। अंधकार के बाद ही है प्रकाश और मृत्यु।  उसके बाद ही आरंभ होता है जीवन। संसार के भौतिक प्रकाश का आकर्षण इतना गहरा है कि इसके लिए हम अपना पूरा जीवन खर्च कर डालते हैं। बाहरी चमक-दमक तो क्षणभंगुर है, अस्थिर और अस्थायी है। स्थायित्व तो केवल शांति में है। जो आँखों को बंद करने से ही प्राप्त होती है। हमारा यह प्रयास होना चाहिए कि अपने भीतर की गहराई में स्थित अँधेरे को अपना साथी बनाएँ। इससे जीवन में असीम शांति की प्राप्त होगी।

जीवन में प्रकाश का आगमन अँधेरे के बाद ही होता है। अँधेरे से ही प्रकाश की पहचान है। अँधेरे में रहने वाले भीतर से प्रकाशमान होते हैं। दीये से पूछो कि अँधेरा कहाँ है, वह नहीं बता पाएगा, पर अँधेरा तो उसके ही नीचे विराजमान है। अंधकार और प्रकाश का साथ जनम-जनम से होता आया है। दोनों ही एक-दूसरे के पूरक हैं। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता है। जिस तरह से प्रसन्नता के पीछे ही है विषाद। ठीक उसी तरह अंधकार और प्रकाश का साथ है। दोनों ही जीवन में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। नकारात्मकता होगी, तभी हमें सकारात्मकता का अनुभव होगा। बिना इसके हम दोनों को नहीं पहचान पाएँगे। इसलिए अँधेरे के साथ जीवन जीने का प्रयास सतत होते रहना चाहिए। इसे हम छाया-प्रतिच्छाया की तरह समझना होगा। अमोल होता है अँधेरा भी.. बस इसे समझने में हम देर कर देते हैं। अंत में केवल यही कि अँधेरा नाम की कोई चीज होती ही नहीं है, यह केवल प्रकाश की अनुपस्थिति का ही दूसरा रूप है। ठीक उसी तरह समस्या नाम की कोई चीज नहीं होती, यह सिर्फ समाधान खोजने के लिए एक विचार का अभावमात्र है।

मिसालः आधुनिक रायगढ़ के शिल्पी दानवीर सेठ किरोड़ीमल

  -  बसन्त राघव

 छत्तीसगढ़ दानवीरों का गढ़ रहा है। रायपुर में दाऊ कल्याण सिंह, बिलासपुर में पं. देवकीनन्दन दीक्षित और रायगढ़ में सेठ किरोड़ीमल। छत्तीसगढ़ के विकास में इन तीनों विभूतियों के अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता । इन्हीं का अनुसरण करते हुए शक्ति के वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. राजेश अग्रवाल ने हाल ही के वर्षों में नया बस स्टैंड के लिए अपनी बेशकीमती जमीन नगरपालिका शक्ति को दान कर एक मिसाल पेश की है, जो कि अनुकरणीय है। 

