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Jun 1, 2025

कहानीः आशा की दूसरी किरण

  - ज्योतिर्मयी  पन्त 

आज देवयानी का पत्र मिला। अपार ख़ुशी हुई। एक तो इस जमानें में जब पत्रों का आदान -प्रदान लुप्त सा हो रहा है तो कोई पत्र लिख भेजे तो प्रसन्नता का विषय है ही।दूसरा दो साल पहले  देवयानी पर दुखों का जो पहाड़ टूट पड़ा था। उससे शायद अब वह उबरने लगी थी। एक अजीब मनस्थिति में मैंने उसका पत्र खोला। पत्र खोल कर पढ़ने के बीच ही पिछली बातें एक झंझावात की तरह मन डुला गयीं और आँखों में आँसुओं के बादल से घिर आए। आँचल में उन्हें समेट  पत्र पढ़ना आरम्भ किया। 

      औपचारिक कुशल-क्षेम के बाद लिखा था। ‘आज  जो लिख रही हूँ। मुझे स्वयं ही यकीन नहीं आ रहा है कि यह सच है। पर तुमसे कुछ  छिपा भी तो नहीं। तीन बेटियों  के साथ अकेले किस तरह मैंने जीवन बिताया। जब भरी जवानी में ही पति अचानक ईश्वर को प्रिय हो गए। तीनों को माँ -बाप दोनों का प्यार और सहारा देकर बड़ा किया। उन्हें उनकी इच्छानुसार पढ़ा लिखा कर आत्म निर्भर बनाया ।अपनी   इस छोटी सी दुनिया में संतुष्ट हो गई थी ।तभी किसी रिश्तेदार ने बड़ी बेटी आशा का रिश्ता पक्का किया था ।लड़का  अनिकेत अच्छे खानदान का था ।पढ़ा लिखा था। किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में अच्छे पद पर काम कर रहा था ।दोनों ने मिलकर एक दूसरे को पसंद भी कर लिया था। हर तरह से सुयोग्य जान कर सगाई निश्चित की थी। फिर जो हुआ ....तुम भी साक्षी रही थी ....’ 

    यहाँ से आगे पढ़ने से पूर्व वे सारी  बातें आँखों के सामने एक बार फिर उपस्थित हो गयीं ....हाँ सच ही तो है सगाई का समाचार और आमंत्रण पाकर  वह दो दिन पहले ही पहुँच गई थी। उसकी बचपन की सहेली की बेटी की सगाई थी न। घर में खुशियाँ   छलक रही थीं। देवयानी ने बहुत अच्छी तैयारी कर रखी  थी। बड़े सौभाग्य से यह दिन आया था। शुभ मुहूर्त पर अँगूठियाँ एक दूसरे को पहनाई गई। नाच -गाना, खाना पीना। हँसी खुशी संपन्न  हो गया। लड़के के घरवाले खुश होकर लौटे और शादी की तारीख निश्चित कर शीघ्र ही नए रिश्ते जोड़ने वाले थे। लड़का एक दिन के लिए और रुक गया था। उसे वहीं से अगले दिन चेन्नई जाना था। पूरा दिन दोनों को साथ बिताने,घूमने और खरीदारी करने  का मौका मिल गया था। अनिकेत सभी से मिलकर विदा हुआ ।पर किसी को यह आभास नहीं था कि यह विदाई अंतिम विदाई हो रही है ।सभी देर रात तक जगे बतियाते रहे थे। सुबह उस दिन रौशनी लेकर नहीं घोर अंधकार लेकर आई। टी.वी. पर प्रमुख समाचार ही उस ट्रेन के हादसे का था। सभी हक्के- बक्के से हो गए थे और दोपहर होते- होते तो सारी दुनिया ही  लुट गई थी। ट्रेन की भयानक टक्कर हुई थी सामने आती हुई ट्रेन से और कई लोगों की मृत्यु तो घटनास्थल पर ही हो चुकी थी। देवयानी को भी अनिकेत के घर से दुखद समाचार मिला। वह आशा  को लेकर तुरंत ही चेन्नई को रवाना हो गई घायलों को वहीं के अस्पताल में दाखिल किया गया था। मुझे उसके वापस लौटने तक वहीं रुकना पड़ा ।दोनों बेटियों  और घर की देख-रेख के लिए। जो ख़ुशी दो दिन पहले सारे घर को गुंजायमान किए  थी वहाँ अब मौत का सा सन्नाटा छाया था ।दो दिन के बाद ही अनिकेत सबको रोता बिलखता छोड़ कर चला गया। देवयानी आशा को लेकर लौट तो आई थी; पर लगता था आशा कही खो गई थी। एकदम सुन्न और  पत्थर की मूर्ति सी। जैसे किसी और ही दुनिया में हो।न तो वह खुल कर रो ही सकती थी न अपने मन की बात कह सकती थी। 

