उदंती.com

May 2, 2025

उदंती.com, मई - 2025

वर्ष - 15, अंक - 9

 हमें हार नहीं माननी चाहिए

और समस्या को हमें हराने की

अनुमति नहीं देनी चाहिए।

         – ए. पी. जे. अब्दुल कलाम

इस अंक में

अनकहीः भारत की आत्मा पर हमला  - डॉ. रत्ना वर्मा

आलेखः कठघरे में इंसाफ - डॉ. महेश परिमल

चिंतनः नैतिक मूल्यों का ह्रास और वर्तमान समाज - शिवजी श्रीवास्तव

यात्रा संस्मरणः फ़िनलैंड: जादुई पल और अनकही बातें - जैस्मिन जोविअल

आलेखः दुनिया की आधी आबादी को स्वच्छ पेयजल मयस्सर नहीं

प्रेरकः रेगिस्तान में दो मित्र - निशांत

प्रकृतिः म्यांमार भूकंप- शहरी विकास के लिए चेतावनी - प्रमोद भार्गव

स्वास्थ्यः कटहल के  लाभ  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

कविताः पिता, तुम सच में चले गए? - डॉ. पूनम चौधरी

निबंधः मेरी पहली रचना - प्रेमचंद

प्रसंगः एक भावुक दृश्य - लिली मित्रा

लघुकथाः 1. संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण, 2. ज़िंदा  का  बोझ  - डॉ. सुषमा गुप्ता 

हाइबनः प्रवासी पक्षियों का आश्रय चिल्का झील - अंजू निगम

कहानीः ग़ैर-ज़रूरी सामान - नमिता सिंह 'आराधना'

व्यंग्यः दास्तान-ए-सांड - डॉ. मुकेश असीमित

कविताः गुमशुदा - सुरजीत 

लघुकथाः बड़कऊ - रचना श्रीवास्तव   

कविताः अम्मा का गुटका - भावना सक्सैना

ग़ज़लः तुम्हें राधा बुलाती है - अशोक शर्मा

किताबेंः विचित्रता से घिरे मन और बुद्धि - रश्मि विभा त्रिपाठी

कविताः नमस्कार - रवींद्रनाथ टैगोर, अनुवाद: मुरली चौधरी

जीवन दर्शनः उसैन बोल्ट: परहित सरिस धरम नहीं भाई - विजय जोशी 

अनकहीः भारत की आत्मा पर हमला...

 - डॉ.  रत्ना वर्मा

धरती का स्वर्ग के नाम से प्रसिद्ध कश्मीर के पहलगाम में 22 अप्रैल को आतंकवादियों ने निर्दोष पर्यटकों पर कायराना  हमला करके भारत की आत्मा को एक बार पुनः झकझोर दिया है।  हरी- भरी वादियों, बर्फ से ढके पहाड़ों और खूबसूरत झीलों वाले इस प्रदेश में  2019 के बाद पुनः पर्यटन को बढ़ावा मिला और लोग बड़ी संख्या में यहाँ पहुँचने लगे; परंतु दरिंदों को हमारी खुशियाँ रास नहीं आई। जैसे ही ये हरी भरी वादियाँ फिर से पहले की तरह गुलजार होने लगी थीं, लोग यहाँ खुशियाँ मनाने, खुशियाँ बाँटने फिर से इकट्ठा होंगे लगे थे कि यह भयावह घटना घट गई। छुट्टियाँ मनाने आए पर्यटकों का खून बहाकर आतंकवादियों ने फिर एक बार दहशत पैदा करने की कोशिश की है। उनका मकसद भी तो यही था कि कश्मीर फिर से थर्राने लगे और लोग डर से यहाँ आना बंद कर दें। 
इसमें कोई दो मत नहीं कि पहलगाम में हुआ यह हमला एक सुनियोजित हमला था और भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा, कश्मीरियों का अमन-चैन और आम नागरिकों के मनोबल को तोड़कर कश्मीर की धरती पर अस्थिरता पैदा करने की एक नाकाम कोशिश थी। इस  भयावह घटना ने प्रत्येक भारतीय के दिलों को आक्रोश और पीड़ा से भर दिया है,  सबसे गंभीर बात धर्म पूछकर सिर्फ हिन्दुओं को अपनी बंदूक का निशाना बनाने वाली इस कायराना घटना ने सभी को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आतंकवाद किस हद तक हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आज भी चुनौती बना हुआ है।  मारे गए 28 निर्दोष पर्यटकों में से कोई किसी का पिता, किसी का भाई, किसी का बेटा तो किसी का पति था। इन परिवारों का दुःख क्या हम सिर्फ अपनी संवेदनाएँ व्यक्त करके दूर कर सकते हैं, नहीं बिल्कुल नहीं, जवाबी कार्रवाई ही सही मायनों में उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। 
पूरा देश इस समय गुस्से से उबल रहा है। जायज है, जब बार-बार निर्दोष की जान जाती है, तो स्वाभाविक रूप से जनता के मन में रोष और क्षोभ उत्पन्न होता है; लेकिन इस गुस्से को संयमित रूप में व्यक्त करना भी जरूरी है, ताकि हम अपनी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में लगा सकें। हमें यह ध्यान रखना होगा कि आतंकवाद का कोई धर्म या क्षेत्र नहीं होता। धर्म पूछकर मारना वर्ग विशेष को निशाना बनाना आपसी सौहार्द को नष्ट करने का घृणित उद्देश्य है। हमारी लड़ाई आतंक के इस जाल और उसको पनाह देने वालों के खिलाफ है, जिसका डटकर मुकाबला करना है और जीतना है। 
फिर भी सबके मन में सवाल यही उठता है कि अब क्या? सबकी निगाहें सरकार और रक्षा एजेंसियों की ओर उठती हैं कि  देखें वे क्या कदम उठाती हैं और कैसे इन सबका खात्मा करती हैं-  तो सबसे पहले तो दोषियों को ऐसी सजा मिलनी चाहिए कि रूह काँप उठे। साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान जैसे देशों पर दबाव बनाकर आतंक के पनाहगाहों को उजागर करना भी एक आवश्यक कदम होगा। स्थानीय आतंक समर्थक तंत्र को ध्वस्त करना और युवाओं को बहकावे से बचाकर मुख्यधारा में जोड़ना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। हर कदम सोच-समझकर और दीर्घकालिक परिणामों को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए। 
जनरल विपिन रावत जैसे रणनीति कार भी यही मानते हैं कि आतंकवाद का मुकाबला ‘हार्ड पावर’ से करना चाहिए, ताकि अगली बार कोई इस तरह का दुस्साहस करने से पहले दस बार सोचे। वहीं राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल कहते हैं आतंक का मुकाबला केवल रक्षात्मक तरीके से नहीं, बल्कि आक्रामक रणनीति से करना चाहिए। उनका दृष्टिकोण है कि जहाँ से खतरा उत्पन्न होता है, वहीं जाकर उसे खत्म करना चाहिए। वे इस बात पर जोर देते हुए कहते हैं कि आतंकवाद को केवल कानून-व्यवस्था का मुद्दा नहीं मानना चाहिए; बल्कि इसे एक युद्ध जैसी चुनौती मानकर ही उसका जवाब देना चाहिए। रक्षा विश्लेषक मारूफ़ रज़ा भी मानते हैं कि भारत को ‘जीरो टॉलरेंस’ नीति अपनाते हुए न केवल आतंकियों के खिलाफ; बल्कि उनके संरक्षकों के खिलाफ भी कठोर जवाबी कार्रवाई करनी चाहिए। वे जोर देकर कहते हैं कि भारत को अपनी प्रतिक्रिया में सख्ती और स्पष्टता दिखानी चाहिए। दूसरी ओर रणनीतिक विश्लेषक ब्रह्मा चेलानी कहते हैं कि भारत को इतना कठोर और प्रभावी जवाब देना होगा कि अगली बार कोई हमला करने से पहले दस बार सोचे। वे मानते हैं कि भारत को केवल रक्षात्मक नहीं रहना चाहिए; बल्कि राजनीतिक, सैन्य और आर्थिक दबाव के त्रिस्तरीय उपाय अपनाने चाहिए।
देश की सुरक्षा केवल सरकार और सेना की जिम्मेदारी नहीं है। हर नागरिक की भी यह जिम्मेदारी है कि वह नफरत और अफवाहों से दूर रहे और आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय एकता को मजबूत करें। यहाँ राजनीतिक खींच- तान और एक दूसरे पर दोषारोपण जैसी ओछी हरकतों से भी ऊपर उठकर एकजुटता का परिचय देते हुए देश हित को सर्वोपरि रखना होगा; क्योंकि आतंकी ताकतें इसी बात का फायदा उठाते हुए हमें आपस में बाँटना चाहती हैं। हमें उनकी इस साजिश को नाकाम करना होगा। अतः यह समय है जब संवेदना और गुस्सा, दोनों को संतुलित करते हुए हम एक ठोस रणनीति बनाएँ। हमारा संदेश साफ होना चाहिए: भारत आतंकवाद के सामने झुकेगा नहीं, न ही आतंकियों के संरक्षकों को बख्शेगा। हमारी नीतियाँ न्याय, दृढ़ता और मानवता पर आधारित होंगी, और हम हर हाल में अपने देशवासियों की सुरक्षा सुनिश्चित करेंगे।
फिलहाल तो सुरक्षा की दृष्टि से कश्मीर के अधिकतर पर्यटन स्थलों को अस्थायी रूप से  बंद कर दिया गया है; परंतु जैसे ही स्थिति सामान्य होगी हम जल्द ही कश्मीर की वादियों की खूबसूरती का आनंद लेने बड़ी संख्या में पहुँचेंगे । यह गुनगुनाते हुए- 
कितनी खूबसूरत ये तस्वीर है, ये कश्मीर है... ये कश्मीर है... 
मौसम बेमिसाल बेनजीर है... ये कश्मीर है... ये कश्मीर है...

आलेखः कठघरे में इंसाफ

  - डॉ. महेश परिमल

इन दिनों देश में एक अजीब ही तरह का माहौल है। इंसाफ दिलाने वाले सुर्खियों में हैं। कहीं उनकी रिश्वतखोरी की बातें सामने आ रही हैं, तो कहीं उनके आचरण पर ऊँगलियाँ उठाई जा रही हैं। दूसरी ओर मध्यप्रदेश में पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। पुलिस को अब संरक्षण की आवश्यकता है। लोकतंत्र में इन दोनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दोनों ही देश की कानून व्यवस्था को संभालने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। आज दोनों ही सुर्खियों में हैं। कानून को सँभालने वाली उपरोक्त दो संस्थाओं की भूमिकाएँ ही संदेह के दायरे में आ रही है, तब अंदाजा लगाया जा सकता है कि आम आदमी की हालत कैसी होगी? ऐसे में वही आम आदमी अपने नाखून तेज करने लगे, तो सोच जा सकता है कि देश की स्थिति क्या होगी?

सबसे पहले चर्चा करें, पुलिस की। देश में पुलिस सदैव ही आम नागरिकों पर हावी रही है। उसके खौफ का शिकार सदैव आम आदमी ही रहा है। कहा जाता है कि कानून के हाथ लम्बे होते हैं, पर इतने भी लम्बे नहीं होते कि रसूखदारों तक पहुँच सके। कानून के हाथ आम आदमी के गरेबां तक ही पहुँच पाते हैं। पुलिस की समाज में जो छबि है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि किसी के घर के सामने यदि पुलिस की गाड़ी खड़ी हो, या कोई पुलिस वाला पहुँच जाए, तो समाज में यही संदेश जाता है कि निश्चित ही उसने कोई अपराध किया होगा, तभी पुलिस उसके घर आई है। अब भले ही कारण कोई दूसरा हो, पर पहला संदेश यही होगा। इससे समाज में ही रहने वाले उस भले व्यक्ति की छवि धूमिल हो जाती है। लोग उसे शक की निगाहों से देखते हैं। उसके द्वारा किए गए समाज हित में किए जाने वाले कार्य शक के घेरे में आ जाते हैं। घर के मुखिया और सदस्यों का घर से निकलना ही मुहाल हो जाता है। वे चाहकर भी स्वयं को बेगुनाह साबित नहीं कर सकते। हालांकि उन्होंने कोई गुनाह नहीं किया है, पर अनजाने में एक छाप पुलिस उनके घर पर छोड़ जाती है। जिसे एक कलंक के रूप में भी लिया जा सकता है।

अब पुलिस लाख चाहे कि उस व्यक्ति के घर जाना बहुत ही साधारण-सी बात है ; लेकिन इसी कोई भी सहजता से स्वीकार नहीं कर सकता। अब यदि पुलिस पर लगातार हमले हो रहे हैं। उनकी जान ली जा रही है, उन्हें सरेआम पीटा जा रहा है, तो ऐसे में पुलिस स्वयं कहे कि हमें संरक्षण की आवश्यकता है, तो यह पूरे समाज के लिए एक यक्ष प्रश्न है कि आखिर पुलिस को सुरक्षा एवं संरक्षण की आवश्यकता पड़ी ही क्यों? इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं। एक सामान्य-सी धारणा है कि जहाँ कानून-व्यवस्था में राजनेताओं का हस्तक्षेप जितना अधिक होगा, पुलिस प्रशासन उतना ही बेबस होगा। जब तक पुलिस विभाग में नेताओं का हस्तक्षेप होता रहेगा, प्रदेश की कानून-व्यवस्था लचर बनी ही रहेगी। इसके पीछे सामान्य-सी मान्यता है कि नेताओं के आदेशों का पालन करते-करते पुलिस अधिकारी कब पंगु बन जाते हैं, यह उन्हें उस वक्त पता ही नहीं चलता। जब तक पता चलता है, तब तक काफी देर हो जाती है। क्योंकि पुलिस अधिकारी नेताओं को ही अपना सब कुछ मानते हैं। यही सब कुछ मानना तब भारी पड़ जाता है, जब सरकार बदलती है या नेता ही बदल जाता है। तब उन्हें लगता है कि नेताओं का वरदहस्त प्राप्त कर उन्होंने बेवजह ही आम आदमी से दूरी बना ली। ऐसे में दूर खड़ा आम आदमी पुलिस वाले के करीब आता है, तब वास्तव में उन्हें सुरक्षा की आवश्यकता होती है। ऐसे में नेताओं का कोई वरदहस्त काम भी नहीं आता। पुलिस विभाग जितना अधिक आम आदमी से दूर होगा, आम आदमी भीतर ही भीतर उतना ही अधिक ताकतवर होगा, यह तय है।

