पुस्तकः तुम हो मुझमें (नवगीत-संग्रह) : रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’, वर्ष 2023, पृष्ठ: 144, मूल्य: 400 रुपये, आईएसबीएन-978-93-94221-73-4, अयन प्रकाशन, जे-19 / 39, राजापुरी, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
कविता आत्मा का नाद है- वह आवाज है, जो काल की सीमाओं से परे, अनुभूतियों के सबसे कोमल हिस्सों को स्पर्श करती है। जब कविता केवल अभिव्यक्ति नहीं, आत्मा की तापमयी यात्रा बन जाती है और नवगीत केवल लय नहीं,; बल्कि जीवन के धूप-छाँव में सुलगते सचों की अनुभूति बनकर पाठक के अंतस्तल में उतरने लगते हैं, तब वह सृजन एक साधना का रूप ले लेता है। रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जी का नवगीत संग्रह ‘तुम हो मुझ में’ इसी आत्मीय संस्पर्श की काव्यात्मक परिणति है, जहाँ प्रत्येक शब्द अपने भीतर एक सम्पूर्ण जीवन संवाद लिये हुए हैं। यह काव्य मात्र नहीं,; बल्कि कवि के अंतर-जगत् की वह झलक है, जो पाठक को न केवल स्पर्श करती है,; बल्कि उसे भीतर से खोलती भी है। ‘हिमांशु’ जी का यह संग्रह इसी साधना का जीवंत, संवेदनशील और समय संवेदन से ओतप्रोत साक्षात्कार है।
इस संग्रह को पढ़ते हुए लगता है कि हम किसी आत्मीय व्यक्ति के साथ बैठे हैं, जो अपने जीवन की सबसे गूढ़ अनुभूतियों को हमारे सम्मुख बिना किसी कृत्रिमता के रख रहे हैं। बिना किसी कलात्मक चमत्कार और काव्य नाटकीयता के, एक अपूर्व सम्मोहन के साथ, जो पूरे काव्य संग्रह में व्याप्त है। इस संग्रह को पढ़ना, मानो किसी झरते हुए आँसू में झाँकना है, किसी टूटे हुए पल में साँस लेना है, किसी उजड़ती हुई राह में सिसकती उम्मीद की लौ को पहचाना है। ‘तुम हो मुझ में’ एक शीर्षक मात्र नहीं है, यह एक प्रतीक है, उस समस्त मानवीय जिजीविषा का, जो टूटती है, बिखरती है, छलती है, फिर भी पुनः उठ खड़ी होती है -प्रार्थना की तरह, रुदन की तरह, मौन की तरह।
इन नवगीतों को पढ़ते हुए अनुभूति होती है कि यह कवि मात्र शब्दों से नहीं रचते वह तो अपने जीवन की अनुभूतियों को, अपने समय की विद्रूपताओं को और हृदय की शिराओं में बहती आशा -अश्रु की नदी को लेकर शब्दों के माध्यम से संवेदना की धुन रचते हैं। एक धुन- जो कहीं विरह का गीत बनती है, कहीं प्रतिरोध की गूँज, कहीं मन की पीड़ा, कहीं प्रेमिका की प्रतीक्षा, कहीं श्रमिक की घुटन,कहीं प्रवासी की थकान और कहीं उस भारतीय आत्मा की अस्मिता जो तमाम व्यथा के बाद भी आशा की लौ थामे खड़ी है। इनके नवगीत में व्यथा है; लेकिन करुणा भी है विसंगति है; पर दिशा भी है, टूटन है, पर पुनर्निर्माण की संभावना भी। यह विरोधाभास ही इनके काव्य को गहराई देता है क्योंकि जीवन भी अंततः इन्हीं विरोधाभासों का संगम है।
‘हिमांशु’ जी के शब्दों में एक अनोखी आत्मीयता है। वह जब लिखते हैं, ‘तुम हो मुझ में’ तो यह शीर्षक में ‘तुम’ केवल कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। यह कभी समय होता है, कभी समाज, कभी चेतना और कभी खुद कवि का ही कोई अंश। यह ‘तुम’ पाठक भी हो सकता है जिससे कवि सीधे संवाद करता है, यही संवाद उन्हें एक शिक्षक के रूप में और भी प्रभावशाली बनाता है; क्योंकि शिक्षक केवल ज्ञान नहीं देता, वह अनुभव बाँटता है, वह भावों की थाली परोसता है। यह संग्रह ऐसे ही शिक्षक की लेखनी से निकली आत्मा की आवाज है, जो पाठक के मन को न केवल शिक्षित करती है; बल्कि संस्कारित भी करती है और संवेदना से मन का कोना-कोना सुवासित कर देती है।
कवि की भाषा कहीं मिट्टी की महक लिये हुए हैं कहीं खेतों में बहती हवा की तरह सरल और मन को छूने वाली, तो कहीं वह शहरी धुएँ और झूठ से जूझती आत्मा की गूँज बन जाती है। हर कविता के साथ एक गहरी करुणा बहती है - एक ऐसी करुणा जो केवल रुलाने के लिए नहीं; बल्कि भीतर कुछ तोड़कर फिर नया विश्वास बोने के लिए जन्म लेती है।
जलधारा /नहीं थी शीतल/ अपने पैरों के नीचे,
