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Nov 1, 2024

नवगीतः महानगर

  -   रमेश गौतम


गौरैया भी

एक घोंसला रखले

इतनी जगह छोड़ना

महानगर।


खड़े किए लोहे के पिंजरे

हत्या कर

हरियाली की,

इतने निर्मम हुए कि

गर्दन काटी

फिर खुशहाली की;


पहले प्यास बुझे

हिरनों की

तब अरण्य से नदी मोड़ना

महानगर।


माटी के आभूषण सारे

बेच रहे हैं सौदागर

गर्भवती

सरसों बेचारी

भटक  रही है अब दर–दर

गेहूँ–धान

कहीं बस जाएँ तो

खेतों की मेड़ तोड़ना

महानगर।


फसलों पर

बुलडोजर

डोले

सपने हुए हताहत सब

मूँग दले छाती पर

चढ़कर

बहुमंजिली इमारत अब

फुरसत मिले कभी तो

अपने पाप–पुण्य का

गणित जोड़ना

महानगर।


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