वर्तमान रायगढ़ छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक राजधानी है, औद्योगिक नगरी के रूप में इसका तेजी से विकास हो रहा है। छत्तीसगढ़ के पूर्वी सीमान्त पर हावड़ा-बाम्बे रेल लाइन का यह जीवन्त नगर है। इसका एक दिलचस्प इतिहास है राजा चक्रधर सिंह और दानवीर किरोड़ीमल लोहारीवाला के नाम पर इसे विश्वविख्यात ख्याति मिली हैं, रायगढ़ राज्य की स्थापना सन् 1668 के आसपास महाराष्ट्र चान्दा से विस्थापित राजा मदन सिंह ने की थी। पहले बुनगा बाद में राजा ने नवागढ़ी में ‘सतखंडा’ की नींव डाली और राज्य को विकसित किया। बीसवीं सदी के शुरू में राजा चक्रधर सिंह ने उसे साहित्य और संगीत के लिए विख्यात किया। रायगढ़ नगर की प्रसिद्धि में एक और अमिट नाम है दानवीर सेठ किरोड़ीमल लाहरीवाले का, सच्चे अर्थों में वे आधुनिक रायगढ़ नगर के शिल्पी हैं। अगर उनके योगदान को हटाकर देखें, तो रायगढ़ एक व्यावसायिक सामान्य स्तर का शहर ही है। हालाँकि वर्तमान में वह एक औद्योगिक नगरी के रूप में तेजी से विकसित हो रहा है।
  सेठ किरोड़ीमल ने यहाँ पहली बार अधिकाधिक मात्रा में स्कूल, कॉलेज, पुस्तकालय, चिकित्सालय, बालमंदिर और बालसदन, भव्य मंदिर, धर्मशाला, भरत कूप, कुआ-बावली और कॉलोनियों का निर्माण कराया, इतना ही नहीं रायगढ़ शहर को औद्योगिक नगर के रूप में पहचान दिलाने वाला प्रदेश का प्रथम जूटमिल रायगढ़ में उन्होंने ही स्थापित किया। सेठ किरोड़ीमल ने अपने बुद्धि-चातुर्य से यहाँ  का माल कलकत्ता को भेजा। कठिन संघर्ष, व्यावसायिक बुद्धि के कारण उन्होंने अकूत सम्पत्ति प्राप्त की और अन्त में उसे जनता के हित में ही, सेवा कार्यों में लगा दिया। उनकी यह अप्रतिम सेवा, उन्हें महान दानवीरों की श्रेणी में रख दिया, उनकी सेवाएँ  क्या कभी भुलाई जा सकती है ? 
राजशाही खत्म होने के बाद सेठ किरोड़ीमल ने ही औद्योगिक नगर के रूप में रायगढ़ नगर की नींव रखी। सेठ किरोड़ीमल जैसे महादानी, समाजसेवक, विलक्षण व्यवसायी कौन थे, कहाँ से आए, उनका जन्म कहा हुआ, यह जानना बहुत दिलचस्प है। सेठ जी का जन्म हिसार (हरियाणा) के एक मध्यम वर्गीय परिवार में 15 जनवरी 1882 को हुआ था। कम आयु में ही उनमें कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश जागी। वे  कलकत्ता आकर छोटे-मोटे व्यापार करते थे, जहाँ  उनके भाग्य का सितारा चमका। प्रो. आर.के. पटेल के शब्दों में- द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1936 से 1942 तक सेठ किरोड़ीमल जी ने जापान एवं मित्र राष्ट्रों को युद्ध की विभीषिका से कराहती जनता के लिए भारी मात्रा में खाद्यान्न दिया। उनकी दृष्टि में मानवता की सेवा ही सर्वोपरि थी। उनके हृदय में युद्ध के पक्ष-विपक्ष का भेद नहीं था। ‘‘मेरे पापा डॉ. बलदेव जब प्रोफेसर के. के तिवारी के आग्रह पर सेठ किरोड़ीमल के ऊपर एक लम्बा लेख  लिख रहे थे, तब पं. लोचन प्रसाद पांडेय के बन्धु पं. मुरलीधर पांडेय ने उन्हें बतलाया था- ‘‘भारत स्वतंत्र हुआ, जब अंग्रेज भारत छोड़कर विदेश जा रहे थे, तब हुकमरानों को कलकत्ता में एक यादगार पार्टी दी गई थी।  उसके प्रबन्धक थे श्री किरोड़ीमल। इससे प्रसन्न होकर अधिकारियों ने उन्हें कम्पनी के व्यवसाय में कुछ परसेंट का लाभ तय कर दिया था, इससे उन्होंने प्रभूत राशि कमाई। कठिन संघर्ष, व्यावसायिक तीक्ष्ण बुद्धिमत्ता ने ही उन्हें रायगढ़ आने के लिए उत्प्रेरित किया था। यहाँ उनका कारोबार बढ़ा और दिन दूनी रात चौगुनी कमाई होने लगी। उन्हें यहाँ  सब कुछ मिला; पर वे निःसंतान थे। अस्तु, अब उनका ध्यान परोपकार की ओर लगा।     
    सेठ किरोड़ीमल ने परोपकार के लिए अनेक महती कार्य किए हैं। कुछ प्रमुख इस प्रकार हैं - अविभाज्य मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री रविशंकर शुक्ल एवं सेठ पालूराम धनानिया की प्रेरणा से उन्होंने रायगढ़ में 7 मार्च 1946 को गौरीशंकर मंदिर का शिलान्यास पं. शुक्ल के हाथों करवाया था। देश का प्रसिद्ध झूला- मेला की शुरुआत भी उन्होंने गौरीशंकर मंदिर से की थी। यह संगमरमर पत्थर से निर्मित विशाल मंदिर है, इसका शिल्प पूर्णतया राजस्थानी है। इसके गर्भगृह के दीवालों पर सत्यं के चित्र लोगों को पौराणिक गाथाओं की याद दिलाते है।
  30 लाख नगद एवं अपनी अन्य सम्पत्तियों के साथ 13 मई 1946 को तत्कालीन मुख्यमंत्री के हाथों ‘सेठ किरोड़ीमल धर्मादा ट्रस्ट’ की स्थापना कराई गई। रायगढ़ में ही नहीं उन्होंने देश के विभिन्न स्थानों- जैसे दिल्ली, मथुरा, मेहँदीपुर, (राजस्थान),  भिवानी (हरियाणा), पचमढ़ी, रायपुर, किरोड़ीमल नगर आदि नगरों में अनेक धर्मशाला,  रैन बसेरा एवं कॉलेज का निर्माण कराया, जो कि उनके लोकापकारी कार्यों का जीवन्त उदाहरण है. दिल्ली में सेठ किरोड़ीमल ट्रस्ट द्वारा स्थापित ‘किरोड़ीमल कालेज’ में सदी के महानायक अमिताभ बच्चन ने अध्ययन किया था। उनके अलावा मदनलाल खुराना (दिल्ली के पूर्व मुख्य मंत्री), सतीश कौशिक, गिरिजा प्रसाद कोइराला (नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री), कुलभूषण खरबंदा, सुशांत सिंह और अश्वनी चाँद जैसे अनेक प्रसिद्ध व्यक्ति किरोड़ीमल कॉलेज के छात्र रह चुके हैं।
 रायगढ़ की बात चलती है तो मुझे सन् 1975 की याद आती है। उस समय हम लोग धर्मजयगढ़ में रहते थे और वही से जन्माष्टमी के दिन झूला मेला देखने के लिए सपरिवार रायगढ़ आए थे । उस समय पूरा शहर रोशनी से नहाया हुआ लग रहा था (आज भी झूलामेला में वही हाल रहता है) । झूलामेला देखने छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के अन्याय शहरों से लाखों श्रद्धालु आए हुए थे। आज भी भक्तों की संख्या लाखों में होती है और भीड़ इतनी रहती हैं कि स्टेशन से लेकर मंदिर तक आने में कहीं भी पाँव रखने की जगह नहीं रहती। मैं दो वर्ष पहले भी रायगढ़ आया था। पापा जी घर में नहीं थे। बीमार हालत में अकेले मम्मी ने मुझे के. जी. हास्पिटल रायगढ़ में भर्ती कराया था। यहीं मेरा निःशुल्क इलाज हुआ था। एक जुलाई 1947 को सेठ किरोड़ीमल ने महात्मा गांधी नेत्र चिकित्सालय का लोकार्पण राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन से करवाया था, (वे पं. मुकुटधर पांडेय के मित्रों में थे) नेत्र चिकित्सालय के समीप ही अशर्फी देवी महिला चिकित्सालय है सेठ किरोड़ीमल जी ने अपनी पत्नी के नाम से इसका निर्माण कराया था। इसका उद्घाटन भी पं. रविशंकर शुक्ल ने ही किया था। यह आधुनिक एक्सरे मशीनों से सर्व- सुविधायुक्त अस्पताल था। यहाँ निःशुल्क इलाज किया जाता है। पहले अस्पताल का सारा खर्च ट्रस्ट  द्वारा उठाया जाता था।
शिक्षा के क्षेत्र में सेठ जी अत्यंत उदार एवं जागरूक थे। मेरे जीवन की एक घटना मुझे याद हैं, वह आदर्श बाल मंदिर से जुड़ा हुआ है, नवांकुरों की शिक्षा के लिए इसे भी सेठ जी ने ही शुरू किया था। इसके एक प्रखंड में कथक नृत्य (ताडंव पक्ष) की शिक्षा पं. फिरतू महाराज यहाँ की बालिकाओं को वर्षों तक देते रहे। सन्  1975-76 की बात है पापा जी, जब स्थानांतरण में कोड़ातराई आए, तब उन्होंने अपना निवास रायगढ़ में रखा। उन्होंने स्कूल में दाखिला के लिए मुझे इसी बालमंदिर में लाए, वहाँ के वयोवृद्ध बोड़े, गुरुजी मेरा गठीला शरीर देखते ही, बिना कुछ जवाब- सवाल के कह दिया, यह लड़का कमजोर है, यहाँ नहीं ले सकते, पिता जी दुखी हुए , बोले- ‘‘बिना सवाल-जवाब के जाँचे-परखे आपने ऐसा कैसे कह दिया? क्या आपको पहलवानी कराना है। स्काउट मास्टर के नाम से प्रसिद्ध बोड़े सर के मन में चाहे जो रहा हो, जो भी परिस्थिति रही हो, उन्होंने मुझे भर्ती नहीं किया। मुझे सरस्वती शिशु मंदिर में दाखिला मिला। नटवर हाईस्कूल से मैंने मैट्रिक और किरोड़ीमल विज्ञान कला महाविद्यालय के पीजी बिल्डिंग से अपने बड़े भाई शरद के साथ हिन्दी में एम.ए तक की डिग्री ली। इस तरह मैं इस शहर से जुड़ा रहा।
नटवर स्कूल रायगढ़ के सामने खेल का बड़ा मैदान था, जो अब  कई प्रभावशील लोगों द्वारा काट-छाँटकर छोटा कर दिया गया है। खैर,  यह स्कूल और मैदान पंतगबाजी, जालीदार भवन भी सेठ जी की ही कृपा का फल हैं। यहाँ  यह भी ज्ञातव्य हो कि रायगढ़ के गणेशोत्सव में बाहर से आने वाले कला साधकों को  नटवर स्कूल में ठहराया जाता था। राजा भूपदेवसिंह  ने सन् 1906 में अपने बड़े बेटे नटवर सिंह के नाम पर इस स्कूल की स्थापना की थी । सन्  1954 में सेठ किरोड़ीमल ने इस स्कूल भवन का जीर्णोद्धार कराया था और इसे भव्यता प्रदान की। तब से इसे किरोड़ीमल नटवर हाईस्कूल के नाम से जाना जाता है।                           
    रायगढ़ के जिस कोने पर चले जाइए उनके यादगार के रूप में कई इमारतें सेठ किरोड़ीमल के नाम पर ही मिलेंगी। छत्तीसगढ़ ,मध्यप्रदेश, बिहार और उड़ीसा में तथा अन्यान्य जगहों पर सेठ किरोड़ीमल के नाम पर इमारतें खड़ी हैं। यदि पॉलिटेक्निक काँलेज रायगढ़ की चर्चा न की जाए, तो इस लेख का उद्देश्य अधूरा रह जाएगा। सेठ किरोड़ीमल ने रायगढ़ में मध्यप्रदेश के प्रथम पॉलिटेक्निक कॉलेज का निर्माण कराया था, जो कि आकार में किसी छोटे- मोटे विश्वविद्यालय का स्मरण कराता है।
पॉलिटेक्निक कालेज का शिलान्यास सन् 1955 में  म. प्र. के तत्कालीन मुख्यमंत्री पं. रविशंकर शुक्ल ने  किया था एवं उद्घाटन देश के प्रथम राष्ट्रपति डाँ०राजेंद्र प्रसाद ने 1956 में किया था। समारोह की अध्यक्षता प्रख्यात साहित्यकार एवं पुरातत्त्ववेत्ता पं. लोचन प्रसाद पांडेय ने की थी। अविभाजित मध्यप्रदेश के दौरान कुल दो इंजीनियरिंग कालेज (रायपुर और बिलासपुर) , और कुल तीन पॉलिटेक्निक थे।  जिसमें किरोड़ीमल शासकीय पॉलिटेक्निक कॉलेज रायगढ़ का नाम प्रमुख था। रायपुर और बिलासपुर इन दोनों कॉलेजों में एडमिशन नहीं हो पाने वाले छात्रों के सामने रायगढ़ का पॉलिटेक्निक कालेज ही विकल्प में बचता था। रायगढ़ के अतिरिक्त अन्य दो  पॉलिटेक्निक  कॉलेज धमतरी और दुर्ग में भी थे; लेकिन धमतरी का पॉलिटेक्निक कॉलेज प्राइवेट था। और यह भी सच था कि रायगढ़ पॉलिटेक्निक कॉलेज की बात ही कुछ और थी। इसकी भव्यता आते- जाते लोगों को अपनी ओर खींचती थी। रायगढ़ पॉलिटेक्निक कॉलेज के उद्घाटन के लिए किरोड़ीमल अपने मुनीम को लेकर जवाहरलाल नेहरू के यहाँ  गये थे। जवाहरलाल नेहरू के स्टाफ ने उन्हें भाव नहीं दिया।  किरोड़ीमल ने इसे अन्यथा नहीं लिया;  लेकिन मुनीम को यह सेठ जी का अपमान लगा। मुनीम ने सेठ जी को मारवाड़ी में कहा- ‘‘इब तो उद्घाटन राष्ट्रपति सेती होणा चईए।’’  और दोनों राष्ट्रपति को आमंत्रित करने राष्ट्रपति भवन चले गए। राष्ट्रपति डा.राजेन्द्र प्रसाद जी स्पेशल ट्रेन से रायगढ़ आए थे और सेठ किरोड़ीमल ने महामहिम राजेंद्र प्रसाद जी से सोने की कैंची से फीता कटवाया था। सेठ किरोड़ीमल के संदर्भ में भारत के राष्ट्रपति महामहिम डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने अपने उद्बोधन भाषण में कहा था- " देश को श्री किरोड़ीमल लुहारीवाला सदृश मानव सेवा में आस्था रखने वाले लोगों की आवश्यकता है, जो संख्या में भले ही कम हों; पर सामने आकर यदि ऐसा अनुकरणीय कार्य करें, तो राष्ट्र का कल्याण होगा।’’ 
 किरोडीमल पॉलीटेक्निक कॉलेज के पीछे दो बड़े हॉस्टल भी हैं। एक विश्वेश्वरैरया हॉस्टल  और उसके पीछे तिलक हॉस्टल । जिन्हें बनाने में आज करोड़ों रुपये लगेंगे। राजीव नयन शर्मा 1980 के छात्रसंघ अध्यक्ष के लिए चुने गए थे, उनके अनुसार उस समय यहाँ  लगभग 600  छात्र विद्याध्ययन हेतु रहा करते थे; लेकिन आज उसका उपयोग नहीं हो पा रहा है, खाली पड़ा हुआ है। जनहित में इसका उपयोग जरूरी है। वर्तमान में वहाँ सोलह सतरह सौ बच्चे पढ़ रहे हैं। इस लिहाज से छात्रों के हित में दोनों हॉस्टलों को काम में लिया जाना चाहिए। 
 छत्तीसगढ़ - मध्यप्रदेश का पॉलिटेक्निक कालेज होने की वजह से यहाँ  अब तक लाखों इंजीनियर तैयार हो चुके हैं, यहाँ विश्व प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री  डाँ० आर.जी. बुलदेव भी प्रथम प्राचार्य के रूप में सेवा दे चुके है।  इसका परिसर पेड़-पौधों से घिरा हुआ है।  रंग -बिरंगे फूल पौधे इसकी शोभा बढ़ाते हैं। इसके तीन खंड है, जिसमें शताधिक कमरे है और जहाँ  मौखिक, प्रैक्टिकल के साथ प्रायः सभी विषयों की पढ़ाई होती हैं। पिछले पचास- पचपन वर्षो  में यहाँ लाखों इंजीनियर निकल चुके हैं, और देश के विभिन्न भागों में सेठ किरोड़ीमल का नाम राष्ट्रव्यापी कर चुके हैं। इसी बिल्डिंग में एक ऑडिटोरियम भी हैं, जिसमें शहर तथा दूसरे शहरों के कवि, लेखक एवं कलाकार शिरकत करते हैं।
किरोड़ीमल विज्ञान कला महाविद्यालय एवं पॉलिटेक्निक कॉलेज रायगढ़ में आचार्य विनयमोहन शर्मा, कविवर रामेश्वर शुक्ल अंचल जैसे नामी-गिरामी  विद्वान्  प्राचार्य के रूप में कार्य कर चुके है । पं. प्रभुदयाल अग्निहोत्री जैसे संस्कृत के महापंडित भी प्रोफेसरी कर चुके है। इस विद्यालय से पं. मुकुटधर पांडेय और जन कवि आनंदी सहाय शुक्ल से भी गहरा सम्पर्क रहा है।
  वाकई सेठ किरोड़ीमल ने रायगढ़ को बसाया , सजाया- सँवारा। यहाँ  के लोगों की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने बहुत से काम किए। अगर सेठ किरोड़ीमल नहीं होते तो रायगढ़ इतना पिछड़ा हुआ होता कि हम उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। आज का रायगढ़ अस्सी- पचासी साल पीछे चला जाता।  आज भी छत्तीसगढ़ दो मामलों में बहुत पिछड़ा हुआ है एक दो शिक्षा दूसरा स्वास्थ्य। उसके लिए हमको बाहर जाना होता है। उन्होंने उस समय देश के इने-गिने संस्थाओं की तर्ज पर यहाँ  हॉस्पिटल, कॉलेज और स्कूल बनवाए।