अब बात करते हैं न्याय के देवता की। इंसान की चाहत होती है कि अदालत से उसे इंसाफ ही मिलेगा। इस इंसाफ को पाने के लिए लोग पीढ़ी दर पीढ़ी अदालत के दरवाजे पर माथा नवाते हैं। सदियाँ बीत जाती हैं, आरोपी अभियुक्त नहीं बन पाता और आरोपी रहते हुए ही जेल की सलाखों के पीछे दम तोड़ देता है। ऐसा केवल इंसाफ पाने की एक चाहत के कारण होता है। यही चाहत उसे हौसला देती रहती है। उसे पता होता है कि उसे इंसाफ देने वाला एक देवता है। वह देवता कभी गलत फैसले नहीं देगा। आज वही देवता अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका के मिथक को तोड़ते हुए मानवता की हदें पार कर रहा है। अब यह धारणा बदलने लगी है कि जज भी गलत फैसले दे सकते हैं। उनके द्वारा किए गए इंसाफ पर भी उँगलियाँ उठाई जा सकती हैं। न्यायाधीश के न्याय को भी कठघरे में खड़ा किया जा सकता है। एक जज के फैसले को दूसरा जज गलत साबित कर सकता है। एक न्याय पर सभी जजों का एकमत होना तब भी आवश्यक नहीं था, अब भी आवश्यक नहीं है। फैसले आज भी सच्चाई के धरातल पर सिसकते दिखाई दे रहे हैं।

अरुणाचल के पूर्व मुख्यमंत्री कलिखो पुल का उदाहरण हमारे सामने है, जिसे सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर 13 जुलाई 2016 को अपना पद छोड़ना पड़ा था। 9 अगस्त 2016 को उन्होंने कथित तौर पर सीएम हाउस में ही  पंखे से लटककर आत्महत्या कर ली।  बताया जाता है कि सत्ता जाने के बाद वह मानसिक यंत्रणा के दौर से गुजर रहे थे। एक फ़रवरी 2017 में उनकी पत्नी ने उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश को पत्र लिखकर पुल के द्वारा लिखे गए सुसाइड नोट को प्रमाण मानते हुए उनकी मौत की सी.बी.आई जाँच कराने की माँग की। कलिखो ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि मेरे पास सुप्रीमकोर्ट के जज को रिश्वत देने के लिए 80 करोड़ रुपये नहीं थे; इसलिए वे खुदकशी कर रहे हैं। देश में भ्रष्ट न्यायाधीशों के कई उदाहरण मिल जाएँगे, जिन्होंने अपने फैसले बदलने के लिए रिश्वत ली।

सवाल यह उठता है कि आखिर इंसाफ कहाँ मिले? अदालत की ड्योढ़ी अनसुनी चीखों से अटी पड़ी है। जहाँ तक पहुँचना आम आदमी के बस के बाहर की बात है। यदि यह मान लिया जाए कि ऊपरवाला ही सच्चा न्याय करता है, तो सब कुछ ऊपरवाले पर ही छोड़ दिया जाए। वही ऐसे न्यायाधीशों को न्याय दिलाएगा; क्योंकि आम आदमी अब आक्रामक भी होने लगा है। न्याय के देवता अपनी प्रवृत्ति बदल रहे हैं और आम आदमी अपने नाखून तेज कर रहा है। ■

चिंतनः नैतिक मूल्यों का ह्रास और वर्तमान समाज

 - डॉ.  शिवजी श्रीवास्तव

चतुर्दिक् नैतिक मूल्यों का ह्रास वर्तमान समाज की एक बड़ी समस्या है। जैसे-जैसे भौतिक सभ्यता का विकास हो रहा है; वैसे-वैसे समाज में सदाचरण का लोप होता जा रहा है। गलाकाट स्पर्धा के इस युग में व्यक्ति के अंदर प्रेम, दया, करुणा, सहिष्णुता, परोपकार, सेवा संयम इत्यादि गुणों का अभाव होता जा रहा है। झूठ और स्वार्थपरता सदाचार को हाशिये में धकेलने का प्रयास कर रहे हैं । किसी भी यह समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है क्योंकि सदाचार से ही समाज में प्रेम और सौहार्द का विकास होता है तथा सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य स्थापित होता है। व्यक्ति और समाज दोनों के उत्थान का मूल मंत्र सदाचार के पालन में निहित है। सदाचार के महत्त्व को अध्यापक पूर्णसिंह जी के इन शब्दों में भली-भाँति समझा जा सकता है, "आचरण की सभ्यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहाँ कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहाँ धनवान है और न ही कोई वहाँ निर्धन। वहाँ प्रकृति का नाम नहीं, वहाँ तो प्रेम और एकता का अखंड राज्य रहता है।"

निःसंदेह यह एक आदर्श समाज की संकल्पना है मूर्त रूप में यह तभी साकार हो सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति सदाचरण के मार्ग का अनुसरण करे किन्तु सबके आचरण इसके विपरीत प्रतीत हो रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कलियुग के लक्षण बताते हुए लिखा है- 'झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।' गोस्वामी तुलसीदास की यह भविष्यवाणी आज चरितार्थ होती प्रतीत हो रही है चतुर्दिक् झूठ का बोलबाला हो रहा है। ऐसे कठिन समय में सदाचार के मार्ग पर चलना किसी कठिन साधना से कम नहीं है।

लोगों का प्रश्न हो सकता है कि ऐसे विपरीत समय में हम सदाचार के गुणों को कैसे विकसित करें? इसका सबसे सरल सूत्र है सत्संग करना और सद्ग्रंथों का पाठ करना। यहाँ सत्संग का अर्थ धार्मिक भजन-पूजन न होकर सज्जनों की संगति से है। सत्संग और स्वाध्याय की सीढ़ी, व्यक्ति को सहज रूप में सदाचार की ओर ले जाती है। सदाचार से ही व्यक्ति के अंदर परोपकार की वृत्ति बलवती होती है और परोपकार से समाज में परस्पर एक दूसरे का भला करने का भाव जाग्रत होता है जिससे समाज में समरसता बढ़ती है और सुव्यवस्था स्थापित होती है। यह कार्य कठिन अवश्य है पर दुर्लभ नहीं है। थोड़े प्रयासों से यह कार्य सुगमता से किया जा सकता है। प्रत्येक विवेकवान व्यक्ति का दायित्व है कि अपने आचरण से सदाचार-संवर्धन में अपना योगदान देते रहें।

निरंतर सत्य के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के हृदय में परोपकार और करुणा का भाव इस प्रकार रच-बस जाता है की वह अनजाने में भी किसी के अहित का भाव नहीं ला सकता। सदाचार की सुगंध सुवासित पुष्पों की सुगंध की भाँति आत्मा में रची-बसी रहती है जो सम्पूर्ण परिवेश को महकाती रहती है। सदाचार व्यक्ति के व्यक्तित्व से किस प्रकार प्रस्फुटित होता है इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद के जीवन का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाना था, उनके गुरु स्वामी रामतीर्थ जी भौतिक देह का परित्याग कर चुके थे अतः वह गुरुमाता शारदा देवी जी से आशीर्वाद लेने गए। गुरुमाता रसोई में थीं। विवेकानंद जी ने कहा- “माँ मैं धर्म की बात लेकर अमेरिका जाना चाहता हूँ, आप आशीर्वाद दीजिए मैं सफल हो सकूँ।” उन्होंने रसोई के अंदर से ही विवेकानंद को ऊपर से नीचे तक देखा और बोलीं- “सोचकर बताऊँगी।” विवेकानंद हतप्रभ हुए पुनः निवेदन किया –“माँ, सिर्फ शुभाशीष चाहता हूँ, आपकी मंगलकामना चाहता हूँ कि मैं जाऊँ और सफल होऊँ।” शारदा देवी ने पुनः उन्हें गौर से देखा और कहा- “ठीक है, सोचकर कहूँगी।” विवेकानन्द अवाक से खड़े रह गए। उन्होंने सोचा भी न था कि गुरुमाता आशीर्वाद देने में भी सोच-विचार करेंगी। उन्होंने कभी ऐसा देखा भी न था कि आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों। वे चुपचाप वहीं खड़े रहे। गुरुमाता खाना बनाती रहीं, अचानक कुछ सोच कर वे बोलीं- “नरेंद्र, सामने जो छुरी पड़ी है वह उठा लाओ।” सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानन्द उठा लाए और गुरुमाता के हाथ में दी, छुरी हाथ में लेते ही वे हँसी और विवेकानन्द के लिए आशीर्वादों की वर्षा करते हुए बोलीं- “जाओ नरेंद्र, अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त करो, तुम्हारे द्वारा सबका मंगल ही मंगल होगा।” छुरी लेकर आशीर्वाद देने के बीच का संबंध विवेकानन्द को समझ नहीं आया, उन्होंने संकोचपूर्वक पूछा- “माँ, इस छुरी उठाने में और आपके आशीर्वाद देने में कोई संबंध है क्या?” शारदा देवी पुनः हँसीं –“हाँ, गहरा संबंध है, मैं देख रही थी कि छुरी तुम मुझे किस प्रकार देते हो, तुम उसकी मूठ पकड़ते हो या फलक पकड़ते हो, मूठ मेरी तरफ करते हो या फलक मेरी ओर करते हो साधारण तौर पर व्यक्ति मूठ पकड़ता है और फलक देने वाले की ओर करता है; पर तुमने छुरी का फलक पकड़कर मूठ मेरी ओर किया है।”

विवेकानंद ने आश्चर्य से देखा उन्होंने सचमुच फलक ही पकड़ा था। शारदा देवी ने आगे कहा- “तुमने ऐसा इसलिए किया नरेंद्र; क्योंकि तुम्हारे अंदर करुणा का भाव है, मैत्री का भाव है। तुमने फलक हाथ से पकड़ा और मूठ मेरी ओर किया, तुम्हारे अंदर सहज रूप से ही ये भाव है कि कहीं फलक से मुझे चोट न लग जाए, तुमने अपनी नहीं मेरी चिंता की। फलक पकड़ने से तुम्हें चोट लग सकती थी पर तुमने अपनी फिक्र नहीं की, तुमने मेरी चिंता में अपने को असुरक्षा में डाला। अब मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि जाओ तुमसे विश्व कल्याण होगा क्योंकि तुम सहज भाव में भी दूसरे का हित ही सोचोगे, इतनी करुणा इतनी मैत्री के भाव वाला व्यक्ति ही दूसरों का कल्याण कर सकता है।”

प्रत्यक्षतः यह बात छोटी लगती है किन्तु महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि सत्संग और सद्ग्रन्थों के प्रभाव से व्यक्ति के व्यक्तित्व में अद्भुत परिवर्तन होता है, वह मनसा-वाचा-कर्मणा सदाचार का अनुगामी हो जाता है। सदाचार से उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही समाज कल्याण के भाव से परिपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि सदाचार ऊपर से ओढा जाने वाला गुण नहीं है, इसका अभिनय नहीं किया जा सकता, कोई भी व्यक्ति दिखावे का आचरण करके सदाचारी नहीं बन सकता। यह एक सतत चलने वाली साधना है जो शनैः-शनैः व्यक्तित्व का परिमार्जन करते हुए उसे सात्त्विकता के उच्च सोपान तक ले जाती है और सात्त्विक लोग ही समाज को सन्मार्ग कि ओर ले जाने में समर्थ होते हैं। ■

यात्रा संस्मरणः फ़िनलैंड: जादुई पल और अनकही बातें

 - जैस्मिन जोविअल

पिछले साल की बात है। एक दिन मेरे छोटे भाई ने मुझसे कहा, “दीदी, इस बार फ़िनलैंड की यात्रा मैं स्पॉन्सर करूँगा।”

उसकी ये बात सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ गए। उस पल में सिर्फ़ एक ट्रिप का वादा नहीं था… उसमें एक अडिग विश्वास था, अपार प्यार था, और वह अपनापन था, जो भाई-बहन के रिश्ते को अनमोल बना देता है।

वह वादा, जो मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि पूरा होगा, अब मुझे साकार होते हुए नजर आ रहा था। एक पल में ही तो वह साधारण बात एक एहसास में बदल गई- उसने न केवल मेरी यात्रा का खर्च उठाया, बल्कि मेरे दिल को भी एक नई उम्मीद दी।

मैं कई साल पहले फ़िनलैंड में एक साल रह चुकी थी; लेकिन इस बार मेरे दिल में कुछ खास था- कुछ ऐसा, जो शब्दों से नहीं कहा जा सकता। यह ऐसा था, जैसे कोई अधूरी कहानी फिर से अपनी पूरी ज़िन्दगी जीने जा रही हो।

मैंने फ़िनलैंड के बारे में फिर से पढ़ना शुरू किया- वहाँ की संस्कृति, वहाँ के लोग, वहाँ की ज़िन्दगी। सब कुछ एक सपना सा लगता था, एक ऐसी दुनिया जो जैसे मैं कल्पना ही कर सकती थी।

भाई ने वीज़ा की तैयारी में भी मेरी मदद की- डॉक्यूमेंट्स, सब कुछ। मैं तो बस उत्साह और आश्चर्य के बीच घिरी हुई थी; लेकिन फिर भी एक सवाल था जो मेरे दिल में बार-बार उठता था- "क्या सच में, फ़िनलैंड दुनिया का सबसे खुशहाल देश है?"

