लोग कहते हैं, यादों में चेहरे होते है, या बातें होती है। स्थान होते है, या कोई घटनाएँ होती है। लेकिन मेरी यादों में इन सबके साथ एक खुशबू भी बसी हुई है और वो खुशबू है माँ की अनुपस्थिति में भेरू के हाथ की गोल-गोल, फूली हुई, सिगड़ी पर सिंकी रोटियों की, भाप की खुशबू।
माँ के हाथ की रसोई का मुकाबला तो दुनिया का कोई शेफ नहीं कर सकता। लेकिन उसकी अनुपस्थिति में माँ के समान भाव से ही भोजन कराना, आह..। यही तो भेरू किया करते थे।
भेरू की याद आते ही आँखों के सामने आता है, धुसर रंगों की हॉफ स्लीव शर्ट, गहरे रंगों की पेंट, वो भी पांयचे मुड़े हुए। थोड़े से लंबे...,बिना माँग के..तेल डले भूरे बाल। लंबा चेहरा, बालों के ही समान भूरापन लिए हल्की भूरी आँखें, नुकीली भूरी मूँछें, दन्तपंक्ति कतार में लेकिन तंबाकू के सेवन से पीली।
और हाथ, स्त्री के हाथ के समान कोमल और उतने ही कुशल जितने एक स्त्री के हाथ होते है।, हम बच्चों के लिए जिनके हृदय मे अपार स्नेह भरा हुआ...। ये भेरू थे।
बरसों पुरानी बात, लेकिन यादें इतनी पुरानी भी नहीं हुई कि धूमिल हो जाए।
मैं कुछ बरस धार अपनी मौसी के यहाँ रही। मौसाजी और मौसी सरकारी नौकरी में अधिकारी थे, सो नौकरों-चाकरों की कमी नहीं थी। भेरूदादा, बावर्ची सहित सभी कुछ काम करते थे। मैं और मौसी के बच्चे पोचोपाटी स्कूल से आते ही बस्ता हाथ से फेंकते उसके पहले भेरूदादा बस्ता हाथ में ले लेते थे।
"बाई साब...! हाथ धो लो.. मैं थाली परोसता हूँ।" कहते- कहते वे बुझने की कगार पर पड़ी सिगड़ी की खिड़क़ी खोलकर दो-चार लकड़ी के कच्चे कोयले डालते, हाथ धोकर आते तब तक थाली परोस देते, घी के तड़क़े वाली तुअर दाल और कभी गवारफली, करेला, लौकी की सब्जी. और सिगड़ी पर फूली गर्म रोटी, आह....क्या स्वाद था।
भोजन करते करते गपियाना मेरा प्रिय शगल था।
"भेरू दादा... बताओ ना...! आपके घर में बच्चे नहीं हैं क्या..?"
"हैं ना बाई साब ...!" वह प्रेम से जवाब देते।
" तो वह यहाँ क्यों नहीं रहते ..?" मेरी सहज उत्सुकता होती थी।" और आप यहाँ हो तो उनके लिए खाना कौन बनाता है..?"
" उनकी माँ बनाती है ना बाई साब...!