  देवयानी ने ही बताया था  ऐसे दुःख के समय क्या बात हो सकती थी ? सभी अवाक् हो गए थे। आँखों में आँसू ...स्वप्न- सा सब कुछ हुआ ...समझ से परे। सभी दुर्भाग्य को कोस रहे थे ।क्या चाहा क्या हो गया? पर अनिकेत की दादी और चाची  ने सारा दोष आशा के माथे मढ़ दिया। ऐसी लड़की जिसने घर में कदम भी न रखे, सिर्फ सम्बन्ध जोड़ने भर से घर का चिराग बुझा दिया। सभी को अंधकार के कुएँ में धकेल दिया। कितनी अपशकुनी ....दुःख की अवस्था में उन्होंने जो कहा वह तो फिर भी सुना जा सकता था। उनकी मानसिक अवस्था विवेक शून्य थी। लेकिन अपने ही सगे, रिश्तेदार, और आस-पास के लोग ...कभी मुखरित हो कर तो कभी इशारों में यही सब दोहराने लगे, तो केवल आशा ही नहीं उसकी दोनों बहनें भी एक अजीब सी स्थिति का सामना करने हो मजबूर सी हो गईं। अब आशा के दुर्भाग्य को लेकर उसकी बहनों के लिए जो रिश्ते आने लगे थे- एक-एक कर गुम से हो गए ।

आशा अब घर से बाहर निकलना ही नहीं चाहती। वह भी अपने आपको ही दोषी समझने लगी। सगाई की अँगूठी बहुत मुश्किल से ही उतारी थी। देवयानी ने आगे लिखा था ... ‘‘ऐसी स्थिति से गुज़र रही थी मैं की क्या बताऊँ? अपने सारे दुःख भूलकर मैंने इन्हें सम्हाला था …सारी उम्र। तब ये छोटी थी बातें मान जाती पर अब इनको समझाना दिन पर दिन कठिन हो रहा था। हर समय उदासी के बादल घिरे रहते। हँसी- ख़ुशी तो इस घर का रास्ता ही भूल गई।’‘ 

  दो साल से अधिक समय होने को आया पर हमारा समय जैसे वहीं स्थगित हो गया। एक दिन बड़ी हिम्मत से सोच  कि  जो भेंट- उपहार -गहने आशा को मिले थे। उनका क्या करें ? घर में रख कर भी पुरानी यादें जब-तब मन व्यथित कर देती ।वापस देना ठीक होगा कि नहीं? चुपचाप रख लेना भी ठीक नहीं। उनसे कहते भी न बनता था और न  कहना  भी। तब छोटी बिटिया रेनू ने  हिम्मत कर एक दिन अनिकेत की माँ कालिंदी जी से फोन पर बात करने की जिद की। उसने कहा ‘‘नाराज़ ही तो होंगे फिर से भला-बुरा सुनाएँगे ….सुन लेंगे कोई बात नहीं पर कहीं उन्होंने गहने -उपहार हड़प लेने  जैसी बातें मन में सोच रखी होंगी तो उनसे तो हमें छुटकारा मिलेगा …दुविधा में दिल पर बोझ लादने का क्या फायदा? रेनू की बात भी सही लगी। अब मिलजुलकर ही हमें हर हाल का सामना करना था। बहुत असमंजस से घिर कर डरते -घबराते एक दिन फोन कर ही दिया। कालिंदी जी तो रोती  रहीं  पता नहीं उन्होंने बात ठीक ढंग से सुनी भी या नहीं? सबके हाल पूछकर बोली …कुछ दिनों बाद  वे स्वयं  ही आएँगी , आने की सूचना भी पहले दे देंगी। कोई चिंता की बात नहीं। 

 कालिंदी  जी ने निश्चिन्त रहने को कह तो दिया पर उस दिन से चिंताएँ और बढ़ गईं। अब अगर कहती तो सामान हमीं दे आते …खुद ही आ रही हैं …क्या कहेंगी ? कहीं गहने उपहार में कोई कमी तो नहीं निकाल देंगी ।सब कुछ तो वैसे का वैसा ही है खोला ही कहाँ ? हे ईश्वर ! क्या क्या देखना सुनना बाकी है किस्मत में ? 