जब मैंने वहाँ के बारे में और जाना, तो समझ में आया कि फ़िनलैंड की खूबी सिर्फ़ उसकी प्राकृतिक सुंदरता में नहीं, बल्कि उसकी सोच में भी है।

वहाँ के लोग एक-दूसरे की इज़्जत करते हैं। न कोई दिखावा, न कोई झूठ- बस सच्चाई और शांति है।

वहाँ के जंगलों को लोग ऐसे सँजोते हैं, जैसे वो परिवार का हिस्सा हों। और यही वजह है कि फ़िनलैंड में अभी भी बहुत से देशों से ज्यादा जंगल हैं।

मैंने पहली बार 'फॉरेस्ट बाथिंग' की।

जंगल में चुपचाप चलना, उसकी ताजगी को महसूस करना, पत्तियों की हल्की सी आवाज़ सुनना- यह लगता था- जैसे प्रकृति मुझे अपनी बाहों में समेट कर गले लगा रही हो।

वहाँ मैंने पहली बार लामा देखे- एक छोटे से कैफ़े के पास। मेरी आँखों में अजीब- सी खुशी थी।

मैं एक द्वीप पर भी गई, जहाँ लोग आज भी नहीं चाहते कि वहाँ पुल बने। उनका मानना था कि उनका रिश्ता प्रकृति से वैसे ही जुड़ा रहे- सीधा, सरल, और सच्चा।

शहर की हलचल से बहुत दूर थी मैं।

वहाँ कोई शोर नहीं था, कोई भीड़ नहीं थी।

हवा इतनी ताजगी से भरपूर थी कि साँस लेना भी एक खास एहसास बन गया।

आकाश नीला था, पक्षी चहचहा रहे थे। जब मैंने बर्फ़ जैसे ठंडे पानी में अपने पैर डाले, तो वो ताजगी मेरी आत्मा में घुस/ उतर गई, एक ऐसी ताजगी जिसे मैं आज भी महसूस कर सकती हूँ।

ग्रोसरी शॉपिंग करना और जब कभी रोबोट्स खाना डिलीवर करते थे, तो लगता था जैसे मैं किसी फिल्म में हूँ- सिर्फ़ यहाँ, अब।

हमने जंगल में जाकर बारबेक्यू किया, खाना खुद पकाया, नदी के पास बैठकर खाया- और मैं वहीं बैठकर ‘नेचर लाइव ड्रॉइंग’ भी बनाई। दिल की गहराई से एक आवाज़ आई- "बस, यही तो असली ज़िंदगी है!"

वहाँ मैंने पहली बार एक अजीब-सी मगर मज़ेदार चीज़ ट्राई की- गर्म कॉफी के साथ आइसक्रीम। बिलकुल उल्टा मेल; लेकिन स्वाद ऐसा था, जैसे कोई मीठी याद मेरे होंठों पर पिघल रही हो।

ठंडी हवा, गरम कॉफी की भाप और उसमें डूबी आइसक्रीम- वे पल अब भी मेरे दिल में उसी गर्मी और प्यार से मौजूद हैं।

मैंने भाई से पूछा, “कुछ पेड़ों पर ये सफ़ेद-सफ़ेद- सा क्या है?”

उसने हँसते हुए कहा, “ये लिचन है… ये तभी उगती है, जब हवा बहुत ही साफ़ होती है।”

उस पल मुझे लगा- प्रकृति भी मुस्कुराती है, बस हम अक्सर उसे देख नहीं पाते।

यूनिवर्सिटी और कॉलेज भी देखे- इतने खुले, सुंदर और आज़ाद। वहाँ बच्चे डरकर नहीं, खुशी से पढ़ते हैं। वहाँ की पढ़ाई बोझ नहीं, एक खोज है।

और एक बात, जो मैंने दिल से सीखी- खुशी बड़ी चीज़ों से नहीं आती।

वह मिलती है- उन छोटी-छोटी बातों में- एक कप गर्म कॉफी, एक अजनबी की मुस्कान, या जंगल से उठाई गई एक पत्ती, जिसे उठाते समय ‘धन्यवाद’ कहना याद रहता है।

शायद यही वजह है कि फ़िनलैंड को दुनिया का सबसे खुशहाल देश कहा जाता है।

फिर एक दिन, जब मैं जंगल में चल रही थी, तो मैंने सुनी थी, "Santa rides the sky so bright, with reindeer leading through the night."

अब मेरे सामने रेनडियर्स थे!

पहली बार मैंने उन्हें देखा और उसी वक्त मुझे ‘जिंगल बेल्स’ की कविता याद आई।

रेनडियर्स और सांता क्लॉज़ का रिश्ता वाकई में कुछ जादुई था।

फ़िनलैंड में जब मैं खरीदारी नहीं, बल्कि लोगों से दिल से बात करने और वहाँ की संस्कृति को समझने में ज्यादा रुचि लेने लगी, तो मुझे एहसास हुआ कि वहाँ के लोग बहुत शांत, सीधे और सच्चे होते हैं।

वहाँ की ज़िंदगी में बनावट नहीं है, सच्चाई है।

वहाँ की सादगी में शांति है, रिश्तों में अपनापन है, और प्रकृति में भगवान बसते हैं।

अब मेरी टू-डू लिस्ट में एक और सपना जुड़ चुका है- नॉर्दर्न लाइट्स देखने का।

मैंने इसके बारे में बहुत सुना है और कहीं पढ़ा था कि अगर आप दिल से किसी चीज़ की मन्नत करते हैं, तो वह सच होती है।

अब बस उस दिन का इंतजार है जब नॉर्दर्न लाइट्स के रंग मेरे सामने होंगे।

जो मैं देखना चाहती हूँ, वह सच हो! ■

आलेखः दुनिया की आधी आबादी को स्वच्छ पेयजल मयस्सर नहीं

 हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दुनिया भर के लगभग 4.4 अरब लोग असुरक्षित पानी पीते हैं। यह संख्या पूर्व अनुमानों से लगभग दुगनी है। अनुमानों में अंतर का कारण संभवत: परिभाषाओं में है, सवाल यह है कि किस अनुमान को यथार्थ का आईना माना जाए हालांकि कोई भी आंकड़ा सही हो, स्थिति चिंताजनक और शर्मसार करने वाली तो है ही।

दरअसल, राष्ट्र संघ 2015 से इस बात का आकलन करता आया है कि कितने लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल उपलब्ध है। इससे पहले राष्ट्र संघ सिर्फ इस बात की रिपोर्ट देता था कि क्या वैश्विक जल स्रोत उन्नत हुए हैं। इसका मतलब शायद इतना ही था कि क्या पेयजल के स्रोतों को कुओं, पाइपों और वर्षाजल संग्रह जैसे तरीकों से बाहरी अपमिश्रण से बचाने की व्यवस्था की गई है। इस मानक के आधार पर लगता था कि दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी के लिए ठीक-ठाक पेयजल की व्यवस्था है ; लेकिन इसमें इस बात को लेकर जानकारी ना के बराबर होती थी कि क्या जो पानी मिल रहा है वह सचमुच स्वच्छ है।

2015 में ऱाष्ट्र संघ ने टिकाऊ विकास के लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स) निर्धारित किए थे। इनमें से एक लक्ष्य था: वर्ष 2030 तक “सबके लिए स्वच्छ व किफायती पेयजल की सार्वभौमिक तथा समतामूलक पहुँच सुनिश्चित करना।” राष्ट्र संघ ने इसी के साथ सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल स्रोतों के मापदंडों को भी फिर से निर्धारित किया: जल स्रोत बेहतर होने चाहिए, लगातार उपलब्ध होने चाहिए, व्यक्ति के निवास स्थान पर पहुँच में होने चाहिए और संदूषण-मुक्त होने चाहिए।

इस नई परिभाषा को लेकर जॉइन्ट मॉनीटरिंग प्रोग्राम फॉर वॉटर सप्लाई, सेनिटेशन एंड हायजीन (जेएमपी) ने 2020 में अनुमान लगाया था कि दुनिया भर में ऐसे 2.2 अरब लोग हैं जिन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। जेएमपी विश्व स्वास्थ्य संगठन और युनिसेफ का संयुक्त अनुसंधान कार्यक्रम है। इस अनुमान तक पहुँचने के लिए कार्यक्रम ने देशों की जनगणना, नियामक संस्थाओं व सेवा प्रदाताओं की रिपोर्ट्स और पारिवारिक सर्वेक्षणों से प्राप्त आँकड़ों को आधार बनाया था; लेकिन जेएमपी का तरीका स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ एक्वेटिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की शोधकर्ता एस्थर ग्रीनवुड के तरीके से अलग था। जेएमपी ने किसी भी स्थान की स्थिति के आकलन के लिए चार में से कम से कम तीन मापदंडों को देखा था और फिर सबसे कम मूल्य को उस स्थान के पेयजल की समग्र गुणवत्ता का द्योतक माना था। उदाहरण के लिए, यदि किसी शहर के लिए इस बाबत कोई डैटा नहीं है कि क्या जल स्रोत लगातार उपलब्ध हैं ; लेकिन यह पता है कि वहाँ की 40 प्रतिशत आबादी को साफ पानी उपलब्ध है, 50 प्रतिशत के पास उन्नत जल स्रोत हैं और 20 प्रतिशत को घर पर ही पानी पहुँच में है तो जेएमपी का आकलन होगा कि उस शहर में 20 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल मिलता है। इसके बाद इस आंकड़े से सरल गणितीय तरीके का उपयोग करके पूरे देश के बारे में आकलन कर लिया जाता था।

दूसरी ओर, साइंस में प्रकाशित अध्ययन में 27 निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में 2016 से 2020 के बीच किए गए सर्वेक्षणों को आधार बनाया गया है। इन सर्वेक्षणों में उन्हीं चार मापदंडों का इस्तेमाल करते हुए 64,723 परिवारों से जानकारी जुटाई गई थी। यदि किस परिवार के संदर्भ में 4 में से एक भी मापदंड पूरा नहीं होता था तो माना गया कि उसे स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। इसके बाद टीम ने एक मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म को प्रशिक्षित किया व कई अन्य क्षेत्रीय कारक (औसत तापमान, जलवैज्ञानिक हालात, भूसंरचना और आबादी के घनत्व) भी जोड़े। इस आधार पर उनका अनुमान है कि दुनिया में 4.4 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। और इनमें से भी आधे लोग जो पानी पीते हैं उसमें रोगजनक बैक्टीरिया ई. कोली पाया जाता है।  

वैसे यह तय करना मुश्किल है कि इनमें से कौन-सा यथार्थ के ज़्यादा करीब है ; लेकिन इतना स्पष्ट है कि वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से को स्वच्छ पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा भी उपलब्ध नहीं है। (स्रोत फीचर्स) ■

प्रेरकः रेगिस्तान में दो मित्र

 - निशांत

दो मित्र रेगिस्तान में यात्रा कर रहे थे। सफर में किसी मुकाम पर उनका किसी बात पर वाद-विवाद हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि एक मित्र ने दूसरे मित्र को थप्पड़ मार दिया। थप्पड़ खाने वाले मित्र को इससे बहुत बुरा लगा ; लेकिन बिना कुछ कहे उसने रेत में लिखा – “आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मुझे थप्पड़ मारा”।

वे चलते रहे और एक नखलिस्तान में आ पहुँचे जहाँ उनहोंने नहाने का सोचा। जिस व्यक्ति ने थप्पड़ खाया था वह रेतीले दलदल में फंस गया और उसमें समाने लगा ; लेकिन उसके मित्र ने उसे बचा लिया। जब वह दलदल से सही-सलामत बाहर आ गया तब उसने एक पत्थर पर लिखा – “आज मेरे सबसे अच्छे मित्र ने मेरी जान बचाई”।

उसे थप्पड़ मारने और बाद में बचाने वाले मित्र ने उससे पूछा – “जब मैंने तुम्हें मारा तब तुमने रेत पर लिखा और जब मैंने तुम्हें बचाया तब तुमने पत्थर पर लिखा, ऐसा क्यों?”