जनचेतना के अग्रदूत सेठ किरोड़ीमल ने सभी सुविधाओं से युक्त एक पुस्तकालय की भी स्थापना  1954 -55 में की थी। इसका निर्माण नेत्र चिकित्सालय और बूजी -भवन (धर्मशाला) के बीच किया था। इस पुस्तकालय का परिवर्धन पालूराम धनानिया कामर्स कॉलेज के प्राचार्य श्री नंदलाल शर्मा ने बड़ी निष्ठा से किया था। खेद है रख रखाव के अभाव में वह प्रायः सभी विषयों की पुस्तकों का विशाल ग्रंथालय भी दीमकों का आहार हो गया। धर्मशाला में ठहरने वाले यात्रियों के लिए ट्रस्ट की ओर से भोजन - पानी की व्यवस्था रहती थी, खेद है, इसका उपयोग व्यावसायिक परिसर के रूप में किया जा रहा है। सेठ जी द्वारा निर्मित कॉलोनियों में वर्षों से काबिज में से कुछ लोग स्थायी रूप से कब्जा कर चुके हैं; लेकिन प्रशासन अबतक इन पर रोक नहीं लगा पाया है।
   लोगों के द्वारा यह भी बताया जाता है कि भारत के भूतपूर्व रक्षा मंत्री और हरियाणा के भूतपूर्व मुख्यमंत्री बंशीलाल अपने गर्दिश के दिनों में रोजी -रोटी की तलाश में रायगढ़ आए थे; लेकिन बात नहीं बनी और वे वापस  चले गए थे।
 वैसे छत्तीसगढ़ दानवीरों का गढ़ रहा है। रायपुर में दाऊ कल्याण सिंह, बिलासपुर में पं देवकीनन्दन दीक्षित और रायगढ़ में सेठ किरोड़ीमल। छत्तीसगढ़ के विकास में इन तीनों विभूतियों के अवदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता ।  इन्हीं का अनुसरण करते हुए शक्ति के वरिष्ठ शिशु रोग विशेषज्ञ डॉ. राजेश अग्रवाल ने हाल ही के वर्षों में नया बस स्टैंड के लिए अपनी बेशकीमती जमीन नगरपालिका शक्ति को दान कर एक मिसाल पेश की है, जो कि अनुकरणीय है। 
  आधुनिक रायगढ़ के इस महान शिल्पी का स्वर्गवास 2 नवम्बर 1965 को हुआ था, पर यश काया रूप से वे आज भी हमारे बीच जीवित हैं। ऐसे महान  धर्मवलम्बी  सेठ किरोड़ीमल का नाम, समाज द्वारा क्या कभी भुलाया जा सकता है ? रायगढ़ उनका सदैव ऋणी रहेगा।   
  सम्पर्कः  पंचवटी नगर, बोईरदादर, रायगढ़, छत्तीसगढ़, मो.न. 8319939396    Email.basantsao52@gmail.com

जीवन दर्शनः ज़ोहनेरिज़्म : एक कुख्यात अवधारणा

  - विजय जोशी  

(पूर्व ग्रुप महाप्रबंधक, भेल, भोपाल (म. प्र.)

वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीके से
मैं एतिबार न करता तो क्या करता
 पिछले दिनों तथ्यों को तोड़ मरोड़कर  भारत को बदनाम करने के परिप्रेक्ष्य में जॉर्ज सोरोस का कुख्यात नाम सुर्खियों में रहा है। झूठ को सफाई के साथ इस हद तक परोसने का गोबेल्स (द्वितीय विश्वयुद्ध) प्रयास कि सच ज़मींदोज़ हो जाए, उसे कहते हैं ज़ोहनेरिज़्म।
- इस कुख्यात शब्द को गढ़ा गया था जेम्स के. ग्लासमेन द्वारा जिसका अर्थ है : वैज्ञानिक रूप से अनभिज्ञ जनता को गलत निष्कर्ष पर ले जाने के लिए सच का दुरुपयोग।
- ज़ोहनेरिज़्म की अवधारणा है लोगों को भ्रमित करने के लिए सरल तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करने के बारे में।
- 1997 में युवा छात्र नाथन ज़ोहनर ने अपने सहपाठियों के सामने अपना विज्ञान मेला प्रोजेक्ट प्रस्तुत किया, जिसमें एक अत्यधिक जहरीले रसायन को इसके रोजमर्रा के उपयोग से प्रतिबंधित करने की माँग की गई , जो था हाइड्रोजन मोनोऑक्साइड।
- अपनी पूरी प्रस्तुति के दौरान ज़ोहनर ने अपने दर्शकों को वैज्ञानिक रूप से सही सबूत प्रदान किए कि इस रसायन पर प्रतिबंध क्यों लगाया जाना चाहिए। उन्होंने बताया कि डाइहाइड्रोजन मोनोऑक्साइड:
- गैस के रूप में होने पर गंभीर जलन होती है।
- धातु का विघटन और जंग लगना।
- अनगिनत लोगों की मौत।
- सेवन से अत्यधिक पेशाब और सूजन।
- यदि इस पर निर्भर हैं तो रसायन आपको मारने में सक्षम।
- फिर उन्होंने अपने सहपाठियों से पूछा कि क्या वे वास्तव में इस पर  प्रतिबंध चाहते हैं।
- उपस्थित 50 बच्चों में से 43 बच्चों ने इस स्पष्ट रूप से जहरीले रसायन पर प्रतिबंध लगाने के लिए मतदान किया। हालाँकि  इस रसायन को आमतौर पर बिल्कुल भी जहरीला नहीं माना जाता है।
- वास्तव में डाइहाइड्रोजन मोनोऑक्साइड तो पानी के अलावा और कुछ नहीं है।
- नाथन ज़ोहनर का प्रयोग पानी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास नहीं था; बल्कि यह बात साबित करने के लिए कि लोग वास्तव में कितने भोले-भाले हो सकते हैं।
- साथ ही ज़ोहनर ने अपनी बात कहने के लिए जिन बिंदुओं का इस्तेमाल किया, वे सभी तथ्यात्मक रूप से 100% सही थे। उसने सही तथ्यों को छोड़कर सारी जानकारी को अपने पक्ष में कर लिया।
- पत्रकार जेम्स के. ग्लासमैन ने ‘ज़ोहनेरिज़्म’ शब्द का प्रयोग वैज्ञानिक रूप से अज्ञानी जनता को गलत निष्कर्ष पर ले जाने के लिए एक सच का ‘दुरुपयोग’ करने के लिए किया।
- यह तथ्य कि लोग गुमराह हो सकते हैं और इतनी आसानी से गुमराह हो सकते हैं ,अत्यधिक परेशान करने वाला है। यह आपके विचार से कहीं अधिक बार होता है, खासकर जब राजनेता, षड्यंत्र सिद्धांतकार आदि लोगों को झूठे दावों पर विश्वास करने के लिए सिद्ध तथ्यों का उपयोग करते हैं।
- हमारे देश में इस कुख्यात अवधारणा का सर्वाधिक उपयोग किया गया है खासतौर पर राजनेताओं द्वारा जनता को मूर्ख बनाकर लोक लुभावन नारे तथा फ्रीबीज़ के मायाजाल में उलझाकर सरकार बना लेने तक में। गो यह बात दूसरी है कि उसी भोली- भाली जनता को ही आगे चलकर इसकी कीमत चुकानी पड़ती है और देश गड्ढे में। कीमत चुकानी पड़ेगी आगत पीढ़ी को। 
बदन पे जिस के शराफत का पैरहन देखा
वो आदमी भी यहाँ हम ने बदचलन देखा