उनकी वाणी में हमारे लिए सम्मान की कभी कमी नहीं होती। वे हमेशा बाई साब कहकर ही बोलते.. और बहुत धीरज के साथ हर बात का जवाब देते।
" तो फिर वह यहाँ क्यों नहीं रहते.. हमारे साथ..?" मेरे सवाल खत्म ही नहीं होते थे।
मैं कहने को तो कह दिया करती थी। लेकिन उनके चेहरे की मुस्कुराहट के पीछे अपने परिवार से दूर रहने की पीड़ा तब नहीं समझ पाती थी।
मौसाजी का सरकारी क्वार्टर था। सरकारी क्वार्टर का, और वह भी अगर अफसर का हो तो उसका अलग ही आनंद रहता है। बड़े कमरे.. ऊँची दीवारें और बाहर जंगला लगा हुआ आँगन।
उस दिन उस आँगन में गर्मी की छुट्टियों में हम पकड़म पाटी...लंगड़ी खेलने बाहर आ गए। पीछे पीछे भेरूदादा चप्पल लेकर दौड़ते--"बाई साब.... चप्पल पहन लो। पाँव जल जाएँगे। साबजी भी गुस्सा होंगे"।
"चप्पल तब पहनेंगे भेरूदादा.. जब आप भी हमारे साथ खेलोगे। मैं ठुनकती।
"बाई साब खेलूँगा... पहले थोड़ा काम करने दो..।"
लेकिन बालहठ तो बालहठ होता है। और भेरूदादा एक पाँव की लँगड़ी से हमारे साथ खेलना शुरू हो जाते। अचरज की बात थी कि हमें चप्पल पहनाने को दौड़ते भेरूदादा के पाँव में कभी चप्पल नहीं होती थी।
भेरूदादा की याद आती है तो अपने साथ और कई यादें ले आती है। घर में अभाव लेकिन चेहरे पर अमीरी, ऐसा भाव हम आज नौकरों में देख पाते हैं क्या ? और एक मिनट ...! उन्हें मैं नौकर क्यों कह रही हूँ ? वो तो भेरूदादा थे।
जी हाँ .., भेरूदादा को घर में कभी नौकर का दर्जा नहीं दिया। मुझे याद है मौसाजी जब उन्हें आवाज देते, भेरूजी कहकर आवाज देते थे। कितना सम्मान का भाव, तब शायद नौकर, नौकर नहीं, घर के एक सदस्य के समान ही होते थे। परिवार की जिम्मेदारियाँ उन पर भी थी। बच्चे-परिवार उनका भी था, लेकिन मौसी के परिवार के लिए उनका समर्पित भाव उन्हें इस घर का हिस्सा बना देता था।
जब यादों को खँगालने बैठती हूँ तो पाती हूँ कि वो घर का सबकुछ होने के साथ-साथ हमारे तो सखा भी थे। मुझे याद है खुरदुरी फर्शी पर पेम से अष्ट चंग पे के खांचे तैयार करना। इमली के चिंए निकाल करके उन्हें पानी डालकर फर्शी पर घिसकर पांसे तैयार करना। और घर में से ही अलग-अलग तरह की चीजें या बाहर अलग-अलग तरह के पत्थर निकाल करके गोटियाँ तैयार करना। ये सारे काम भी तो भेरूदादा ही करते थे और फिर हम बच्चों के साथ पूरी ईमानदारी के साथ अष्ट चंग पे खेलते और हम बच्चे पूरी बेईमानी से उन्हें हराने पर तुले रहते थे और मजे की बात ये है कि भेरूदादा हारकर भी खुश होते थे। ये तो फिल्म में अब कहते है कि जीतकर हारने वाले को बाजीगर कहते है लेकिन भेरूदादा तो इतने पुराने बाजीगर थे और हँसते-हँसते जीती हुई बाजी हार जाते थे।
भेरूदादा के काम सीमित नहीं थे बाहर साइकिल पर डब्बा लेकर कुल्फी वाला जाता और हमारे आवाज देते ही दौड़कर उनका जाना, खुल्ले पैसे जो कि मौसाजी उन्हें देकर रखते थे दो-चार आने.. वो ले करके हमारे लिए कुल्फी लाना, प्रेम से बिठाकर खिलाना और मुँह गंदा होने पर बकायदा गीले कपड़े से पोंछना...तब वेट टिशु कहाँ होते थे ...?