उसके मित्र ने कहा – “जब हमें कोई दुःख दे तब हमें उसे रेत पर लिख देना चाहिए ताकि क्षमाभावना की हवाएं आकर उसे मिटा दें ; लेकिन जब कोई हमारा कुछ भला करे तब हमें उसे पत्थर पर लिख देना चाहिए ताकि वह हमेशा के लिए लिखा रह जाए।” (हिन्दी ज़ेन से) ■

प्रकृतिः म्यांमार का भूकंप शहरी विकास के लिए एक चेतावनी है

  - प्रमोद भार्गव

म्यांमार में आए 7.7 तीव्रता के ताकतवर भूकंप ने 1700 से भी ज्यादा लोगों की जान ले ली और 2500 से भी ज्यादा लोग घायल हैं। भूकंप के प्रभाव में आकर जिस तरह से बहुमंजिला इमारतें ढहीं, सड़कें, पुल और बाँध टूटे, बिजली और इंटरनेट सेवाएँ ठप हो गईं, यह प्रकृति की एक ऐसी नजीर है, जो बढ़ते शहरीकरण के लिए चेतावनी है। थाईलैंड की राजधानी बैंकॉक में आए कुछ पलों के झटकों ने ही दुनिया के इस सुंदर शहर को थर्रा दिया। इसी बीच अमेरिका की भू- गर्भीय सर्वेक्षण एजेंसी ने आशंका जताई है कि मरने वालों की संख्या 10 हजार से भी अधिक पहुँच सकती है। इस भूकंप के झटके भारत के पूर्वोत्तर राज्यों और पश्चिम बंगाल में भी अनुभव किए गए। चीन, वियतनाम, ताइवान, लाओस और श्रीलंका में भी भूकंप की तरंगें अनुभव की गई। याद रहे भारत के भुज में 24 साल पहले आया भूकंप भी 7.7 तीव्रता का था, जिसमें 20 हजार लोगों की मौतें हुई थीं और डेढ़ लाख लोग घायल हुए थे। तीन लाख से ज्यादा घरों को नुकसान हुआ था। म्यांमार का भूकंप काफी उथला था। इस भूकंप का केंद्र भूमि के 10 किमी नीचे था। भूकंप के केंद्र वाला म्यांमार का क्षेत्र संवेदनशील क्षेत्र के रूप में पूर्व से ही चिन्हित है। बावजूद यहाँ आवास और उद्योगों के लिए आलीशान अट्टालिकाएँ खड़ी की जा रही हैं। भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के टकराने का परिणाम इस भूकंप को माना जा रहा है।   

 दिल्ली राजधानी क्षेत्र में 17 फरवरी 2025 की सुबह 5.36 बजे रिक्टर स्केल पर चार तीव्रता वाले भूकंप के झटके और धमाकों जैसी आवाज सुनी गईं थी। राष्ट्रीय भूकंप विज्ञान केंद्र के अनुसार भूकंप का केंद्र दिल्ली के धौला कुआँ के झील पार्क क्षेत्र में 5 किमी की गहराई में था। इस कारण इसकी तीव्रता भूगर्भ में ही कमजोर पड़ गई और सतह पर नहीं आने पाई। बिहार में भी भूकंप के झटके अनुभव किए गए। इसका केंद्र धरती की सतह से 10 किमी नीचे था। इसलिए असर केवल अनुभव हुआ। बावजूद भविष्य में भूकंप का यह संकेत दिल्ली के लिए विनाश की चेतावनी है। क्योंकि दिल्ली, हरिद्वार और महेंद्रगढ़ देहरादून के ऐसे पठारनुमा टीले पर बसा हुआ है, जहाँ से भूकंप की भ्रंश रेखा गुजरती है। अतएव यहाँ हमेशा भूकंप का खतरा बना रहता है।

 यह संकट इसलिए भी है; क्योंकि यमुना नदी के मैदानी क्षेत्र में भूमि की परत नरम है। हालांकि इस भूकंप को विवर्तनिक परत (टेक्टोनिक्स प्लेट) में किसी बदलाव के कारण आना नहीं माना गया था। इसके आने का कारण स्थानीय भू-गर्भीय विविधता को माना जा रहा है। याद रहे हिमालय के उत्तरी तलहटी में स्थित चीन के तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र शिगात्से के निकट तिंगरी काउंटी में 7 जनवरी 2025 को 7.1 तीव्रता का भूकंप आया था। इसमें 126 लोग मारे गए थे। पड़ोसी देश नेपाल और भारत में भी इसके झटके महसूस किए गए थे। भूकंप का केंद्र तिंगरी काउंटी में था, जो हिमालय की चोटी माउंट एवरेस्ट क्षेत्र का उत्तरी द्वार माना जाता है। अमेरिकी भूगर्भ सर्वेक्षण ने इस भूकंप की तीव्रता 7.1 आँकी थी। भूकंप से तिब्बत में किसी बाँध या जालाशय को हानि नहीं पहुँची थी, गौरतलब है कि भूकंप ने भारतीय सीमा के निकट तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर दुनिया का सबसे बड़ा बांध बनाने की योजना ने भारत और बांग्लादेश को चिंता में डाल दिया है ; क्योंकि यह पूरा क्षेत्र भारत और यूरेशियन टेक्टोनिक प्लेटों में टकराव के कारण चीन के दक्षिण-पश्चिम हिस्से नेपाल और उत्तर-भारत में अकसर भूकंप आते रहते हैं।

भूकंप की चेतावनी संबंधी प्रणालियाँ अनेक देशों में  संचालित हैं; लेकिन वह भू-गर्भ में हो रही दानवी हलचलों की सटीक जानकारी समय पूर्व देने में लगभग असमर्थ हैं। क्योंकि प्राकृतिक आपदाओं की जानकारी देने वाले अमेरिका, जापान, भारत, नेपाल, चीन और अन्य देशों में भूकंप आते ही रहते हैं। इसलिए यहाँ लाख टके का सवाल उठता है कि चाँद और मंगल जैसे ग्रहों पर मानव बस्तियाँ बसाने का सपना और पाताल की गहराइयों को नाप लेने का दावा करने वाले वैज्ञानिक आखिर पृथ्वी के नीचे उत्पात मचा रही हलचलों की जानकारी प्राप्त करने में क्यों असफल हैं ; जबकि वैज्ञानिक इस दिशा में लंबे समय से कार्यरत हैं। अमेरिका एवं भारत समेत अनेक देश मौसम व भू-गर्भीय हलचल की जानकारी देने वाले उपग्रह अंतरिक्ष में स्थापित कर चुके हैं।

 दरअसल दुनिया के नामचीन विशेषज्ञों व पर्यावरणविदों की मानें तो सभी भूकंप प्राकृतिक नहीं होते, बल्कि उन्हें विकराल बनाने में मानवीय हस्तक्षेप शामिल है। इसीलिए इस भूकंप को स्थानीय भू-गर्भीय विविधता का कारण माना गया है। दरअसल प्राकृतिक संसाधनों के अकूत दोहन और फिर शहरीकरण और औद्योगिकी करण के लिए शैतानी निर्माण से छोटे स्तर के भूकंपों की पृष्ठभूमि तैयार हो रही है। भविष्य में इन्हीं भूकंपों की व्यापकता और विकरालता बढ़ जाती है। यही कारण है कि भूकंपों की आवृत्ति बढ़ रही है। पहले 13 सालों में एक बार भूकंप आने की आशंका बनी रहती थी; लेकिन अब यह घटकर 4 साल हो गई है। यही नहीं आए भूकंपों का वैज्ञानिक आकलन करने से यह भी पता चला है कि भूकंपीय विस्फोट में जो ऊर्जा निकलती है, उसकी मात्रा भी पहले की तुलना में ज्यादा शक्तिशाली हुई है। 25 अप्रैल 2015 को नेपाल में जो भूकंप आया था, उनसे 20 थर्मोन्यूक्लियर हाइड्रोजन बमों के बराबर ऊर्जा निकली थी। यहाँ हुआ प्रत्येक विस्फोट हिरोशिमा- नागासाकी में गिराए गए परमाणु बमों से भी कई गुना ज्यादा ताकतवर था। जापान और फिर क्वोटो में आए सिलसिलेवार भूकंपों से पता चला है कि धरती के गर्भ में अँगड़ाई ले रही भूकंपीय हलचलें महानगरीय आधुनिक विकास और आबादी के लिए अधिक खतरनाक साबित हो रही हैं। ये हलचलें भारत, पाकिस्तान, चीन और बांग्लादेश की धरती के नीचे भी अँगड़ाई ले रही हैं। इसलिए इन देशों के महानगर भूकंप के मुहाने पर खड़े हैं।

 भूकंप आना कोई नई बात नहीं है। पूरी दुनिया इस अभिशाप को झेलने के लिए जब-तब विवश होती रही है। बावजूद हैरानी इस बात पर है कि विज्ञान की आश्चर्यजनक तरक्की के बाद भी वैज्ञानिक आज तक ऐसी तकनीक ईजाद करने में असफल रहे हैं, जिससे भूकंप की जानकारी आने से पहले मिल जाए। भूकंप के लिए जरूरी ऊर्जा के एकत्र होने की प्रक्रिया को धरती की विभिन्न परतों के आपस में टकराने के सिद्धांत से आसानी से समझा जा सकता है। ऐसी वैज्ञानिक मान्यता है कि करीब साढ़े पांच करोड़ साल पहले भारत और आस्ट्रेलिया को जोड़े रखने वाली भूगर्भीय परतें एक-दूसरे से अलग हो गईं और वे यूरेशिया परत से जा टकराईं। इस टक्कर के फलस्वरूप हिमालय पर्वतमाला अस्तित्व में आई और धरती की विभिन्न परतों के बीच वर्तमान में मौजूद दरारें बनीं। हिमालय पर्वत उस स्थल पर अब तक अटल खड़ा है, जहाँ पृथ्वी की दो अलग-अलग परतें परस्पर टकराकर एक-दूसरे के भीतर घुस गई थीं। परतों के टकराव की इस प्रक्रिया की वजह से हिमालय और उसके प्रायद्वीपीय क्षेत्र में भूकंप आते रहते हैं। इसी प्रायद्वीप में ज्यादातर एशियाई देश बसे हुए हैं।

    वैज्ञानिकों का मानना है कि रासायनिक क्रियाओं के कारण भी भूकंप आते हैं। भूकंपों की उत्पत्ति धरती की सतह से 30 से 100 किमी भीतर होती है। इससे यह वैज्ञानिक धारणा भी बदल रही है कि भूकंप की विनाशकारी तरंगें जमीन से कम से कम 30 किमी नीचे से चलती हैं। ये तरंगे जितनी कम गहराई से उठेगी, उतनी तबाही भी ज्यादा होगी और भूकंप का प्रभाव भी कहीं अधिक बड़े क्षेत्र में दिखाई देगा। लगता है अब कम गहराई के भूकंपों का दौर चल पड़ा है। मैक्सिको में सितंबर 2017 में आया भूकंप धरती की सतह से महज 40 किमी नीचे से उठा था। इसलिए इसने भयंकर तबाही का तांडव रचा था। तिब्बत में आए भूकंप की गहराई तो मात्र 10 किमी आँकी गई है। 

      दरअसल सतह के नीचे धरती की परत ठंडी होने व कम दबाव के कारण कमजोर पड़ जाती है। ऐसी स्थिति में जब चट्टानें दरकती हैं तो भूकंप आता है। कुछ भूकंप धरती की सतह से 100 से 650 किमी के नीचे से भी आते हैं; लेकिन तीव्रता धरती की सतह पर आते-आते कम हो जाती है, इसलिए बड़े रूप में त्रासदी नहीं झेलनी पड़ती। दरअसल इतनी गहराई में धरती इतनी गर्म होती है कि एक तरह से वह द्रव रूप में बदल जाती है। इसलिए इसके झटकों का असर धरती पर कम ही दिखाई देता है। बावजूद इन भूकंपों से ऊर्जा बड़ी मात्रा में निकलती है। धरती की इतनी गहराई से प्रगट हुआ सबसे बड़ा भूकंप 1994 में बोलिविया में रिकॉर्ड किया गया है। पृथ्वी की सतह से 600 किमी भीतर दर्ज इस भूकंप की तीव्रता रिक्टर पैमाने पर 8.3 मापी गई थी। इसीलिए यह मान्यता बनी है कि इतनी गहराई से चले भूकंप धरती पर तबाही मचाने में कामयाब नहीं हो सकते हैं, क्योंकि चट्टानें तरल द्रव्य के रूप में बदल जाती हैं।

     प्राकृतिक आपदाएँ अब व्यापक व विनाशकारी साबित हो रही हैं; क्योंकि धरती के बढ़ते तापमान के कारण वायुमंडल भी परिवर्तित हो रहा है। अमेरिका व ब्रिटेन समेत यूरोपीय देशों में दो शताब्दियों के भीतर बेतहाशा अमीरी बढ़ी है। औद्योगिकी करण और शहरीकरण इसी अमीरी की उपज है। यह कथित विकास वादी अवधारणा कुछ और नहीं, प्राकृतिक संपदा का अंधा- धुंध दोहन कर, पृथ्वी को खोखला करने के ऐसे उपाय हैं, जो ब्रह्मांड में फैले अवयवों में असंतुलन बढ़ा रहे हैं। इस विकास के लिए पानी, गैस, खनिज, इस्पात, ईंधन और लकड़ी जरूरी हैं। नतीजतन जो कार्बन गैस बेहद न्यूनतम मात्रा में बनती थीं, वे अब अधिकतम मात्रा में बनने लगी हैं। न्यूनतम मात्रा में बनी गैसों का शोषण और समायोजन भी प्राकृतिक रूप से हो जाता था, किंतु अब वनों का विनाश कर दिए जाने के कारण ऐसा नहीं हो पा रहा है, जिसकी वजह से वायुमंडल में इकतरफा दबाव बढ़ रहा है। इस कारण धरती पर पड़ने वाली सूरज की गर्मी प्रत्यावर्तित होने की बजाय, धरती में ही समाने लगी है। गोया, धरती का तापमान बढ़ने लगा, जो जलवायु परिवर्तन का कारण तो बना ही, प्राकृतिक आपदाओं का कारण भी बन रहा है। ऐसे में सीमेंट, लोहा और कंक्रीट के भवन जब गिरते हैं, तो मानव त्रासदी ज्यादा होती है। जैसे कि हमें अमेरिका के लॉस एंजिल्स शहर में लगी आग में देखने में आ रहा है।  ■