प्रेरकः जीवन का सौंदर्य

 -निशांत

हर दिन, हर समय… दिव्य सौंदर्य हमें घेरे हुए है।

क्या आप इसका अनुभव कर पाते हैं? क्या यह आपको छू भी पाता है?

हममें से बहुतेरे तो दिन-रात की आपाधापी में इसका अंशमात्र भी देख नहीं पाते। उगते हुए सूरज की अद्भुत लालिमा, बच्चे की मनभावन खिलखिलाहट, चाय के पतीले से उठती हुई महक, दफ्तर में या सड़क में किसी परिचित की कुछ कहती हुई-सी झलक, ये सभी सुंदर लम्हे हैं।

जब हम सौंदर्य पर विचार करते हैं तो ज्यादातर लोगों में मानस में खूबसूरत वादियाँ और सागरतट, फ़िल्मी तारिका, महान पेंटिंग या अन्य किसी भौतिक वस्तु की छवि उभर आती है। मैं जब इस बारे में गहराई से सोचता हूँ, तो मुझे लगता है कि जीवन में मुझे वे वस्तुएँ  या विचार सर्वाधिक सुंदर प्रतीत होते हैं, जो इन्द्रियातीत हैं- अर्थात् जिन्हें मैं छूकर, या चखकर, यहाँ तक कि देखकर भी अनुभव नहीं कर सकता।

वे अनुभव अदृश्य हैं फिर भी मेरे मन- मस्तिष्क पर वे सबसे गहरी छाप छोड़ जाते हैं। मुझे यह भी लगता है कि वे प्रयोजनहीन नहीं हैं। उनके मूल में भी ईश्वरीय विचार या योजना है। ईश्वर ने उनकी रचना की पर उन्हें हमारी इन्द्रियों की परिधि से बाहर रख दिया; ताकि हम उन्हें औसत और उथली बातों के साथ मिलाने की गलती नहीं करें।

हमें वास्तविक प्रसन्नता और सौंदर्य का बोध कराने वाले वे अदृश्य या अमूर्त प्रत्यय कौन से हैं? वे सहज सुलभ होते हुए भी हाथ क्यों नहीं आते? इसमें कैसा रहस्य है?

ऐसे पाँच प्रत्ययों का मैंने चुनाव किया है जो किसी विशेष क्रम में नहीं हैं।

1- ध्वनि/संगीत 

 मुझे आपके बारे में नहीं पता पर मेरे लिए संगीत कला की सबसे गतिशील विधा है। ऐसे कई गीत हैं जो मुझे किसी दूसरी दुनिया में ले जाते हैं और मेरे भीतर वैसा भाव जगा देते हैं जो शायद साधकों को समाधिस्थ होने पर ही मिलता होगा।

संगीत में अद्भुत शक्ति है और यह हमारे विचारों को ही नहीं बल्कि विश्व को भी प्रभावित करती है। एक अपुष्ट जानकारी के अनुसार- हम लय और ताल पर इसलिए थिरकते हैं; क्योंकि हमारे मन के किसी कोने में माता के गर्भ में महीनों तक सुनाई देती उसकी दिल की धड़कन गूँजती रहती है। ये बड़ी अजीब बात है पर यह सही न भी हो, तो मैं इसपर विश्वास कर लूँगा।

“यदि मैं भौतिकविद् नहीं होता तो संभवतः संगीतकार बनता। मैं अक्सर स्वरलहरियों में सोचता हूँ। मेरे दिवास्वप्न संगीत से अनुप्राणित रहते हैं। मुझे लगता है कि मानव जीवन एक सरगम की भांति है। संगीत मेरे लिए मनोरंजन का सबसे बड़ा माध्यम है” – अलबर्ट आइंस्टीन

संगीत की अनुपस्थिति में साधारण ध्वनियाँ भी मुझे उससे कमतर नहीं लगतीं। बादलों का गर्जन हो या बच्चे की किलकारी, टपरे पर बारिश की बूँदें हों या पत्तों की सरसराहट – साधारण ध्वनियाँ भी मन को प्रफुल्लित करती हैं। सारी ध्वनियाँ और संगीत अदृश्य है,; पर मन को एक ओर हर्षित करता है तो दूसरी ओर विषाद को बढ़ा भी सकता है।

आपको कौन सी ध्वनियाँ और संगीत सबसे अधिक प्रभावित करतीं हैं? आपका सबसे प्रिय गीत कौन सा है? क्या कहा, मेरे प्रिय गीत के बारे में पूछ रहे हैं? पचास के दशक की फिल्म ‘पतिता’ का तलत महमूद द्वारा गया गया गीत ‘हैं सबसे मधुर वो गीत, जिन्हें हम दर्द के सुर में गाते हैं’ मेरा सर्वप्रिय गीत है। पिछले तीस सालों से कोई ऐसा महीना नहीं गुज़रा होगा, जब मैंने यह गीत नहीं सुना या गुनगुनाया। यह तो रही मेरी बात। हो सकता है आप मेरी पसंद से इत्तेफाक न रखें। आदमी-आदमी की बात है।

2- निस्तब्धता/मौन 

 देखिये, पहले तो मैंने संगीत की बात छेड़ी थी और अब एकदम से चुप्पी पर आ गया। पर यह तो आप जानते ही हैं कि एक सुरीली ध्वनि के पीछे दस या सौ कोलाहलपूर्ण या बेसुरी आवाजें होतीं हैं। मुझे फर्श की टाइलें काटने वाली आरी की आवाज़ या गाड़ियों के रिवर्स हॉर्न बहुत बुरे लगते हैं। आपको भी कुछ आवाजें बहुत खिझाती होंगी।

ऐसी कर्कश ध्वनियों से तो अच्छा है कि कुछ समय के लिए पूर्ण शांति हो, सन्नाटा हो। यही मौन में होता है। जब कहीं से कोई आवाज़ नहीं आती तो निस्तब्धता छा जाती है। पिन-ड्रॉप सायलेंस! आजकल का संगीत भी एक तरह के शोरगुल से कुछ कम नहीं है! सबसे अच्छा अपना सुन्न बटा सन्नाटा; पर मौन अपने आप में एक बड़ी साधना भी है, अनुशासन पर्व है। जैसे हर गैजेट या मशीन में आजकल रीसेट का बटन होता है वैसा ही मौन का बटन मैंने आजमा कर देखा हुआ है। इस बटन को दबाते ही भीतर शांति छा जाती है। थोड़ी कोशिश करके देखें, तो कोलाहल में भी मौन को साध सकते हैं। किसी हल्ला-हू पार्टी में कॉफी या कोल्ड-ड्रिंक का ग्लास थामकर एक कोने में दुबक जाएँ और यह बटन दबा दें। फिर देखें लोग आपको शांत और संयमित देखकर कैसे खुन्नस खाएँगे। उपद्रवियों की जले जान तो आपका बढ़े मान।

किसी ने कहा है- “Silense is Golden” – बड़ी गहरी बात है भाई! इसके कई मतलब हैं। कुछ कहकर किसी अप्रिय स्थिति में पड़ने से बेहतर लोग इसी पर अमल करना पसंद करते हैं।

एक और बात भी है – अब व्यस्तता दिनभर की नहीं रह गई है। शोरगुल और कोलाहल का सामना तड़के ही होने लगा है और सोने के लिए लेटने तक मेंटल स्टैटिक जारी रहती है। इससे बचने का एक ही उपाय है कि टीवी और किवाड़ को बंद करें और लोगों को लगने दें कि आप वाकई भूतिया महल में ही रहते हैं।

3-गंध/ सुगंध 

भगवान ने नाक सिर्फ साँस लेने या ऊँची रखने के लिए ही नहीं दी है! साँस लेने के लिए तो मुँह भी काफी है। पर नाक न हो, तो तपती धरती पर बारिश की पहली फुहारों से उठती सोंधी महक और लिफ्ट में किसी अकड़ू आत्ममुग्धा के बदन से आती परफ्यूम की महक का जायका कैसे कर पाते? वैसे इनके अलावा भी बहुत- सी सुगंध हैं, जो दिल को लुभा लेती हैं! मुझे हवन के समय घर में भर जाने वाली सुगंध बहुत भाती है। एक ओर ये सुगंध मन में शांति और दिव्यता भरती है, वहीं दूसरी ओर दूसरी सुगंध भी हैं, जिन्हें पकड़ते ही दिल से आह निकलती है और मैं बुदबुदा उठता हूँ ‘हाय, मार डाला!’