लगभग एक महीने बाद एक दिन फोन बज ही उठा। कौन उठाकर सुनने की हिम्मत जुटाए? इसी ऊहापोह में कोई न उठा सका …अब और चिंता न उठा पाने से …दुबारा करें या प्रतीक्षा करें ? एक दूसरे से आँखों से ही पूछ रहे थे। सभी की आवाज़ अवरुद्ध सी हो गई थी। तभी फिर घंटी  बज उठी ।मैं ने ही उठाया। आरंभिक औपचारिकता के बाद माफ़ी भी माँग ली। कालिंदी जी ने बताया कि वह अगले दिन ग्यारह बजे पहुँच जाएँगी। सभी लोग घर पर ही मिलें तो ख़ुशी होगी। स्वागत की तैयारी रखें। इस ‘आदेश’ को सुनकर हम सब और घबरा गए। स्वागत तो वैसे भी करते ही ....तो कहने की क्या आवश्यकता थी ? खैर अब जो होगा, धैर्य रख कर निभाना होगा। 

जो भी हो आज सुबह से फिर घर में थोड़ी हलचल होने लगी। सभी जैसे किसी सपने से जागे हों। हर तरह से तैयारी में लग गए। बार-बार नज़रें घड़ी की ओर जाती। शायद सबके मन में पिछली बार की तैयारियों की याद भी ताज़ा हो उठती थी; क्योंकि बीच -बीच में अचानक कुछ बात शुरू सी होती और एकदम ख़त्म भी हो जाती। ग्यारह बजते ही जैसे सबके कान बाहर दरवाज़े पर चिपक गए। थोड़ी ही देर में घंटी बजी। बेटियों को मैंने अन्दर जाने को कहा। दरवाजा खोल कर उनका स्वागत किया। कालिंदी जी गले मिल कर प्रेम से मिली तो मन एकदम हल्का सा हो गया। उनके साथ उनका छोटा बेटा अभिनव था उसने आदर से पैर छुए उसे आशीष दे अन्दर ले आई, बिठाया। रेनू से पानी लेकर आने को कहा। रेनू पानी ले आई। उसने कालिंदी जी के पग छुए और अभिनव को नमस्कार कर जाने ही लगी कि कालिंदी ने उसका हाथ थाम अपने पास बिठा लिया ।

 मैं चाय-नाश्ते के लिए रसोई में जाने ही लगी कि वे बोलीं ....अरे जल्दी क्या है? आराम से पिऊँगी चाय। आशा और तारा कहाँ हैं क्या घर पर नहीं? 

दोनों को  पुकारती हुई मैं चाय लेने चली ही गई। बाद में तारा और आशा  को  चाय नाश्ता लाने को कह मैं वापस आ गई। बैठते ही सोच रही थी  कि बात कहाँ से शुरू हो? फिर पिछली दुर्घटना से ही बात शुरू की। सांत्वना देते हुए भाग्य, होनी, बुरा समय ....था ....असहाय होते हैं सभी ऐसे वक्त में ....और न जाने क्या -क्या उसे खुद भी नहीं मालूम ....थोड़ी देर में दोनों ही गले मिलकर इतना रोईं  कि सभी की आँखों से आँसू बहने लगे। 

       तारा तब तक चाय ले आई थी। कालिंदी जी ने पहले पानी पिया। तारा को भी अपने पास बैठने को कहा। तभी आशा नाश्ता लेकर आ गई। मेज पर ट्रे  रख उसने डरते- डरते कालिंदी के पैर छुए। कालिंदी जी एक झटके में उठ  खड़ी हुई । सभी अचकचा से गए ....अब न जाने क्या हो? उन्होंने आशा को गले लगा लिया। और इतनी जोर-जोर से रोने लगीं। किसी को समझ में नहीं आ रहा था। क्या करें। क्या हुआ? और आशा भी मानों उनका पूरा साथ दे रही थी। वह भी उतनी ही जोर से चीखें मारकर रोने लगी। रो-रोकर जब मन थोड़ा आश्वस्त हुआ तब कालिंदी जी ने उसे अपने पास बिठा लिया। कुछ देर एक चुप्पी सी छा गई। कोई कुछ बोल ही नहीं सका। तभी कालिंदी जी ने कहा ....चाय ठंडी हो गई ....जल्दी पियो ...लो ....कह प्याला उठाने लगीं, सभी उनका अनुसरण- सा करने लगे। चाय पीते हुए उन्होंने सभी के हालचाल पूछे। फिर अचानक ही बड़ी गंभीर- सी हो गई। बोलीं देवयानी जी ! मुझे आपसे बहुत गंभीर बात करनी है ....सुनते ही मेरे पसीने छूटने लगे ....वह कहती जा रही थीं ....पर मेरी बात सभी एक साथ सुनें; इसीलिए मैंने सब को घर पर रहने की बात की थी ....फिर सोच-विचारकर जो भी फैसला हो ....मिलजुलकर आपसी सहमति से हो।