स्वास्थ्यः कटहल के लाभ


  - डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

यदि आम को फलों का राजा कहा जाता है, तो कटहल को सभी फलों में डॉक्टर कहा जा सकता है। भारत और मध्य-पूर्व के लोग कटहल (Artocarpus heterophyllus) से बहुत पहले से परिचित हैं। कटहल का उपयोग आयुर्वेद और यूनानी चिकित्सा पद्धति में स्वास्थ्यवर्धक के रूप में किया जाता रहा है। तमिल में ‘पला’, बंगाली में ‘कटहल’ और मलयालम में ‘चक्का’ कहलाने वाला कटहल भारत के दक्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में अधिकतर भोजन का हिस्सा है, जबकि अन्य क्षेत्रों में यह फल की तरह अधिक खाया जाता है। मलेशिया जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, और यहाँ से इसे मध्य पूर्व क्षेत्रों में निर्यात किया जाता है।
कटहल का पेड़ विशाल और घना) होता है। इसके फल पेड़ की पतली शाखाओं पर नहीं लगते बल्कि तने और मोटी शाखाओं के जोड़ के आसपास लगते हैं। यहाँ लगने से इसे बहुत बड़े आकार में बढ़ने में मदद मिलती है; केरल में 42 किलोग्राम का एक कटहल अब तक एक रिकॉर्ड है। कटहल का पका हुआ फल मीठा और स्वादिष्ट होता है। और कच्चे कटहल से कई तरह के व्यंजन बनते हैं। इसे मांस के विकल्प के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इसमें वसा और कोलेस्ट्रॉल कम होता है ।
सुपरफूड कटहल
इन सभी खूबियों के साथ-साथ, कटहल एक सुपरफूड के रूप में विश्वभर में लोकप्रिय हो रहा है। क्लीवलैंड युनिवर्सिटी की एक व्यापक समीक्षा बताती है कि कटहल प्रोटीन, विटामिन, खनिज और पादप रसायनों, के अलावा पोटेशियम, मैग्नीशियम और फॉस्फोरस जैसे तत्त्वों से भरपूर है। ड्यूक युनिवर्सिटी की वेबसाइट पर वैज्ञानिक ब्रायना इलियट ने कटहल के पोषण सम्बंधी लाभों पर प्रकाश डाला है। वे बताती हैं कि पोषण की दृष्टि से कटहल की फांकें सेब और आम की तुलना में बेहतर हैं। कई संदर्भों का हवाला देते हुए वे बताती हैं कि कटहल का फल रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करता है; यकृत से लेकर अन्य अंगों में जमा वसा को घटाता है; और इसमें मौजूद कैरोटीनॉइड्स टाइप-2 डायबिटीज़ और हृदय रोगों के जोखिम को कम करते हैं। इसमें मौजूद विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ वायरल संक्रमण के जोखिम को कम करते हैं।
WebMed वेबसाइट भी इसके कई लाभ बताती है। इसके अनुसार, “कटहल ज़रूरी विटामिनों और खनिज से सराबोर है, विशेष रूप से यह विटामिन ‘बी’, पोटेशियम और विटामिन ‘सी’ का एक अच्छा स्रोत है।” कटहल मधुमेह के रोगियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में लगभग 21.5 करोड़ लोग मधुमेह से पीड़ित हैं। 2021 में, आंध्र प्रदेश के श्रीकाकुलम स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के ए. गोपाल राव और उनके साथियों ने न्यूट्रिशन एंड डायबिटीज़ जर्नल में एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण के नतीजे प्रकाशित किए हैं। इसमें बताया गया है कि कच्चे कटहल का आटा (जिसे कच्चे कटहल के गूदेदार हिस्से को सुखाकर, पीसकर बनाया जाता है) ग्लाइसेमिक नियंत्रण में कुशल है और चावल या गेहूँ जैसे मुख्य आहार का विकल्प बन सकता है। कटहल का आटे के रूप में इस्तेमाल उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है, जहाँ कटहल की खेती नहीं होती। इस शोधपत्र के एक लेखक जेम्स जोसेफ एक कंपनी (jackfruit 365) चलाते हैं जो पूरे भारत में कटहल का आटा बेचती है।
कटहल मधुमेह रोगियों और स्वस्थ लोगों, दोनों के लिए दैनिक आहार का एक वांछनीय हिस्सा है। तो सब्ज़ी, अचार, फल या आटे किसी भी रूप में इसे इस्तेमाल करें और स्वस्थ रहें! (स्रोत फीचर्स) ■

कविताः पिता, तुम सच में चले गए?

  -  डॉ. पूनम चौधरी 

जब मैं विदा हुई थी,  

छलक गई थी तुम्हारी आँखें,  

पर छुपा कर सारा दर्द,  

ओढ़कर मुस्कान, थमाया था धीरज-

‘‘जा, यह नया संसार तेरी प्रतीक्षा कर रहा है।  

पर तेरा छूटा हुआ सब तेरा ही है।’’

 

मैंने बाँध लिये थे शब्द,  

आँचल में गाँठ लगाकर।  

पर अब वह गाँठ खुल गई।  

तुम सच में चले गए?  

और साथ में ले गए मेरा छूटा हुआ सब- 

आँगन, घर, मायका।  

 

अब लौटती हूँ तो घर  

वैसा नहीं लगता।  

खुले दरवाजे के पीछे तुम नहीं होते,  

तुम्हारी कुर्सी की जगह नहीं बदली,  

पर अब वो किसी को नहीं बुलाती।  

 

अब आती हूँ तो  

रास्ते भर फोन नहीं खटकता—  

"कहाँ पहुँची? कब आएगी?"  

तुम्हारी आतुरता और मेरा चिड़चिड़ाना—  

"पहले आ जाऊँ, फिर कर लूँगी बात!"  

अब बस एक भावुक स्मृति है।  

 

अब घर में बस तुम्हारी तस्वीर है।  

माँ चुपचाप तस्वीर पर फूल रख देती है,  

और मैं बिना बोले छू लेती हूँ तुम्हारा चेहरा,  

जो अब बस एक कागज़ में क़ैद है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए हो? 

 

अब वह आँगन खाली है,  

जिसमें गूँजती थी हँसी।  

जिस पर हर बार लौटने पर  

तुम पहले खड़े मिलते थे।  

अब घर की दीवारें सुनसान हैं,  

जैसे कोई अपना बहुत कुछ कहकर  

अचानक मौन हो गया हो।  

 

‘‘पिता, तुम सच में चले गए?’’  

 

अब जब अपने संसार में उलझती हूँ,  

दिल बोझिल हो जाता है।  

सुनना चाहती हूँ तुम्हारी आवाज़—  

‘‘भरोसा रख, वह सब सही करेगा।’’ 

पर अब सन्नाटा है।  

अब कुछ अपने आप सही नहीं होता।  

 

अब कोई अधिकार से नहीं पूछता—  

‘‘सब ठीक है ना, बेटा?’’  

सब कहते हैं, ‘‘तुम्हें तो मज़बूत होना चाहिए’’ 

पर जब पिता नहीं रहते,  

तो बेटियाँ अचानक से छोटी और कमजोर हो जाती हैं।  

और माँ भी...  

पिता के बिना अधूरी-सी लगती है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए?

 

अब मायका बस अतीत में झाँकने जैसा है।  

तुम थे, तो वह घर था,  

घोंसला था, हर समस्या का समाधान था।  

मेरा रुकना बिना प्रश्न स्वीकार था।  

अब सब बदल गया है।  

 

माँ की आँखों की नमी दिल को चीरती है।  

उनकी आँखों का खालीपन,  

जो कभी नहीं भर पाएगा।  

अब वहाँ लौटना खुद को दो हिस्सों में बाँटने जैसा है-  

एक हिस्सा जो कहता है, "यह मेरा ही घर था।" 

दूसरा जो चिल्लाता है, "यह सब छलावा है,  

सारे अधिकार तो पिता के साथ ही विदा हो गए!"  

 

अब यहाँ रहने से ज़्यादा  

यहाँ से लौटना कठिन हो गया है।  

अब मायका सिर्फ़ चारदीवारी का नाम है,  

जिसकी छत अभी सलामत है,  

पर जिसका आसमान खो गया है।  

 

पिता, तुम सच में चले गए? 

 

सुना है, पिता कभी नहीं जाते।  

वह बेटियों की आत्मा में बस जाते हैं।  

अगर यह सच है,  

तो किसी शाम जब तेज़ हवा चले,  

तो ज़रा मेरी पीठ थपथपा देना।  

फिर रख देना सिर पर हाथ।  

 

किसी भूले-बिसरे गीत की धुन में  

बस इतना कह देना—  

‘‘बेटा, मैं यहीं हूँ!’’

 

कि यह दिल फिर से धड़कने लग जाए,  

यह जीवन फिर से मुस्कुरा उठे,  

यह आँखें फिर से रोशन हो जाएँ,  

और यह तसल्ली हो जाए  

कि अब भी मेरा कोना सलामत है।

रचनाकार के बारे में-  शिक्षा- एम.ए. (हिंदी) पी-एच.डी (शैलेश मटियानी के कथा साहित्य की संवेदना), एम. एड, एल. एल. बी (आगरा विश्वविद्यालय ),  नन्हे ईश्वर (कहानी संग्रह )
 विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं, साहित्य परिक्रमा, वाग्प्रवाह व समाचार पत्रों राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, स्वदेश आदि में कहानियाँ व आलेख प्रकाशित, निरंतर आलोचनात्मक व रचनात्मक विमर्श में सक्रिय। संप्रति -अध्यापिका ( उत्तर प्रदेश बेसिक शिक्षा परिषद), ईमेल- poonam.singh12584@gmail.com
सम्पर्कः  98, पुष्पांजलि नगर फेज -3, अवधपुरी आगरा ( उत्तर प्रदेश) 282010

निबंधः मेरी पहली रचना

 - प्रेमचंद 

उस वक्त मेरी उम्र कोई 13 साल की रही होगी। हिन्दी बिल्कुल न जानता था। उर्दू के उपन्यास पढऩे- लिखने का उन्माद था। मौलाना शहर, पं. रतननाथ सरशार, मिर्जा रुसवा, मौलवी मोहम्मद अली हरदोई निवासी, उस वक्त के सर्वप्रिय उपन्यासकार थे। इनकी रचनाएँ जहाँ मिल जाती थीं, स्कूल की याद भूल जाती थी और पुस्तक समाप्त करके ही दम लेता था। उस जमाने में रेनाल्ड के उपन्यासों की धूम थी। उर्दू में उनके अनुवाद धड़ाधड़ निकल रहे थे और हाथों- हाथ बिकते थे। मैं भी उनका आशिक था। स्व. हजरत रियाज ने जो उर्दू के प्रसिद्ध कवि थे और जिनका हाल में देहांत हुआ है, रेनाल्ड की एक रचना का अनुवाद ‘हरम सरा’ के नाम से किया था। उसी जमाने में लखनऊ के साप्ताहिक ‘अवध-पंच’ के सम्पादक स्व. मौलाना सज्जाद हुसैन ने, जो हास्यरस के अमर कलाकार हैं, रेनाल्ड के दूसरे उपन्यास का ‘धोखा’ या ‘तिलिस्मी फानूस’ के नाम से अनुवाद किया था। ये सारी पुस्तकें मैंने उसी जमाने में पढ़ीं। और पं. रतननाथ सरशार से तो मुझे तृप्ति ही न होती थी। उनकी सारी रचनाएँ मैंने पढ़ डालीं। उन दिनों मेरे पिता गोरखपुर में रहते थे और मैं भी गोरखपुर के ही मिशन स्कूल में आठवीं में पढ़ता था, जो तीसरा दर्जा कहलाता था। रेती पर एक बुकसेलर बुद्धिलाल नाम का रहता था। मैं उसकी दुकान पर जा बैठता था और उसके स्टाक से उपन्यास ले- लेकर पढ़ता था। मगर दुकान पर सारे दिन तो बैठ न सकता था, इसलिए मैं उसकी दुकान से अंग्रेजी पुस्तकों की कुंजियाँ और नोट्स लेकर अपने स्कूल के लड़कों के हाथ बेचा करता था और इसके मुआवजे में दुकान से उपन्यास घर लाकर पढ़ता था। दो-तीन वर्षों में मैंने सैंकड़ों उपन्यास पढ़ डाले होंगे। जब उपन्यासों का स्टाक समाप्त हो गया, तो मैंने नवलकिशोर प्रेस से निकले हुए पुराणों के उर्दू अनुवाद भी पढ़े, और ‘तिलिस्मी होशरूबा’ के कई भाग भी पढ़े। इस वृहद तिलस्मी ग्रंथ के सत्रह भाग उस वक्त निकल चुके थे और एक- एक भाग बड़े सुपररायल आकार के दो- दो हजार पृष्ठों से कम न होगा और इन सतरह भागों के उपरांत उसी पुस्तक के अलग- अलग प्रसंगों पर पचीसों भाग छप चुके थे। इनमें से भी मैंने कई पढ़े। जिसने इतने बड़े ग्रंथ की रचना की, उसकी कल्पना शति कितनी प्रबल होगी, इसका केवल अनुमान लगाया जा सकता है। कहते हैं कि ये कथाएँ मौलाना फैजी ने अकबर के विनोदार्थ फारसी में लिखी थीं। इनमें कितना सत्य है, कह नहीं सकता; लेकिन इतनी वृहद् कथा शायद ही संसार की किसी भाषा में हो। पूरी एंसाइक्लोपीडिया समझ लीजिए। एक आदमी तो अपने साठ वर्ष के जीवन में उनकी नकल भी करना चाहे, तो नहीं कर सकता। रचना तो दूसरी बात है।