खुशबुओं से जुड़ा हुआ एक और महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि कभी-कभी उनका एहसास होते ही अतीत की कोई धुँधली सी स्मृति जाग उठती है। ऐसी खुशबू बहुत ही यादगार-से लम्हों को बिसरने से पहले ही जिंदा कर देती है। वैसे, ऐसा ही कुछ बदबू के में भी कहा जा सकता है।

मैं निजी ज़िंदगी में किसी सुगंधित प्रोडक्ट का उपयोग नहीं करता। कोई डियो या परफ्यूम नहीं लगाता। सुगंधित साबुन से स्नान भी नहीं करता। पाउडर भी नहीं लगाता। बहुत से लोग हद से ज्यादा सुगंध का उपयोग करते हैं, जो अरुचिकर लगता है; लेकिन जीवन सुगंध से रिक्त नहीं होना चाहिए, इसीलिए मुझे बदल-बदलकर सुगंधित अगरबत्तियाँ लगाने का चस्का है। इससे सुगंध भी बनी रहती है और पत्नी इस भ्रम में भी रहती है कि मैं बहुत भक्ति-भावना से ओतप्रोत हूँ।

4- संतुष्टि/शांति 

जीवन में संतुष्टि और शांति का कोई विकल्प नहीं है। इन्हें ध्वनि या सुगंध की तरह महसूस भी नहीं किया जा सकता। केवल अंतरात्मा ही इनकी उपस्थिति की गवाही दे सकती है। इन्हें न तो खरीदा जा सकता है और न ही किसी से उधार ले सकते हैं। इन्हें अर्जित करने के मार्ग सबके लिए भिन्न-भिन्न हैं। ज्यादातर लोग ज़िंदगी में सब कुछ पा लेना चाहते हैं सबसे ज्यादा, और सबसे पहले। उन्हें इसकी बहुत जरूरत है। मुझे लगता है कि बड़ी-बड़ी बातों में इन्हें तलाश करना अपना समय और ऊर्जा नष्ट करना ही है।

जीवन में संतुष्टि और शांति पाने के लिए बुद्ध या गाँधी या कोई मसीहा बनने की जरूरत नहीं है। छोटे-छोटे पलों में भी परिपूर्णता से अपने सभी ज़रूरी कामों को पूरा करते रहना मेरे लिए इन्हें पाने का उपाय है। अपने दैनिक कार्यों को पूरा करना ही नहीं; बल्कि और भी कई चीज़ें करना, जैसे बच्चों को सैर पर ले जाना, किसी पड़ोसी की मदद कर देना, सेल्समैन को पानी के लिए पूछना भी कुछ ऐसे काम हैं, जिन्हें नहीं करने पर कोई नुकसान नहीं होता; पर इन्हें करने पर मिलने वाला आत्मिक संतोष असली पूँजी है।

आपके अनुसार वास्तविक संतुष्टि और शांति किसमें निहित है?

संभव है इन्हें अर्जित करने के सूत्र आपके सामने ही बिखरे हों पर आप उन्हें देख नहीं पा रहे हों।

5- प्रेम 

प्रेम दुनिया में सबसे सुंदर और सबसे कीमती है। यही हमें इस दुनिया में लाता है और हम इसी के सहारे यहाँ बने रहते हैं। जीवन को सतत गतिमान रखने के लिए आवश्यक ऊर्जा प्रेम से ही मिलती है। गौर करें तो हमारा दिन-रात का खटना और ज्यादा कमाने के फेर में पड़े रहने के पीछे भी प्रेम की भावना ही है हालांकि जिनके लिए हम यह सब करते हैं उन्हें प्यार के दो मीठे बोल ज्यादा ख़ुशी देंगे। प्यार के बारे में और क्या लिखूँ…

आप किससे प्रेम करते हैं? आप प्रेम बाँटते हैं या इसकी खोज में हैं?

प्यार की राह में केवल एक ही चीज़ आती है, और वह है हमारा अहंकार। ज़माना बदल गया है और अब लोग निस्वार्थ भाव से आचरण नहीं करते। हमारा विश्वास इस बात से उठ गया है कि बहुत- सी अच्छी चीज़ें बाँटने से ही बढ़ती हैं। इस बारे में आपका क्या ख़याल है?

इस लिस्ट में आप और क्या इजाफा कर सकते हैं? आप जीवन का वास्तविक सौंदर्य किन वस्तुओं या विचारों में देखते हैं? (हिन्दी ज़ेन से)



कविताः अधूरे सत्य की पूर्णता

 
 -  अनीता सैनी

“स्त्री अधूरेपन में पूर्ण लगती है।”

इस वाक्य का

विचारों में बनता स्थायी घर

अतीत पर कई प्रश्नचिह्न लगता है।

उससे कोई फर्क नहीं पड़ता

कि वह,

कितना बीमार और उदास था।

 

वर्तमान पर पड़ते निशान

भविष्य को अंधा ही नहीं करते,

धरती की काया,

उसकी आत्मा बार-बार तोड़ते हैं।

उन्हें नहीं लिखना चाहिए

कि नैतिकता फूल है,

या

फूलों से खिलखिलाता बगीचा है।

 

उन्हें लिखना चाहिए

कि स्वस्थ नैतिकता से

लदे फूलों की जड़ों में भी मरघट हैं,

सूखा जंगल है,

जहाँ सूखी टहनियाँ, काँटे ही नहीं,

जड़ें भी पाँव में चुभती हैं।

 

पूर्वाग्रह टूटने के लिए बने हैं,

टूट जाने चाहिए,

वे ताजगी देते हैं,

पीड़ा नहीं।

 

वह,

अपना सब कुछ खो देना चाहती है।

इसलिए नहीं

कि वह एक पीड़ित पितृभूमि से है,

इसलिए भी नहीं

कि उसके पैरों पर लगी मिट्टी

आज भी उस पर हँसती है।

 

इसलिए

कि वह

अपनी सच्चाई से प्रेम करती है।


निबंधः हिम्मत और ज़िन्दगी

 - रामधारी सिंह ‘दिनकर’

ज़िन्दगी के असली मजे उनके लिए नहीं हैं

जो फूलों की छांह के नीचे खेलते और सोते हैं । बल्कि फूलों की छांह के नीचे अगर जीवन का कोई स्वाद छिपा है, तो वह भी उन्हीं के लिए है जो दूर रेगिस्तान से आ रहे हैं जिनका कंठ सूखा हुआ, होंठ फटे हुए और सारा बदन पसीने से तर है । पानी में जो अमृत वाला तत्व है, उसे वह जनता है जो धूप में खूब सूख चूका है, वह नहीं जो रेगिस्तान में कभी पड़ा ही नहीं है ।

सुख देनेवाली चीजें पहले भी थीं और अब भी हैं । फर्क यह है की जो सुखों का मूल्य पहले चुकाते हैं और उनके मजे बाद में लेते हैं उन्हें स्वाद अधिक मिलता है । जिन्हें आराम आसानी से मिल जाता है, उनके लिए आराम ही मौत है।

जो लोग पाँव भीगने के खौफ से पानी से बचते रहते हैं, समुद्र में डूब जाने का खतरा उन्हीं के लिए है। लहरों में तैरने का जिन्हें अभ्यास है वे मोती लेकर बहार आएँगे ।

चाँदनी की ताजगी और शीतलता का आनंद वह मनुष्य लेता है जो दिनभर धूप में थककर लौटा है, जिसके शरीर को अब तरलाई की जरूरत महसूस होती है और जिसका मन यह जानकर संतुष्ट है कि दिन भर का समय उसने किसी अच्छे काम में लगाया है।

इसके विपरीत वह आदमी भी है जो दिन भर खिड़कियाँ बंद करके पंखों के नीचे छिपा हुआ था और अब रात में जिसकी सेज बाहर चाँदनी में लगाई गई है । भ्रम तो शायद उसे भी होता होगा कि वह चाँदनी के मजे ले रहा है, लेकिन सच पूछिए तो वह खुशबूदार फूलों के रस में दिन-रात सड़ रहा है ।

उपवास और संयम ये आत्महत्या के साधन नहीं हैं । भोजन का असली स्वाद उसी को मिलता है जो कुछ दिन बिना खाए भी रह सकता है। 'त्यक्तेन भुंजीथा:', जीवन का भोग त्याग के साथ करो, यह केवल परमार्थ का ही उपदेश नहीं है, क्योंकि संयम से भोग करने पर जीवन में जो आनंद प्राप्त होता है, वह निरा भोगी बनकर भोगने से नहीं मिल पता।

बड़ी चीजें बड़े संकटों में विकास पाती हैं, बड़ी हस्तियाँ बड़ी मुसीबतों में पलकर दुनिया पर कब्ज़ा करती हैं । अकबर ने तेरह साल की उम्र में अपने बाप के दुश्मन को परास्त कर दिया था जिसका एक मात्र कारण यह था कि अकबर का जन्म रेगिस्तान में हुआ था, और वह भी उस समय, जब उसके बाप के पास एक कस्तूरी को छोड़कर और कोई दौलत नहीं थी।

