हताशा - विनोद कुमार शुक्ल
हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
हताशा को जानता था
इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
मैंने हाथ बढ़ाया
मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
मुझे वह नहीं जानता था
मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
हम दोनों साथ चले
दोनों एक-दूसरे को नहीं जानते थे
साथ चलने को जानते थे।
इस अंक में
अनकहीः आम जनता और वीआईपी संस्कृति - डॉ. रत्ना वर्मा
अंतरंग: विनोद कुमार शुक्ल को ज्ञानपीठ- सायास अनगढ़पन का सौंदर्य - विनोद साव
यात्रा-संस्मरणः भृगु लेक के द्वार तक - भीकम सिंह
सॉनेटः निर्दिष्ट दिशा में - अनिमा दास
प्रेरकः खाना खा लिया? तो अपने बर्तन भी धो लो! - निशांत
आलेखः वीर योद्धा- मन के जीते जीत - मेजर मनीष सिंह - शशि पाधा
संस्मरणः स्मार्ट फ्लायर - निर्देश निधि
कविताः बुद्ध बन जाना तुम - सांत्वना श्रीकान्त
विज्ञानः बंद पड़ी रेल लाइन का ‘भूत’
हाइबनः तुम बहुत याद आओगे - प्रियंका गुप्ता
कविताः बोलने से सब होता है - रमेश कुमार सोनी
व्यंग्य कथाः आराम में भी राम... - डॉ. कुँवर दिनेश सिंह
कहानीः बालमन - डॉ. कनक लता मिश्रा
कविताः शब्द - रश्मि विभा त्रिपाठी
किताबेंः समय, समाज और प्रशासन की प्रतिकृति - अनुज मिश्रा
कविताः इति आई ! - डॉ. सुरंगमा यादव
जीवन दर्शनः व्यर्थ को करें विदा - विजय जोशी
विनोद कुमार शुक्ल जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार की सूचना ने हर्षित और गर्वित किया।
ReplyDeleteएक सधी हुई पत्रिका जिसमें सभी स्तम्भ कसे हुए हैं-हार्दिक बधाई।
मेरी कविता को स्थान देने का आभार।
आपका आभार और शुक्रिया सोनी जी । आपने सही कहा विनोद कुमार शुक्ल जी को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिलने से हम सबने गौरवान्वित महसूस किया हैं ।
Deleteप्रेरणादायी सम्पादकीय एवं स्तरीय रचनाओं से सुसज्जित उदंती के अप्रेल अंक के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteBahut hi badiya likha hai v.i.p culture ke bare mai 👌
ReplyDeleteइस सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार और शुक्रिया साधना जी।
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