बात ये है कि मेरे साथ ....या कहों कि हमारे साथ जो होना था हो गया ....भरी जवानी में बेटा चल दिया ....इससे बड़ा दुःख और क्या होगा ? आपकी बेटी के सपने चकनाचूर हो गए, पर इसमें किसी  को दोष कैसे दें? पर ये समाज भी हमारा ही है। कहने सुनने वाले भी हमीं हैं। लोगों ने तो कहना था सो कह दिया  इससे भला क्या होगा ? पर बुरा ज़रूर हो जाता है। अब देखिए  जिस लड़की को हमने सब तरह से योग्य और गुणी समझकर अपने घर की लक्ष्मी बनाना चाहा वही आज अपशकुनों का घर समझी जा रही है ।और तो और उसकी बहनों पर भी बिना कारण लांछन लगाए जा रहे हैं। ऐसे में आपकी तकलीफ समझ सकती हूँ। हमारे भाग्य में यह दुःख साझा करना है। अगर सगाई से पहले यह होता तो? क्या तब भी आशा दोषी होती? अब जो मैं चाहती हूँ सुनिए ....सब कुछ पहले सा हो सकता है ....मैंने तो अभिनव को मना लिया है ....अब अगर आशा और आप भी साथ दें तो बात बन सकती है ....इन दोनों के गठ-बंधन से हमारे रिश्ते फिर जुड़ जाएँगे ....सभी मंत्रमुग्ध से सुन रहे थे ....रेनू और  तारा को भी बात ठीक लग रही थी पर आशा ....क्या इस बात पर राज़ी होगी ? असली बात तो अब उसके हाथ में थी क्या वह ये समझौता कर पाएगी ? कालिंदी जी ने कहा ....और कुछ देखना- सुनना तो है ही नहीं ....सब कुछ वैसा ही है सिर्फ  ....अनिकेत की  जगह  ....कहती हुई वे फिर सुबकने लगीं। चाहो तो ये दोनों आपस में बातें कर लें। घर में या कहीं बाहर जाकर ....सभी एक दूसरे को देखने लगे। तभी आशा अपनी जगह से उठ खड़ी हुई, लगा वह अपने कमरे में जाकर फिर रोएगी ....आज पहली बार वह रोई थी ....तभी लगा था उसमें संवेदनाएँ बाकी हैं वर्ना पूरे साल भर से वह एक जिन्दा लाश सी हो गई थी। बस काम से काम। न हँसना न बातें करना। आशा अपने कमरे में चली गई। सभी चुप बैठे रहे। क्या ये विषय गलत समय पर तो उपस्थित नहीं हुआ ? पहले आशा को अकेले में पूछकर उसका मन टटोलना उचित नहीं होता? सभी के मन अलग-अलग प्रश्नों में उलझे हुए थे। बहुत देर की शांति के बाद कालिंदी जी ही कहने लगी ...देवयानी जी  मैंने तो अपनी मन की बात आपसे कह दी। हमारी वजह से आशा का जीवन मुश्किलों से भर गया है। अनिकेत की भी यही इच्छा थी और अंतिम समय में इसी के सपने लेकर गया होगा। जो हुआ उसे हम बदल तो नहीं सकते पर कुछ कोशिश तो कर ही सकते हैं भावी जीवन के लिए। अब सारा जीवन रोकर ही नहीं बिताया जा सकता न? चलो मन की बातें कर जी हल्का तो हुआ आज …मेरे मन में आपसे ये बात करने की इच्छा कई बार हुई थी पर साहस नहीं जुटा पाई। उस दिन जब आपने  सामान लौटाने की बात की तभी मन में ये ख़याल आया  कि सिर्फ सामान ही क्यों  हमारी एक बहुमूल्य अमानत और भी है आपके घर में। …अगर सभी साथ में मिल जाए तो? इसीलिए मैंने यहाँ आने की बात कही थी। टेलीफोन  पर सब बातें नहीं की जा सकती थी। अब आशा जो भी ठीक समझे उसे  अपने जीवन का फैसला स्वयं करना है हम अपनी रुचि, राय …उस पर नहीं थोप सकते, वह अच्छी तरह सोच विचार कर ले …फैसला कर ले। तब आप हमें सूचित कर सकती हैं। अब चलना चाहिए।  तभी तारा ने कहा आंटी। अभी कैसे जा सकती हैं आप ?दोपहर के भोजन का समय है। आपकी ट्रेन तो रात को जाती है। अतः आप थोड़ा आराम करें फिर भोजन। इतनी जल्दी क्यों ? 