महाभारत में देश के प्रायः अधिकांश वीर कौरवों के पक्ष में थे। मगर फिर भी जीत पांडवों की हुई ,; क्योंकि उन्होंने लाक्षागृह की मुसीबत झेली थी; क्योंकि उन्होंने वनवास के जोखिम को पार किया था ।

श्री विंस्टन चर्चिल ने कहा है कि ज़िन्दगी की सबसे बड़ी सिफ़त हिम्मत है । आदमी के और सारे गुण उसके हिम्मती होने से ही पैदा होते हैं।

ज़िन्दगी की दो सूरतें हैं । एक तो यह कि आदमी बड़े-से-बड़े मकसद के लिए कोशिश करे, जगमगाती हुई जीत पर पंजा डालने के लिए हाथ बढ़ाए, और अगर असफलताएँ कदम-कदम पर जोश की रोशनी के साथ अँधियाली का जाल बुन रही हों, तब भी वह पीछे को पाँव न हटाए।

दूसरी सूरत यह है कि उन गरीब आत्माओं का हमजोली बन जाए, जो न तो बहुत अधिक सुख पाती हैं और न जिन्हें बहुत अधिक दुःख पाने का ही संयोग है; क्योंकि वे आत्माएँ ऐसी गोधूलि में बसती हैं जहाँ न तो जीत हँसती है और न कभी हार के रोने की आवाज सुनाई पड़ती है। इस गोधूलि वाली दुनिया के लोग बँधे हुए घाट का पानी पीते हैं, वे ज़िन्दगी के साथ जुआ नहीं खेल सकते। और कौन कहता है कि पूरी ज़िन्दगी को दाव पर लगा देने में कोई आनंद नहीं है?

अगर रास्ता आगे ही निकल रहा है, तो फिर असली मजा तो पाँव बढ़ाते जाने में ही है।

साहस की ज़िन्दगी सबसे बड़ी ज़िन्दगी होती है। ऐसी ज़िन्दगी की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वह बिल्कुल निडर, बिल्कुल बेखौफ़ होती है। साहसी मनुष्य की पहली पहचान यह है कि वह इस बात कि चिन्ता नहीं करता कि तमाशा देखने वाले लोग उसके बारे में क्या सोच रहे हैं। जनमत की उपेक्षा करके जीनेवाला आदमी दुनिया की असली ताकत होता है और मनुष्यता को प्रकाश भी उसी आदमी से मिलता है। अड़ोस-पड़ोस को देखकर चलना, यह साधारण जीव का काम है। क्रांति करने वाले लोग अपने उद्देश्य की तुलना न तो पड़ोसी के उद्देश्य से करते हैं और न अपनी चाल को ही पड़ोसी की चाल देखकर मद्धिम बनाते हैं। साहसी मनुष्य उन सपनों में भी रस लेता है जिन सपनों का कोई व्यावहारिक अर्थ नहीं है।

साहसी मनुष्य सपने उधार नहीं लेता, वह अपने विचारों में रमा हुआ अपनी ही किताब पढ़ता है।

झुंड में चलना और झुंड में चरना, यह भैंस और भेड़ का काम है। सिंह तो बिल्कुल अकेला होने पर भी मगन रहता है।

अर्नाल्ड बेनेट ने एक जगह लिखा है कि जो आदमी यह महसूस करता है कि किसी महान निश्चय के समय वह साहस से काम नहीं ले सका, ज़िन्दगी की चुनौती को कबूल नहीं कर सका, वह सुखी नहीं हो सकता। बड़े मौके पर साहस नहीं दिखाने वाला आदमी बराबर अपनी आत्मा के भीतर एक आवाज सुनता रहता है, एक ऐसी आवाज जिसे वही सुन सकता है और जिसे वह रोक भी नहीं सकता । यह आवाज उसे बराबर कहती रहती है, "तुम साहस नहीं दिखा सके, तुम कायर की तरह भाग खड़े हुए।" सांसारिक अर्थ में जिसे हम सुख कहते हैं, उसका न मिलना, फिर भी, इससे कही श्रेष्ठ है कि मरने के समय हम अपनी आत्मा से यह धिक्कार सुनें की तुममें हिम्मत की कमी थी, कि तुममें साहस का आभाव था, कि तुम ठीक वक़्त पर ज़िन्दगी से भाग खड़े हुए।

ज़िन्दगी को ठीक से जीना हमेशा ही जोखिम झेलना है और जो आदमी सकुशल जीने के लिए जोखिम का हर जगह पर एक घेर डालता है, वह अंततः अपने ही घेरों के बीच कैद हो जाता है और ज़िन्दगी का कोई मजा उसे नहीं मिल पाता; क्योंकि जोखिम से बचने की कोशिश में, असल में, उसने ज़िन्दगी को ही आने में रोक रखा है।

ज़िन्दगी से, अंत में, हम उतना ही पाते हैं, जितनी कि उसमे पूँजी लगाते हैं। यह पूँजी लगाना ज़िन्दगी के संकटों का सामना करना है, उसके उस पन्ने को उलटकर पढना है जिसके सभी अक्षर फूलों से ही नहीं, कुछ अंगारों से भी लिखे गए हैं। ज़िन्दगी का भेद कुछ उसे ही मालूम है जो यह जानकार चलता है कि ज़िन्दगी कभी भी ख़त्म न होने वाली चीज़ है।

अरे ! ओ जीवन के साधको ! अगर किनारे की मरी सीपियों से ही तुम्हे संतोष हो जाए, तो समुद्र के अंतराल में छिपे हुए मौक्तिक - कोष को कौन बहार लाएगा ?

दुनिया में जितने भी मजे बिखेरे गए हैं, उनमें तुम्हारा भी हिस्सा है । वह चीज भी तुम्हारी हो सकती है, जिसे तुम अपनी पहुँच के परे मान कर लौटे जा रहे हो ।

कामना का अंचल छोटा मत करो, ज़िन्दगी के फल को दोनों हाथों से दबाकर निचोड़ो, रस की निर्झरी तुम्हारे बहाए भी बह सकती है ।

यह अरण्य, झुरमुट जो काटे अपनी राह बना ले,

क्रीतदास यह नहीं किसी का जो चाहे अपना ले ।

जीवन उनका नहीं युधिष्ठिर ! जो उससे डरते हैं ।

वह उनका जो चरण रोप निर्भय होकर लड़ते हैं ।

(‘रेती के फूल” पुस्तक से)

कहानीः औरत खेत नहीं

  - डॉ. परदेशीराम वर्मा

जहाँ गैया जाएगी वहाँ बछड़े को तो जाना ही है । यह तो सनातन नियम है । रमेसर मंडल भी इस नियम के भीतर ही रहेंगे। तुम तो अपनी हाँ या ना बताओ । शेष सब जम जाएगा । रमेसर मंडल के साथ आए बिसाहू ने जब जगेसरी को यह प्रस्ताव दिया तो वह राजी हो गई।

दो साल पहले ही उसकी कलाई सुनी हुई थी। अचानक उसके पति उसे छोड़कर गुजर गए। कोई बीमारी भी नहीं थी। दो दिन तक बुखार में तड़पे और, जाथंव जगेसरी, समेलाल के खियाल करबे । कहते हुए चल बसे। घरवाला गुजर गया, मगर जगेसरी की दिनचर्या वही रही । पहले जगेसरी घरवाले के साथ काम करने जाती थी, अब अकेली जाने लगी। साथ में तीन बरस के समेलाल को भी ले जाती । दो माह बाद ही जात-बिरादरी के लोग चूड़ी पहनाने का प्रस्ताव लेकर आने लगे । मगर जगेसरी ने हर आने वाले को साफ कहा कि बेटे को पहले अपना बेटा बनाओ, तब उसकी माँ के हाथ में डालो चूड़ी । यह एक कठिन शर्त थी।जगेसरी चाहती थी कि चूड़ी पहनाने वाला पहले समेलाल के नाम अपनी कुछ जमीन लिख दे, फिर आगे बात करें । इस बार भी रमेसर मंडल के प्रस्ताव पर उसने साफ कह दिया, दो एकड़ जमीन समे के नाम कर दो तब हाथ लमाहूँ । रमेसर मंडल मान गए और जगेसरी को चूड़ी पहनाकर समेलाल सहित गाँव आ गए। समेलाल तब तीन बरस का था जब धानगाँव के रमेसर मंडल के यहाँ उसकी माँ चूड़ी पहनकर आई।

रमेसर मंडल के पास दस एकड़ जमीन थी । आठ एकड़ नाले के पास धनहा जमीन थी । एकड़ पीछे दो गाड़ा धान देने वाली जमीन । ठीक नाले से लगी हुई । दो एकड़ भर्री जमीन थी जिसमें कुछ नहीं होता था । मटकटैया के पेड़ उगते थे भर्री में । उस तरफ मंडल ने पाँच बरस से देखा भी नहीं था । एक बरस कुवार में बारिश हो गई तो अहहर की फसल हो गई थी । भर्री जमीन थी भी गाँव से दूर । उस बरस अरहर की खड़ी फसल को बकरी चराने वाले लड़कों ने नष्ट कर दिया था । इसीलिए मंडल कहते थे - भर्री भाठा, करम नाठा । यानी पुरूषार्थ को नष्ट करने वाली जमीन होती है भर्री । मंडल अपनी पहली मंडलिन को भी भर्री जमीन कहते थे । पाँच वर्ष तक साथ रही । थी भी चौड़ी चकली। मगर माँ न बन सकी । मंडल ने इसीलिए आखिर में उसे भगा दिया । उसे छोड़ने के बाद जगेसरी को ले आया । जगेसरी के साथ समेलाल को जब मंडल ले आया तो गाँव में पंगत में ही चरचा हो गई कि दो एकड़ जमीन समे के नाम जल्दी कर दी जाए । मंडल का हाथ तो पत्थर के नीचे दबा हुआ था । चढ़ाए तो असल धनहा जाय हाथ से । न चढ़ाए तो जगेसरी निकल जाय हाथ से। बहुत सोचकर मंडल ने दो एकड़ भर्री चढ़ा दी समेलाल के नाम पर इस तरह साँप भी मर गया और लाठी भी बच गई । जगेसरी भी बात जीत गई और समेलाल बेटवा बनकर रह गया धानगाँव में ।