गर्म अश्रु से/ संकल्प सभी /अहर्निश हमने सींचे
ये साधारण पंक्तियाँ नहीं है। यह जीवन के उस मोड़ की स्वीकारोक्ति है, जहाँ आँसू हार का प्रतीक नहीं; बल्कि आत्मबोध और पुनर्नवा होने की प्रक्रिया बन जाते हैं। इनकी कविता किसी क्लिष्टता अथवा अबूझ दर्शन की माँग नहीं करती, इनका दर्शन तो जीवन के छोटे-छोटे संवेदनात्मक अनुभवों से बना है और यही इनकी भाषा को आत्मीयता प्रदान करती है।
‘हिमांशु’ जी भी जीवन के आलोक की बात करते हैं। यहाँ तक की अँधेरे में भी आस की गुंजाइश ढूँढ लेते हैं, यही नवगीत की शक्ति है, वह अँधेरे को नकारता नहीं, उसे स्वीकार कर, उसमें प्रकाश की खोज करता है-
बीत गया जो/ लेकर उसको/ आँसू कौन बहाए,
नए साल में/ नई आस की/ दुनिया एक बनाएँ
कविता का स्वरूप बदल रहा है। नई पीढ़ी के कवियों के लिए भी यह पुस्तक एक मार्गदर्शन है। यह दिखाती है कि किस प्रकार व्यक्तिगत अनुभव को सार्वभौमिक बनाया जा सकता है। ‘तुम हो मुझ में’ कोई घोषणा -पत्र नहीं, वह एक आंतरिक याचना है कि हम अपने भीतर के ‘तुम' को फिर से जानें-
गढ़ने दो सबको/ अपना असली चेहरा
खिलने दो श्वेत कमल -सा/ यह पावन अंतर्मन
जलने दो/ हर देहरी पर/ दीप नए
इनकी कविता में ‘पंख’, ‘पत्थर’, ‘धूप’, ‘नागफनी’, ‘अधजला गीत’ जैसे प्रतीकों का प्रयोग केवल रूपक नहीं; बल्कि विचार की परतें खोलने वाले औजार हैं। जब वे कहते हैं-
जब तक पंखों में ताकत है/ दूर देश तक जाना
बाट देखता जब तक कोई/ तब तक वापस आना।
यह उड़ान केवल आकांक्षा नहीं, अनुभव से ऊपजी चेतना है, जहाँ उड़ना कठिन भी है और आवश्यक भी। साथ ही हर स्थिति में लौट आने का विश्वास कवि की जीवन में गहन आस्था का परिचायक है।
डूब गया तम की बाँहों में व्याकुल अंबर
ये कविताएँ, उस आंतरिक संत्रास को बयान करती हैं, जहाँ द्रष्टा न केवल भावनाओं से गुजरता है; बल्कि उन्हें जीता है, निगलता है, और अंततः आत्मा की वंशी से उसे नई धुन में ढाल देता है।
दुख में होकर/ निपट अकेले/ हम सब कुछ सहते हैं
आज का आदमी आंतरिक रूप से इतना अकेला क्यों है? उत्तर मिलता है - जानोगे तुम कैसी होती/ मन की व्याकुलता है
पता तभी तो चल पाता है/ जब कोई छलता है
यह ‘छल’ केवल व्यक्तिगत नहीं है- वह व्यवस्था का है, समाज का है, संबंधों का है और उस तमाम कथित नैतिकता का है जो केवल मुखौटों के लिए रची गई है। आप इन नवगीतों में इस ‘छल संसार’ का कोई क्रूर चित्रण नहीं करते, जैसा है, वैसा ही सामने रख देते हैं- लो पोथियाँ हमने/ पुरानी ताक पर रख दीं
- यह सिर्फ अतीत को समेटने की बात नहीं है, यह उस सांस्कृतिक विस्थापन का संकेत है, जहाँ इतिहास की धूल हटाकर हमने आधुनिकता का आवरण पहन लिया है, बिना यह समझे कि हमने क्या खोया। यह नवगीत इतिहास, स्मृति, और आधुनिक बोध का एक साथ समांतर पुल बनाता है, जहाँ ‘संन्यास’ की चर्चा केवल दार्शनिक विमर्श नहीं रह जाती, वह एक सामाजिक निस्संगता की स्वीकृति बन जाती है।
खड़े जहाँ पर ठूँठ/ कभी यहाँ/ पेड़ हुआ करते थे
- यह एक व्यंग्यात्मक नवगीत है, जो आज के राजनीतिक, सामाजिक विमर्शों की खोखलेपन और कुतर्कों की दुर्गंध को उजागर करता है। कवि यहाँ अनुभूत कर रहा है, उसे हमारी अनुभूति का हिस्सा बना रहा है। अपने आप में इतना मार्मिक है कि पाठक थम जाता है। भीतर कोई दरवाजा खुलता है, जिसमें कवि की कर्मठता और इच्छाशक्ति पाठक को आस्थावान बना देती थी। यह नवगीत- संग्रह केवल काव्य का अनुभव नहीं है, यह मौन का भाष्य है। एक ऐसा भाष्य, जो केवल कवि की संवेदना नहीं, बल्कि हम सबकी गुम हो रही मानवीयता का दर्पण है-
दर्द का क्या/ नदी सा एक दिन बह जाएगा
और पीछे सिर्फ कुछ/ रेत ही रह जाएगा।
‘हिमांशु’ जी की यह काव्य-यात्रा केवल रचनात्मक दक्षता का परिचय नहीं; बल्कि संवेदना की प्रामाणिकता का साक्ष्य है। आपके शब्दों में-
तिनका -तिनका लाकर चिड़िया/रचती है आवास नया।
इसी तरह से रच जाता है /सर्जन का आकाश नया।
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