   रेनू और तारा को लेकर मैं रसोई में गई। एक बार चाय और हो तो अच्छा  रेनू  चलो ...यह कहकर चल दी। मन में यह भी जानने की उत्कंठा थी कि आशा  क्या कर रही  होगी ? पर अपने को रोक लिया अगर आशा ने कुछ कह दिया तो स्थिति ख़राब हो सकती है। अच्छा तो यही होगा कि इनके जाने के बाद ही बात की जाए। उसे कुछ देर अकेले ही रहने देना बेहतर होगा। चाय और खाना निबट गया तो उन दोनों को  आराम करने को कह दिया। अभिनव ने अपने किसी मित्र से मिलने के लिए जाने की बात की और चला गया । 

   शाम होने से पहले आशा ने रसोई में आकर ही भोजन किया और... ‘‘माँ मुझे कुछ कहना है’ …कहकर उसने मेरे हाथ पकड़ लिये। आँखों में आँसू तैर रहे थे और हाथों में एक स्पंदन जिसे मैं महसूस कर सकती  थी। ‘‘शायद मुझे अभिनव से बात कर लेनी चाहिए  …अगर वह तैयार है तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं। अगर मुझे विवाह करना ही है, तो …रेनू और तारा के लिए भी …तो सोचना है। यही ठीक है। उसे जानती तो हूँ ही। पर जो सबसे बड़ी बात है वह है उनकी सोच …एक बेटा जो माँ की बात को शिरोधार्य करने को तत्पर है। दूसरी वह माँ …जो अपने दुःख को पीछे धकेल हमारे दुखों का  बोझ कम करने आई है। हम उनके बारे में क्या-क्या सोच रहे थे? ऐसी सोच रखने वाली महिला का साथ तो मैं वैसे भी देती। और इनसे तो पहले भी …जीवन भर साथ निभाने का वादा कर चुकी थी ।फिर वह तो मुझे बहू का ही स्थान देकर एक और अवसर दे रहीं हैं। मुझे लगता है मना करने से  उनका अपमान न हो जाए  …जिसकी याद मैंने अपने मन में बसा रखी है …उससे किए वादे  भुलाना भी ठीक नहीं …माँ! बताओ मैं क्या करूँ ? मैंने उसकी बात और विचार सुनकर शाबाशी दी और गले लगाया। रेनू और तारा को भी बुलाकर बात कर ली। शाम को कालिंदी जी और अभिनव से भी सारी बातें तय हो गईं। कालिंदी जी ने अपने घर पर फोन द्वारा यह शुभ सूचना दे दी। अगले पंद्रह  दिन बाद किसी मंदिर में सिर्फ घर के लोगों और शुभचिंतकों के सानिध्य में दोनों का विवाह होना है। ‘‘अगर तुम आओ तो अच्छा लगेगा ।’ 

 देवयानी का  पत्र पढ़कर मुझे जो ख़ुशी मिली उसका वर्णन करना तो कठिन है ही। पर मुझे कालिंदी जी से मिलने का मन हो आया। अपने दुःख को नगण्य समझकर जो दूसरों का हित सोच रही हैं, जिनकी विचार धारा सामान्य समाज की विचारधारा से बिलकुल अलग है। जो और लोगों के बहकावे में न आकर खुद की अलग पहचान रखती हैं। उनसे मिलने का अवसर मुझे नहीं गँवाना चाहिए।

सम्पर्कः ए 45 रीजेंसी पार्क-1, डी. एल.एफ़, फेज़- 4, गुड़गाँव, हरियाणा- 122002

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