मगर जल्दी ही जगेसरी जान गई कि मंडल ने भर्री देकर समेलाल को और उसे ठग लिया है। तब तक आठ माह बीत चुके थे । जगेसरी तो अटल धनहा थी । उसके पाँव भारी हो गए थे । मंडल के हमजोली ठिठोली करते कि भर्री देकर धनहा लाना तो कोई मंडल से सीखे । चोंगी पीते हुए रमेसर मंडल हमजालियों की चुटकियों का आनन्द लेते । दिन बीतने लगे इसी तरह । जगेसरी के दिन करीब थे ।

अचानक एक दिन ठीक धान मिंजाई के लिए मंडल दौरी में बछवा फाँद रहे थे कि नौकर ने आकर बताया-मंडलिन बुला रही है । जचकी का समय हो गया था । जगेसरी दूसरी बार माँ बन रही थी । वह जान गई थी कि अब दाई को बुला लाना जरूरी है । मंडल फाँदे बैलों को जाकर खोल आया । दौरी चलाना उसने स्थगित कर दिया । खलिहान में धान का पैरा बगरा हुआ था । उसकी चिन्ता मंडल को नहीं थी । यह तो माटी की पैदाइश थी । धनहा है तो धान तो होनाही है । लेकिन जगेसरी खुद धनहा बनकर आई है । मंडल ने सोचा जगेसरी पहली फसल देने  जा रही है । उसकी चिंता जरूरी है । समेलाल तो दूसरे के जोते-बोने से हुआ था । इस बार मंडल ने जोतने-बोने का काम किया था । यही तो कमी थी पिछली बार । पहली मंडलिन ने तो उसे अबिजहा सिद्ध कर दिया था । रिश्ते की भाभियाँ उसे नपुंसक तक कह देती थी । लेकिन जगेसरी ने उसे उबार लिया ।

इसीलिए दौरी-फौरी को छोड़ मंडल ने दाई को बुलाया । तीन बरस के समेलाल को सुबह उठने पर पड़ोस की रामबाई ने बताया कि उसके बहन हुई है । समेलाल अपनी माँ के पास गया। माँ ने समेलाल के सिर पर हाथ फेरकर दुलार किया । मंडल ने लड़की के जनम पर गाँव-भर को चाह-पानी के लिए बुलाया । काँके पानी और तिल के लड्डू से सबका स्वागत किया ।

जगेसरी माह-भर में हरिया गई । देखकर कोई कह नहीं सकता था कि वह दो बच्चों की माँ है । दुहरी देह की जगेसरी मंडल के यहाँ आराम पाकर दिपदिपाने लगी । माह-दो-माह नहीं बल्कि चार माह बीत गए, मगर जगेसरी अब मंडल को अपनी खटिया के पास फटकने ही न दे । एक-दो बार मंडल ने कुछ हुज्जत करने का यत्न किया तो जगेसरी अगियाबैताल हो गई । रमेसर मंडल को कुछ सूझा नहीं । उसने हथियार डालते हुए डूबे स्वर में केवल इतना ही कहा, मंडलिन, क्या हो गया ? लड़की से तो मेरा कल्याण होगा नहीं । डिह में दिया बारता है बेटा । जब तुमने लड़की दे दिया तो एक बेटा भी दे दो । बस, और कुछ साध नहीं है । फिर हरू हुए भी तो चार माह हो गए ।

जगेसरी ने फुफकारते हुए जवाब दिया, पास आने की कोशिश करोगे तो बेटी-भर रह जाएगी तुम्हारे पास । जगेसरी के लिए क्या है । जैसे यहाँ आ गई, वैसे ही कहीं और चल देगी । जादा मत मस्तियाओं । चुपचाप भर-पेट भात खाओ और तान दुपट्टा लगाकर नींद-भर सोओ । छोड़ दो आस अब नागर जोतने की । अब इस खेत में दुबारा बीज नहीं बो सकते मंडल ।

रमेसर मंडल जगेसरी के इस जवाब से सन्न रह गए । मरता क्या न करता । दोनों जाँघ के बीच में हाथ चपककर सो गए । इसी तरह और माह-भर बीत गया।

मंडल को समझ में न आए कि बात क्या है । उसकी पहली बाई तो बिना बच्चा जने पाँच साल तक सुख देती रही। रमेसर तो काम-सुख की बात चलने पर अपने हमजोलियों से कहता भी था कि महीना में चार दिन उपास अऊ छब्बीस दिन कुवाँ म बाँस । हमजोली उसकी इस मस्ती-भरी टिप्पणी का खूब आनंद लेते । रतन नाई मुँह-लगा था । वह तो इस उक्ति का सरल अर्थ भी पूछ लेता । तब मंडल कहते, रतन, चार दिन उपास तो रहना ही पड़ता है । सनातम नियम है । औरत को शाप है इसलिए पास जा नहीं सकता मरद चार दिन। उसके बाद बचता है माह में छब्बीस दिन । तो फिर... उसके इस अर्थ पर खूब ठहाका लगता।

मगर इन दिनों रमेसर मंडल हँसना ही भूल गया था । रतन ने ही बाल काटते हुए पूछा, मंडल, एक बात पूछूँ ?

पूछ लो भई । 

कुछ गड़बड़ है मंडल ? 

बहुत जादा जी । 

भउजी से झगड़ा हुआ है क्या ?’ 

भारी झगड़ा । 

कारण क्या है मंडल ? 

संजोग नहीं जम रहा ।

यह जवाब सुनकर रतन बाल काटना छोड़कर हँसने लगा । मंडल नाराज हो गया । उसने कहा, बोकरा के जीव जाय, खवइया ल अलोना । रोने की बात में हँसता है रे नउवा !

रतन चुप हो गया । उसे लगा कि वाकई मंडल दु:खी है । कुछ देर चुप रहकर उसने फिर पूछा, मंडल, छिमा करते हुए बताओ कि क्या कुछ बीमारी आ गई ? गड़बड़ी क्या है, कुछ पता चला?

मंडल ने कहा, रतन, सब ठीक है । मगर भारी दु:ख है रे भाई। तुम्हारी भौजी पाटी तक नहीं छूने देती । बच्चा जनने के बाद क्या सालों-साल ऐसा ही होता है रतन? मैं तो पहली बार बाप बना हूँ भइया । तुम हो पाँच लड़कों के बाप, तुम्हीं बताओ ।

रतन उसकी बात से हो-होकर हँस पड़ा । तब तक वह बाल काट चुका था । रतन ने मंडल से कहा, मंडल, तुमने बहुत अच्छा सवाल सही समय में पूछा है । हमारे इलाके में इसी बात को लेकर एक जबरदस्त कहानी प्रचलित है। तुम कहो तो सुनाकर जाऊँ। रमेसर मंडल ने कहा, सुना दो । चाह दो कप और पी लेना। मंडल के पुचकारते ही रतन ने कहना शुरू कर दिया, मंडल,बात है बरसों पुरानी । एक बड़े गौटिया के पास पचास एकड़ धनहा जमीन थी और दस एकड़ भर्री । गौटिया था जवान। उसकी दो साल पहले शादी हुई थी । बच्चा भी होना ही था । बच्चा गौंटिया की तरह खूब मोटा-ताजा हुआ था । उसकी गौटनिन भी थी खूब गोरी नारी । मोठडांट छिहिल-छिहिन्ल करती थी । चलती थी तो दोनों कूल्हे उझेला मारते थे । भरे-पूरे अस्तन और केले के खम्भों की तरह....।

चुप बे । बता रहा है जैसे खम्भों को खुद छूकर देखा हो । इतना मत जमा, सोझ बता। इस बार बनावटी गुस्से से रमेसर मंडल ने रतन को डाँटा ।

रतन भी खिलाड़ी था । वह जान गया था कि मंडल को रस आ रहा है । नाई कोई बात कहे और श्रोता अपना आपा न खो बैठें तो धिक्कार है नउवा की जात पर, रतन ने सोचा । फिर बात बनाते हुए उसने कहा, मंडल, अब बाकी कहानी कल सुन लेना। रमेसर मंडल ने उसके हाथ से साजू छीनते हुए कहा, रतन भाई, छोड़ों नाटक, पियो चाह और सुनाओं पूरी कहानी।

रतन फँस चुका था मंडल के जाल में । उसे और मालिकों के यहाँ भी जाना था मगर रमेसर तो गले ही पड़ गया । सुनाए बिना जाने ही न दे । चाय सुड़कते और शरारती आँखें मटकाते हुए रतन ने बताना प्रारम्भ किया, मंडल, बात तइहा जमाने की है । एक था तुम्हारी तरह बड़ा दाऊ । खेत-खारवाला । दस नौकर लगते थे उसके । बड़ा हिसाब-किताब था । रोज रबड़ी खाता था । तोला-भर गाँजा रोज उड़ाता था । मगर था लंगोट का सच्चा । लंगोट का सच्चा यानी सिर्फ अपनी घरवाली से मतलब रखता था । अरे जो एक औरत से निभा ले, उसे योगी ही जानो मंडल ।