उसी जमाने में मेरे एक नाते के मामू कभी- कभी हमारे यहाँ आया करते थे। अधेड़ हो गए थे; लेकिन अभी तक बिन-ब्याहे थे। पास में थोड़ी सी जमीन थी, मकान था; लेकिन धरती के बिना सब कुछ सूना था। इसलिए घर पर जी न लगता था। नातेदारियों में घूमा करते थे और सबसे यही आशा रखते थे कि कोई उनका ब्याह करा दे। इसके लिए सौ दो सौ खर्च करने करो भी तैयार रहते। क्यों उनका ब्याह नहीं हुआ, यह आश्चर्य था। अच्छे खासे हृष्ट-पुष्ट आदमी थे, बड़ी-बड़ी मूँछें, औसत कद, साँवला रंग। गाँजा पीते थे, इसमें आँखें लाल रहती थीं। अपने ढंग के धर्मनिष्ठ भी थे। शिवजी को रोजाना जल चढ़ाते थे और मांस- मछली नहीं खाते थे।

आखिर एक बार उन्होंने भी वही किया, जो बिन-ब्याहे लोग अक्सर किया करते हैं। एक चमारिन के नयन- बाणों से घायल हो गए। वह उनके यहाँ गोबर पाथने, बैलों को सानी-पानी देने और इसी तरह के दूसरे फुटकर कामों के लिए नौकर थी। जवान थी, छबीली थी और अपने वर्ग की अन्य रमणियों की भांति प्रसन्नमुख और विनोदिनी थी। ‘एक समय सखि सुअरि सुंदरि’-वाली बात थी। मामू साहब का तृषित हृदय मीठे जल की धारा देखते ही फिसल पड़ा। बातों-बातों में उससे छेड़छाड़ करने लगे। वह इनके मन का भाव ताड़ गई। ऐसी अल्हड़ न थी और नखरे करने लगी। केशों में तेल भी पड़ने लगा, चाहे सरसों का ही क्यों न हो। आँखों में काजल भी चमका, ओठों पर मिस्सी भी आई और काम में ढिलाई भी शुरू हुई। कभी दोपहर को आई और झलक दिखलाकर चली गई, कभी साँझ को आई और एक तीर चलाकर चली गई। बैलों को सानी-पानी मामू साहब खुद दे देते, गोबर दूसरे उठा ले जाते, युवती से बिगड़ते क्योंकर? वहाँ तो अब प्रेम उदय हो गया था। होली में उसे प्रथानुसार एक साड़ी दी, मगर अबकी गजी की साड़ी न थी। खूबसूरत- सी हवा दो रुपये की चुंदरी थी। होली की त्योहारी भी मामूल से चौगुनी थी। और यह सिलसिला यहाँ तक बढ़ा कि वह चमारिन ही घर की मालकिन हो गई।

एक दिन संध्या-समय चमारों ने आपस में पंचायत की। बड़े आदमी हैं तो हुआ करें, क्या किसी की इज्जत लेंगे? एक इन लाला के बाप थे कि कभी किसी मेहरिया की ओर आँख उठाकर न देखा, (हालांकि यह सरासर गलत था) और यह एक हैं कि नीच जाति की बहू- बेटियों पर भी डोरे डालते हैं!  समझाने- बुझाने का मौका न था। समझाने से लाला मानेंगे तो नहीं, उल्टे और कोई मामला खड़ा कर देंगे। इनके कलम घुमाने की तो देर है। इसलिए निश्चय हुआ कि लाला साहब को ऐसा सबक देना चाहिए कि हमेशा के लिए याद हो जाए। इज्जत का बदला खून ही चुकाता है; लेकिन मुरम्मत से भी कुछ उसकी पुरौती हो सकती है।

दूसरे दिन शाम को जब चम्पा मामू साहब के घर में आई तो उन्होंने अंदर का द्वार बंद कर दिया। महीनों के असमंजस और हिचक और धार्मिक संघर्ष के बाद आज मामू साहब ने अपने प्रेम को व्यवहारिक रूप देने का निश्चय किया था। चाहे कुछ हो जाए, कुल- मरजाद रहे या जाय, बाप- दादा का नाम डूबे या उतराय!

उधर चमारों का जत्था ताक में था ही। इधर किवाड़ बंद हुए, उधर उन्होंने खटखटाना शुरू किया। पहले तो मामू साहब ने समझा, कोई आसामी मिलने आया होगा, किवाड़ बंद पाकर लौट जाएगा ; लेकिन जब आदमियों का शोरगुल सुना तो घबराए। जाकर किवाड़ों की दराज से झांका। कोई बीस- पचीस चमार लाठियाँ लिए, द्वार रोके खड़े किवाड़ों को तोड़ने की चेष्टा कर रहे थे। अब करें तो क्या करें? भागने का कहीं रास्ता नहीं, चम्पा को कहीं छिपा नहीं सकते। समझ गए कि शामत आ गई। आशिकी इतनी जल्दी गुल खिलाएगी, यह क्या जानते थे, नहीं इस चमारिन पर दिल को आने ही क्यों देते। उधर चम्पा इन्हीें को कोस रही थी- तुम्हारा क्या बिगड़ेगा, मेरी तो इज्जत लुट गई। घर वाले मूड़ ही काटकर छोड़ेंगे, कहती थी, कभी किवाड़ बंद न करो, हाथ-पाँव जोड़ती थी। मगर तुम्हारे सिर पर तो भूत सवार था। लगी मुँह में कालिख कि नहीं?

मामू साहब बेचारे इस कूचे में कभी न आए थे। कोई पक्का खिलाड़ी होता तो सौ उपाय निकाल लेता ; लेकिन मामू साहब की तो जैसे सिट्टी-पिट्टी भूल गई। बरौठे में थर-थर काँपते ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करते हुए खड़े थे। कुछ न सूझता था।

और उधर द्वार पर कोलाहल बढ़ता जा रहा था। यहाँ तक कि सारा गाँव जमा हो गया। बाम्हन, ठाकुर, कायस्थ सभी तमाशा देखने और हाथ की खुजली मिटाने के लिए आ पहुँचे। इससे ज्यादा मनोरंजक और स्फूर्तिवर्धक तमाशा और क्या होगा कि एक मर्द और एक औरत को एक साथ घर में बंद पाया जाए। फिर वह चाहे कितनी ही प्रतिष्ठित और विनम्र क्यों न हो, जनता उसे किसी तरह क्षमा नहीं कर सकती। बढ़ई बुलाया गया, किवाड़ फाड़े गए और मामू साहब भूसे की कोठरी में छिपे हुए मिले। चम्पा आँगन में खड़ी रो रही थी। द्वार खुलते ही भागी। कोई उससे नहीं बोला। मामू साहब भागकर कहाँ जाते! वह जानते थे उनके लिए भागने का रास्ता नहीं है। मार खाने के लिए तैयार बैठे थे। मार पड़ने लगी और बेभाव की पड़ने लगी। जिसके हाथ जो कुछ लगा, जूता, छड़ी, छात, लात, घूंसा और अस्त्र चले। यहाँ तक कि मामू साहब बेहोश गए और लोगों ने उन्हें मुर्दा समझ कर छोड़ दिया। अब इतनी दुर्गति के बाद वह बच भी गए, तो गाँव में नहीं रह सकते और उनकी जमीन पट्टेदारों के हाथ आएगी।

इस दुर्घटना की खबर उड़ते-उड़ते हमारे यहाँ भी पहुँची। मैंने भी उसका खूब आनंद उठाया। पिटते समय उनकी रूपरेखा कैसी रही होगी, इसकी कल्पना करके मुझे खूब हंसी आई। एक महीने तक तो वह हल्दी और गुड़ पीते रहे। ज्यों ही चलने- फिरने लायक हुए, हमारे यहाँ आए। यहाँ अपने गाँववालों पर डाके का इस्तगासा दायर करना चाहते थे।

अगर उन्होंने कुछ दीनता दिखाई होती तो शायद मुझे हमदर्दी हो जाती ; लेकिन उनका वही दमखम था। मुझे खेलते या उपन्यास पढ़ते देखकर बिगड़ना और रोब जमाना और पिताजी से शिकायत करने की धमकी देना, यह अब मैं क्यों सहने लगा था। अब तो मेरे पास उन्हें नीचे दिखाने के लिए काफी मसाला था।

आखिर एक दिन मैंने यह सारी दुर्घटना एक नाटक के रूप में लिख डाली और अपने मित्रों को सुनाई। सब-के-सब खूब हंसे। मेरा साहस बढ़ा। मैंने उसे साफ- साफ लिखकर वह कापी मामू साहब के सिरहाने रख दी और स्कूल चला गया। दिल में कुछ डरता भी था, कुछ खुश भी था और कुछ घबराया हुआ भी था। सबसे बड़ा कुतूहल यह था कि ड्रामा पढ़कर मामू साहब क्या कहते हैं। स्कूल में जी न लगता था। दिल उधर ही टंगा हुआ था। छुट्टी होते ही घर चला गया। मगर द्वार के समीप पाकर पाँव रुक गए। भय हुआ, कहीं मामू साहब मुझे मार न बैठें ; लेकिन इतना जानता था कि वह एकाध थप्पड़ से ज्यादा मुझे मार न सकेंगे, क्योंकि मैं मार खाने वाले लड़कों में से न था।

मगर यह मामला क्या है! मामू साहब चारपाई पर नहीं हैं, जहाँ वह नित्य लेटे हुए मिलते थे। क्या घर चले गए? आकर कमरा देखा वहाँ भी सन्नाटा। मामू साहब के जूते, कपड़े, गठरी सब लापता। अंदर जाकर पूछा। मालूम हुआ, मामू साहब किसी जरूरी काम से घर चले गए। भोजन तक न किया। मैंने बाहर आकर सारा कमरा छान मारा, मगर मेरा ड्रामा- मेरी वह पहली रचना कहीं न मिली। मालूम नहीं, मामू साहब ने उसे चिरागअली के सुपुर्द कर दिया या अपने साथ स्वर्ग ले गए?  ■

प्रसंगः एक भावुक दृश्य

 - लिली मित्रा 

ऐसे बिना अनुमति के किसी तस्वीर नही खींचनी चाहिए; पर मैं रोक नही पाई और मेट्रो रेल मे बैठे एक यात्री परिवार की फोटो  सबसे नज़र बचाकर खींच ली। पिता की वात्सल्यमयी गोद में बहुत सुकून से सोता हुआ बचपन... बहुत देर तक मैं उस, निश्चिन्त पितृ-अंक में सोए बालक को निहारती रही। शायद बच्चे की तबीयत खराब थी। मेट्रो के वातानुकूलित परिवेश में उसे ठंड लग रही थी। इसी कारण एक शॉल में किसी कंगारू के शावक- सा वह अपने पिता के गोद में सिकुड़कर सो रहा था।  बीच-बीच में ट्रेन के अनाउंसमेंट से चौंककर  इधर-उधर ताकती उसकी भोली मासूम आँखें वापस खुद को गुड़मुठियाकर पुनः अपने सुरक्षित, संरक्षित घेरे में सो जा रही थीं। जेहन में एक ख्याल का अकस्मात् अनाउंसमेंट हो गया... आह्लादित मुस्कान, भाव विभोर हो खुद के लिए भी ऐसे वात्सल्यमयी सुरक्षित अंक के लिए तड़प उठी।   वयस्क होकर हम कितना कुछ पाते हैं - आत्मनिर्भरता, स्वनिर्णय की क्षमता, अपनी मनमर्ज़ी को पूरा करने की क्षमता; पर सब कुछ एक असुरक्षा के भय के आवरण के साथ। उस निश्चिंतता का शायद अभाव रहता है कि यदि असफल हुए या ठोकर लगने को हुए, तो एक सशक्त संरक्षण पहले ही अपना हाथ आगे बढ़ा उसे खुद पर सह लेगा; पर हमें कुछ नही होने देगा।   

 जब शिशु पलटी मारना सीखते हैं, तो अभिभावक बिस्तर के चारो तरफ़ तकिए लगा देते हैं; ताकि वे नीचे ना गिर जाएँ। जब चलना सीखते हैं, तो हर पल की चौकसी बनाए रखते हैं, कहीं टेबल का कोन न लग जाए, कहीं माथा न ठुक जाए। मुझे याद है- मेरे घर के बिजली के कुछ स्विच बोर्ड नीचे की ओर लगे थे और बड़े वाले बेटे ने घुटनों के बल चलना सीखा था। वह बार-बार उन स्विच के प्लग प्वांइट के छेदों में उँगली डालने को दौड़ता था। मुझे सारे बोर्ड ऊपर की तरफ़ करवाने पड़े। और भी बहुत कुछ रहता है... जिन पर भरपूर चौकसी रखनी पड़ती है अभिभावकों को, जिससे शिशु का बचपन निश्चिंतता के परिवेश में पोषित और पल्लवित हो। ऐसा बहुत कुछ हम वयस्क होने के बाद खो देते हैं।     