और शाम होते-होते यदि गर्मी का मौसम है तो बाहर ओटले पर पानी छींटना ताकि हमारे नन्हे पैर जलने से बच जाएँ। कहीं थोड़ी दूर तक घुमाने ले जाना ..ये सारे काम भी भेरूदादा खुशी-खुशी करते थे और रात को सोने से पहले कहानी सुनाना भी उन्हीं की तो जिम्मेदारी थी। कई बार छत पर तारों को देखते हुए वो तारों की, चाँद की कहानी सुनाते।
एक बिना पढ़ा-लिखा व्यक्ति इस तरह से कहानी बना लेता है, ये बातें अब समझ आती है और सम्मान के साथ-साथ उन पर आश्चर्य करने का मन करता है। कहाँ से ले आते थे वो इतने विचार? मुझे लगता है अब वो इतने विचार लाते तो क्या एक बड़े लेखक नहीं बन जाते? लेकिन सबकी अपनी नियति होती है। तो भेरूदादा बहुत सुंदर शब्दों में पिरोकर वो सब कहानियाँ सुनाते। उस वक्त तो समझ में नहीं आया, लेकिन अब जब उनकी सारी यादें समेटती हूँ..खंगालती हूँ..तो थैली में से निकले सिक्कों के भांति यादें खनखनाकर नीचे गिरती है, मैं उनको थाम लेती हूँ, उठा लेती हूँ सहेज लेती हूँ और पुन: डोरी वाली कपड़े की थैली में डाल देती हूँ.।
और अब जब मैं बड़ी हो गई हूँ, समझदार तो पता नहीं हुई कि नहीं; लेकिन बड़ी हो गई हूँ ,तो मुझे वह याद सामने आती है जब भेरूदादा का चेहरा आखिरी बार देखा था।वह अदब से हाथ बांधे मौसाजी के सामने खड़े थे ...घर जाने के लिए छुट्टी माँग रहे थे। मौसाजी अपने धीमे लेकिन रौबीले लहजे में उन्हें मना कर रहे थे-- "अभी नहीं होगा भेरूजी.. आपको पता है मैं दौरे पर जा रहा हूँ। तीन-चार दिन तो लग जाएँगे। तब तक आप को रुकना होगा।"
" साहब जी बच्चे की तबीयत ...
"हाँ .. हाँ ..भेरूजी..! हम समझते हैं। मौसाजी ने पूरी बात ही नहीं सुनी। "लेकिन तीन-चार दिन तो आपको निकालना होगे। वहाँ कुछ व्यवस्था करवा दो। हम दौरे पर से आते हैं तब आपको छुट्टी देंगे।" मानो फैसला सुना कर मौसाजी तो उठ गए थे। और भेरूदादा बिना अपराध के भी अपराधी के समान सिर झुकाकर खड़े थे। अब समझ में आता है कि गरीब होना भी तो अपराध नहीं था...?
तब इतनी समझ नहीं थी कि भेरूदादा की उस बात की गंभीरता क्या थी..।
मौसाजी के दौरे पर से आते ही भाई मुझे लेने आ गए थे और मैं वापस मंदसौर चली गई। उस दिन के बाद से भेरूदादा नजर नहीं आए। तब इतनी समझ भी नहीं थी कि उस दिन के बाद क्या हुआ.. पूछा जाए। खेलकूद के दिन थे तो धमाचौकड़ी ही सूझती थी। अगली बार धार गई तो नई केयरटेकर गीता भाभी थी।
लेकिन अब याद करती हूँ तो भेरूदादा का वह आखरी बार देखा चेहरा जेहन में आ जाता है।
और अब.. जब मैं शायद समझदार हो गई हूँ , तो सोचती हूँ कि क्या वह देर होने पर भी समय रहते अपने घर पहुँच पाए होंगे..? क्या उनका बच्चा ठीक होगा..? बेतुके सवाल पूछ -पूछ भेरूदादा का माथा खाने वाली मैं इतनी छोटी क्यों थी कि घर के बड़ों से सवाल नहीं कर पाई.. ? वह सब यादें और चेहरे अभी भी मेरे घर की दीवारों के आलियों में क्यों सजे हुए हैं...? पता नहीं ..!
भेरूदादा हमारे मौसाजी के परिवार के लिए समर्पित थे, उनके परिवार के लिए कौन समर्पित रहता होगा...?
सम्पर्कः 1432/24, नंदानगर, इन्दौर- 452011, मो. 930031812
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