रतन की इस बात से रमेसर मंडल मुस्कुराने लगा। उसने उसकी पीठ पर धौल जमाते हुए कहा, आगे चल रे रतन, गाली मत दे। तुलसीदास मत बन । गियान हमारे पास भी है ।

रतन उसकी बात समझते हुए आगे कहने लगा, तो मंडल, उसी बड़े दाऊ के घर हुआ लड़का । लड़का हुआ तो उछाह-मंगल हो गया । इसी तरह छह माह बीत गए । बच्चा होने के बाद दाऊ पलटकर गौटनिन की ओर देखबे न करे । गौटनिन तो पहले से और सुंदरा गई थी । छिहिल-छिहिल करती । लगता जैसे जग्ग ले दिया जैसी बर जाएगी । मगर गौटिया उसकी ओर देखते भी नहीं । एक दिन गौटनिन से रहा न गया तो उसने हाथ पकड़कर गौटिया से पूछ लिया, क्या बात है, अब परेम कम कैसे हो गया ? तन में अन्न-पानी भी पहले जैसा लगता है, तब भला नजदीक आने से क्यों डरते हो? सच-सच बताओ ।

गौंटिया ने गौंटनिन की बात सुनकर अपने दिल की बात कह दी । उसने कहा, एक ही बात से परेशान हूँ । जिस मारग से इतना बड़ा लड़का निकल आया, वहाँ अब मेरे पुरूषार्थ की भला कहाँ गुंजाइश है । गौटनिन को सहसा हँसी छूट गई उसकी बात सुनकर । मगर फिर उसने जोर नहीं दिया । दोनों अलग-अलग खाट पर सो गए चुपचाप ।

कुवार का महीना था । गौंटिया के नौकरों का मुखिया दसों नौकरों को लेकर भर्री जोतने निकल रहा था । गौंटिया भी नौकरों के साथ भर्री चल पड़ा । छँटवा बैल और बबूल से बने मजबूत हल । गौटिया ने सोचा कि आज ही दसों एकड़ की जुताई हो जाएगी ।

नौकर हल लेकर खेतों में उतर गए । चोंगी-माखुर खाने के बाद ही नौकर हल की मुठिया पर हाथ धरते थे । कुछ देरी जरूर होती थी मगर यह नियम था । चोंगी-माखुर के बाद दसों नौकरो ने एक के बाद एक अपने-अपने हलों से जुते बैलों को हाँकना शुरू किया । भर्री जमीन की मिट्टी काली और चिकनी तो होती ही है । माह-भर पहले इसकी जुताई एक बार हो भी चुकी थी । बीच में अकरसा पानी बरस गया था । जमीन कड़कड़ा रही थी, बैल सपाटे से बढ़ नहीं पाते थे। गौटिया ने नौकरों के मुखिया भुखऊ से कहा, भुखऊ, जुती जमीन में ऐसी पकड़ खाली भर्री में ही होती है जी। धनहा में तो बस पक-पक-पक-पक जोते जाओ । भर्री में ही बैलों का पुरुषारथ दिखता है । भुखऊ ने कहा, दाऊजी, जचकी के माह भर बाद जो हाल चमाचम नारी के तन का हो जाता है, सो हाल जुती भर्री का भी अकरस पानी पाकर हो जाता है । जोतने वाला दंदर जाता है । बड़ा पुरूषारथ लगता है मालिक । आप तो अब बच्चे के बाप बन गए हैं भर्री में हल खींचते बैलों के दु:ख को सही ढंग से जान गए होंगे ।

भुखऊ की बात सुनकर गौटिया सन्ना गया । वह फिर वहाँ ठहरा नहीं भर्री में । सीधे घर आकर रूका । 

क्यों रे नउवा ? क्यों आया वह घर ? रमेसर मंडल ने नाई को उकसाते हुए पूछा । नाई ने कहा, मंडल, दाऊ जानना चाहता था कि अकरस पानी खाए भर्री को जोतने में बैलों को कितना बल लगता है । वह थाह लगाना चाहता था । मंडल ने फिर पूछा, तो उसे थाह लगा कि नहीं रे ?

नाई ने कहा, सब मैं ही बताऊँ मंडल, कुछ तुम भी तो समझो। तुम भी तो बाप बन गए हो । भर्री में हल चलाकर देख भी तो सकते हो । बहुत रह लिए उपासे । मंडल अभी कुछ और कहता कि रतन नाई साजू उठाकर हँसता हुआ वहाँ से चल निकला ।

रमेसर मंडल को रतन नाई ने अपनी बात से झिंझोड़कर रख दिया । वह उठ खड़ा हुआ । हाथ में तुतारी लेकर निकल पड़ा खेतों की ओर । गाँव से लगा हुआ पहला चक मंडल का था । आठ एकड़ का एक ही चक । उसने तो दो एकड़ भर्री जमीन में भी खूब प्रयास किया कि जोत-बोकर उसे भी धनहा बना लिया जाए । खातू माटी से ऐसा हो भी जाता है, मगर उसकी भर्री जमीन और खराब थी । गोटर्रा जमीन थी। कांदी तक ठीक-से उस दो एकड़ जमीन में नहीं होती थी ।

मंडल अपने धान के भरे-पूरे खेतों में टहलता रहा । फिर अचानक उसे अपनी चटियल भर्री जमीन की याद हो आई । रमेसर उस तरफ चल निकला । बीच में छोटा-सा नाला था । बबूल और खम्हार के पेड़ों से भरा था रमेसर मंडल का चक। शिरीष और शीशम के भी दो-चार पेड़ थे । बेर का तो मेड़ों पर जंगल ही उग आया था । धनहा पार कर वह नाले में उतरा । कुंवार में नाले में पानी बहुत कम हो जाता है । मंडल नाले को बाँधकर उसमें मछली पकड़ने के लिए चोरिया भी फँसाकर रख देता है । वह चाक-चौबंद मंडल है । लाभ के किसी अवसर को हाथ से जाने नहीं देना चाहता । चोरिया को उठाकर उसने देखा । कुछ डेमचुल, रूदुवा और कोतरी मछलियाँ फँसी थीं । मछलियों को देखकर वह आगे बढ़ गया । नाले को पार कर ज्योंही उपर चढ़ा तो अपनी भर्री में उसने किसी औरत जात को घूमते पाया । दोपहर का समय था । कहीं दूर-दूर तक कोई आदमी नहीं दिख रहा था । मंडल को लगा कि कोई टोनही या तुरेलिन तो नहीं है। वह डर-सा गया, मगर गौर से उसने देखा तो साड़ी जानी-पहचानी लगी । वह धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगा । पास गया तो देखा, उसकी बाई जगेसरी वहाँ टहल रही थी । मंडल को देखकर जगेसरी की आँखें लाल हो गई । मंडल ने फिर भी पुचकारते हुए पूछा, घर में छोटी-सी नोनी को किसके सहारे छोड़ आई जगेसरी ?

समे के सहारे! जगेसरी ने कहा । मंडल समझ गया कि जगेसरी नाराज है । उसने हिम्मत बटोरते हुए फिर पूछा, यहाँ भर्री में क्यों चली आई ?

जगेसरी ने आँखे तरेरते हुए कहा, तुम्हे शरम नहीं आई? मेरे बेटे को तुमने यह बंजर धरा दिया ? मंडल, धनहा खेत की तरह तुम्हारे घर आते ही जगेसरी ने बेटी जन दी । मेरी शर्त तो पूरी हो गई । तुम्हारा मान भी बढ़ गया; लेकिन तुम्हारा अंतस कितना काला है, यह पता लगा इस काली चटर्री माटी वाले खेतों को देखकर । मेरे बेटे के मुँह में पैरा गोंज दिया तुमने मंडल ।

रमेसर मंडल को लगा कि जगेसरी से ज्यादा उलझना ठीक नहीं है । कहीं चटकनिया ही न दे। उसने नम्र होते हुए कहा, समेलाल तो केवल तुम्हारा बेटा है जगेसरी, मेरा तो नहीं । भला यह तो सोचो, भर्री दे दिया, यही बहुत किया....। अभी वह कुछ और कहता कि जगेसरी अगियाबैताल हो गई । उसने कहा, मंडल, समे भी मेरा बेटा है और बेटी भी केवल मेरी है । मैंने जन्माया है । तुम साफ-साफ सुन लो । मैं अब तुम्हारे घर में एक दिन भी नहीं रह सकती। समे बेटा और अपनी बेटी को लेकर आज ही चली आऊँगी । बहुत जोत-बो लिये, मगर समझ नहीं सके कि औरत खेत नहीं है, मंडल ।

रमेसर मंडल को सहसा कुछ सुझा नहीं । उसने कहा, जगेसरी, तुम तो ऐसी खेत हो, जिसमें मैं बीज बो चुका हूँ ; इसलिए जाना है तो जाओ, लड़की तो मेरी है ।

व्यंग्यात्मक हँसी हँसते हुए जगेसरी ने कहा, मंडल,इस धोखे में मत रहना, बीज किसका है यह सिर्फ औरत ही जानती है ।

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