 इस दृश्य को देखकर आँखें भर आईं ... लगा जैसे पृथ्वी के विलुप्त होते सुरक्षा आवरण ' ओज़ोन'- सा मेरा या हम सभी वयस्क हो चुके हैं, जो आत्मनिर्भर हो चुके हैं, उनकी वह 'अभिभावकीय ओज़ोन लेयर' विलुप्त होती जा रही  है।   हम अब  स्वयं अभिभावक बन चुके हैं। अब हमें अपने बच्चों को सुरक्षित एंव निश्चिंतता का वात्सल्यमयी आवरण प्रदान करना है। उन्हें उसी तरह जीवन- पथ की ऊष्णता और आर्द्रता सहने के काबिल बनाना है, जैसे हमारे अभिभावकों ने हमें बनाया।          

 माँ-बाबा तो सशरीर इस जगत् में नहीं; पर एक आभासी विश्वास मन में सशक्तता से आसीन है- वे जिस लोक में हैं , अपने आशीर्वाद से आज भी अपना वात्सल्यमयी घेरा बनाकर हर बाधा, दुरूहता, चुनौतियों, कठिनाइयों से निपटने का सम्बल दे रहे हैं और मैं इसी फोटो वाले बालक- सी अपने अभिभावक की गोद में गुड़मुठियाए निर्विकार निश्चिंतता से सो रही हूँ।   ■

- फरीदाबाद हरियाणा 

दो लघुकथाः

- डॉ. सुषमा गुप्ता

1. संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण

2 मार्च 2021

पिताजी बहुत बीमार हैं। आप सभी की दुआओं की बहुत ज़रूरत है।

(अस्पताल में लेटे बीमार पिता जी की फोटो के साथ उसने फेसबुक पर स्टेटस अपडेट किया।)

3 मार्च 2021

पिताजी की हालत लगातार बिगड़ रही है। तन, मन,धन से जितना कर सकता हूँ, सब कर रहा हूँ।”

(इस बार उसने अपने थके निराश चेहरे की फोटो के साथ स्टेटस अपडेट किया।)

5 मार्च 2021

पिताजी नहीं रहे। मैं अपनी सब कोशिशें करके भी हार गया। मेरा संसार लुट गया।

(श्मशान से पिता की चिता के आगे अपने आँसुओं से भरे चेहरे के साथ उसने स्टेटस एक बार फिर अपडेट किया)

16 मार्च 2021

पिताजी की आत्मा की शांति के लिए बहुत बड़ी पूजा रखी और 51 पंडितों को भोज कराया।

(हार चढ़ी पिताजी की फोटो के सामने कुछ पंडित खाना खा रहे हैं और उन्हें खुद खाना परोसते हुए की फोटो के साथ इस बार का स्टेटस अपडेट हुआ।)

शाम ढले वह अपनी प्रोफाइल पर आए ढेरों कमेंट पढ़ रहा था, जिनमें उसे एक बेहद संवेदनशील आज्ञाकारी बेटे के खिताबों से नवाज़ा गया था।

साथ वाले कमरे में माँ खाँस-खाँस के दोहरी होती हुई अब भी इंतज़ार कर रही है कि बेटा खत्म हुई दवाइयाँ फिर से कब लाकर देगा। पति के खाली बिस्तर की तरफ देखते हुए उसकी आँखें भीग गई हैं।

काँपती आवाज़ में माँ ने बेटे को आवाज़ दी, दवाइयों की गुहार की। बेटे ने मुँह बनाया और झिड़कते हुए कहा-“बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो लाकर दूँगा।”

कहकर एक बार फिर से वह फोन में व्यस्त हो गया। पाँच मिनट में नया स्टेटस अपडेट हुआ।

“पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। मुझ में अब, और खोने की शक्ति नहीं बची है।”

2. ज़िंदा 

    का 

   बोझ

वह शराब के नशे में धुत जब भी घर आता ज़ोर से चिल्लाता, “अरी कहाँ मर गई?”

भागती-सी गुलाबो जाती और कमरे का दरवाज़ा बंद हो जाता।

बहुत बड़ा नाम था पीर साहब का पूरे इलाके में । लोगों ने अल्लाह का दर्ज़ा तक दे डाला था और गुलाबो को पीर रानी का। पीर साहब वैसे तो डेरे पर ही रहते थे पर महीने में दो-चार बार घर भी आ जाते। जिस रात वह घर आते, बच्चियों को रात भर, रह-रह के कमरे से माँ की दर्दनाक चीखें सुनाई देती। अगले दिन माँ के शरीर पर ज़ख्म दिखते तो बच्चियाँ अपनी उम्र के हिसाब से सवाल पूछती और गुलाबो उनकी उम्र के हिसाब से ही जवाब देकर उन्हें समझा भी देती।

आज गुलाबो को सुबह से ही तेज़ बुखार था। रात गए फिर पीर साहब की गरज सुनाई दी, “गुलाबो......”

तेरह साल की जूही भागकर गई, “जी बाबा”

पीर साहब ने उसे पर ऊपर से नीचे तक भरपूर नज़र डाली फिर बेहद प्यार से बोले,

“अरे तू इतनी बड़ी कब हो गई? आ ...अंदर आ.. बैठ मेरे पास।”

दरवाजा फिर बंद होने ही वाला था कि गुलाबो दौड़ती हाँफती पहुँची। पल भर में सब समझ गई। खींचकर जूही को कमरे से बाहर कर दिया और ख़ुद अंदर होकर दरवाज़ा बंद कर लिया। पीर साहब का चिल्लाना और माँ की दर्दनाक चीखें बाहर तक सुनाई देने लगी। अचानक चीखों का स्वर बदल गया।

सुबह दालान में ज़माने भर का मजमा लगा था। पीर साहब नहीं रहे। पीर रानी की सबसे विश्वस्त नौकरानी ने सबको खबर पहुँचाई , कोई लूट के इरादे से घर में घुसा और हाथापाई में पीर साहब का गला रेत गया।

लोगों ने ख़ूब कोसा उस अनजान लुटेरे को। दोज़ख रसीद करने की बद्दुआएँ दे डालीं। औरतों के झुंड के झुंड आ रहे थे। खूब प्रलाप हो रहा था ।

छाती-पीटती अम्मा बोली, “हाय गुलाबो! कैसे उठाएगी तू बेवा होने का बोझ!”

गुलाबो मन ही मन बुदबुदाई....“इसके तो ज़िंदा का बोझ ज़्यादा था अम्मा। इसकी लाश में बोझ कहाँ ... ”   ■

हाइबनः प्रवासी पक्षियों का आश्रय चिल्का झील

  - अंजू निगम 

उड़ीसा के चंद्रभागा तट से टकराती समुद्र की उत्कट लहरें। कतार में लगे, हवा के साथ दौड़ लगाते नारियल के विशालकाय वृक्ष। इन वृक्षों के समानांतर चलती सीधी-सपाट सड़क, चिल्का झील तक पहुँचती है। चिल्का का विहंगम दृश्य मन को सम्मोहित कर गया। सैलानियों का जमावड़ा और जल- क्रीड़ा करते प्रवासी पक्षी। ईश्वर ने मानो किसी कुशल चितेरे- सा प्रकृति को अनंत तक कैद कर रखा हो। दूर तक फैला जल- क्षेत्र और क्षितिज से मानो होड़ करता, धुँधला- सा नजर आता एशिया का सबसे बड़ा लैगून।

लैगून देखने की उत्सुकता लगभग हर सैलानी को थी। हम भी इतनी दूर लैगून को पास से देखने की इच्छा लेकर ही आए थे। नीली, साफ, स्वच्छ चिल्का झील और  समुद्र के पानी का खारापन आपस में मिल, जीवन का एक सुदंर संदेश दे रहे थे। मीठा और खारा भी आपसी सामंजस्य स्थापित कर एक- दूसरे के अस्तित्व को स्वीकार कर, साथ साथ प्रवाहित हो रहे थे।

चिल्का की झील

प्रवासी पक्षियों को

देती आश्रय     ■


कहानीः ग़ैर-ज़रूरी सामान

  - नमिता सिंह 'आराधना'

पत्नी के निधन के पश्चात हरीश बाबू बेटे के पास मुंबई रहने आ गए थे। उन्होंने सोचा था कि बेटे-बहू के पास रहने से समय अच्छा कट जाएगा और अकेलापन भी नहीं सताएगा ; लेकिन अब यहाँ आकर उन्हें महसूस होने लगा कि उनसे निर्णय लेने में भूल हो गई है। उन्हें लगा था कि बेटा-बहू दोनों वर्क फ्रॉम होम करते हैं सो दिन भर दोनों घर पर ही रहेंगे तो उनका साथ रहेगा और बातचीत होती रहेगी ; लेकिन घर पर होते हुए भी दोनों दिन भर अलग-अलग कमरों में बंद रहते। 

कुक भोजन बनाकर रख जाता। घर के अन्य कामों के लिए भी घरेलू सहायक आकर अपना काम कर जाते। हरीश बाबू अकेले ही भोजन करते। दोपहर के भोजन के बाद जब वह कमरे में आराम कर रहे होते तो इस बीच बेटा और बहू अपने-अपने समय से कमरे से निकल कर भोजन ग्रहण कर लेते। शाम की चाय भी हरीश बाबू को अकेले ही पीनी पड़ती। 

शाम को अपार्टमेंट के गार्डन में जाते। पहले-पहल उन्हें लगा था कि यहाँ कुछ अच्छे दोस्त बन जाएँगे और उनका अकेलापन कुछ कम हो जाएगा ; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। यहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। किसी से बात करने की कोशिश करते तो वह हाँ... हूँ... करके आगे बढ़ जाता। इसका कारण वह कभी समझ नहीं पाए।

बेटे ने एक कुत्ता पाल रखा था। कभी वह बिना वज़ह भौंकना शुरू कर देता तो बेटा फौरन कमरे से निकल कर उसे प्यार से पुचकारता, "क्या हुआ बोन्जो? (कुत्ते का नाम), भूख लगी है मेरे बच्चे को? अकेले मन नहीं लग रहा? अच्छा बता, कौन सा बिस्कुट खाएगा?" मानो कुत्ता अभी बोल पड़ेगा। उधर हरीश बाबू यह देखकर बेटे के बचपन में चले जाते। वह भी तो बेटे के रोने या उदास होने पर उसे ऐसे ही पुचकारा करते थे। उनका मन करता कि बेटा उनसे भी ऐसे ही प्यार से बात करे जैसे कुत्ते से करता है; लेकिन वह कुत्ता तो बन नहीं सकते थे और बतौर पिता बेटे के लिए अनुपयोगी हो चुके थे। सो मन मसोसकर रह जाते।

"ठीक है, शाम को तुम्हें घुमाने ले जाऊँगा। डिनर में तुझे चिकन भी खिलाऊँगा।" इत्यादि आश्वासन देते हुए बेटा कुत्ते को दुलारता, सहलाता, चूमता। फिर उसके चुप होने पर वापस कमरे में चला जाता ; लेकिन हरीश बाबू कभी कोई गाना बजा देते या फोन पर जरा ऊँची आवाज में किसी से बात करते तो बेटा कमरे से बाहर आकर उनके ऊपर गुर्राता, "पापा, आपको ब्लूटूथ दिया है न, आप उसे कान में लगाकर गाना सुनिए।" या फिर, "जरा धीमी आवाज में बात कीजिए।" वह कुछ कहना चाहते, इससे पहले ही बेटे के कमरे का दरवाजा बंद हो जाता। कहाँ वह अपना अकेलापन दूर करने के ख्याल से यहाँ आए थे ; लेकिन अकेलापन दूर होना तो दूर की बात थी, उनके दैनिक क्रियाकलाप पर भी बंदिशें लग रही थीं। उन्हें महसूस होने लगा कि वह कुत्ता उनसे बेहतर स्थिति में है। उसके भौंकने पर उसे पुचकार मिलती थी ; लेकिन उनके बोलने पर दुत्कार नहीं तो गुर्राहट अवश्य मिलती थी। कुत्ते से उसकी फरमाइशें पूछी जातीं ; लेकिन उनसे बेटे ने कभी उनकी ज़रूरतें भी नहीं पूछीं।

डिनर के समय भी शायद ही कभी बेटा या बहू में से कोई साथ होता। शनिवार और रविवार के दिन दोनों अपने दोस्तों के साथ कहीं बाहर घूमने चले जाते। एक बार उन्होंने भी साथ जाने की इच्छा जाहिर की तो बेटे ने कहा, "आप हमारे साथ जाकर क्या करेंगे? बोर हो जाएँगे और दिन भर घूम भी तो नहीं पाएँगे। थक जाएँगे।" हरीश बाबू मन मसोसकर रह गए। उनके घर पर मौजूद होने की वजह से वे दोनों अपने दोस्तों को भी घर पर नहीं बुलाते थे। वह घर में ऐसे पड़े रहते, जैसे घर का कोई ग़ैर-ज़रूरी सामान। 

अपनी स्थिति में उन्हें सुधार की कोई उम्मीद दूर-दूर तक नजर नहीं आ रही थी। इसीलिए उन्होंने वापस अपने घर लौटने का फैसला कर लिया। एक दिन अपना सामान पैक किया और जा बैठे रेलगाड़ी में। टिकट तो पहले ही बुक कर लिया था। जाने से पहले उन्होंने बेटे को व्हाट्सएप पर एक मैसेज कर दिया कि वह वापस अपने शहर जा रहे हैं, क्योंकि बेटे का स्पष्ट निर्देश था कि काम के समय उसे डिस्टर्ब न किया जाए। दो दिनों से वह उन दोनों को बताने की कोशिश तो कर रहे थे, पर एक घर में रहकर भी आमना-सामना बहुत कम ही होता था। जब सामने होते, उस दौरान भी वे दोनों अपने-अपने मोबाइल पर व्यस्त रहते। इसीलिए कभी बताने का मौका ही नहीं मिला। जब भी वह कुछ बोलने के लिए मुँह खोलने की कोशिश करते, बेटा हाथ के इशारे से उन्हें चुप रहने का इशारा कर देता; क्योंकि वह मोबाइल पर किसी से बातें कर रहा होता था। यहाँ भी वह कुत्ता उनसे बेहतर स्थिति में था क्योंकि भौंकने के लिए उसे किसी से परमिशन लेने की आवश्यकता नहीं थी। अलबत्ता अगर बेटा उसके भौंकने पर उस पर ध्यान न दे तो वह गुर्राने लगता और उसकी गुर्राहट पर बेटे को प्यार आ जाता। इसीलिए अपनी स्थिति को भाँपते हुए उन्होंने अपनी रवानगी की सूचना बेटे को व्हाट्सएप पर संदेश भेजकर ही देना उचित समझा। 

उन्हें उम्मीद थी कि उन्हें सामान सहित घर से बाहर जाता देख वह कुत्ता अवश्य भौंकेगा और उसकी भौंक सुनकर बेटा कमरे से अवश्य बाहर आएगा। तब वह बेटे का मुखड़ा देख उससे विदाई ले लेंगे।  पर यहाँ भी उन्हें निराशा ही हाथ लगी। शायद उस कुत्ते की नजर में भी उनकी कोई अहमियत नहीं थी। वह अधखुली आँखों से उन्हें देखते हुए सोने का नाटक करता रहा। मजबूरन वह निकल पड़े। दरवाजे पर स्मार्ट लॉक था सो किसी के आकर दरवाजा बंद करने का झंझट भी नहीं था।

उनका मैसेज भी बेटे ने तब देखा जब ट्रेन उनके अपने शहर में प्रवेश कर रही थी ; लेकिन तब भी बेटे ने फोन करना जरूरी नहीं समझा। उसका मैसेज आया, "पापा, आपने बताया भी नहीं कि आप जा रहे हैं।" हरीश बाबू जानते थे कि उनके उत्तर का इंतजार बेटा नहीं करेगा। इसीलिए उन्होंने मन ही मन अपने-आप को ही उत्तर दे दिया, "तुम्हें मुझसे बात करने की फुर्सत ही कहाँ थी।"  ■

सम्पर्कः बी.401, सानिध्य रॉयल, 100 फीट त्रागड़ रोड, न्यू चाँदखेड़ा, अहमदाबाद, गुजरात -82470, mail- nvs8365@gmail.com

व्यंग्यः दास्तान-ए-सांड

  - डॉ. मुकेश असीमित

जन्म दिवस मेरा अभी दूर है। परिवार में एक महीने पहले ही चर्चा शुरू हो गई है कि इस दिवस को कैसे अनूठा बनाया जाए। इस बार गायों को चारा और गुड़ खिलाकर मनाने का फैसला हुआ है। शहर में भी देखा-देखी कई गौ आश्रम खुल गए हैं। जब से हमारे आयुर्वेदिक प्रचारक योग गुरु बाबा ने हर सौंदर्य प्रसाधन, खानपान, दवा-दारू में गाय का तड़का लगाया है, देश में गायों के प्रति प्रेम उच्च कोटि का जाग्रत हो गया है। गाय और गाय के सभी उत्पाद, जैसे गौमूत्र, दूध, दही, घी, योगर्ट, गोबर, पनीर- सब ५-स्टार रैंकिंग वाले शो रूम में सज गए हैं। देसी गाय की पहुँच अब देशवासियों के लिए अपनी औकात से बाहर की बात हो गई है।

यूँ तो बचपन से ही गाय हमारे पाठ्यक्रम में थी। गाय पर निबंध से लेकर, बगल में भूरी काकी की काली गाय के गोबर से थापे उपले, होली पर बनी बालुडीयाँ, और सुबह-सुबह गाय के दूध के जमाए दही को बिलोकर निकाले जाने वाले मक्खन से बाजरे की रोटी चुपड़कर खाने तक, गाय से हमारा नाता जुड़ गया है। सुबह-सुबह गाय को रोटी देने का काम हम बच्चों से ही करवाया जाता। गाँव में गाय को दरवाजे पर नहीं बुलाया जाता, बल्कि गाय को रोटी खिलाने के लिए जहाँ गाय बँधी होती थी, वहीं जाते थे। आजकल गायों ने शहर के परिवारों को आलसी बना दिया है और खुद अपनी रोटी के जुगाड़ में घर-घर जाकर दरवाजे की साँकल खटखटाती मिलती हैं।

पंडित जी के कर्मकांडों की दक्षिणा स्वरूप गौदान जहाँ सबसे महत्त्वपूर्ण दान होता था, उसकी जगह अब पंडित जी हाई-टेक सुविधा से दक्षिणा की राशि UPI से अपने मोबाइल में ट्रांसफर करवा लेते हैं। गायें पंडित जी के आँगन से निकलकर अब गौ आश्रम में हाँक दी गई हैं। मेरे जैसे लोग, जिन्हें अपना जन्म दिवस यादगार बनाना है, इन्हीं आश्रमों में जाकर गायों को घास चराने वाले हैं। साथ ही फोटो खींचकर फेसबुक पर डालकर अपने गौ प्रेम की असीम झलक प्रदर्शित करने वाले हैं।

बचपन में हमें दो ही माताएँ बताई गई थीं—एक, हमें चप्पलों से पीटकर संस्कार भरने वाली हमारी मम्मी, और दूसरी गाय माता। पिताजी भी दो हैं, यह भी बचपन में ही जान लिया। एक, हमारे खाल उधेड़ने की गाहे- बगाहे धमकी देने वाले पिताजी, और दूसरे, महात्मा गांधी जी, जिन्हें हमारे स्कूल के मास्साब ने बेंत की सुताई से आखिरकार रटा ही दिया था; लेकिन इसी बीच गायों के भाई, बाप, खसम स्वरूप बैल और साँड से भी बचपन से जुड़ाव रहा। पापा के मुँह से कभी-कभार हमें “बनिया का बैल ही रहेगा तू" सुनने को मिल जाता। उस समय हम नहीं समझते थे कि पापा का मतलब हमें बेकार, निकम्मा, निठल्ला साबित करने का था। बैल की दुर्दशा उस समय इतनी दिखती नहीं थी, जितना पापा हमें “बनिया का बैल” कहकर उसकी महिमा को कम आँकते थे।

सुबह-सुबह गाँव की कच्ची सड़कों की गंडारों में बैल गाड़ी खींचने वाले ये बैल, किसान की चाबुक की मार और पूँछ मरोड़कर बैलगाड़ी को एक्सेलरेटर देने का काम करते। बैल के गले में बंधी घंटियों की मधुर आवाज़ सुबह-शाम गाँव की गलियाँ गुंजायमान करती। गाँव के बाहर खेतों में ये बैल हल में जुते जुताई करते, तेली के कोल्हू में तेल निकालते, धुनिया की रुई धुनते, और इक्के-दुक्के पक्के मकान बनाने में गारे-चूने के मिश्रण की चिनाई करते।

धीरे-धीरे मशीनीकरण ने पैर पसार लिए। किसानों को मशीनों का चस्का लग गया। ट्रैक्टर आने लगे, बैलों के काम को मशीनें खा गईं। बैल निरीह प्राणी बनकर बेकार हो गए। विसंगति यह है कि जहाँ गाय हिंदू धर्म में पूजनीय है, वहीं बैलों के लिए किसी ने नहीं सोचा। अगर गाय को माता माना गया, तो बैल को भी छोटा-मोटा बाप बना दिया जाता; लेकिन इंसान है न, गधे को तो बाप बना सकता है, पर बैल को नहीं।

आज ये बैल शहर की हर गली-मोहल्ले में दयनीय हालत में पड़े हैं। गौ आश्रम वाले गायों को पकड़-पकड़कर आश्रम में ढकेल रहे हैं। संस्था के सदस्यों को गाय और बैल में अंतर पहचानने की विशेष ट्रेनिंग दी गई है। कई बार कुछ नए, अतिउत्साहित सदस्य गलती से बैल को पकड़ लाते हैं। गौ आश्रम के चालक उन्हें बैलों को लौटाने का आदेश देते हैं, और ऐसे सदस्यों को संस्था से बाहर कर दिया जाता है।

जहाँ स्टॉक मार्केट बुल और बेयर के भँवरजाल को कवरेज देता है, वहीं असल में जो वास्तविक बुल (बैल) सड़क पर पड़ा है, उसके लिए कोई कवरेज नहीं। स्कूल में बुलिंग किए जाने वाले बच्चों पर विशेष ध्यान दिया जाता है; लेकिन सड़क पर बुलिंग का शिकार होने वाले इस निरीह बैल पर किसी का ध्यान नहीं। अपनी दुर्दशा से पीड़ित यह बैल कभी-कभी साँड का उग्र रूप धारण करके सड़क पर कुंठापूर्वक लड़ते हैं। उस समय क्षणिक रूप से बाजार और शहर के नागरिकों का ध्यान उनकी ओर जरूर जाता है; लेकिन वह भी गाली-गलौज और उनके जीवन को धिक्कारने के रूप में ही मिलता है।

बैल अपनी दुर्दशा पर आँसू बहाता हुआ शहर की गलियों, सड़कों और नालों पर पड़ा मिल जाएगा। शहर वाले सड़क और नाली की दुर्दशा पर आँसू बहाएँगे। न्यूज़पेपर वाले नगर पालिका को गालियाँ देते नजर आएँगे कि फलां जगह साँड नाली में पड़ा हुआ तीन दिन हो गया, नालियाँ अवरुद्ध हो गईं, नालियों का पानी सड़क पर आ गया। नगर पालिका ने शहर की नालियों की सुध नहीं ली ; लेकिन कहीं भी यह शिकायत सुनने को नहीं मिलेगी कि नगर पालिका ने साँड की सुध नहीं ली।

नगर पालिका भी क्या करे! सरकार ने गायों के संरक्षण और संवर्धन के लिए तो विभिन्न मदों में बजट दे रखा है ; लेकिन इन साँडों के लिए कोई बजट है ही नहीं। तो खर्च कैसे करें? साँडों के लिए न कोई यूनियन है, न चुनावी वादों में इनका नाम लिया जाता है। कई बार नेताओं की रैली में ये घुसकर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश करते हैं; लेकिन नेताजी इसे रैली की सुरक्षा व्यवस्था में हुई लापरवाही बताते हुए विरोधी पार्टी की मिलीभगत पर ठीकरा फोड़ देते हैं और इसे एक और चुनावी मुद्दा बना लेते हैं।

बरसात में जब जमीन गीली हो जाती है, तो ये साँड सूखी जमीन की तलाश में  बीच सड़क पर आश्रय लेने लगते हैं। लोग अपने वाहनों की चिल्लपों मचाते हुए, इनके अज्ञात मालिकों को गालियाँ देते हुए निकल जाते हैं। बेचारे साँड करें भी तो क्या? इनकी यही कुंठा कई बार उन्हें रोटी खिलाने वाले धर्मप्रेमी बुजुर्गों और महिलाओं पर भी निकल जाती है।

कारण? हर कोई अपनी-अपनी नजर से बताएगा। कुछ दबी जुबान में यह भी कहते हैं कि "हड्डी जोड़ने वाले डॉक्टरों ने इन्हें खासतौर पर सब्जी मंडियों में छोड़ रखा है, ताकि ये हमारे लिए मरीज निर्माण करें।" खैर, जितने मुँह उतनी बातें ; लेकिन वजह साफ है। जो भी रोटी खिलाने जाता है, वह आशा करता है कि गाय को खिलाएगा। जब गाय नहीं मिलती, तो मजबूरी में साँड को खिलाना पड़ता है, और शायद यही बात उन्हें पसंद नहीं।

जलीकट्टू जैसे पारंपरिक त्योहारों की मान्यता एक बार कोर्ट द्वारा रद्द किए जाने पर काफी बवाल मचा। व्हाट्सएप ने जमकर ज्ञान फॉरवर्ड किया। ट्विटर ने अपनी चहचहाहट से माहौल गर्माया। फेसबुक और यूट्यूब पर वीडियो की बाढ़ आ गई; लेकिन कुछ दिनों बाद जनता यह भूल गई कि आखिर लड़ाई किसके लिए लड़ी जा रही थी। इंसान बुल फाइट के जरिए अपनी ईगो की भूख शांत करने की फिराक में है और इसमें खुश है। बुल को अपनी लड़ाई खुद लड़नी होगी।

अब मुझे बस एक ही आसरा लगता है—उन कथा वाचकों का, जो आजकल समाज सुधारक, मोटिवेटर और प्रेरक का काम संभाले हुए हैं। इनके एक इशारे पर जनता दिन को रात कर देती है। अगर ये इनकी सुध लें और बुल की असलियत को उजागर करें—जो कि पुराणों में अच्छे से वर्णित है, जहाँ यह नंदी, भगवान शिव की सवारी है—तो इसे सार्वजनिक रूप से "नंदी" नाम से पुकारा जाए। कोई इसे बैल या साँड नहीं कहेगा। मुझे लगता है कि धार्मिक प्रवृत्ति के लोग भगवान शिव की इस सवारी को फिर नजरअंदाज नहीं करेंगे। इनके लिए भी "नंदी आश्रम" खुलने लगेंगे।

कम से कम इन कथावाचकों से अनुरोध है कि इस मामले की गंभीरता को पहचानें और अपने चढ़ावे में से कुछ अंश इन नंदियों के कल्याणार्थ अलग रखकर एक अच्छी शुरुआत करें। ■

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